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________________ तुमकु संबन्ध मत होवे. यह भावना हृदयमें धारो जो है कछु नहीं. काहे तेजो कोसी. कर्ता करी हुवा नहीं. आत्मा सर्व इन्द्रियांते अतीत है. जडकी नाई भकर्ता रूप है तिसकु कर्ता कैसे कहीये. यह कहेना नहीं बनता. ये जगत जाल कुर आई है. सो. आभासरूप है. जो अकस्मात उपजाती सवीषे आसक्त होना क्या है. यह असत् भ्रांतिरूप है. इसमे आस्था मढबालक करते हैं. बुद्धिमानतो नहीं करते. खरूप ते कछु जगत उपजा नहीं और नासभी कछु होता नहीं निरंतर दृष्टिमें आता है. भज्ञान करके बारंबार भावना होतीहै. तोभी जगत कछु होवा नहीं, न पाछे होवेगा, न आगल होवेगा. तुम बिचार करके देखो जो अवस्थास्थान कहां जाते है, और कहां जाते है और कहां गये है तो तुम सब इंद्रियोंसे अतीत जो आत्मतत्त्व अकर्ता रूप है, तीसीमें स्थित होना. वास्तव ते जगत कछु बन्या नहीं आभास सत्तामे बन्या भासता है. तुमने आभास सत्तामें नित्यदृष्ट होना. जगत जैसे हुवा है तैसेई है. विपर्यय नहीं होता. जो जो तुम जगतकु असत्य जान्या और आपकुं सत्य जान्या तोभी जगतके पदार्थकी वांछा.. नहीं संभक्ती. और असत्यकुं असत्य-जो, भावना करनीका है. और जो आपकुं और जगतकुं सत्य जानतेहो तोभी वांछना नहीं संभवती: क्यों की, जो असत्य अद्वैत आत्मा है तिसके समीप कच्छु द्वैतवस्तु नहीं है. तुमतो एक अद्वैतहो. वांछा कीसकी करते होतो तुम कीसी पदार्थकी इच्छा अनीच्छा नहीं बनती है. हेयोपादेयेतर रहित केवल स्वस्थ होकर आपने स्थित होना. अर्थात् आप करी आपनी आराधना करो. आप करी आपणी अर्चना करो भाप करी आपकुं देखो. आपसे बिचारसे आपमें स्थित रहो. कैसा है आत्मतत्व जो सबका कर्ता है और सर्वदा अकर्ता है. कदाचित् कछु किया नहीं, उदासीन कोई नाई स्थित है. जैसे दीपक सर्व पदार्थोकू प्रकाश कर्ता है, और कीसीकी इच्छाद्वारा अर्थ सिद्ध करने निमित्त नहीं प्रवर्तता. स्वाभाविकही प्रकाशरूप है तैसे आत्मतत्व सबका कर्ता है. तिसका कर्ता कोई नहीं. जैसे सूर्य सबकी क्रियाकू सिद्ध करता है, और आप किसी क्रियाके आश्रय नहीं, क्यों कि जो आपही प्रकाशरूप है चलता है, और कदाचित् चलायमान नहीं भया. और जो सूर्यका प्रतिबिंब चलता भासता है. सो प्रतिबिंबका चलना . सूर्यमें नहीं, तैसे तुमारा स्वरूप आत्मा सदा अकर्ता अचल है, तिसमें स्थित होना. जे ना कछु जगत भासता है, तिसमे बिचारना परन्तु भावना करके इसमें बंधायमान नहीं होना. अर्थात्-बोलीये, चालीये, खावे, पीवे, दान देईये लईए. युद्ध करना हो तो करीए.' शन्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह जो पांच विषय इंद्रियो कही सो सब अंगिकार करीए. लेकीन इनके जाननेवाला जो. अनुभव आकाश है, तिसमें स्थित होना. तेरा स्वरूप वोही. चिदाकार है, तिसमे स्थित. होना. तेरा हे. राजा, यद्यपि प्रत्यक्ष आदि प्रमाण करके जगत् सत् भासता है तोमीही नहीं. स्वस्थ चित्त होकर आपकं, विचार, और आपने आपमे स्थित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034575
Book TitlePashu Vadhna Sandarbhma Hindu Shastra Shu Kahe Che
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Shwetambar Conference
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year
Total Pages309
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Gujarati, Book_Devnagari, & Book_English
File Size24 MB
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