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________________ १७ इति प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३४ ॥ अर्थ: - हिंसादिक वितर्को छे तेना कृत, कारित, अने अनुमोदित ए ऋण प्रकार छे, लोभ, क्रोध अने मोहपूर्वक ए वितर्कोनी उत्पत्ति थाय छे. ए विकल्पना मृदु, मध्य, अधिमात्र एवा अवांतर भेद छे. उक्त विकल्प दुःख अने अज्ञानरूपी अनंत फळो उत्पन्न करे छे. एवी?रीतनी प्रतिपक्षभावना करवी ३४. ए अहिंसाथी जे फळ थाय छे. ते कहे छे. सूत्र ३५. अहिंसाप्रतिष्टायां तत्संन्निधौ वैरत्यागः || ३५ ॥ अर्थ - अहिंसा सिद्ध थवाथी ते मुनि पासे वैरनो त्याग थाय छे. आ यम नियम ते सांख्य, न्याय, वैशेषिक, अने बने मीमांसा ए शास्त्रोने संमत छे; एटलुंज नहीं पण सर्वे धर्मवाळाओने पण संमत छे. कोई पण धर्ममा आनो निषेध करेल जोवामां आवतो नथी. ते कोई शास्त्रमां पण आयम नियमनो निषेध नथी अने ते राजाथी ते चांडाल पर्यंत सर्वने मानवा तथा पाळवा योग्य छे. हवे ए अहिंसानुं लक्षण योगसूत्रपर व्यास भाष्य छे तेमां लखेल छे जे "तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूताना मनभिद्रोहः ॥ अर्थः- सर्व प्रकारे सर्वदा सर्व प्राणियोनो अद्रोह करवो ते अहिंसा छे. तथा याज्ञवल्क्य संहितामां कहेल छे जे "कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा, अक्लेशजननं प्रोक्तमहिंसात्वेन योगिभिः ॥ अर्थ - सर्वदा सर्व प्राणियोने जे मन वचन अने शरीर वडे क्लेशनी उत्पत्ति न करवी तेनुं नाम अहिंसा छे. तथा याज्ञवल्य स्मृतिना आचाराध्यायमां कहेल छे के अहिंसा सत्यमस्तेयं शौच मिंद्रियनिग्रहः । दानं दया दमः क्षान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनं ॥ अर्थ-अहिंसा, सत्य, चोरी न करवी, पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, परोपकार, दया, मननुं दमन, तथा क्षमा ए नव सर्वेने धर्मनां साधन छे. आ याज्ञवल्क्यना मतमां अत्रिसंहिता, विष्णुस्मृति, हारितस्मृति, औशनसस्मृति, अंगिरसस्मृति, यमस्मृति, आपस्तंबस्मृति, संवर्त्तस्मृति, कात्यायनस्मृति, बृहस्पतिस्मृति, पराशरस्मृति, व्याससंहिता, शंखसंहिता, लिखितसंहिता, दक्षसंहिता, गौतमसंहिता, शातातपसंहिता, वशिष्टसंहिता, पुलस्त्यस्मृति, बुधस्मृति अने कश्यपस्मृति जरा पण विरुद्ध नथी. यजुर्वेद श्रुतिः नतं धिदयिऽइमा जजा नान्य घुषम् क्रमंतरं बभूव, नीहारेण प्रावृता जल्प्या चा सु तृपऽउक्थशासश्चरंति ॥ अर्थ - ते परमेश्वरने आपणे जाणता नथी जे आ प्रजाओने उत्पन्न करे छे ( करता हवा ) कारण के तेने ने आपणे घणुं अंतर होतुं हवं. माटे ते परमेश्वरना रूपने जाण्या विना अज्ञानमां वींटाएला प्राणि बकवाद करे छे अने कहे छे के आवी रीतिये पशुओनी हिंसा करवाथी तथा मांस भक्षण करवा थकी अनेक जातनुं आ लोक तथा परलोकनुं सुख मळे छे. ए प्रमाणे बकवाद करे छे, ते केवळ कर्मजड छे. कांइपण धर्मने जाणता नथी. मिथ्या बकवाद करे छे. केनी पेठे के जेम मोटो वंटोळीओ आवेलो होय अने तेमां राख उडेली होय अने आंखो बुरायेली होय, कांई न जोइ शकतो होय, ने तेने पूछयुं होय के पूर्व दिशा कई ? त्यारे ते जेम जाण्या विना पश्चिम के दक्षिणने पूर्व कहे, तेम अज्ञानी मूर्ख पुरुषो हिंसा करवा थकी आ लोक परलोकनुं सुख मळे एम बकवाद करे छे. तेने शुं फळ मळे छे ते कहे छे के, केवळ नीच अवतारो वारंवार पामे छे. तथा श्रुतिः - अथ कुपूया चरणा अभ्यासो हयते कुपूयां योनि मापद्येरन् श्वयो ३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034575
Book TitlePashu Vadhna Sandarbhma Hindu Shastra Shu Kahe Che
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Shwetambar Conference
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year
Total Pages309
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Gujarati, Book_Devnagari, & Book_English
File Size24 MB
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