Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जयशेखरसूरि विरचित
जैन कुमारसम्भव महाकाव्य
(हिन्दी अनुवाद सहित )
प्रकाशक
अनुवादक डॉ. रमेशचन्द जैन
प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर श्री आर्य-जय-कल्याण केन्द्र ट्रस्ट, मुंबई
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रधान सम्पादक साहित्य वाचस्पति म. विनयसागर
प्राकृत भारती पुष्प 143
10A
श्री जयशेखरसूरि विरचित जैन कुमारसम्भव महाकाव्य
(हिन्दी अनुवाद सहित)
अनुवादक डॉ० रमेशचन्द जैन
सम्पादक डॉ० अशोक कुमार जैन
प्रकाशक प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर श्री आर्य-जय-कल्याण केन्द्र ट्रस्ट, मुंबई
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर २६०० वाँ जन्म कल्याणक वर्षोत्सव के अवसर पर
प्रकाशक :
देवेन्द्र राज मेहता, संस्थापक एवं मुख्य संरक्षक प्राकृत भारती अकादमी १३ - ए, मेन मालवीय नगर
जयपुर
302017
दूरभाष : 2524827, 2524828
श्री आर्य - जय - कल्याण केन्द्र ट्रस्ट
श्री गौतम-नीति-गुणसागरसूरि जैन मेघ संस्कृति भवन,
१०३, मेघरत्न एपार्टमेंट
देरासर लेन, घाट कोपर (पूर्व )
मुंबई - 400 077
दूरभाष : 5021788
© सर्वाधिकार प्रकाशकाधान प्रथम संस्करण, 2003
मूल्य : 200.00
लेजर टाईप सैटिंग : राजावत कम्प्यूटर्स, जयपुर
मुद्रक : कमल प्रिन्टर्स,
जयपुर
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशकीय
महाकवि कालिदस का कुमारसंभव संस्कृत साहित्य की विश्रुत रचना है। जैनकुमारसंभव यद्यपि इसी रचना से प्रेरित है, किंतु जहाँ कालिदास की रचना में श्रृंगार रस की प्रधानता है, वहीं जयशेखरसूरि की रचना में वैराग्य रस का पुट उसे एक अनूठी दिशा देता है । शृंगार को कामुकता की दिशा में ले जाने के स्थान पर चौदहवीं शती का यह जैन रचनाकार वैराग्य की दिशा में ले जाता है।
कालिदास का कुमारसंभव पूर्णतः रसवादी जान पड़ता है। उसमें रघुवंश की भाँति किसी नैतिक व्यवस्था के दिग्दर्शन नहीं होते। जैनकुमारसंभव रसवादी तो है किन्तु साथ ही पूर्णत: नैतिक भी। इसमें यौवन की सरस क्रीडा के वर्णन के साथ ही ऋषभदेव के लोकोत्तर चरित्र को भी अभिव्यक्ति दी गई है । जहाँ कालिदास का कामदेव शिव के मन को जीतना चाहता है, वहीं जयशेखरसूरि का कामदेव ऐसी कामना नहीं करता।
जैसा नाम से विदित होता है यह एक कुमार के जन्म की संभावना का संकेतक महाकाव्य है। कुमारसंभव में जैसे कार्तिकेय के जन्म के आधार स्वरूप शिव का दाम्पत्य जीवन वर्णित है, वैसे ही जैनकुमारसंभव में भरत के जन्म के आधार स्वरूप ऋषभदेव का दाम्पत्य जीवन वर्णित है। घटना क्रम में अंतर यही है कि कुमारसंभव में कार्तिकेय के जन्म का भी वर्णन किया गया है, किन्तु जैनकुमारसंभव में संभावना तक ही वर्णन समाप्त हो जाता है।
रचनाकार श्री जयशेखरसूरि काव्य, साहित्य और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान थे। भाषा के लावण्य और अलंकारिकता में वे कालिदास के कितने निकट पहुंच पाए यह आलोचक विद्वानों की चर्चा का विषय है, किन्तु शृंगार से वैराग्य की ओर दृष्टिपात करने का यह साहित्यिक प्रयोग जैन परंपरा के साहित्य भण्डार की विशिष्ट शोभा अवश्य ही है। इस रचना पर श्री जयशेखरसूरि के शिष्य श्री धर्मशेखरगणि ने टीका लिखी थी। टीका के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये व्याकरण, कोष, रस, अलङ्कार छंदशास्त्र आदि के उद्भट विद्वान थे ।
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
उसी टीका के आधार पर डॉ० रमेशचन्द जैन, जैन दर्शनाचार्य, रीडर तथा अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, वर्द्धमान कॉलेज, बिजनोर ने जैनकुमारसंभव का यह हिन्दी अनुवाद किया है। समराइच्चकहा इत्यादि कई ग्रन्थों का आप हिन्दी अनुवाद कर चुके हैं। अनुवाद करने में सिद्धहस्त हैं। प्राचीन जैन वाङ्मय की ऐसी सुन्दर रचना को हिन्दी के पाठकों के लिए सुलभ करने का उनका यह प्रयास प्रशंसनीय है। इस अनुवाद का संशोधन डॉ० अशोकुमार जैन, प्रवक्ता, जैन विद्या एवं तुलनात्मक अध्ययन विभाग, जैन विश्व भारती लाडनूँ ने किया है । अतः हम दोनों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं।
अचलगच्छ जैन श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन गच्छों में से है। यह गच्छ लुप्त प्राय हो चला था, किन्तु शासक प्रभावक आचार्य श्री गुणसागरसूरिजी महाराज एवं उनके पट्टधर शिष्य आचार्य श्री कलाप्रभसागरसूरिजी महाराज के अथक प्रयासों से यह गच्छ पुनः अभ्युदय की ओर अग्रसर है। अपनी साहित्यिक अभिरुचि व गतिविधियों से आचार्य श्री कलाप्रभसागरसूरिजी महाराज धर्म- प्रसार में विशेष योगदान कर रहे हैं। आपके ही सदुपदेश से आर्य जय कल्याण केन्द्र, मुम्बई ने इस प्रकाशन में सह-प्रकाशक के रूप में सहयोग प्रदान किया है । हम इसके लिए हार्दिक आभार प्रकट करते हैं ।
अचलगच्छ की साध्वी डा० श्री मोक्षगुणाश्रीजी ने आचार्य जयशेखरसूरि तथा उनके कर्तृत्व पर एक विस्तृत शोध प्रबन्ध लिखा है जिसमें जैनकुमारसंभव के संबंध में विस्तृत चर्चा की गई है। पाठकों की सुविधा हेतु हमने वह चर्चा इस पुस्तक में संयोजित कर ली है। इसके लिए साध्वी श्री मोक्षगुणाश्रीजी के प्रति आभार प्रकट करते हैं।
आशा है सुधी पाठक इस पुस्तक को अत्यन्त रोचक तथा प्रेरणास्पद पाएंगे।
ट्रस्टी मण्डल
श्री आर्य -जय-कल्याण केन्द्र ट्रस्ट, मुंबई
देवेन्द्र राज मेहता
संस्थापक एवं मुख्य संरक्षक, जयपुर प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
१.
२.
३.
प्रस्तावना
जैनकुमारसम्भव : एक परिचय जैनकुमारसम्भव महाकाव्य सानुवाद
प्रथम सर्ग
द्वितीय सर्ग
तृतीय सर्ग
चतुर्थ सर्ग
पञ्चम सर्ग
१.
२.
३:
४.
५.
६:
षष्ठ सर्ग
सप्तम सर्ग
८.
अष्टम सर्ग
९.
नवम सर्ग
१०.
दशम सर्ग
११. एकादश सर्ग
७.
ॐ विषयानुक्रम
筑
परिशिष्ट
१. जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में आगत सूक्तियाँ जैनकुमारसम्भव काव्य के पद्यों का अकारानुक्रम
२.
ᄆ
X
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
VARANAINITAMANNRNAVRANAANARAARARIVARA
संस्थाकीय निवेदन श्री आर्य जय कल्याण केन्द्र प.पू.आ.भ.श्री कलाप्रभसागरसूरि जी महाराज साहब की प्रेरणा से जैन साहित्य के प्रकाशनार्थ इस संस्था की स्थापना वीर संवत् २०३० में की गई थी। उत्तरोतर विकास के पथ पर प्रयाण करती हुई इस संस्था को अचल गच्छाधिपति प.पू.आ.भ. एवं अन्य पूज्य भगवंतो के मंगल आशीर्वाद और मार्गदर्शन प्राप्त होते रहे हैं। तदुपरान्त इस संस्था को स्व. संघवी श्री लखमशी घेलाभाई सावला के परिवार की ओर से बम्बई में घाटकोपर (पूर्व) में मेघरत्न एपार्टमेन्ट की प्रथम मंजिल पर १०१ वर्ष की वयोवृद्ध माता श्री स्व. मेघबाई घेलाभाई पुनशी सावला की पुण्यस्मृति में 'मेघभवन' की जगह प्राप्त होने पर विशाल ज्ञान भंडार का प्रारम्भ भी किया गया है।
___ 'आर्य जय कल्याण केन्द्र' के नामाभिधान में अचलगच्छ के महान आचार्यों दादा गुरु श्री आर्यरक्षितसूरीश्वर जी म.सा., श्री जयसिंहसूरीश्वर जी म.सा., श्री जयशेखरसूरीश्वर जी म.सा., श्री जयकीर्तिसूरीश्वर जी म.सा., श्री जयकेशरीसूरीश्वर जी म.सा. तथा श्री कल्याणसागरसूरीश्वर जी म.सा. की स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं।
१०,००० ग्रन्थों के संग्रह से सम्पन्न इस संस्था द्वारा अभी तक १०० से अधिक प्रकाशन हो चुके हैं। तदुपरान्त प्राचीन और अर्वाचीन जैन शास्त्रीय ग्रंथ, शब्दकोश, साहित्यकोश प्रकाशन के अलावा हस्तलिखित प्रतियों एवं उनकी जेरोक्स नकलों का संग्रह, संशोधित पुनर्लेखन, संवर्धन आदि की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ विशाल स्तर पर की जा रही हैं।
समस्त संघों एवं साहित्यप्रेमी भविकजनों से इस सम्यक् ज्ञान की भक्ति में सहयोग देने की विनम्र अपील है। जय जिनेन्द्र !
निवेदक आर्य-जय-कल्याण केन्द्र
ट्रस्टी मंडल univerennnnnnnnnierereien Deininnnnnnnnninen
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
civisierendenciencinsinisisavininnivivivviciu
साहित्य दिवाकर पू.आ.भ. श्री कलाप्रभसागरसूरीश्वरजी म.सा. के मार्गदर्शन से श्री आर्य-जय-कल्याण केन्द्रट्रस्ट द्वारा
प्रकाशित ग्रन्थों की सूची
__(गुजराती साहित्य) १. भगवान् श्री महावीरदेव जीवन-सौरभ २. भगवान् श्री महावीरदेव स्मृति-ग्रंथ ३. परभवनुं भातु (विविध वैराग्यादि वांचन)
वीश स्थानकादि तपविधि पुंज (तपविधि) ५. श्री शुकराज चरित्रं-संस्कृत (प्रत) ६. चंद्रधवलभूप धर्मदत चरित्रं-संस्कृत (प्रत)
विरती का सरलमार्ग (१४ नियम) पॉकेट बुक ८. हृदयवीणाना तारे-तारे (प्राचीन स्तवनावलि) ९. मलयासुंदरी चरित्रं-संस्कृत (प्रत) १०. गुरु-गुण गीत गुंजन (प्राचीन नवीन गहूंलीओ) ११. दिव्य जीवन जीववानी चाबीओ (१०१ नियम) पॉकेट बुक १२. चतुर्विंशति जिनस्तोत्राणि-सानुवाद (जिन भक्ति) १३. तपथी नाशे विकार ('पॉकेट बुक) १४. आर्यरक्षित जैन पंचांग (सं. २०३५) १५. कामदेव चरित्र मूळ अनुवाद (संस्कृत-गुजराती प्रत) १६. जैन शासनमां अचलगच्छनो दिव्य प्रकाश (पट्टावलि) १७. कामदेव चरित्र-गुजराती अनुवाद (प्रत) १८. अचलगच्छनी अस्मिता (आर्यरक्षितसूरि) १९. अचलगन्छनां ज्योतिर्धर (जयसिंहसूरि) २०. अचलगच्छनां दीपक (महेन्द्रप्रभसूरि) २१. अचलगच्छनां मंत्र प्रभावक (मेरुतुंगसूरि) viviviviviviivanvivivivici privindinivivivivivivienu
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
खा)
wrivindinisieviennonvivivivisiesiesverversoreries २२. अचलगच्छनां क्रियोद्धारक (धर्ममूर्तिसूरि) २३. अचलगच्छनी प्रतिभा (कल्याणसागरसूरि) २४. अचलगच्छनां समुद्धारक (गौतमसागरसूरि) २५. जीवन- अमृत (तत्त्वज्ञाननां लेखो) २६. लिंग-निर्णय ग्रंथ (मूळ व्याकरणनां अंग विषयक) २७. लिंग-निर्णय संस्कृत शब्दकोश परिशिष्टादि सह (व्याकरणनो अंग) २८. षड् दर्शन निर्णय सानुवाद ( मेरुतुंगसूरिकृत) २९. समरो महामंत्र नवकार ३०. भोज-व्याकरणम्-अनुवाद विवरण सहित ३१. विद्वचिंतामणि-पद्यबद्ध ३२. खिला फूल फैल गई सौरभ ३३. बारसासूत्र सचित्रं-मूळ ३४. मारे जावू पेले पार ३५. पर्युषण स्वाध्याय ३६. फटाकडा फोडी भरोनां पापझोली ३७. रेडी वन टु थ्री ३८. जैन कथा संदोह-भाग १ ३९. अहं न करियो कोय ४०. होठे गुंजे गीत-हैये प्रभुनी प्रीत ४१. श्री जयशेखरसूरि भाग-१ (पी.एच.डी. महानिबंध) ४२. श्री जयशेखरसूरि भाग-२ (पी.एच.डी. महानिबंध) ४३. चालो जिनालयनी वर्षगांठ उजवीओ ४४. अचलगच्छनी प्रतिभा (संक्षिप्त पट्टावलि) ४५. पुरुषार्थनी प्रेरणामूर्ति ४६. जंबुस्वामि चरित्र-प्रताकार (जयशेखरसूरिकृत पद्य)
vinununununurinn l
ivsviniriningarvinnvierno
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
vriendinnenvonnenviernonnunninnnnnnnnnnnnnnn ४७. जंबुस्वामि चरित्र-प्रताकार (भाषांतर) ४८. त्रिभुवन दीपक प्रबंध-अक अध्ययन ४९. छरी महासंघोनो स्मृतिग्रंथ (सचित्र) ५०. स्वस्तिक गुणकलादर्शन (सचित्र) ५१. क्षमायात्रा ५२ से ६२. बार पर्व कथानी ११ बुक अनुवाद ६३. बार पर्व कथा गुर्जर भाषांतर भाग-१ (संयुक्त बुक) ६४. चेम्बुर चातुर्मास स्मरणिका (२०४६) ६५. सागर दीर्छ साकर मीठे ६६. हैये करजो वास ६७. जीवतत्त्व प्रवेशिका ६८. मन तुं नम ६९. तुं मोरे मनमें तुं मेरे दिलमें ७०. तुं प्रभु मारो, हुं प्रभु तारो भाग-१ ७१. तुं प्रभु मारो, हुं प्रभु तारो भाग-२ ७२. पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान (पर्व कथा भाग-२) ७३. बारसासूत्र गुर्जरपद्य ढालिया ७४. श्री मेरुतुंगव्याकरण बालावबोध ७५. श्री द्वादशपर्वकथा भाग-१ (हिन्दी अनुवाद) ७६. श्री बारसासूत्र मूळ (सचित्र)
पू.आ.भ. श्री गुणसागरसूरिजी कृत ग्रंथ ७७. सौभाग्य ज्ञान पंचमी कथा मूळ संस्कृत ७८. कार्तिक पूर्णिमा कथा मूळ ७९. मौन अकादशी कथा मूळ concernovienen undervisni 8 invincinericviereviers
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
Unninenenininenuinnerunnnnnnnnurunneronmenm ८०. पौष दशमी कथा मूळ ८१. मेरु तेरस कथा मूळ ८२. होलिका कथा मूळ ८३. चैत्री पूनम कथा मूळ ८४. अक्षय तृतीया कथा मूळ ८५. रोहिणि कथा मूळ ८६. पर्युषण अष्टाह्निका कथा मूळ ८७. दीपावलि कथा मूळ ८८. चातुर्मासिक व्याख्या कथा मूळ ८९. द्वादश पर्व कथा मूळ
हिन्दी साहित्य ९०. अनेकार्थ नाममाला (हिन्दी पद्य) ९१. भक्ति नैया : देवदर्शन-गुरुवंदन व सामायिक की विधि ९२. प्रार्थना : नवस्मरण-भक्तामर व चमत्कारिक सरस्वतीस्तोत्र ९३. बोलो सुबह शाम (द्वितीय आवृत्ति) लघुपुण्य प्रकाश स्तवन-दादागुरुदेव
इक्कीसा, गौतमस्वामी रास आदि ९४. तपसुं बेडो पार : सिद्धाचलजी, समेतशिखरजी तीर्थ व ज्ञानपंचमी
वीशस्थानक तथा वर्धमान तप की आराधनाविधि ९५. रेडी वन टु थ्री (द्वितीय आवृत्ति) बालयोग्य खेल के साथ मात्र १ दिन
पालने के सरल नियम ९६. वंदन से कर्म खंडन : देवदर्शन व गुरुवंदन विधि ९७. पढ़ो आगे बढ़ो- श्रावक की आराधना के दश अधिकार
दैनिक-रात्रिक-वार्षिक आदि कर्त्तव्य तथा जीवविचार नवतत्त्व प्रश्नोत्तरी ९८. यादों के साथ-साथ : अचलगच्छाधिपति शीघ्रकवि प.पू.आ.भ. श्री covincininnnvicini quvoncicienienisinerinen
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
MAAVAJAVAJAVALAnnanaanavavaanayan
गुणसागरसूरीश्वरजी महाराज विरचित प्रथम चौवीशी सहित ७७ भाववाही
स्तवनों का संग्रह ९९. त्वमेव शरणं ममः पुष्प नं. १-२-३-४ का अजोड़ संग्रह १००. त्वमेव शरणं ममः प्रथम पुष्प : सुरम्य ४५० स्तुतिओं का संग्रह १०१. त्वमेव शरणं ममः द्वितीय पुष्प : चित्ताकर्षक-७० चैत्यवंदनों का संग्रह १०२. त्वमेव शरणं ममः तृतीय पुष्प : शुभभाववाही .२०० स्तवनों का संग्रह १०३. त्वमेव शरणं ममः चतुर्थ पुष्प : सुमधुर १३२ स्तुतियुगलों का संग्रह १०४. प्रतिक्रमणं पापनाशनं : पंचप्रतिक्रमण मूल-सूत्र संक्षिप्त भावार्थ व विधियाँ १०५. शार्ट कट साधना : घंटे घंटे के चौविहार की नोंध पोथी
卐ज
KORoRAROOOKanyavar, ६ IAnnanAaaaaaary
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
dinosaurenseeviivivietinerenerenneieremenunceara साहित्य दिवाकर प्.आ. It कलाप्रभसागरसूरिजी संपादित अथवा उनकी तथा अन्य की प्रेरणा से अन्य संस्थाओं द्वारा
प्रकाशित साहित्य की सूची
<> जीवन उन्नति याने तीर्थयात्रा - सम्यक्त्व सहित पाँच अणुव्रत (हिन्दी) <> सचित्र अचलगच्छ स्नात्र पूजा <- प्रथम ज्ञानसत्र (घाटकोपर) विशेषांक <> पू.आ. गुणसागरसूरि जीवन परिचय <- द्वितीय (अचलगच्छ) अधिवेशन स्मारिका <> पृ.आ. गुणसागरसूरि सूरिपदरजत स्मारिका ग्रंथ सचित्र <> श्री आर्यकल्याण गौतम स्मृति ग्रंथ सचित्र < श्री अचलगच्छना इतिहासनी झलक सचित्र < वर्धमान तप स्मारिका < अचलगच्छ पट्टावलि (हिन्दी) - महाराष्ट्र विहार विशेषांक < कल्याणसागरसूरि चतुर्थ जन्म शताब्दि विशेषांक <- श्री कल्याणसागरसूरि जीवन सौरभ 4 श्री कल्याणसागरसूरि पूजा संदोह - श्री गुणसागरसूरि जन्म अमृत तथा दीक्षा सुवर्ण विशेषांक < श्री आर्यरक्षितसूरि नवम् जन्म शताब्दि विशेषांक - श्रमण संस्कृति विशेषांक - श्री गुणमलके सागर छलके - पू. गुणसागरसूरि स्मृति ग्रंथ. (सचित्र) <> गुरु दर्शन सुख संपदा (सचित्र) <> तीर्थ गुण गुंजन (शिखरजी तीर्थ संघ) < थिणभारत अचलगच्छ सम्मेलन विशेषाक - अहिंसा सम्मेलन स्मारिका <- शत्रंजय तीर्थ गुणदर्शन vivisiniviviviviensiinisering meinasinaunanum
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
runnenvoeren vanvivienvisnivervinnivinnunni 4 शत्रुजय तीर्थ ९९ यात्रा स्तवना + क्षत्रियकुंड तीर्थ विशेषांक (वीतराग संदेश) 47 क्षत्रियकुंड निर्णय सम्मेलन विशेषांक (गुणभारती) • मुंबई थी शिखरजी छ'री संघ विशेषांक अने ग्रंथ (सचित्र) < तृतीय अधिवेशन स्मारिका
दंताणी तीर्थ प्रतिष्ठा विशेषांक - श्री शंखेश्वरथी छरी संघ तथा ७२ जिनालय तीर्थ विशेषांक (गुणभारती) + ७२ जिनालय तीर्थ प्रतिष्ठा विशेषांक (गुणभारती) - अंबरनाथथी शंखेश्वर छरी संघ स्तवनोनी बुक · अचलगच्छ पाठ्यक्रम बालवर्ग (विद्यापीठ) • अचलगच्छ पाठ्यक्रम बालवर्ग (डोंबीवली) + अचलगच्छ पाठ्यक्रम धोरण १-२-३ (डोंबीवली) - अचलगच्छ पाठ्यक्रम धोरण ४-५-६ (डोंबीवली) • छनो विकास, अहिंसा सर्व धर्मोनी माता, व्यवहारमा अहिंसा, अहिंसा त्रिकोण, अहिंसा-जीवदया-शाकाहार, अहिंसा अने खादी, मानवता काळ कलंक (गर्भपात विरोध), आर्य संस्कृतिनुं विज्ञान, साची केलवणी साची समृद्धि, आर्य संस्कृतिर्नु वैज्ञानिक त्रिकोण (ये १० पॉकेट बुक्स 'वास्तु' लिखित है)
प्रभात गुण स्तोत्र - शश्रृंजय गुण गुंजन - अजापुत्र कथानक चरित्रम् (संस्कृत) (माणिक्यसुंदरसूरिकृत)
संयम रजत वर्ष सचित्र ग्रंथ (शिष्यों द्वारा संपादित)
भणावो श्री गुरु पूजा, नहीं मले जगतमा दूजा (शिष्यो द्वारा संपादित) · अचलगच्छ ९९ यात्रा महासंघ ग्रंथ (प्रेसमा) - मन:स्थिरीकरण प्रकरणम् स्वोपज्ञवृत्ति सहितं (प्रेसमां) - बृहत्शतपदी सटीक (प्रेसमां) - गुणभारती मासिकनी १ थी १७ वरसनी फाइलो
AnurunmunninmenimnCOMMAMANNAAMVARIA
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
जैनकुमारसम्भव के कर्ता-जैन कुमार सम्भव श्री जयशेखर सूरि की रचना है। जैन श्वेताम्बर परम्परा में इन आचार्य का उदय अञ्चल गच्छ के ५६वें पट्ट पर हुआ था। ये भट्टारक श्री महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य थे। श्री जयशेखर सूरि काव्य साहित्य और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान् और कवि थे। इन्होंने उपदेश चिन्तामणि, प्रबोधचिन्तामणि और धम्मिल्लचरित्र आदि ग्रन्थों की रचना की थी। ये विक्रम संवत् १४३६ में विद्यमान थे। जिस प्रकार कालिदास ने कुमार कार्तिकेय की उत्पत्ति सम्बन्धी कथा कुमार सम्भव काव्य में ग्रथित की गई है। उसी प्रकार श्री जयशेखर सूरि ने कुमार भरत की उत्पत्ति सम्बन्धी कथा जैनकुमार सम्भव में ग्रथित की है। समस्त पुत्र 'कुमार' नाम से कहे जाते हैं । अत: कुमार सम्भव नाम यहाँ भी उपयुक्त है। पूर्व रचित कुमार सम्भव से पार्थक्य करने हेतु तथा जिनेन्द्र भगवान् से सम्बन्धित होने के कारण इसका जैनकुमारसम्भव नाम रखा गया। इसके कर्ता को सरस्वती का वर प्राप्त था, ऐसा विश्वास किया जाता है। जैनकुमारसम्भव के टीकाकार-जैनकुमारसम्भव महाकाव्य की टीका श्री जयशेखर सूरि के शिष्य श्री धर्मशेखर महोपाध्याय ने की थी। यह टीका मूल लेखक के दुरुह शब्दों के अर्थ को अभिव्यक्त करने में बहुत उपयोगी है। इस टीका का शोधन श्रीमणिक्यसुन्दर सूरि ने किया था, ऐसा टीकाकार के कथन से ज्ञात होता है।
जैनकुमारसम्भव महाकाव्य की कथावस्तु जैनकुमारसम्भव महाकाव्य ग्यारह सर्गों में विभक्त है, समग्र ग्रन्थ में ८४९ पद्य हैं। प्रत्येक सर्ग के अन्त में एक पद्य में कवि ने अपनी प्रशस्ति दी है। प्रथम सर्ग में सतहत्तर पद्य हैं। प्रथम सर्ग के प्रारम्भ में प्रबन्ध की निर्विघ्न रूप से परिसमाप्ति के लिए वस्तु निर्देशात्मक रूप में मङ्गलाचरण किया है। इसमें कौशलपुरी को अलका नगरी के समान बतलाया है। प्रारम्भ के १६ पद्यों में कौशलपुरी का वर्णन है। इस नगरी में प्रभु आदिदेव ने राजा नाभि के पुत्रभाव को प्राप्त किया। वे गर्भ में स्थित रहते हुए भी मति, श्रुत और अवधि नामक तीन ज्ञान के धारी थे। ऋषभदेव के गर्भ में आने पर माता मरुदेवी के विषय में लोग कहने लगे कि यह पुण्या है, यह साध्वी है। भगवान् का उदय होने पर नारकियों ने भी सुख का अनुभव किया। इन्द्रों ने मन्दराचल के मस्तक पर बैठाकर उनका अभिषेक किया और स्तुति की। इन्द्र ने शिशु अवस्था में उनकी इक्षुदण्ड में रुचि जानकर उनके वंश का नाम इक्ष्वाकु रखा। उनको पालने में सोता हुआ देखकर तथा इनके यश को तीनों लोकों में व्यापक देखकर देवों ने कार्य कारण की कला को प्राप्त होता है, यह उक्ति झूठी ही घोषित कर दी। माता-पिता उन्हें पाकर अति हर्षित हुए। उन्होंने देवों के साथ बाल क्रीड़ा की। बाल्यावस्था पार कर वे यौवन को प्राप्त हुए। उनका रूप, यौवन विलक्षण था, शरीर सुवर्णमय था। देवसमूह ने उनका पट्टाभिषेक किया। वे विविध प्रकार के क्रीड़ारसों के समय बिताने लगे।
[प्रस्तावना]
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय सर्ग में तेहत्तर पद्य हैं। इसमें कहा गया है कि तुम्बरु और नारद ने इन्द्र की सभा में श्री ऋषभदेव के कान्ति, लक्षण, जीवन, रूप, यौवन से उत्पन्न रूप सम्पदा के विषय में गाया । इन्द्र ने तीनों लोकों के स्वामी परमार्हत् श्री ऋषभदेव के विवाह का अवसर जानकर स्वर्ग से कौशला की ओर प्रस्थान किया। उसने चतुर लोगों के द्वारा जिनके चरणों की वन्दना की गई है, ऐसे श्री ऋषभदेव को देखा। वह तीनों लोकों के स्वामी युगादि भगवान् की पूजा करने के लिए वेग से आए। उन्होंने भगवान् के चरणकमलों में नमस्कार कर उनकी स्तुति की। हे नाथ! आपसे श्रेष्ठ अन्य इस संसार में देव नहीं है। इस संसार में आपके नाम से श्रेष्ठ जप के अक्षर नहीं हैं; क्योंकि आप सर्वोत्कृष्ट हैं । इस संसार में तुम्हारा सेवन करने से उत्कृष्ट कोई पुण्य की राशि नहीं है और तुम्हारी प्राप्ति से उत्कृष्ट कोई शान्ति नहीं है । हे नाथ! मैं तुम्हारे हृदय में निवास करता हूँ, यह कथन स्वामी के योग्य नहीं है (जो नेता होता है, वह सेवकादि को नियंत्रित करता है, सेवक नेताओं को नियंत्रित नहीं करते हैं)। मैं दोनों प्रकार से बोलने में समर्थ नहीं हूँ, अत: करुणा के योग्य मेरे प्रति स्वयं की कृपा करो।
तृतीय सर्ग में इक्यासी पध हैं। यहाँ कहा गया है कि इन्द्र ने अपने स्तुतिवचन जारी रखे। उसने भगवान् से प्रार्थना की कि आप गृहस्थ धर्म रूपी वृक्ष के लिए दोहदस्वरूप पाणिग्रहण के भी प्रथम होओ। यद्यपि आपको विषय सम्बन्धी सुख विष के समान लगता है, तथापि इस समय लोक की स्थिति का पालन कीजिए। आपके द्वारा सुमङ्गला और सुनन्दा का परिणय करने पर पृथ्वीतल पर गए हुए सपत्नीक देवों के विमान एक-एक द्वारपाल से रक्षित हो जाएगें। अपने भोगकर्म के योग्य कर्म को जानते हुए भगवान् ने मौन का सेवन किया। धीरचित्त अतात्त्विक कर्म में प्रायः प्रहसित मुख नहीं होते हैं । इन्द्र भगवान् सम्बन्धी चेष्टाओं से अपने उपक्रम की सिद्धि जानकर सन्तुष्ट हुआ। उसने विवाहोत्सव के लिए समीपवर्ती मुहूर्त ग्रहण किया। इन्द्र के आदेश से इन्द्राणी सुमङ्गला और सुनन्दा के अलङ्करण में लग गईं। आभियोग्य जाति के देवों ने मणिमय मण्डप बनाया। श्री नामक देवी शची की आज्ञा से सुवर्णमयी चन्दन ले आयी। लक्ष्मी ने हर्षित होकर रत्नसमूह को पूरा । सखियों ने दोनों कन्याओं को तेल लगाया। महावर ने कन्याद्वय के चरणतल की सेवा की। माला ने सखी के समान सुमङ्गला और सुनन्दा के कण्ठ का आलिङ्गन किया। किसी देवाङ्गना ने नीलकमल रूप कर्णाभूषणों से उन दोनों के कर्णकूप शीघ्र आच्छादित कर दिए। इन्द्राणी ने दोनों कन्याओं के सिर पर मुकुट रखा। हार ने वक्षःस्थल तथा मुद्रिकाओं ने कन्याओं की अङ्गलियों को सुशोभित किया। नितम्बस्थली में क्षुद्रघंटिकाओं से युक्त मेखला सुशोभित हुई।
चतुर्थ सर्ग में अस्सी पध हैं। इनसे ज्ञात होता है कि इन्द्र ने पाणिग्रहण के अवसर पर समस्त देवसमूह के समागत होने पर सौधर्मस्वर्ग को पृथिवीतल का अतिथिसमूह ही माना। जहाँ भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ, वह पृथिवी हम लोगों को बहुत बड़ी देवी प्रतीत होती है, उसका चरणों से कैसे स्पर्श करें, मानों ऐसा मानकर क्या देवों ने भूमि पर आकर भी अपने चरणों से भूमि का स्पर्श नहीं किया? इन्द्र ने वर का तैलमर्दन किया। जलकेतकी आदि सुगन्धियों ने स्वामी के केशों को सुवासित करने का प्रयत्न किया। बद्धमुकुट रूप स्थान में हीरों की प्रभा भगवान् के मस्तक पर सुशोभित हो रही थी। कानों में कुण्डल और वक्षःस्थल में हार ने स्थान बना लिया। इन्द्र ने कलाई को कड़े से वेष्टित किया। भगवान् का केवल हस्ततल अनलंकृत था। भगवान् इन्द्र के द्वारा लाए ऐरावत पर सवार हुए। उन पर चँवर डुलाए जा रहे थे। उनके पीछे-पीछे देव समूह पैदल चला। गन्धर्वो ने उनके गुणों का गान किया। उर्वशी, तिलोत्तमा और रम्भा आदि देवाङ्गाओं ने नृत्य किया। उस वरयात्रा ने देवों को भी मोहित
(२)
[ प्रस्तावना]
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर दिया। वाद्यों की ध्वनि जैसे-जैसे समीप में सुनाई पड़ी, वैसे-वैसे सुमङ्गला और सुनन्दा का मनमयूर नाच उठा। भगवान् इन्द्र का सहारा लेकर ऐरावत से उतरे। देवाङ्गनायें वर के लिए अर्ध्य लायीं। केसरिया वस्त्र गले में डालकर वर को मण्डप में ले जाया गया। कन्यायें मन ही मन प्रसन्न हुईं।
पंचम सर्ग में पचासी पद्य हैं । इसमें भगवान् ऋषभदेव के विवाहोत्सव का वर्णन है। इन्द्र ने भगवान् के हाथ को दोनों कन्याओं के हाथ से मिलाया। वधुओं के शरीर में शीघ्र सात्विक भावों ने जन्म लिया। इन्द्र ने वर और वधू के अञ्चल को शीघ्र बाँधा। इन्द्राणी दोनों वधुओं को और इन्द्र वर को वेदिका पर लाए। किसी इन्द्र ने उस वेदी पर नई अग्नि जलाई। भगवान् ने चम्पे के पुष्पों की माला को अपनी सखी बनाया। उन्होंने सुमङ्गला और सुनन्दा से समवलिम्बत होकर अग्नि के चारों ओर भ्रमण किया। इन्द्र ने पाणिमोचन विधि में भगवान् के आगे बारह करोड़ सुवर्ण बिखेर दिए। उसने भगवान् को आभूषण भेंट किए तथा भगवान् को रत्नमय सिंहासन भी दिया। पति के हाथ से सुमङ्गला और सुनन्दा ने भक्ष्य सामग्री ग्रहण की। अनन्तर इन्द्र ने भगवान् की वधुओं का विधिवत् वस्त्रांचल मोक्षण किया। देवों ने हर्ष से कोलाहल किया। इन्द्र नृत्य करने लगा। इन्द्र के नृत्य करते हुए हस्तयुगल मुक्ति को ही रोकने के लिए ऊपर उछल रहे थे कि इन स्वामी के रहने पर इस समय विरक्ति रूपी सखी को मत भेजो। अनन्तर भगवान् अपने घर की ओर गए। मार्ग में उन्हें देखने के लिए स्त्रीसमूह व्याकुल हो गया। उनकी विचित्र दशा हो गई। उनका शरीर अद्भुत रस से पूरित नारियों के नेत्ररूप नीलकमल से पूजित हो गया। इन्द्र ने उन्हें आवास द्वार पर कन्धे पर बैठाकर ऐरावत से उतारा। शची ने दोनों वधुओं को कन्धे पर बैठाकर उतारा। इन्द्र ने भगवान् की तथा इन्द्राणी ने वधूद्वय की स्तुति की। वधूद्वय के योग्य कर्तव्य का भी इन्द्राणी ने प्रतिपादन किया। यहाँ स्त्रियों के शीलव्रत के माहात्म्य का सुन्दर वर्णन है। निर्मल मन वाले इन्द्र और शची वर-वधू को भेंट देकर स्वर्ग चले गए।
षष्ठ सर्ग में चौहत्तर पद्य हैं। प्रारम्भ में रात्रि के आगमन का वर्णन है । रात्रि के समय युगादिदेव ने निद्रासुख की इच्छा की। उन्होंने सुमङ्गला और सुनन्दा के साथ देवों द्वारा बनाए गए मणियों के महल में प्रवेश किया। उन्होंने तीन रात्रियाँ बिताकर काम पुरुषार्थ का सेवन किया। नाट्य के अवसर पर अप्सराओं की विलास रूप कल्लोलों से भी वे क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए। शिव का कण्ठ विष से, चन्द्र मृग से, गङ्गा सेवाल से तथा वस्त्र मल से कलुषता को प्राप्त होता है, परन्तु सुमङ्गला का शील किसी भी प्रकार कलुषता को प्राप्त नहीं होता था। आकाश के जल के समान निष्कलङ्क, नीति रूपी सुवर्ण की लङ्कास्वरूप, गुणों की श्रेणियों से अद्वितीय दूसरी सुनन्दा नामक पत्नी ने श्री ऋषभदेव को हर्षसमूह प्रदान किया। प्रसन्न हृदय के मदोद्रेक से रहित दोनों सौतों में भी दो बहिनों के समान जो मैत्री हुई, वह अच्छे स्वामी के लाभ से उत्पन्न प्रभाव था। श्री ऋषभदेव के समस्त भोगोपभोग की वस्तुयें इन्द्र लाता था। विभिन्न ऋतुओं ने फल फूलकर भगवान् की सेवा की। सुखपूर्वक कुमारावस्था की क्रीड़ाओं की वशवर्ती होकर छ: लाख पूर्व को एक लव के समान व्यतीत करते हुए भगवान् की आदि प्रिया सुमङ्गला ने स्त्रियों को अभीष्ट स्वामी की कृपा रूप अविनश्वर गर्भ प्राप्त किया।
सातवें सर्ग में सतहत्तर पद्य हैं । एक दिन रात्रि में सुमङ्गला सुखपूर्वक सोयी हुई थी। पूण्यभूमि उसने नींद के सुख को प्राप्त कर एक उत्सव में दूसरे उत्सव के समान सुखदायी स्वप्रदर्शन का अनुभव किया। उसने स्वप्न में गजेन्द्र, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्रमा, सूर्य, ध्वज, कुम्भ, तालाब, समुद्र, विमान, रत्नराशि, अग्नि । इन स्वप्नों को देखा। देखकर सुमङ्गला जाग गयी। वह उन स्वप्नों का अर्थ न जानने से क्षण भर के लिए खिन्न हुई। इन स्वप्नों का फल जानने के लिए वह अपने पति के पास
[प्रस्तावना]
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
गई। उसने अपने स्वामी को निद्रालीन देखा।
आठवें सर्ग में ६८ पद्य हैं । यहाँ स्वप्न के फलों का वर्णन है । ऋषभदेव के जागने पर सुमङ्गला ने अपने स्वप्नों के विषय में निवेदन किया। भगवान् के नेत्रकमल विकास को प्राप्त हो गए। उन्हें ऐसी स्थिति में देखकर सुमङ्गला ने समस्त स्वप्नों को महाफल वाला अनुमान किया। वाणी रूप अमृत को पीने की इच्छुक उसने फिर भी स्वामी की मौनमुद्रा के भेदन की इच्छा की।
नवम सर्ग में अस्सी पद्य हैं । इस सर्ग के प्रारम्भ में ऋषभदेव द्वारा सुमङ्गला की प्रशंसा वर्णित है। स्वप्न के विषय में भगवान् ने कहा कि नए जनानुराग को उत्पन्न करता हुआ यह स्वप्न समूह निश्चित उदय रूप स्वामित्व के दान में प्रतिभू है। तीनों लोकों में जो मनोहर वस्तु है, वह भी इस स्वप्न के आगे देदीप्यमान है। यह चौदह स्वप्न के देखने रूप वृक्ष माता को दो शुभ फल प्रदान करता है। इनमें से एक अर्हन्त भगवान् के जन्म रूप महान् फल है। दूसरा निश्चित रूप से चक्रवर्ती का जन्म है। तुमने आदि में ऐरावत का बान्धष हाथी सामने देखा, उससे तुम्हारा पुत्र मनुष्य लोक में भी इन्द्र की लक्ष्मी को धारण करेगा। वृषभ के देखने से तुम्हारा पुत्र वीर पुरुषों की धुरा को धारण करेगा। सिंह को देखने से तुम्हारा पुत्र प्रभुता प्राप्त करेगा। तुमने जो लक्ष्मी को देखा है, उससे तुम्हारा पुत्र हजार से अधिक स्त्रियों को प्राप्त करेगा। पुष्पमाला को देखने का यह फल है कि तुम्हारा पुत्र अपनी कीर्ति के सौरभ से तीनों लोकों को व्याप्त करने वाला होगा। चन्द्र दर्शन से तुम्हारा पुत्र कलावान् होगा। सूर्य के देखने से तुम्हारा पुत्र तेजस्वी होगा। ध्वज़, के देखने से तुम्हारा पुत्र बुरे सङ्ग से उत्पन्न पापों से अस्पृष्ट शरीर वाला तथा विनय से समृद्ध पुत्र कुल में मस्तक के मुकुटमणित्व को प्राप्त होगा। कलश को देखने से वह माङ्गलिक दशा को प्राप्त होगा। सरोवर देखने का फल यह है कि तुम्हारा पुत्र आगम से उत्पन्न रस को धारण करेगा। समुद्र को देखने का यह फल है कि तुम्हारा पुत्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेगा। विमान को देखने का फल यह है कि तुम्हारा पुत्र देव सदृश शोभा को प्राप्त करेगा। रत्नों की राशि का यह फल है कि तुम्हारा पुत्र पृथ्वी के राजाओं के द्वारा पूजित होगा। अग्नि को देखने का फल यह है कि तुम्हारा पुत्र शत्रुओं को पतङ्गे के समान भस्म कर देगा।
दशम सर्ग में ८४ पद्य हैं । इसमें कहा गया है कि श्री ऋषभस्वामी के मुख कमल से वाणी रूपी मकरन्द को अत्यधिक पीकर सुमङ्गला ने सुकुमार और मनोज्ञ वाणी में कहा कि हे विभो ! आपकी वाञ्छित अर्थ के फल की सिद्धि का वर्णन करने वाली वाणी जयशील होती है। आपका रूप यदि एक ही काल में कोई देखना चाहता है तो वह इन्द्र ही है। यदि आपको एक साथ कोई पूजा करना चाहता है तो वह इन्द्र ही है, दूसरा नहीं। विधाता ने आपकी वाणी की स्वादुता, मृदुलता, उदारता, सर्वभाव पटुता तथा सत्यता को एक साथ कहने के लिए मेरी रसनासमूह को क्यों नहीं बनाया? चन्द्रमा आपके स्व और पर को प्रकाशित करने वाले ज्ञानतेज का स्पर्श भी नहीं करता है। इस प्रकार अनेक रूपों में सुमङ्गला ने भगवान् की स्तुति की। भगवान् की आज्ञा से वह अपने आवास पर आई और सखियों को अपने प्रिय के साथ हुई बातचीत से अवगत कराया। सखियों ने भगवान् की प्रशंसा की तथा सुमङ्गला के सौभाग्य को सराहा। सखियाँ अनेक प्रकार के प्रश्न पूछकर सुमङ्गला का मन बहलाने लगी। सुमङ्गला उन प्रश्नों का उत्तर बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से देने लगी। कुछ समय बाद सूर्य उदयोन्मुख हुआ।
एकादश सर्ग में ७० पद्य हैं । सर्ग का प्रारम्भ सूर्योदय के भव्य वर्णन से होता है। सुमङ्गला ने सूर्योदय होने पर मुँह धोया। सखियों के साथ जब वह बैठी हुई थी तो इन्द्र उसके सम्मुख आया। इन्द्र ने प्रथम तीर्थंकर की पत्नी होने के कारण उन्हें तीर्थ मानते हुए नमस्कार कर उनकी अनेकविध स्तुति (४)
[ प्रस्तावना ]
|
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
की। इन्द्र ने कहा कि सब कुछ अन्यथा हो जाए किन्तु युगादीश के वचन विपरीत रूप में परिणमित नहीं होते हैं । दाता, कुलीन, अच्छे वचन वाला तथा कान्ति से समृद्ध पुरुष ही रत्न है, पाषाण विशेष रत्न नहीं है, अत: आपको रत्नगर्भा देखकर पृथिवी रत्नगर्भा इस नाम से लज्जित होती है। आपके होने वाले पुत्र के भरत नाम धारण करने पर यह भूमि 'भारती' इस ख्याति के होने पर सुस्वामि की प्राप्ति से समुत्पन्न मोद धारण करेगी। नव निधियों की स्वाधीनता तुम्हारे पुत्र में होगी। वह मनुष्य लोक में श्रेष्ठ होगा। इस प्रकार प्रशंसा कर इन्द्र अदृश्य हो गया। इन्द्र के चले जाने पर उसकी वाणी से विमुग्ध सुमङ्गला खिन्न हो गई। न तो चन्दन, न चन्द्रमा की किरणें, न दक्षिण दिशा का पवन, न महद्वन अथवा शर्करामिश्रित दूध अथवा अमृत उस प्रकार प्रमोद के लिए होते हैं, जैसे सत्पुरुषों के वचन प्रमोद के लिए होते हैं । सखियों द्वारा प्रेरित होने पर सुमङ्गला ने स्नान कर भोजन किया।
जैनकुमारसम्भव : एक महाकाव्य महाकाव्य की सबसे अधिक स्पष्ट और सुव्यवस्थित परिभाषा १५वीं शताब्दी में विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ साहित्यदर्पण में दी है, तदनुसार पद्यबन्ध के प्रकारों में जो सर्गबन्धात्मक काव्य प्रकार है, वह महाकाव्य कहलाता है। (चरित्र वर्णन की दृष्टि से) इस सर्गबन्ध रूप महाकाव्य में एक ही नायक का चरित्र चित्रित किया जाता है। यह नायक कोई देवविशेष या प्रख्यात वंश का राजा होता है। यह धीरोदात्त नायक के गुणों से युक्त होता है। किसी-किसी महाकाव्य में एक राजवंश में उत्पन्न अनेक कुलीन राजाओं की भी चरित्र चर्चा दिखाई देती है। (रसाभिव्यंजन की दृष्टि से) शृंगार, वीर और शान्त रसों में से कोई एक रस प्रधान होता है । इन तीनों रसों में से जो रस भी प्रधान रखा जाए उसकी अपेक्षा अन्य सभी रस अप्रधान रूप से अभिव्यक्त किये जा सकते हैं । (संस्थान रचना की दृष्टि से) नाटक की सभी सन्धियाँ महाकाव्य में आवश्यक मानी गयी हैं। (इतिवृत्त योजना की दृष्टि से) कोई भी ऐतिहासिक अथवा किसी भी महापुरुष से सम्बद्ध कोई लोकप्रिय वृत्त यहाँ वर्णित होता है। (उपयोगिता की दृष्टि से) महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय का काव्यात्मक निरूपण होता है। यह मङ्गल नमस्कारात्मक, आशीर्वादात्मक या वस्तुनिर्देशात्मक होता है। किसी-किसी महाकाव्य में खलनिन्दा और सज्जन प्रशंसा भी निबद्ध होती है। इसमें न बहुत छोटे, न बहुत बड़े आठ से अधिक सर्ग होते हैं। प्रत्येक सर्ग में एक-एक छन्द होता है किन्तु (सर्ग का) अन्तिम भाग पद्य भिन्न छन्द का होता है। कहीं-कहीं सर्ग में अनेक छन्द भी मिलते हैं । सर्ग के अन्त में अगली कथा की सूचना होनी चाहिये। इसमें संध्या, सूर्य, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार, दिन, प्रातःकाल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, समुद्र, संयोग, वियोग, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, विवाह, यात्रा, मंत्र, पुत्र और अभ्युदय आदि का यथासम्भव साङ्गोपाङ्ग वर्णन होना चाहिये। इसका नाम कवि के नाम से या चरित्र के नाम से अथवा चरित्र नायक के नाम से होना चाहिये। सर्ग का वर्णनीय कथा से सर्ग का नाम लिखा जाता है । सन्धियों के अंग यहाँ यथासम्भव रखने चाहिये। जलक्रीड़ा, मधुपानादि साङ्गोपाङ्ग होने चाहिये।
महाकाव्य के उपर्युक्त लक्षण न्यूनाधिक रूप में जैनकुमारसम्भव में घटित होते हैं। इसे सर्गों में विभाजित किया गया है। इसका मङ्गलाचरण वस्तुनिर्देश पूर्वक होता है। समस्त महाकाव्य श्री ऋषभदेव के नाम से पवित्र है, अत: सब कुछ मङ्गलमय है। कोशला में भगवान् ऋषभदेव का जन्म होने के कारण वह तीर्थस्वरूप है। अत: उसका नाम भी मङ्गल रूप है। यह काव्य शान्त रस प्रधान है।
[ प्रस्तावना]
(५)
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
आवश्यकतानुसार इसमें श्रृंगार का भी समावेश है। इसकी कथा से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप विभिन्न प्रयोजनों की सिद्धि होती है। मोक्षगामी भगवान् ऋषभ और भरत के गुणगान से सिद्ध है कि कथा का प्रमुख उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति की ओर उन्मुख होता है। कथा के नायक प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव हैं। इनमें नायक के सभी गुण विद्यमान हैं। इनका वृत्त लोकप्रिय है। जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में ग्यारह सर्ग हैं । सर्ग लम्बे-लम्बे हैं । सर्ग के पद्यों की संख्या अड़सठ से लेकर पचासी तक है। प्रत्येक सर्ग में एक छन्द है । किन्तु सर्ग के अन्त में भिन्न छन्द का प्रयोग किया गया है। रात्रि वर्णन के प्रसङ्ग में कवि कहता है
कुमुद्वती चाकृत रोहिणीं च प्रिये निशांवीक्ष्य शितिं सितांशुः । श्रियं च तेजश्चतयोर्ददाना साधत्त साधु क्षणदेति नाम ॥ ६ ॥
चन्द्रमा ने काली रात्रि देखकर कुमुदिनी और रोहिणी को अपनी प्रिया बना लिया। रात्रि ने कुमुदिनी और रोहिणी की शोभा को और अधिक तेज प्रदान करते हुए क्षणदा यह नाम ठीक ही धारण कर लिया ।
रात्रि काली क्यों हुई? इसके विषय में कवि कल्पना करता है
हरिद्रयेयं यदभिन्ननामा बभूव गौर्येव निशाततः प्राक् । सन्तापयन्ती तु सतीरनाथास्तच्छापदग्धाजनि कालकाया ॥ ६ ॥७
चूँकि यह रात्रि हरिद्रा के साथ अभिन्न नाम वाली है, अतः पहले गौरवर्ण वाली हुई, यह जाना जाता है । पुन: अनाथ सतियों को सन्तापित करती हुई उनके शाप से जलकर काले शरीर वाली हो गई । सूर्य की हजार किरणें क्यों होती हैं? इसके विषय में कवि हेतु उपस्थित करता है
तमिस्रबाधांबुजबोधधिष्णमोषांबुशोषाध्वविशोधनाद्याः ।
अर्थक्रियाभूरितरा अवेक्ष्य बेधा व्यधादस्य करान् सहस्रम् ॥ ११ ॥ २
अन्धकार की पीड़ा, कमलों का विकास, नक्षत्रों का लोप, जल का सूखना, मार्गशोधन आदि प्रचुर पदार्थों की क्रियाओं को देखकर ब्रह्मा ने इस सूर्य की हजार किरणें बना दीं।
दिन में कुमुदिनी संकुचित क्यों हो जाती है ? इसका काव्यात्मक हेतु उपस्थित है
इन्दोः सुधा श्राविकरोत्सवज्ञा विज्ञातभाव्यर्क करोपतापा । व्याजान्निशाजागर गौरवस्य शिश्ये सुखं कैरविणी सरस्सु ॥ ११ । ६
चन्द्रमा की अमृत बर्षाने वाली किरणों के उत्सव को जानने वाली तथा आगामी सूर्य की किरणों के ताप को जानने वाली कुमुदिनी रात्रि में जागरण के गौरव के बहाने से सरोवरों में सुखपूर्वक सोयी ।
यश भाग्यवश प्राप्त होता है, इसके विषय में एक रमणीय कल्पना है
गते खौ संववृधेऽन्धकारो गतेऽन्धकारे च रविर्दिदीपे ।
तथापि भानुः प्रथितस्तमोभिदहो यशो भाग्यवशोपलभ्यम् ॥ ११ ॥ ११
सूर्य के चले जाने पर अन्धकार वृद्धि को प्राप्त हुआ और अन्धकार के चले जाने पर सूर्य देदीप्यमान हुआ, फिर भी सूर्य अन्धकार का भेदन करने वाले के रूप में प्रसिद्ध हुआ । आश्चर्य है, यश भाग्यवश प्राप्य होता है ।
(६)
[ प्रस्तावना ]
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठ सर्ग में छहों ऋतुओं का सुन्दर वर्णन है। यहाँ सुमङ्गला को विभिन्न ऋतुओं का अनुसरण करते हुए चित्रित किया गया है
घनागमप्रीणितसत्कदम्बा सारस्वतं सा रसमुद्गिरन्ती ।
रजोव्रजं मंजुलतोपनीत छायाप्रती प्रावृषमन्वकार्षीत् ॥ ६ ॥ ४०
घने आगमों से जिसने सज्जनों के समूह को प्रसन्न किया है, जो सरस्वती सम्बन्धी रस को प्रकट कर रही है, जो पाप के समूह को क्षय कर रही है तथा सौन्दर्य के द्वारा जिसकी कान्ति समीपवर्तिनी है, ऐसी सुमङ्गला ने वर्षा ऋतु का अनुसरण किया ।
वर्षा ऋतु भी मेघों के आने पर कदम्बों को प्रसन्न करती है, सरस्वती नदी के जल को प्रकट करती है, धूलि के समूह का क्षय करती है तथा सुन्दर-सुन्दर लताओं से कान्ति को लाती है । सुमङ्गला ने शीत ऋतु का आश्रय कैसे लिया
सत्वावकार्चिः प्रणिधानदत्ता-दराकलाकेलिबलं दधाना ।
श्रियं विशालक्षणदा हिमतः शिश्राय सत्यागत शीतलास्या ।। ६ । ४२
प्रधान एवं पवित्र करने वाले परब्रह्म रूप में जिसका ध्यान है, कलाओं में क्रीड़ा के बल को जो धारण करती है, विशाल क्षण को जो देती है, जिसमें तकार का त्याग है ऐसे शीतल अर्थात् शील में जिसका निवेश है, ऐसी सुमङ्गला ने हिम ऋतु की शोभा का आश्रय लिया।
हिम ऋतु भी प्रधान अग्नि की अर्चियों के ध्यान में आदर रखने वाली, कन्दर्प के बल को धारण करने वाली, विशाल रात्रि से युक्त तथा सत्य से आगत शीत रूप नृत्य वाली होती है । सुमङ्गला द्वारा स्वप्न में देखे हुए समुद्र का वर्णन करते हुए कवि कहता है
क्वचिद्वायुवशोद्धूत वीचीनीचीकृताचलम् । उद्वृत्तपृष्ठैः पाठीनैः, कृतद्वीपभ्रमं क्वचित् ॥ पीयमानोदकं क्वापि सतृषैरिववारिदैः । रत्नाकरं कुरङ्गाक्षी वीक्षमाणा विसिष्मये ।। ७ । ४४-४५
कहीं पर वायु के वश उछलती हुई तरङ्गों से जिसने पर्वतों को नीचा कर दिया है, कहीं पर जिसने पृष्ठ विभागों को उखाड़ दिया है, ऐसी मछलियों के द्वारा द्वीप का भ्रम कर दिया है, कहीं पर मानों प्यासे मेघों से जिसका जल दिया जा रहा है, ऐसे समुद्र को देखती हुई मृगनयनी आश्चर्यान्वित हुई। प्रथम सर्ग में कौशला नगरी का कवि ने काव्यमय मनोहारी वर्णन किया है। कौशला नगरी का प्राकारें कर्णाभरण की लीला को धारण करता है
चन्द्राश्मचञ्चत्कपिशीर्षशाली सुवर्णशालः श्रवणोचितश्रीः ।
यत्राभितो मौक्तिकदत्तवेष्ट ताटङ्कलीलामवहत् पृथिव्याः ॥ १ । ३
जिस नगरी (कौशला ) में चन्द्रकान्त मणि से सुशोभित होने वाले कंगूरों से शोभायमान सुवर्ण का प्राकार चारों ओर पृथिवी के मोतियों से वेष्टित कर्णाभरण की लीला को धारण करता था । कौशलापुरी में वर्षा के बिना भी मेघ का आनन्द लीजिए
नदद्भिरर्हद भवनेषु नाट्य क्षणे गभीरध्वनिभिः मृदङ्गै । यत्राफलत्केलिकलापिपत्तेर्विनाऽपि वर्षांघन गर्जिताशा ।। १ । ४
[ प्रस्तावना ]
(७)
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिस कौशला नगरी में नाट्य के अवसर पर अर्हन्त भगवान् के भी भवनों में गम्भीर ध्वनि वाले मृदङ्गों के कारण क्रीड़ामयूरों की पंक्ति की वर्षा के बिना भी मेघ के गर्जन की आशा फलीभूत हुई।
तृतीय सर्ग से पंचम सर्ग में विवाह के समय सम्पन्न होने वाले रीति-रिवाजों आदि का सुन्दर वर्णन हुआ है । एकादश सर्ग में सुमङ्गला के आगामी समय में होने वाले पुत्र के अभ्युदय का वर्णन है। चतुर्थ सर्ग में वरयात्रा का सुन्दर वर्णन हुआ है। इस प्रकार जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में महाकाव्य के सभी गुण विद्यमान हैं।
- जैनकुमारसम्भव महाकाव्य की भाषा और शैली
श्री जयशेखर सूरि की काव्यशैली वैदर्भी है, किन्तु वह कालिदास के समान प्रसाद गुणमयी नहीं है, इसकी कल्पनायें पाण्डित्यपूर्ण हैं। कहीं कहीं लम्बे-लम्बे समासों के कारण उनकी शैली गौडी के समीप पहुँच गई है । जैसे
धर्मधामगुणगीर्णवाक्शरा - सारमारभतमारभङ्गिवत्॥ १०। ५८ सन्दर्शितस्वस्तिकवास्तुमुक्तारदावलिः स्फाटिकभित्तिभाभिः॥३।४४
आमोक्षसौख्यांहति संधयास्मिनात्मातिरेकेऽभ्युदिते पृथिव्याम्॥१।६८ सप्तम सर्ग अन्य सर्गों की अपेक्षा सरल है। इसमें कालिदास के समान प्रासादिकता है। सामान्यतया श्री जयशेखर सूरि की शैली दुरूह है। अपने आपको विद्वान् समझने वाला कोई अव्युत्पन्न इसके साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता है। जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक और निष्ठा के साथ इसकी गहराईयों में पैठता है, वही इसकी काव्यरस की लहरों में डूबने के सुख को प्राप्त करता है । इसके रस में अवगाहन के लिए परिपक्व बुद्धि होना आवश्यक है। प्रौढ़ पण्डितों के हृदय को यह रञ्जित करता है।
श्री जयशेखर सूरि के काव्य में शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार दोनों ही प्रकार के अलङ्कारों का प्रचुर प्रयोग है। पदलालित्य में यह श्री हर्ष के नैषधीय चरितम् की याद दिला देता है। अनुप्रास की एक छटा देखिए
जुडाजडिम्ना जड भक्ष्यभोजिनादनावृत्तस्थानशयेन जन्तुना। विलोक्यते यो विकलप्रचारवद्-विचारणं स्वप्नभरोनसोऽर्हति॥९।२
जड़ से युक्त शीतल आहार भोजन से अनावृत स्थान में सोने वाला प्राणी जो स्वपसमूह देखता है, वह विह्वल व्यक्ति के गमन के समान विचार के योग्य नहीं होता है।
तदा तदास्येन्दुसमुल्लसद्वचः सुधारसस्वादनसादरश्रुतिः।
गिरा गभीरस्फुटवर्णया जगत्रयस्य भर्ना जगदे सुमङ्गला॥९।१ शब्दों के समुचित विन्यास और भावों के समुचित निर्वाह में कवि के काव्य का छटा देखिएसम्पन्नकामा नयनाभिरामाः
सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः। यत्रोज्झितान्यप्रमदावलोक
अदृष्टशोका न्यविशत्त लोकाः॥१।२
(८)
[ प्रस्तावना ]
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिस कोशला नगरी में सम्पन्न मनोरथ, नयनाभिराम, सदैव (जीवितावधि) जीवित रहने वाली सन्तानों से युक्त, परस्पर प्रतिकूल न रहने वाले, परस्त्री पर दृष्टिपात का त्याग किए हुए तथा (इष्ट वस्तु आदि का वियोग न होने के कारण) जिनका शोक दिखाई नहीं देता है, ऐसे लोग निवास करते हैं । श्री जयशेखरसूरि के काव्य में पदशय्या की स्वाभाविक छटा शब्दों के स्वत: गुम्फन में दर्शनीय है
रत्नौकसां रुग्निकरेण राकी कृतासु सर्वास्वपि शर्वरीषु ।
सिद्धिन मन्त्रा इव दुः प्रयुक्ता यत्राभिलाषा ययुरित्वरीणाम् ॥ ५ ॥ ७
जिस नगरी में रत्नमय आवासों के कान्तिसमूह से समस्त रात्रियों के पूर्णिमा के सदृश किए जाने पर असती स्त्रियों की अभिलाषा दुः प्रयुक्त (मारणादिक कर्म में लगाए हुए) मन्त्र के समान सिद्धि को प्राप्त नहीं हुई । श्री जयशेखरसूरि ने काव्य में चमत्कार लाने के लिए श्लेष का भी प्रयोग किया है। जहाँ कहीं भी उन्होंने कवित्व का विलास दिखाना चाहा, वहाँ श्लेष का आश्रय लिया है। जैसे
रसालसालं प्रतिदत्तदृष्टौ श्रोतुं च सूक्तानि सतृष्णकर्णे । अनन्यकृत्या अभजन्नमर्त्या यत्र स्वभक्त्याशुकवित्वमुच्चैः ॥ १ ॥ ३३
जिन्हें दूसरा कार्य नहीं है, ऐसे देवों ने आम के वृक्ष के प्रति दृष्टि लगाए हुए तथा सुभाषितों को सुनने के लिए सतृष्ण कानों वाले जिन भगवान् के प्रति अपनी अत्यधिक भक्ति के कारण शुकपक्षीपने (अथवा आशुकवित्व) का सेवन किया ।
निशा निशाभङ्गविशेषकान्ति- कान्तायुतस्यास्य वर्पुविलोक्य ।
स्थाने तमः श्याभिकयानिरुद्धं दधौ मुखं लब्धनवोदयाऽपि ॥। ६ । २
रात्रि ने नया उदय प्राप्त होने पर भी स्त्री से युक्त इन भगवान् के हल्दी के टुकड़े के समान विशेष कान्ति वाले ( पक्ष में रात्रि की समाप्ति पर विशेष कान्ति वाले) शरीर को देखकर अन्धकार की कालिमा से व्याप्त मुख को धारण किया।
उपर्युक्त अलङ्कारों के अतिरिक्त श्री जयशेखर सूरि ने उपमा, अतिशयोक्ति, विरोधाभास, स्वभावोक्ति, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास आदि अलङ्कारों का समुचित प्रयोग किया है।
भगवान् ऋषभदेव के जीवन से सम्बन्धित होने के कारण उनके महनीय चरित्र तथा आत्मा की उज्ज्वलता आदि को आधार बनाकर अनेक स्थानों पर स्तुति की गई है। स्तुतिकर्त्ताओं में इन्द्र, सुमङ्गला तथा उसकी सखियाँ प्रधान हैं। श्री ऋषभदेव की पत्नी और भरत जैसे मोक्षगामी पुरुष की होने वाली माँ सुमङ्गला की इन्द्र ने अत्यधिक प्रशंसा की है। सुमङ्गला की गुणगरिमा नारी जाति का आभूषण है । काव्य का प्रधान रस शान्त है, तथापि अवसर प्राप्त कर कवि ने शृंगार रस की भी अवतारणा की है। श्री जयशेखरसूरि ने नर और नारी दोनों के सौन्दर्य को अपना लक्ष्य बनाया है। भगवान् ऋषभदेव के सौन्दर्य का चित्रण करते हुए वे कहते हैं
कटीतटीमप्यतिलङ्घ्य धाँवल्लावण्यपूरः प्रससार तस्य ।
तथा यथा नाऽनिमिषेन्द्रदृष्टि-द्रोण्योऽप्यलं पारमवाप्तुमस्य ॥ १ । ४३
भगवान् का सौन्दर्यसमूह कटी रूप तट का उल्लंघन कर दौड़ते हुए उस प्रकार फैला कि देवेन्द्रों की दृष्टि रूपी नावें भी इसको पार करने में समर्थ नहीं हुईं।
सुमङ्गला और सुनन्दा के करमूल में शोभित हुए दो कड़ों के विषय में कवि कहता है
[ प्रस्तावना ]
( ९ )
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
ये तयोरशुभतां करणमूले काममोहभटयोः कटकेते।
अङ्गुलीषु सुषमामददुर्या ऊर्मिका ननु भवाब्धिनिधेस्ताः ॥३।७८ जो दो कड़े उन दोनों कन्याओं के करमूला में शो ! हुए, वे काम और मोह भट के सैन्य जानना चाहिए। जिन मुद्रिकाओं ने उन कन्याओं की अङ्गलियों को सुशोभित किया, निश्चित रूप से वे संसार समुद्र की लहरें जानना चाहिए।
नखजितमणिमालौ स्वश्रियापास्तपद्यौ गतिविधुरितहंसौ मर्दिवाति प्रवालौ। तदुचितमिह साक्षीकृत्य देवीस्तदंती
सर्पाद दधतुराभां यत्तुलाकोटिवृत्ताम्॥३।८० यहाँ पर देवी को साक्षी बनाकर नखों से मणि समूह को जीतने वाले, अपनी शोभा से कमलों को तिरस्कृत करने वाले, गति से हंसों को जीतने वाले, सौकुमार्य से नए अङ्करों का अतिक्रमण करने वाले उन (कन्याद्वय) के दोनों चरण तत्काल ही तराजू की डंडी के दोनों छोरों की (उपमा के अग्रभाग से उत्पन्न) शोभा को धारण करें, यह बात उचित ही है। कवि के स्तुत्यात्मक पद्य भगवान् के प्रति उसकी गहरी भावानुभूति को बतलाते हैं। जैसे
मनोऽणुधर्तुंन गुणास्तवाखिलानतद्धृतान्वक्तुमलंवचोऽपि मे।
स्तुतेर्वरं मौनमतो न मन्यते परं रसज्ञैव गुणामृतार्थिनी॥ २॥ ५१ हे नाथ! मेरा छोटा सा मन आपके समस्त गुणों को धारण करने में और मेरा वचन भी धारण किए हुए गुणों का कथन करने में समर्थ नहीं है, अतः स्तुति से मौन अच्छा है, किन्तु गुण रूपी अमृत को चाहने वाली जीभ भी नहीं मानती है।
सुरद्रुमाद्यामुपमां स्मरन्ति यांजनाःस्तुतौ ते भुवनातिशायिनः।
अवैमि ते न्यकृतिमेव वस्तुतस्थापि भक्तिर्मुखरीकरोति माम्॥२॥५२ हे नाथ! लोग भुवनातिशायी आपकी स्तुति में कल्पवृक्ष आदि की उपमा को याद करते हैं। वस्तुतः उस स्तुति को मैं निन्दा के रूप में ही जानता हूँ। फिर भी भक्ति मुझे वाचाल बना रही है। इस प्रकार के अनेक हृदयोद्गारी पद्य जैनकुमारसम्भव में विद्यमान हैं।
कुमारसम्भव और जैनकुमारसम्भव कुमारसम्भव की रचना महाकवि कालिदास ने की। यह अनुमान किया जाता है कि कालिदास ने कुमारसम्भव के आठ ही सर्ग लिखे, शेष ९ सर्ग किसी अन्य ने जोड़ दिए। इस काव्य पर मल्लिनाथ की टीका मिलती है। अष्टम सर्ग में शिव पार्वती संभोग से स्कन्द के भावी जन्म की सूचना मिल जाती है। श्री जयशेखर सूरि को कालिदास कृत कुमारसम्भव से ही जैनकुमारसम्भव लिखने की प्रेरणा मिली। इसमें भी भगवान् ऋषभदेव और सुमङ्गला से उत्पन्न भरत के भावी जन्म की सूचना प्राप्त हो जाती है। कुमारसम्भव का प्रारम्भ 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः' से होता है। जैनकुमारसम्भव भी इसी शैली में 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीता परमर्द्धिलोकैः' पंक्ति से प्रारम्भ होता है। कुमारसम्भव की कृति पूर्णतः रसवादी जान पड़ती है, रघुवंश की भाँति कवि यहाँ
(१०)
[ प्रस्तावना]
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
किसा नैतिक व्यवस्था का पोषक नहीं दिखाई देता है । जैनकुमारसम्भव रसवादी होने के साथ पूर्णत: नैतिक है। कुमारसम्भव का प्रतिपाद्य यौवन की सरसक्रीड़ा का वर्णन जान पड़ता है। जैनकुमारसम्भव में यौवन की सरस क्रीड़ा के वर्णन के साथ ऋषभदेव के लोकोत्तर चरित्र को अभिव्यक्त किया गया है। कालिदास का काव्य अष्टमसर्ग में जहाँ अभीलता की कोटि में पहुँच गया है, वहाँ जैनकुमारसम्भव में कहीं भी अशीलता के दर्शन नहीं होते। सब जगह शिष्टता और सदाचार के ही दर्शन होते हैं। कुमारसम्भव का छठा और सातवाँ सर्ग विवाह वर्णन से ओत-प्रोत है। जैनकुमारसम्भव के तृतीय, चतुर्थ और पंचम सर्ग विवाह के प्रसङ्गों से भरे हुए हैं। कुमारसम्भव में देवों का वर्णन है, जैनकुमारसम्भव में भी इन्द्रादि देवताओं के प्रसङ्ग हैं। कुमारसम्भव के दैवीय पात्र मानवों जैसा आचरण करते हैं। कुमारसम्भव का कामदेव शिव के मन को जीतना चाहता है, किन्तु जैनकुमार सम्भव के कामदेव ने ऋषभदेव के मन को जीतने की इच्छा नहीं की। शिव ने पार्वती के साथ सुरत सुख का उपभोग करते हुए सैकड़ों ऋतुओं को एक रात्रि की भाँति बिता दिया, किन्तु उनकी सम्भोग सुख की लालसा उसी प्रकार दूर नहीं हुई, जैसे निरन्तर समुद्र के जल में रहने पर भी वडवाग्नि की प्यास नहीं बुझती है । ऋषभदेव ने भी सुमङ्गला और सुनन्दा के साथ विषयों को भोगा, किन्तु अन्य जन्म में उपार्जित अपने भोगने के योग्य कर्म को अवश्य भोक्तव्य जानकर मुक्ति की ही एकमात्र कामना के साथ भोगा। कुमारसम्भव तथा जैनकुमारसम्भव में अनेक स्थानों पर कल्पना साम्य भी है। उदाहरणार्थ
जालान्तरप्रेषितदृष्टिरन्या प्रस्थानभिन्नां न बबन्धनीवीम्। नाभिप्रविष्टाभरणप्रभेण हस्तेन तस्थाववलम्ब्य वासः॥
कुमारसम्भव ७।६० एक स्त्री ज्यों ही शङ्कर को देखने के लिए खिड़की की जालियों में जाकर झाँकने लगी; त्यों ही उसकी नीवी खुल गई और वह उसे बिना बाँधे ही साड़ी को हाथ से पकड़े हुए खड़ी रही। उस समय उसके कंगन में जड़े रत्न की चमक ही उसकी नाभि का आवरण बन गई।
कापि नार्धयमितभूथनीवी प्रक्षरनिवसनापि ललजे। नायकानन निवेशित नेत्रे जन्यलोक निकरेऽपि समेता॥
जैनकुमारसम्भव ५।३९ बराती लोक समूह में भी आगत स्वामी के मुख में जिसने नेत्र निवेशित किए हैं, ऐसी कोई स्त्री अर्द्धनिबद्ध मेखला का गिरता हुआ वस्त्र होने पर भी लज्जित नहीं हुई।
१. डॉ. भोलाशङ्कर व्यासः संस्कृत कवि दर्शन पृ. ८९ २. न तस्य दासीकृतवासवोऽपि मनोमनोयोनिरियेष जेतुम्॥६।२७ ३. समदिवसनिशीथं सङ्गिनस्तत्र शम्भोः।
शतमगमदृतूनां सार्धमेका निशेव॥ न तु सुरतसुखेभ्यश्छिन्न तृष्णो बभूव।
ज्वलन इव समुद्रान्तर्गतिस्तज्जलौघैः॥ कुमारसम्भव ८ । ९१ ४. भोगार्हकर्मध्रुववेद्यमन्य - जन्मार्जितं स्वं स विभुर्विबुध्य ।
मुक्त्येक कामोऽप्युचितोपचारैरभुङ्क्त, ताश्यां विषयानसक्तः॥ जैनकुमारसम्भव ६ । २६
[ प्रस्तावना ]
(११)
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
आदिपुराण और जैनकुमारसम्भव भगवान् ऋषभदेव का जीवन वृत्तान्त आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में लिखा है। आदिपुराण तथा जैनकुमारसम्भव के कथानक में कुछ अन्तर है शादिपुर, “ में कहा गया है कि पिता नाभिराय ने स्वयं भगवान् की यौवन अवस्था देखकर उनसे विवाह हेतु आग्रह किया। भगवान् ने ओम कहकर उनके वचन स्वीकार कर लिए । जैनकुमारसम्भव के अनुसार उनसे विवाह करने हेतु इन्द्र ने अनुरोध किया। लोकस्थिति का पालन, लोकानुरोध, लोकोपकार' अथवा लोक प्रवृत्ति को हेतु रूप में उपस्थित किया गया है। आदिपुराण के अनुसार इन्द्र की अनुमति से सुशील, सुन्दर लक्षणों वाली, सती और मनोहर आकार वाली दो कन्याओं की महाराज नाभिराय ने याचना की। ये दोनों कन्यायें कच्छ और महाकच्छ की बहनें थीं तथा उनका नाम यशस्वती और सुनन्दा था । इन्हीं के साथ नाभिराय ने भगवान् का विवाह कर दिया। जैनकुमारसम्भव के अनुसार सुमङ्गला जो भगवान् के साथ में उत्पन हुई थी तथा सुनन्दा, जिसे नाभिराय ने गोद में बढ़ाया था, उनके साथ ऋषभदेव का विवाह हुआ।
आचार्य जिनसेन के अनुसार यशस्वती (जिससे भरत का जन्म हुआ था) ने सोते समय पृथिवी, सुमेरु पर्वत, चन्द्र सहित सूर्य, हंस सहित सरोवर तथा चञ्चल लहरों वाला समुद्र ये पाँच स्वप्न देखे थे। श्री जयशेखर सूरि के अनुसार सुमङ्गला (जिससे भरत का जन्म हुआ था) ने सोते समय गजेन्द्र, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्रमा, सूर्य, ध्वज, कुम्भ, तालाब, समुद्र, विमान, रत्नराशि
और अग्नि ये १४ स्वप्न देखे थे११ । आदिपुराण क अनुसार प्रात: काल यशस्वती ने भगवान् से स्वप्नों का फल पूछा। जैनकुमारसम्भव के अनुसार सुमङ्गला ने रात्रि में ही भगवान् के पास जाकर स्वप्न पूछे। दोनों ग्रन्थों में स्वप्न का फल तेजस्वी, चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति बतलाया गया है।
आभार प्रदर्शन जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का हिन्दी अनुवाद दिनाङ्क १७ अप्रैल, १९९२ को प्रारम्भ हुआ था और २७ नवम्बर १९९२ को समाप्त हुआ था। कृति के अनुवाद में ग्रन्थकर्ता श्री जयशेखरसूरि के शिष्य श्री धर्मशेखरमहोपाध्याय द्वारा रचित संस्कृत टीका से पूरी मदद मिली। इस ग्रन्थ को सान्वय एवं
-
१. आदिपुराण १५ । ५०-६६ । २. जैनकुमारसम्भव ३ । २१ ३. लोकस्थिति पालय लोकनाथम् जैनक.सं. ३। २५ ४. तावत्कलत्रमुचितं चिन्त्यं लोकानुरोधतः। आदिपुराण १५ । ५३ ५. त्वयोपकारो लोकस्य करणीयो जगत्पते ॥ वही १५ । ५६ ६. त्वमादिपुरुषं दृष्ट्वा लोकोऽप्येवं प्रवर्तताम्। वही १५।६१ ७. वही १५ । ६९-७० ८. त्वमैव याऽभूत्सहभू॥ जैनकु.सं. ३ । २६ ९. अवीवृधांदधदङ्कमध्येनाभिः सनाभिजलधर्महिना । वही ३ । २७ १०. आदिपुराण १५ । १०० । १०१ ११. जैनकु.सं. सर्ग-७
(१२)
[ प्रस्तावना ]
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित कराने की मेरी इच्छा थी, किन्तु प्राकृत भारती अकादमी ने मात्र हिन्दी अनुवाद के प्रकाशन में रुचि ली, अत: सानुवाद मूल का प्रकाशन किया जा रहा है। ग्रन्थ के प्रकाशन में जैनविद्या संस्थान महावीरजी के निदेशक आदरणीय डॉ. कमलचन्द्र सोगाणी ने पूरी रुचि ली और उत्साहपूर्वक इसका प्रकाशन प्राकृत भारती अकादमी जयपुर से कराया। साहित्य वाचस्पति श्रद्धेय महोपाध्याय श्री विनयसागर जी के सत्प्रयास से संस्था इस ग्रंथ का प्रकाशन कर रही है। प्राकृत भारती अकादमी के निदेशक के रूप में उनकी भूमिका सराहनीय है। अकादमी की कमेटी ने इसका सुरुचिपूर्ण प्रकाशन कराया तथा स्टाफ ने भी पूरा-पूरा सहयोग दिया, एतदर्थ सभी महानुभावों के प्रति मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। अकादमी इसी प्रकार उदारता से प्राचीन जैन ग्रन्थों को प्रकाशन में लाने का महत्त्वपूर्ण दायित्व निभाएगी, ऐसी पूर्ण आशा है। श्री जयशेखरसूरि कृत भगवान् ऋषभदेव का कौमार वर्णन अनुपम है। पाठक अवश्य ही इसका रसास्वादन करेंगे। जैनं जयतु शासनम्।
विनीत रमेशचन्द जैन
[ प्रस्तावना]
(१३)
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन कुमारसम्भव : एक परिचय
- डॉ. साध्वी मोक्षगुणाश्री
जैसे जैन आगमग्रन्थों का उस पर रची नियुक्ति, चूर्णि, टीका आदि प्रकार का अन्य जैन शास्त्रीय साहित्य अत्यन्त समृद्ध है, वैसे ही जैन पुराण, महाकाव्य, चरित्र, काव्य आदि प्रकार का सर्जनात्मक ललित साहित्य भी अत्यन्त समृद्ध है।
पद्मपुराण, हरिवंश पुराण, आदि पुराण, उत्तर पुराण, शान्ति पुराण, वर्धमान पुराण, पाण्डव पुराण, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, कुमारपालचरित, प्रद्युम्न चरित्र महाकाव्य, श्रीधर चरित्र महाकाव्य, तिलकमंजरी कथा, कुवलयमाला, शान्तिनाथ चरित्र, नेमिनाथ चरित्र, पार्श्वनाथ चरित्र, महावीर चरित्र, नलायन महाकाव्य आदि संख्याबंध सुदीर्घ, महान कृतियों का सर्जन जैन कवियों के द्वारा संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में हुआ है।
जैन तीर्थंकरों के चरित्र एवं उसमें भी ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीरस्वामी आदि के चरित्र भी अत्यन्त समृद्ध हैं। इसी प्रकार महान जैनाचार्यों, राजवियों, श्रेष्ठियों आदि के चरित्र भी अत्यन्त समृद्ध हैं । तदुपरांत अलग-अलग पवित्र जैन तीर्थों के इतिहास भी विवरण सहित हम को मिलते हैं । इस सामग्री का आधार लेकर कोई काव्य या महाकाव्य का सर्जन किसी कवि को करना हो तो विपुल काव्यानुकूल सामग्री जैन इतिहास में उपलब्ध है। महान् कविगण स्वयं की कवि-प्रतिभा के अनुरूप, सामग्री का चयन कर स्वयं की काव्य-कृति का सर्जन समय-समय पर करते रहे हैं।
कवि-परिचय 'उपदेश चिन्तामणि''धम्मिलकुमार चरित्र' आदि काव्य के रचयिता महाकवि श्री जयशेखरसूरि संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पंडित थे। उस समय के जैन एवं जैनेतर वर्ग में इसके लिये उनकी कीर्ति अच्छी तरह प्रसरित रही। इसी कारण जैनेतर वर्ग के कवि-पंडितों को एवं साहित्यरसिकों को भी पढ़ना अच्छा लगे वैसी कृति की रचना करने हेतु वे प्रेरित हुए होंगे और उसी के फलस्वरूप 'जैनकुमारसम्भव' नाम का महाकाव्य हम को मिलता है।
श्रावक भीमसी माणेक, मुंबई की ओर से यह महाकाव्य सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ था। वि.सं. 1956 में मूल श्लोक एवं पंडित हीरालाल हंसराज, जामनगर द्वारा कृत गुजराती अनुवाद के साथ यह महाकाव्य देवनागरी लिपि में पत्राकार रूप में प्रकट हुआ था। उसमें काव्य की संस्कृत टीका छपी नहीं थी। उसके बाद यह महाकाव्य महोपाध्याय धर्मशेखर कृत संस्कृत टीका के साथ जामनगर की आर्यरक्षित पुस्तकोद्धार संस्था की तरफ से वि.सं. 2000 में प्रकट हुआ था। उसके बाद यह महाकाव्य
(१४)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
उसी संस्कृत टीका के साथ संशोधित संपादित कर श्री विजयक्षमाभद्रसूरि एवं विजयलब्धिसूरि के शिष्य विक्रमविजय मुनि (बाद में विजयविक्रमसूरि) ने तैयार किया था, जिसका प्रकाशन वि.सं. 2002 में सेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड की तरफ से हुआ था।
श्री जयशेखरसूरि के शिष्य श्री धर्मशेखरगणि ने सं. 1482 में संस्कृत में टीका लिखी है जिससे काव्य के अर्थ पर विशेष प्रकाश पड़ा है एवं ग्रंथ के अंत में दी गई प्रशस्ति के श्लोकों से कितनी ही विशेष जानकारी भी मिलती है। धर्मशेखरगणि इस टीका के आरम्भ में लिखते हैं :
ध्यात्वा श्री शारदां देवीं नत्वा श्रीसद्गरून्नपि। कुमारसम्भवस्येयं, विवृतिर्लिख्यते मया॥१॥
x.
अत्र ग्रन्थे च वापि समासं कृत्वा व्याख्या करिष्यते,
क्वापि शब्दस्य पर्यायमात्रमेव प्रोच्य व्याख्या करिष्यते। इस प्रकार धर्मशेखर गणि ने प्रारम्भ में बताया है, उसी प्रकार काव्य पढ़ने वाले कवि का आशय स्पष्ट समझ सकें तदर्थ शब्दार्थ सहित सरल टीका इस महाकाव्य के ऊपर लिखी है।
श्री धर्मशेखर गणि ने इस संस्कृत टीका की रचना विक्रम सं. 1482 में सपादलक्ष देश में, षट्पुर नाम के नगर में रह कर की है। महाकाव्य की टीका के अंत में रचना प्रशस्ति के श्लोकों में इस विषय में उन्होंने निर्देश किया है :
तेषां गुरूणां गुणबन्धुराणां शिष्येण धर्मोत्तरशेखरेण। श्री जैनकुमारसंभवीयं सुखावबोधाय कृतेति टीका ॥ ४॥ देशे सपादलक्षे सुखलक्ष्ये षट्पुरे पुरप्रवरे।
नयनवसुवार्धिचन्द्रे (१४८२) वर्षे हर्षेण निर्मिता सेयं॥५॥ इस प्रकार इस महाकाव्य की प्रशस्ति में टीकाकार श्री धर्मशेखर गणि ने टीका लिखने का स्पष्ट उल्लेख किया है। फिर भी जामनगर के संस्करण में उसके प्रकाशक गृहस्थ बालुभाई हीरालाल ने प्रकाशकीय निवेदन में भ्रम से ऐसा उल्लेख किया है कि इस महाकाव्य पर कवीश्वर ने स्वयं ही टीका लिखी है।
श्री धर्मशेखर गणि ने इस महाकाव्य की टीका सं. 1482 में लिखी है। 'जैन साहित्य का वृहद् इतिहास' पृ. 518 पर वि.सं. 1482 इस महाकाव्य का रचना वर्ष है। ऐसा प्रशस्ति के आधार पर जो निर्देश किया है वह गलत है, कारण कि सं. 1482 का उल्लेख इस महाकाव्य की टीका लिखने का निर्देश है।
इस प्रकार धर्मशेखर गणि ने सपादलक्ष देश के षट्पुर नगर में इस टीका की रचना सं. 1482 में की है, ऐसा स्पष्ट निर्देश मिलता है। परन्तु इस महाकाव्य के रचना-स्थल एवं रचना काल का निर्देश हमको मिलता नहीं है। लेकिन इतना तो निश्चित है कि 'धम्मिलकुमार चरित्र' की रचना के बाद इस महाकाव्य की रचना हुई है। कारण कि जैनकुमारसम्भव के प्रत्येक सर्ग के अंत में दिये गये निम्न श्लोक में 'धम्मिलकुमारचरित्र' का उल्लेख प्राप्त है । देखें :
(१५)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूरि : श्री जयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविधम्मिलादिमहाकवित्वकलना कल्लोलिनीसानुमान् । वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते । सर्गी जैनकुमारसंभवमहाकाव्येऽयमाद्योऽभवत् ॥ १॥
'धम्मिलकुमार चरित्र' की रचना श्री जयशेखरसूरि ने सं. 1462 में की है। अर्थात् सं. 1462 और सं. 1482 के मध्य में 'जैनकुमारसम्भव' की रचना किसी भी समय हुई होगी ऐसा अनुमान कर सकते हैं।
श्री जयशेखरसूरि को भगवती माता सरस्वती देवी ने खंभात में वरदान दिया था और महाकाव्य प्रारम्भ करने हेतु दो पद भी उस समय खंभात में ही दिये थे, ऐसा स्पष्ट निर्देश टीकाकार श्री धर्मशेखर गणि नें किया है। उन्होंने अपनी टीका के आरम्भ में स्वयं के गुरु श्री जयशेखरसूरि के विषय में इस महाकाव्य के संदर्भ में एक सरस घटना पर प्रकाश डाला है। वे लिखते है :
अत्राऽयं किल सम्प्रदाय : - लौकिककाव्यानुसारेण' अस्त्युत्तरस्यां दिशि' इति सप्ताक्षराणि वर्त्तन्ते इति न ज्ञातव्यं किन्तु श्रीस्तंभतीर्थे श्रीमदञ्चलगच्छगगन प्रभाकरेण यमनियमासनप्राणायामाद्यष्टाङ्गयोगविशिष्टेन समाधिध्यानोपविष्टेन निजमतिजितसुरसूरिणा परमगुरुश्रीजयशेखरसूरिणा चन्द्रमण्डलसमुज्ज्वल- राजहंसस्कन्धोषितया चर-चलकुण्डलाद्याभरणविभूषितया भगवत्या श्रीभारत्या प्रभो ! त्वं कविचक्रवर्तित्वं च प्राप्य निश्चिन्त इवासीनः किं करोषि ? इति प्रोच्य अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति० ॥ १ ॥ सम्पन्नकामा नयनाभिरामा० ॥ २ ॥ एतदाद्यकाव्ययुग्मं दत्वा विहितसुरासुरसेव श्रीयुगादिदेवसत्कजन्मबालकेलि - यौवनमहेन्द्रस्तवन - सुमंगलासुनन्दापाणिग्रहण- चतुर्दशस्वप्नदर्शन- भरतसंभव - प्रातर्वर्णनपुरःसरं जैनं श्रीकुमारसम्भवमहाकाव्यं कारितं ।
इस प्रकार श्री धर्मशेखर गणि के लेखनानुसार श्री जयशेखरसूरि अष्टांग योगी एवं समर्थ साधक थे। वे खंभात में समाधि ध्यान में बैठे थे तब भगवती सरस्वती देवी ने उन्हें प्रसन्न होकर कहा-'हे प्रभो ! निश्चिन्त किसलिये बैठे हो ? ' ऐसा कहकर ' अस्त्युतरस्यां दिशि कोशलेति' एवं 'सम्पन्नकामा नयनाभिरामा' यह दो पद देकर इस काव्य की रचना कराई।
इस प्रकार इस महाकाव्य का प्रारम्भ खंभात में हुआ हो ऐसा प्रतीत होता है। श्री जयशेखरसूरि कहाँ-कहाँ से चातुर्मास किये थे इसकी आधारभूत जानकारी मिलती नहीं है। जब खंभात में उन्होंने चातुर्मास किया होगा, तब इस महाकाव्य की रचना शुरु की होगी ऐसा प्रतीत होता है। ऐसा गहन सर्जन कार्य करने हेतु शेषकाल के विचरण की अपेक्षा चातुर्मास का स्थिर वास ज्यादा अनुकूल हो वह तो दिखाई देता है । सामान्यत: एक चातुर्मास के भीतर ऐसा महाकाव्य पूरा हो या नहीं, इस प्रश्न का जवाब कवि की प्रतिभा पर निर्भर है। श्री जयशेखरसूरि के पास ऐसी समर्थ प्रतिभा थी कि एक दिन में कई श्लोकों की वे रचना कर सकते थे। इसलिये चातुर्मास के मध्य ग्यारह सर्ग की रचना करना उनके लिये अशक्य नहीं था। श्री धर्मशेखर गणि ने इस महाकाव्य पर सं. 1482 में टीका लिखी है। महाकाव्य की रचना एवं उस पर की टीका लेखन के बीच ज्यादा वर्षों का अन्तराल नहीं है ।
श्री धर्मशेखर गणि ने इस टीका-रचना में स्वयं के गुरुबंधु श्री माणिक्यसुंदरसूरि की सहायता ली है। इस बात का निर्देश उन्होंने प्रत्येक सर्ग के अंत में दी गई पुष्पिका में किया है :
(१६)
[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
इति श्रीअंचलगच्छे कविचक्रवर्ती - श्रीजयशेखरसूरिविरचितस्य जैनकुमारसम्भवस्य तच्छिष्य-श्रीधर्मशेखरगणिविरचितटीकायां श्री माणिक्यसुन्दरसूरिशोधितायां प्रथमसर्गव्याख्या समाप्ता॥१॥
___ इसके अतिरिक्त टीका के अंत में प्रशस्ति के श्लोकों में भी उन्होंने माणिक्यसुंदरसूरि का निर्देश किया है। देखें :
विद्वत्पद्मविकाशयन् दिनकराः सूरीश्वरा भास्वराः, माणिक्योत्तरसुन्दराः कविवरा कृत्वा प्रसादं परं। भक्त्या श्री जयशेखरे निजगुरौ शुद्धामकार्षुर्मुदा,
श्रीमज्जैनकुमारसंभवमहाकाव्यस्य टीकामिमां ॥ ६॥ इस प्रकार श्री जयशेखरसूरि स्वयं तो एक महान कवि थे ही लेकिन स्वयं के एवं गुरु भ्राता के शिष्यों में धर्मशेखर गणि, माणिक्यसुंदरसूरि आदि तेजस्वी कविरत्रों ने इनके पास से उत्तम विद्या प्राप्त की थी। श्री माणिक्यसुंदरसूरि 'पृथ्वीचंद्र चरित्र','मलयासुंदरी चरित्र', 'गुणवर्मा चरित्र', 'श्रीघट चरित्र महाकाव्य' आदि अन्य कृतियों के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध हैं। लेकिन धर्मशेखर गणि ने इस टीका के अतिरिक्त दूसरी कोई रचना की हो, हमको जानकारी नहीं मिलती है। इनके जीवन एवं कर्तृत्व के विषय में वर्तमान में अन्य कोई जानकारी हमको मिलती नहीं है।
'जैनकुमारसम्भव' की रचना श्री जयशेखरसूरि ने भगवती सरस्वती देवी की कृपा से की है। इस हेतु उनके पास योग्य कवि प्रतिभा एवं जैन-जेनेतर महाकाव्यों का अभ्यास भी है।
इस महाकाव्य की उन्होंने ग्यारह सर्ग के 849 श्लोक में रचना की है। उन्होंने स्वयं के महाकाव्य हेतु महाकवि कालिदास का अनुसरण कर ऋषभदेव भगवान के पुत्र भरत के जन्म का विषय चुना है। इस महाकाव्य की ओर जैनेतर पंडितों का भी ध्यान केन्द्रित हो अत: उन्होंने इस काव्य का नाम 'जैनकुमारसम्भव' रखा है। टीकाकार श्री धर्मशेखर गणि टीका के आरम्भ में लिखते हैं :
तथा लौकिककुमारसंभवे कुमारः कार्तिकेयः तस्य संभवश्चात्र कुमारो भरतस्तस्य संभवो ज्ञेयः पुत्राश्च सर्वे कुमारा उच्यन्ते अतः कुमारसंभव इति नाम्ना महाकाव्यमत्रापि ज्ञायते तेनादौ ध्यात्वा श्री शारदा।
कथासार श्री जयशेखरसूरि ने कथा वस्तु की दृष्टि से इस महाकाव्य में 11 सर्ग की योजना निम्न प्रकार से की है :सर्ग:1- कवि ने इस सर्ग की रचना 77 श्लोकों में की है। इसमें कोशलापुरी का वर्णन, ऋषभकुमार के जन्म का वर्णन, इन्द्र द्वारा जन्मभिषेक, उनका बचपन एवं देहलावण्य का वर्णन एवं अंत में यौवन का वर्णन किया है। सर्ग : 2 - कवि ने इस सर्ग की रचना 73 श्लोकों में की है। इसमें श्री ऋषभकुमार के यश का वर्णन, सौधर्मेन्द्र के आगमन का वर्णन, अष्टापद पर्वत का वर्णन एवं इन्द्रकृत प्रभुस्तुति का वर्णन किया है। सर्ग : 3 - कवि ने यह रचना 81 श्लोकों में की है। इसमें इन्द्र ऋषभकुमार की प्रशंसा करते हैं, [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(१७)
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऋषभदेव को इन्द्र विवाह हेतु विनती करते हैं, इन्द्र ऋषभदेव (कुमार) के विवाह की सामग्री तैयार करते हैं, विवाह मण्डप की रचना की जाती है, इन्द्राणी सुमंगला एवं सुनंदा के शरीर का श्रृंगार करती हैं आदि का वर्णन है। सर्ग : 4 - कवि ने इस सर्ग की रचना 80 श्लोकों में की है। उसमें ऋषभकुमार के विवाह के अवसर पर देवताओं का आगमन, देवताओं द्वारा की गई विविध चेष्टाओं का वर्णन, इन्द्र ऋषभकुमार के देह का श्रृंगार करते हैं उसका वर्णन, ऐरावत हाथी का वर्णन, ऋषभकुमार के विवाह की बारात का वर्णन, देवांगनाओं के परस्पर आलाप का वर्णन एवं अंत में विवाह की लौकिक विधि का वर्णन किया गया है। सर्ग :5 - इस सर्ग की 85 श्लोकों में रचना की गई है। इसमें वर-कन्या के हस्तमेलाप का, वरकन्या के मंगल फेरे का, करमोचनादि विधि का, इन्द्र विविध उत्तम वस्तुयें ऋषभकुमार को विवाह प्रसंग पर देते हैं उसका, वर-कन्या कसार (लापसी) भोजन करते हैं उसका, ऋषभकुमार के सामने इन्द्र नृत्य करते हैं उसका, प्रभु को देखने आई नगर की स्त्रियों का एवं इन्द्र ने ऋषभकुमार को और इन्द्राणी ने सुमंगला एवं सुनंदा को जो हित शिक्षा दी आदि का वर्णन किया गया है। सर्ग : 6 - कवि ने इस सर्ग की रचना 74 श्लोकों में की है, इसमें चन्द्रोदय का, अंधकार का, सुमंगला के शील का, ऋतुओं का एवं सुमंगला के गर्भ धारण का वर्णन किया गया है। सर्ग :7 - इसकी रचना 77 श्लोकों में की गई है। इसमें कवि ने सुमंगला के वासभवन का, सुमंगला के निद्राधीन होने का एवं चौदह महास्वप्नों का दर्शन, स्वप्नफल जानने हेत स्वामी के समीप सुमंगला के आगमन का वर्णन किया है। सर्ग : 8 - इस सर्ग की रचना 68 श्लोकों में की गई है। इसमें सुमंगला को स्वयं के पास आई जान कर प्रभु ऋषभ उससे कुशल-क्षेम पूछते हैं, सुमंगला प्रभु के गौरव का वर्णन करती है एवं उन स्वप्नों का वर्णन कर उनका फल पूछती है, प्रभु चौदह स्वप्नों की फल-महिमा समझाते हैं इत्यादि का वर्णन कवि ने किया है। सर्ग : 9 - इस सर्ग की रचना 80 श्लोकों में की गई है। ऋषभदेव स्वप्न के विषय में सोचते हैं, फिर प्रभु सुमंगला की महिमा का वर्णन करते हैं एवं उसके बाद प्रभु स्वप्नफल का निर्देश करते हैं आदि विषय का वर्णन इसमें किया गया है। सर्ग : 10 - कवि ने इस सर्ग की रचना 84 श्लोकों में की है। सुमंगला ऋषभदेव की वाणी की महिमा का वर्णन करती है, सुमंगला वापस अपने आवास में आती है, सुमंगला की सखियाँ उसके साथ बातचीत करती है एवं सुमंगला उसका प्रत्युत्तर देती है, सखियों के साथ धर्मकथा करती है, अंधकार का विनाश होता है, आदि का वर्णन इसमें किया गया है। सर्ग : 11 - कवि ने 70 श्लोकों में इस सर्ग की रचना की है। इसमें सूर्योदय, इन्द्रागमन, इन्द्र द्वारा सुमंगला की प्रशंसा, सुमंगला इन्द्र के जाने से खेद प्रकट करती है, सुमंगला को उसकी सखियाँ स्नानादि क्रिया कराती हैं आदि प्रसंगों का वर्णन किया गया है।
'जैनकुमारसम्भव' की रचना कवि ने कैसी की है एवं प्रत्येक सर्ग में कथा प्रसंगों, प्रकृति वर्णन, परिस्थिति इत्यादि का कैसा निरूपण किया है उसका अवलोकन करें। (१८)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्ग - १ कवि कालिदास की तरह 'जैनकुमारसम्भव' के कवि श्री जयशेखरसूरि भी अस्त्युत्तरस्यां' पद से स्वकीय महाकाव्य का आरम्भ करते हैं :
अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीतापरमर्द्धिलोकैः। निवेशयामास पुरः प्रियायाः, स्वस्यावयस्यामिव यां धनेशः॥१॥ संपन्नकामा नयनाभिरामाः, सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः।
यत्रोज्झितान्यप्रमदावलोका, अदृष्टशोकान्यविशन्त लोकाः॥२॥ इन्द्र द्वारा स्थापित हुई, इन्द्राणी तुल्य शोभा को धारण करने वाली जंबूद्वीप की उत्तर दिशा में स्थित अयोध्या नगरी है। समृद्धि युक्त नगरी में अत्यन्त ऋद्धिवान मनुष्य रहते हैं । वहाँ परस्पर मैत्री भाव से रहने वाले नगरजनों के समस्त मनोरथ फलित होते हैं। शोक तो इस नगरी से हमेशा के लिये पलायन कर चुका है। इस नगरी के सुवर्णमय गढ़ पर मोती लगे हुये हैं, उन मोतियों पर चंद्रमणि की किरणे प्रसरित हो रही हैं, इससे ऐसा लगता है कि पृथ्वी ने जैसे कर्णाभूषण धारण किये हों । महोत्सव के समय गंभीर ध्वनि से मृदंग बज रहे हैं। उस ध्वनि को सुन कर क्रीड़ा करते मयूर वर्षाकाल की मेघ गर्जना के बिना भी नृत्य करते हैं। वहाँ मंद एवं शीतल वायु चल रही है, इससे मंदिर के शिखर पर स्थित पताकायें नृत्य कर रही हैं। घर में दीपक तो मात्र मांगलिक रूप से ही प्रज्ज्वलित किये जाते हैं।
श्री आदिनाथ प्रभु की असीम कृपा से नगरी में चोर आदि अनिष्टकारी उपद्रव नष्ट हो गये हैं। इस कोशलापुरी में दुकानों में बेचने हेतु रखे गये रत्नों को देख कर जो समुद्र रत्नाकर कहलाता था वह अब मकराकर (मगरमच्छों का घर) हो गया है, क्योंकि समुद्र के सभी प्रकार के रत्न कोशलापुरी में आ गये हों वैसा प्रतीत होता है। कवि उपमा देकर लिखता है :
पूषेव पूर्वाचलमूर्धि घूक - कुलेन घोरं ध्वनतापि यत्र।
नाखंडि पाखंडिजनेन पुण्य-भावः सतां चेतसि भासमानः॥१-१६॥ (जैसे पूर्वांचल में स्थित सूर्य को देख कर उल्लू चाहे जितनी आवाज करे तब भी सूर्य में कोई फेर-बदल नहीं होता वैसे ही इस नगरी के सज्जन लोगों के मन में आये पुण्य भावों का दुष्ट लोग खंडन नहीं कर सकते हैं।)
राज्य-मार्ग पर विचरते लोगों की आभरण-भूपित भुजायें आपस में घर्षण से प्रकाश उत्पन्न करती है, वह प्रकाश मानो दिन में भी नक्षत्र आकाश में स्थित है वैसा लोगों में भ्रम उत्पन्न करते है। नगर की क्रीड़ा करने की बावड़ी भी नीलमणियों से बनी हुई है। इस नगरी में दानवीर कल्पवृक्ष की कलियों के समान हाथ द्वारा याचकों की दीनता का निवारण करते हैं । कल्पवृक्ष तो केवल कल्पित ही बन गये हैं। जैसे रत्नों की खाने पृथ्वी के उदर में स्थित है फिर भी उसका प्रकाश फैलता है वैसे ही निर्मल शीलवाली मरुदेवा माता के उदर में स्थित प्रभु ने सर्वजीवों के चित्त में प्रकाश फैलाया है। भगवान का उदय होने पर निरंतर दुःख से पूर्ण ऐसे नरक के जीव भी सुख का अनुभव करते हैं।
अभिषेक के समय मेरुशिखर पर स्थापित किये गये सुवर्ण कांतिवाले ऋषभ कुमार को मानवरत्न मान कर इन्द्रादि देवों ने नमस्कार किया। किसी समय इन्द्र ऋषभ कुमार के पास इक्षु लेकर आये। उसे देख कर ऋषभ कुमार ने तुरन्त ही हाथ में इक्षु ग्रहण किया, इससे इन्द्र ने उनके वंश का नाम [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(१९)
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
इक्ष्वाकुवंश रखा। विकल्प रूपी तरंगें जिनके शांत हो गयी हैं, जिनके चपलतारहित नेत्र हैं एवं बाल्यावस्था में भी जो योगियों की मर्यादा का पालन करने वाले हैं, ऐसे ऋषभ कुमार को देख कर कामदेव सोचने लगा कि इस बालक को मैं वश में कर सकूं वैसा नहीं है ।
देवता बाल ऋषभ को गोद में लेकर खिला रहे थे । स्नेह से मोहित हुये नाभिराजा पुत्र को बुलाते तब ऋषभकुमार मंद-मंद पैरों से पिता के पास जा कर 'हे तात!' ऐसा कहते थे। बादलों से घिरे सूर्य तारों से भी अधिक प्रकाशमान होता है, वैसे ही मिट्टी में खेलने से मिट्टी से सने भगवान स्नान किये लोगों से भी अधिक सुन्दर लगने लगे। प्रभु की भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य नहीं है जिनका ऐसे देव भगवंत के लिये स्वयं की भक्ति से पोषण प्राप्त करते हैं एवं शीघ्र कवि रूप प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं। प्रभु के कर्ण सुभाषितों को सुनने की इच्छा वाले हैं वैसा जानकर देवता स्तुति करते हैं। हंस, मयूर, चक्रवाक, तोते आदि पक्षियों के विविध रूप धारण करके ऋषभ कुमार के साथ क्रीड़ा करते हैं ।
तत्पश्चात् कवि ऋषभदेव की सात वर्ष की आयु की महत्ता एवं देहकांति का वर्णन कवित्वमय शैली से करता है । मेरु पर्वत के साथ तुलना करता हुआ कवि कहता है कि प्रभु सात वर्ष के हुए एवं मेरु पर्वत भी भरत, हेमवंत, हरिवर्ष, महाविदेह क्षेत्र, रम्यक्, औरवत, हेरण्य सात क्षेत्र से युक्त है। फिर मेरुपर्वत चारों तरफ से नंदन वन से घिरा हुआ है। ऐसा लगता है कि नन्दनवन की गोद में मेरुपर्वत स्थित है वैसे ही ऋषभ कुमार भी मरुदेवा माता के गोदी में बैठे हैं। ऋषभ कुमार सुवर्ण कांति वाला है एवं मेरु पर्वत भी सुवर्ण कांति वाला है। इस प्रकार अनुक्रम से ऋषभ कुमार ने चपलता युक्त बाल्यावस्था त्याग कर युवावस्था को धारण किया ।
प्रभु के देह सौंदर्य का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि ऋषभ कुमार का मुख चंद्र समान एवं चरण युगल कमल समान शोभा देते हैं। चंद्रमणि से निर्मित मुकुट को पहन कर दिक्पाल प्रभु को नमस्कार करने आते हैं। प्रभु को नमस्कार करते समय अपने मुकुट प्रभु के चरणों के पास रखे जिससे प्रभु की अंगुलियाँ अधिक शोभा देने लगीं। फिर प्रभु के नाभिरूप कुंए के पास जाकर प्रजा ने नेत्ररूपी अंजलि से प्रभारूपी जल पीकर अपनी सभी इच्छायें पूर्ण की। (श्रीवत्स) कामदेव ने भगवान के विशाल हृदय में कपट बुद्धि से प्रवेश करने हेतु इच्छा की, लेकिन तत्त्वज्ञान रूपी सुभटों ने (रक्षकों) ने प्रवेश नहीं करने दिया।
याचकों का समूह दान के अवसर पर भगवान के हाथ को कल्पवृक्ष के पत्र जैसा मानते हैं एवं अंगुलियों को कामधेनु एवं नाखुनों को चिंतामणि रत्न के समान मानते हैं। प्रभु के पास सभी याचकों की इच्छा - पूर्ति हो जाती है ।
कवि ने यहाँ कल्पवृक्ष के पत्ते, कामधेनु के आँचल एवं चिंतामणि रत्त्र तीनों का इच्छापूर्ति के अपार्थिव माध्यमों का समन्वय एक हाथ के भीतर ही अपनी मौलिक कल्पना शक्ति से कर लिया है। देखें :
:
पाणेस्तलं कल्पपुलाकि पत्रं तस्यांगुलीः कामदुघास्तनांश्च । चिन्तामणींस्तस्य नखानमंस्त दानावदानावसरेऽर्थिसार्थ: ।। १-४८॥
फिर कवि उत्प्रेक्षा करता हुआ लिखता है :
(२०)
[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
यज्जातिवैरं स्मरता तदास्यांभोजन्मनाऽभञ्जि जगत् समक्षम्। निशारुचिस्तत्किमपत्रपिष्णुः सोऽयं दिवाभूद्विधुरप्रकाशः॥ १-५० ।।
प्रभु के मुख रूपी कमल से चंद्रमा को जीत लिया गया इसलिये दिन में चन्द्रमा दिख नहीं रहा है। कमल एवं चन्द्रमा का जाति वैर है इसलिये मुख रूपी कमल को देख चन्द्रमा लज्जाशील होकर प्रकाश नहीं दे रहा है। भगवान के दोनों होठ मानों क्षीरसमुद्र की तरंगों में धुले हुए हैं। पुनः प्रभु जब बोलते हैं तब प्रभु के उज्ज्वल दाँत का तेज अधर पर गिरने से होठ ज्यादा सुशोभित बने हैं । प्रभु के मुख कमल की पहरेदार के समान जैसे रक्षा करता हो वैसे दाँत भी सुन्दर दो पंक्ति में शोभा देते हैं । प्रभु की कोमल जीभ भी वचनों के चातुर्य से लोगों को मृदुता देती है। जीभ खुद चपल है फिर भी सभासदों को धैर्यगुणों का अभ्यास कराती है।
कवि कल्पना करता है कि संसार के जीवों के लिये प्राण को धारण करने वाली नासिका होने से उसने उच्च स्थान को प्राप्त किया है जिससे वह प्रभु की दीक्षा के दिन से लेकर कर्म रूपी शत्रुओं को मारने के लिये वे नासिका का अग्रवीक्षण करेंगे। पुनः भगवान के दोनों गाल, पास में रहने वाले लोगों के लिये हाथ के प्रयास के बिना ही सुवर्णमय दर्पण के जैसा काम करते हैं। प्रभु के नेत्रों से लक्ष्मी को जीता गया है इस कारण से लक्ष्मी प्रभु की दासी बन गई है। काले मेघ समान प्रभु की आँख की भौंहे हैं। कलावान मयूर जैसे काले मेघ को देख कर आनन्दित हो जाते हैं वैसे प्रमदाएँ प्रभु की दो काली भौहों को देख आनन्दित होती हैं।
कवि ने यहाँ प्रभु के नयन एवं भौंहों के लिये उपमा देते हुए लिखा है कि जैसे पथिक अंग नाम के देश में घूम कर, पानी पी कर, लता (तरु) की छाया में विश्राम करके, स्थल मार्ग में गमन करे वैसे ही युवती-स्त्रियों की दृष्टि भगवान के समस्त शरीर के दर्शन करके आँख रूपी प्याऊ के पास सौंदर्य रूपी जल का पान करके, भ्रमर रूपी लता के पास कुछ समय विश्राम लेकर, ललाट के मार्ग से गमन करती है। भगवान का भाल (मस्तक) अष्टमी के चंद्र समान एवं मुख पूर्ण चंद्र समान शोभा दे रहा था। जगत में श्याम वर्ण निंदित माना जाता है, लेकिन प्रभु के पास श्याम वर्ण श्रेष्ठता को प्राप्त करता है। काले केशों का समूह प्रभु के मस्तक पर शोभा दे रहा था, इसलिये केश-कलाप में प्रभु ने श्यामवर्ण को स्थान दिया है । श्याम वर्ण को शरीर में सबसे ऊँचा स्थान मिला है और पीला वर्ण भगवान के संयुक्त अंग का आश्रय लेकर रहा हुआ है इसलिये पीले रंग को सर्व रंगों में श्रेष्ठ माना है।
जैसे घुड़सवार घोड़े को काबू में रखता है वैसे ही प्रभु युवावस्था प्राप्त करने पर भी उनका मन हमेशा काबू में ही रहता था। बलवान ऐसा कामदेव उनके शरीर में निःशंक होकर उनकी सेवा करता था। सुरेन्द्रों ने प्रभु के राज्याभिषेक की तैयारियाँ की उससे पूर्व ही दुष्टों की चेष्टा रूपी साँप को खाने हेतु गरुड़ समान प्रभु का प्रताप फैला हुआ था। मोक्ष-लक्ष्मी की इच्छा पर प्रभु ने अत्यन्त विशिष्ट दान दिया। प्रभु के दान से कल्पवृक्षों की अपेक्षा नहीं रही, यह जानकर कल्पवृक्ष मंदराचल पर्वत की गुफा में चले गये। इन्द्र की सभा में तुंबुरु एवं नारदादि द्वारा प्रभु की कीर्ति रूप अमृत को प्रकट किया गया, इससे देवताओं के पास रखा अमृत व्यर्थ हो गया, क्योंकि सभी देवता अमृत को ही ग्रहण करने लगे।
किन्नरगण वीणा बजाकर प्रभु के यश को गाने लगे। भगवान का यश सुनने हेतु एकत्रित देवों से विशाल नन्दनवन की भूमि भी छोटी हो गई। प्रभु की महिमा वर्णन करता कवि लिखता है :
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(२१)
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
स एव देवः स गुरुः स तीर्थः,
स मङ्गलं सैष सखा स तातः। स प्राणितं स प्रभुरित्युपासा
मासे जनैस्तद्गतसर्वकृत्यैः॥१-७३॥ चौसठ इन्द्रादि प्रभु के चरणकमलों की सेवा करते हैं इससे ही वे देवाधिदेव हैं। लोगों के आचार-- व्यवहार, विद्या, शिल्प, विज्ञानादि को बताने वाले हैं, इसलिये वही गुरु हैं, वही जंगम तीर्थ हैं । सर्व पापों को छेद करने वाले होने के कारण वही मंगल हैं, वही मित्र है। भव्य जीवों के अंतरंग शत्रु के रक्षक होने से वे ही पिता हैं, वे ही प्राणियों के जीवन हैं । ये भगवान ही सब कुछ हैं, ऐसा जानकर लोग प्रभु की उपासना करने लगे।
योगीश्वर ऐसे उन प्रभु ने स्वयं की माता के उदर रूपी गुफा में रह कर नई तरह की परकाय प्रवेश विद्या का अभ्यास किया है, कारण कि बालक एवं तरुण के रूप में प्रभु ने सबके हृदय में प्रवेश कर लिया था। प्रभु का हृदय में ध्यान धरने वाली देवांगनाओं का कामदेव सम्बन्धी ताप का नाश हुआ, प्रभु की वाणी सुन कर्णों में अन्य की प्रशंसा के वचनों के प्रति अरुचि हुई और प्रभु को देखने पर अन्य विषयों की गति में आँखों का आलसी रूप प्रकट हुआ। फिर भी इस प्रभु के प्रति देवांगनायें अत्यन्त स्नेह धारण करने लगीं। युवावस्था में प्रभु का विशेष प्रकार का शरीर-सौन्दर्य कामदेव की भ्रांति को प्रकट करता था। इस प्रकार प्रभु विविध प्रकार की क्रीड़ाओं और विविध रसों के माध्यम से काल निर्गमन करने लगे।
सर्ग - २ दूसरे सर्ग का आरम्भ कवि निम्न श्लोक से करता है :
तदा हरेः संसदि रूपसम्पदं, प्रभोः प्रभाजीवनयौवनोदिताम्।
अगायतां तुम्बुरुनारदौ रदो-च्छलन्मयूखच्छलदर्शिताशयौ ॥१॥ इस अवसर पर तुंबुरु एवं नारद द्वारा इन्द्र की सभा में श्री ऋषभदेव प्रभु की रूप सम्पत्ति का गुणगान किया गया। इन्द्र की सभा में आये हुए प्रभु के चरित्र-रूपी अमृत को पीते हुए किसी देव ने कहा कि 'कामधेनु का दूध आज निंदित हुआ।' दूसरे देव ने कहा कि 'कल्पवृक्ष के फल व्यर्थ गये।' किसी अन्य ने कहा 'समुद्रमंथन से जो अमृत प्रकट हुआ वह भी बेकार गया।' प्रभु के गुणों को सुनने से ही लोगों के कान सुशोभित होने लगे, जिससे उनको कर्णाभूषण पहनने की जरूरत नहीं रही। पुनः कवि कल्पना करता है :
ध्रुवं दृशोश्च श्रवसोश्च संगतं, प्रवाहवान्तरमस्ति देहिनाम्। श्रुतिं गतो गीतरसो दृशोदमून्, मुदश्रुदम्भाद् द्युसदां किमन्यथा ॥२-७॥
तुंबुरु एवं नारद के मुख से प्रभु ऋषभदेव के यश रूपी अमृत का समूह देवों के कर्ण रूपी कुएँ में से हृदय रूपी सरोवर में नहीं समा सका। वह यश का समूह हर्षाश्रु के बहाने से दृष्टि रूपी मार्गों से बाहर निकला।
ऋषभदेव प्रभु का कथामत पीते हुए देवों के कानों को अत्यधिक सुख प्राप्त हुआ, परन्तु प्रभु
(२२)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
को प्रत्यक्ष नहीं देखा उससे आँखों को जरूर पीडा हुई। प्रभु के गुणगान सुनने से प्रभावित होकर देवगण दूसरी समस्त क्रियाओं को छोड़कर स्थिर हो गये, इससे देव चित्रवत् दिखाई देने लगे।
इन्द्र महाराज सभासदों को विसर्जित कर प्रभु का विवाह समय जान कर मनुष्य लोक में आने हेतु उत्तर वैक्रिय रूप धारण करके चले। स्वामी-भक्ति वाले दूसरे देवों ने इन्द्र को विनति की कि 'आप स्वयं नहीं जाएँ, हमको ही आदेश दें। हम सभी कार्य करके आयेंगे।' परन्तु प्रभु के दर्शन की अभिलाषा वाले इन्द्र खुद ही गये। बादल बगुलों को निमंत्रण देते नहीं है, लेकिन बादल को देख बगुले वहाँ जाते हैं वैसे ही इन्द्र चलने लगे। यह देख उनके पीछे प्रभु-भक्ति की इच्छा वाले दूसरे देव भी चलने लगे।
'प्रभु के पास पहुंचने में मुझे विलम्ब होगा ऐसी आशंका से इन्द्र ने रुचकादि पर्वतों के शिखर पर जाते-जाते वहीं रहे हुए जिन-मन्दिरों को मन से ही नमस्कार किया। अंजनाचल पर अंधकार था, अतः इन्द्र ने हजार नेत्र धारण किये, जिससे नेत्रों की प्रभा से सर्वत्र प्रकाश फैल गया। सूर्य का प्रखर किरण रूपी दंड आकाश में शोभा दे रहा था। वही किरण-दंड सौधर्मेन्द्र को आकाश से उतरने हेतु हाथ का आधार रूप हुआ। प्रभु के विवाह मंडप में मणि-दीपक का कार्य करने हेतु सूर्य-चंद्र भी उनके साथ चले।
चलते हुए इन्द्र के आनन्द की कोई सीमा नहीं थी। इन्द्र ऊपर मुख करके आकाश में रहने वाले नक्षत्रों को और नीचा मुख करके समुद्र में रहे हुए तरह-तरह के मोती-मणि को देखने लगे। पर्वतों पर से गिरते हुए जल-प्रपात से उत्पन्न होने वाले क्षीर-समुद्र के जल बिंदुओं से इन्द्र की थकान दूर होती थी। इसके बाद इन्द्र वेग से मार्ग को पार कर जंबूद्वीप क्षेत्र में पहुँचे। प्रभा मंडल से युक्त चंद्रमा शोभा देता है। जिनेश्वर का जन्म जिस प्रदेश में हुआ था उस प्रदेश को देखते ही इन्द्राणी को देखने से जो आनन्द होता है उससे अधिक आनन्द इन्द्र को हुआ। अब इन्द्र ने दूर से लम्बे शिखरों वाले, मेघ की श्रेणियों से स्थूल होते पर्वत के मध्य भागों के छोर (कोण) को देखा जिसमें ऊँचे एवं लम्बे रस्सी के जैसे आचरण करते पानी के झरने हैं। ऐसे पर्वतों में हाथी समान अष्टापद पर्वत को देखा। अरिहंत प्रभु की चौबीस प्रतिमायें मेरे मस्तक को आश्रय कर मुकुट रूप होंगे। इस प्रकार के हर्ष एवं रोमांच को अष्टापद पर्वत वांसों के समूह के बहाने धारण करता था। जिनेश्वर प्रभु की जन्मभूमि के समीपस्थ रहे हुए पर्वत को हर्ष से दृष्टिगोचर करके वह इन्द्र पर्वतों के शिखर का स्वकृत नाश से उत्पन्न पापों से खुद को मुक्त करने लगा। इसके पश्चात् इन्द्र प्रभु की जन्मभूमि की ओर चला । वहाँ जन्मभूमि को देख लम्बे समय से प्रभु दर्शन की इच्छा वाले इन्द्र के हृदय रूपी सरोवर ने निर्मलता प्राप्त की। जैसे शरद ऋतु की चाँदनी की लहरों से व्याकुल सरोवर शांति को प्राप्त करता है।
पूर्वाचल दिशा में रहने वाले सूर्य के समान तेजस्वी, सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान, सर्व जीवों के प्रति अमृत तुल्य दृष्टि वाले, मित्र बने देवों के साथ बैठे हुए, छत्र को धारण करने वाले, आभूषणों से शोभित देवांगनाओं द्वारा चामरों से वींजायमान तथा पंडितों द्वारा चरण-कमल की वंदना करते हुए ऐसे जगत प्रभु को इन्द्र ने वन में देखा।
कीकियों के बहाने भौंहों को छूने वाले हजार नेत्रधारक इन्द्र जैसे कमलों की माला धारण करते हों वैसे ही वे त्रिलोकनाथ को पूजने हेतु वेग से आये एवं प्रवृद्ध भावनाओं से प्रभु की स्तुति करने लगे। जैसे भ्रमर कमल पर जाता है वैसे इन्द्र भी प्रभु पर आसक्त बनकर, प्रभु के पास जाकर, प्रभु के चरण कमल में नमस्कार कर, भक्ति रस के निर्झर से निर्मल स्तोत्र-वचनों से स्तुति करने लगा।
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(२३)
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
महामुनीनामपि गीरगोचरा - खिलस्वरूपास्तसमस्तदूषण। जयादिदेव त्वमसत्तमस्तम - प्रभाप्रभावाल्पितभानुवैभव॥ २-४९॥ गुणास्तवाङ्कोदधिपारवर्तिनो, मतिः पुनस्तच्छफरीव मामकी। अहो महाधाष्टर्यमियं यदीहते, जडाशया तत्क्रमणं कदाशया॥२-५०॥ मनोऽणुधर्तुंन गुणांस्तवाखिलान्न तद्धृतान्वक्तुमलं वचोऽपि मे। स्तुतेवरं मौनमतो न मन्यते, परं रसज्ञैव गुणामृतार्थिनी॥२-५१॥
हे त्रिकालज्ञ! जिनका स्वरूप महामुनि की वाणी से भी अगोचर है, सभी दूषणों का नाश करने वाले, निष्पाप प्रभा के प्रकाश द्वारा सूर्य के प्रकाश की प्रभा को क्षीण करने वाले हे आदिनाथ प्रभो! आप जयवंत रहें। हे प्रभो! आपके गुण संख्या रूपी समुद्र को भी पार कर जाते हैं। हमारी बुद्धि समुद्र में रहने वाली मछलियों के जैसी है; जिससे हमारी जड़ मति (बुद्धि) आपके गुणों का वर्णन करने हेतु शक्तिमान नहीं है।
हे नाथ! मेरा मन आपके समस्त गुणों का वर्णन करने में असमर्थ है, तथापि इस रस को जानने वाली जीभ गुण रूपी अमृत का पान करना चाहती है। इसी कारण मैं आपके गुणों की स्तुति करता हूँ। तीन भवनों में अत्युत्कृष्ट आपकी जो मैं स्तुति करता हूँ उसे मैं अपूर्ण ही मानता हूँ। फिर भी आपकी भक्ति मुझे स्तुति करने हेतु वाचाल बनाती है। पुनः कवि लिखता है :
अनङ्गरूपोऽप्यखिलाङ्गसुन्दरो, रवेरदभ्रांशुभरोऽपि तारकः।
अपि क्षमाभृन्न सकूटतां वह-स्यपारिजातोऽपि सुरद्गुमायसे ।। २-५३॥
हे नाथ! आप कामदेव जैसे रूपवान हैं । हे नाथ! आप सूर्य से अधिक तेजस्वी हैं । आप संसारसागर से तारने वाले हैं, क्षमा के भंडार हैं। आप कल्पवृक्ष नहीं हैं, फिर भी कल्पवृक्ष के समान हैं। हे नाथ! आपने धन सार्थवाह के भव में वन में विचरने वाले तपस्वी मुनि को घी बहोराया था, इसी के प्रभाव से ही आपने तीर्थंकर पद प्राप्त किया है। दस प्रकार के कल्पवृक्ष तो मन की विविध इच्छाओं को पूर्ण करते हैं, लेकिन आप तो उससे भी विशेष हैं और मनोवांछित को पूर्ण करने वाले हैं। दूसरे जन्म में आपने उत्तर कुरु में युगलिक रूप प्राप्त किया था। पुनः सौधर्म देवलोक में देवियाँ हमेशा आपको चलायमान करने हेतु करोड़ों कटाक्ष करती रहीं, फिर भी आपका धैर्यकवच टूटा नहीं। हे नाथ! महाबल राजा के जन्म में आपने ज्ञानरूपी बल से स्वयं के नाम को यथार्थ किया था। बहुत बड़े चार्वाक के वचनों को आपने ज्ञान-मुद्गर से चूर्ण कर दिया था। हे नाथ! आपने इशान देवलोक में ललितांगदेव के जन्म में वधू (देवी) के विरह में विलाप किया था। फिर दरिद्र पुत्री निर्नामिका को आपने तप के फल का दान दिया था। इससे सिद्ध हुआ कि सज्जनों की सम्पत्ति दूसरों के लाभ हेतु होती है। हे नाथ! वज्रजंघ राजा के जन्म में आपके पुत्र ने विषयुक्त धुंवा दिया था, उस कारण से आज भी आपका मन कामदेव से विश्वासरहित रहता है । हे प्रभो! बाद में आप युगलिक हुए थे। उसके बाद प्रथम देवलोक में देव होकर वैद्य हुए थे एवं मुनि के कुष्ठ रोग को दूर किया था, वह कला आज भी आपमें प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है। इसके पश्चात् हे प्रभो! अच्युत नाम के देवलोक में आप देव हो गये। हे नाथ! इसके बाद तीर्थंकर पर के निमित्त रूप चक्रवर्ती पद प्राप्त किया, लेकिन आपको प्रसन्नता नहीं हुई, क्योंकि अच्छे पुत्र में पिता के गुण आने चाहिये। आपके पिता वज्रसेन तीर्थंकर थे और आप वज्रनाभ चक्रवर्ती हुए, जिससे आपने चक्रवर्ती पद का त्याग करके संयम ग्रहण करके बीस स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया।
(२४)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
हे नाथ! जब आप सर्वार्थ विमान में (मोक्ष के निकट में) रहते थे तब मोक्ष रूपी लक्ष्मी के मिलन में चाहने पर भी विलम्ब हुआ। भविष्य के स्वामी जानकर मोक्ष लक्ष्मी ने आपकी सेवा की। हे नाथ! आप यहाँ भरतक्षेत्र के प्राणियों का हित चाहते हुए भोग एवं मुक्ति देने के लिये, सर्वार्थ सिद्ध विमान को प्राप्त करने के बाद भी समीप में रही मुक्ति को छोड़ कर यहाँ आये, मोक्ष पथिक बने। हे लक्षणों के भंडार! आपने इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव, राजा आदि सबको अपना दास बनाया है। आपने दायें हाथ में वज्र, चक्र, शंख एवं खड्ग धारण किये हैं वह इन्द्र को पद देने हेतु ही हैं, अन्यथा आपको इसकी जरूरत नहीं है। हे नाथ! आपने ज्ञान से मोह रूपी राजा को मार दिया है। मोह राजा की मृत्यु हो जाने के बाद लोभादि नौकर तो कहाँ से रह सकते हैं? जैसे मेघ के जल से दावानल समाप्त हो जाता है तब फिर उसकी चिनगारी कहाँ से स्थिरता को धारण करेगी? जिस कामदेव का बाण हमेशा दानवों एवं देवों को पीडा देते है वैसा काम भी आपके ध्यान रूपी अग्नि में काष्ठ समान होगा। हे नाथ! आपसे अधिक अन्य कोई जगत में देव नहीं है। इस संसार में आप ही पूज्य हैं । आपका नाम छोड़ कर अन्य कोई अक्षर जाप उत्कृष्ट नहीं है। आपकी सेवा के अतिरिक्त कोई उत्कृष्ट पुण्य का समूह नहीं है । वैसे आपके मिलन से अन्य कोई उत्कृष्ट मिलन नहीं है।
इस प्रकार स्तुति करते हुए बुद्धिमानों में अग्रसर इन्द्र श्री ऋषभ स्वामी की अमृत समान दृष्टि द्वारा पोषित हुए।
इस दूसरे सर्ग में कवि ने 73 श्लोक की रचना की है एवं सर्ग-रचना करने में वंशस्थ छंद का चयन किया है और सर्ग के अंत में मालिनी एवं पृथ्वी छंदों का प्रयोग किया है। श्री ऋषभदेव प्रभु का गुणसंकीर्तन तुंबुरु एवं नारद के मुख से सुनकर इन्द्रादि देव भगवान के विवाह प्रसंग पर आ पहुँचते हैं।
सर्ग - ३ इन्द्र फिर से जीवों का हित करने वाली वाणी बोलते हैं :
'हे नाथ! आप सभी भावों को जानते हो फिर भी आपके प्रति मेरा एक निवेदन है । जैसे वर्षा ऋतु में बादल उत्पन्न होते है किन्तु वे पवन (तेज हवा) चलने पर भी बिखरते नहीं हैं वैसे ही मेरे वचन पवन जैसे हैं और आप बादल के समान हो । मैं कहूँ इसलिये उसका कोई आप पर प्रभाव नहीं है, कारण कि आप तो बादल समान हो। हे नाथ! आपकी कृपा तो जगत में सभी के लिये समान है, पर मैं तो इसे मेरे लिये अधिक मानता हूँ। जैसे चंद्रमा की कला सब को आनन्द देने वाली है पर स्वार्थी चकोर ऐसा मानता है कि खुद के लिये ही चंद्र का उदय हुआ है। आपकी 72 कलायें जगत के लिये उपकारी हैं, इसमें कोई संशय नहीं है कारण कि वह सब आपसे उत्पन्न हुई हैं। आपका आगम रूपी महासागर उपयोग होने पर भी कभी कम नहीं होता है । आपके पास अविनश्वर धर्मरूपी चिंतामणि रत्न है।'
पुनः इन्द्र महाराज कहते हैं कि 'हे प्रभो! आपने बाल्यावस्था को कृतार्थ कर दिया है तो अब विवाह करके तरुणों को भी कृतार्थ करें।' प्रभु ने कोई भी उत्तर नहीं दिया तब इन्द्र ने फिर से विनती की-'हे नाथ! मैं आपका अधिपति होने पर भी अगर मुझे कोई उत्तर नहीं मिले तो जैसे किसी दानेश्वरी के पास जाने पर भी उसे दान नहीं मिले तब उसके जैसी स्थिति होगी। हे नाथ! सुमंगला सहजन्मा है। पवित्र सुमंगला को आप अपनी बनावें। आप विवाह करेंगे तो उस अवसर पर इन्द्राणी आदि देवांगनायें
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(२५)
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
यहाँ आकर विवाह सम्बन्धी कार्य करेंगी। धवल मंगल गीत गायेंगी। तुंबुरु नारदादि आपकी स्तुति करने हेतु आयेंगे । इसलिये हे बुद्धिमान महात्मा! आपको जैसा उचित लगे वैसा करें।'
तत्पश्चात् भोगावली कर्म का विपाक काल प्राप्त हुआ है । जान कर भगवान मौन रहे । उसको भगवान की संमति जान कर इन्द्र संतुष्ट हुए। पुनः कवि वर्णन करता है :
जग्राह वीवाहमहाय मंक्षु, मुहूर्तमासनमथी महेंद्रः। अवत्सरायंत यदंतरस्था, लेखेषु हल्लेखिषु काललेशाः।। ३-३७॥ वैवाहिके कर्मणि विश्वभर्तु-र्यदादिदेश त्रिदशानृभुक्षाः।
बुभुक्षिताह्वानसमानमेत - दमानि तैः प्रागपि तन्मनोभिः॥ ३-३८॥ इसके बाद इन्द्र ने जल्दी से विवाह की तैयारी की एवं नजदीक का महर्त स्वीकार किया। देवों को वह अल्प समय भी वर्ष समान लगने लगा। प्रभु के विवाह के प्रसंग में देवों को जो-जो आदेश कार्य के लिये दिये गये, इससे देवों को जैसे भूखे को भोजन हेतु बुलाने पर जितना आनन्द होता है इतना आनन्द हुआ। फिर इन्द्र ने इन्द्राणी को सुनंदा एवं सुमंगला को विभूषित करने की आज्ञा दी। अन्य देवों ने मणिमय मंडप बनाया। मंडप के स्तंभ पर सोने की पुतलियाँ शोभायमान थीं। मंडप पर सोने के कलशों ने सरोवर में उत्पन्न होने वाले कमलों की शोभा को प्राप्त की। इन्द्राणी की आज्ञा से श्रीदेवी हिमवंत पर्वत पर चंदन लेने गई। फिर दिशा कुमारियों ने नंदन वृक्षों के पुष्प गुच्छों को उपहार स्वरूप लाकर प्रभु को दिये। कश्मीर में बसने वाली सरस्वती ने प्रभु के विलेपन करने हेतु केसर लाकर दी।
इसके बाद इन्द्राणी के आदेश से सुमंगला एवं सुनंदा को देवियों ने सुवर्णासन पर बिठाकर तैल का मर्दन कर उनको स्नान करवाया और सुगंधि द्रव्य से लेपन किया। इसके बाद देवियों ने उनको विविध वस्त्राभूषण से सुसज्जित किया। मातृ गृह में निर्दोष आसन पर बिठा कर उन दोनों कन्याओं के सौंदर्य को देवियाँ निर्निमेष नयनों से देखती रहीं एवं वर राजा (दूल्हे) का स्मरण कराने
लगी।
संस्कृत महाकाव्य में जो विविध गौरव पूर्ण प्रसंगों का महाकवि सविस्तार आलेखन करते हैं उनमें से एक प्रसंग विवाह का है। काव्य के नायक भगवान ऋषभदेव यौवन में प्रवेश करते हैं और विवाह योग्य आयु पर पहुँचते हैं, इस अवसर पर जैन कथानुसार इन्द्रादि देव आकर भगवान ऋषभदेव को विवाह हेतु विनती करते हैं और प्रभु की मूक संमति मिलने पर उसकी विविध तैयारियाँ करते हैं। इन्द्राणी भी सुमंगला एवं सुनंदा का सुंदर शृंगार कर देती है उक्त सभी प्रसंगों का वर्णन कवि ने इस तीसरे सर्ग में किया है।
सर्ग - ४ नव वैमानिक के इन्द्र, बीस पाताल लोक के इन्द्र, बत्तीस व्यंतरवासी इन्द्र एवं सूर्य, चंद्र तथा सौधर्मेन्द्र ऐसे कुल चौसठ इन्द्र प्रभु के विवाह अवसर पर पृथ्वी पर आये।
___ अपने-अपने देवलोक में से निकले देवगण खुद के मित्र देवों को बुलाने लगे। उस समय स्वर्ग में कलकल की आवाज होने लगी। स्वर्ग मानो गोकुल बन गया हो। आगे वर्णन करते हुये कवि कहता है :(२६)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमीषु नीरंध्रचरेषु कस्यचि-निरीक्ष्य युग्यं हरिमन्यवाहनम्। इभो न भीतोऽप्यशकत्पलायितुं, प्रकोपनः सोऽपि न तं च धर्षितुम्॥४-५॥
अलग-अलग देवों के अलग-अलग वाहन होते हैं। हाथी के वाहन वाले देवों के हाथी सिंह को देख कर डर के मारे भाग न सके, कारण कि तिलमात्र भी कोई खाली स्थान न था। अर्थात् उस मार्ग पर अपार भीड़ थी।
ऋषभदेव के विवाह में जाने हेतु उत्साहित देवों की भुजाओं के बाजूबंद आदि आभूषणों के परस्पर टकराने से रत्न नीचे गिरने लगे, इससे ऐसा प्रतीत होता था कि पृथ्वी रत्नाकर बन गई है । देवों के आने-जाने से पृथ्वी एवं स्वर्ग के मध्य में जैसे पुल बन गया हो। इसके बाद सर्वप्रथम सौधर्मेन्द्र ने प्रभु के शरीर पर उत्तम जाति के सुगंधित तेल द्वारा मर्दन किया। प्रभु का स्वाभाविक सौंदर्य ही इतना था कि उनको कृत्रिम सौंदर्य की जरूरत नहीं थी। प्रभु के स्नान के समय में देवगण प्रभु के केश कलाप में से झरते जल बिंदुओं का पान करने लगे। इससे देवों को अमृत रस भी नीरस लगने लगा। इसके बाद इंद्र ने प्रभु के मस्तक पर हीरे का मुकुट स्थापित किया। इस मुकुट की कांति सूर्य की किरणों से अधिक शोभा देती थी। फिर प्रभु को तेजस्वी दिव्य कुंडल एवं सुवर्ण और मुक्तामणि से शोभायमान ऐसे देदीप्यमान आभूषण पहनाये। जैसे पक्षियों की दृष्टि फलवाले वृक्षों पर गिरती है वैसे ही अनेक अलंकारों से विभूषित प्रभु पर देव-देवांगनाओं की दृष्टि गिर रही थी। भगवान जब हिरण्य-मुक्तामणि आदि से अलंकृत हुए तब देवताओं के हाथों को दो प्रकार से सफलता प्राप्त हुई। एक तो चिरकाल से संचित खुद की लक्ष्मी का फल प्राप्त किया और दूसरा चिरकाल से प्राप्त किये प्रसाधन कार्य में कुशलता का फल प्राप्त किया।
सुंदर वस्त्र एवं गोशीर्ष चंदन के लेप से सम्पूर्ण लिप्त भगवान ने श्वेत बादलों से घिरे हुए मेरुपर्वत के शिखर को पराजित किया। इसके बाद इन्द्र ने प्रभु के समक्ष मदजल झर रहा है, ऐसा समस्त हाथियों का राजा औरावत हाथी को मंगवाया। यह औरावत हाथी जंगम महल के समान शोभा दे रहा था। प्रभु सौधर्मेन्द्र के वचनों को प्रमाणित करते हुए उस हाथी पर चढ़े। चंद्रमा की किरणों का समूह चंद्र को छोड़ कर बारम्बार दोनों तरफ से प्रणाम करके पवित्र होकर भगवान के मुखचंद्र की सेवा करने लगा। वैर का त्याग कर एवं आपस में मैत्री कर देव और दानव प्रभु के पास आये । स्वकीय धैर्यगुण द्वारा विद्वानों में राग-वैराग्य के संशय को बढ़ाते हुए प्रभु अब प्रयाण करने लगे। उस समय कई देवांगनायें पीछे रहकर लूण उतार रही थीं। कितनी ही दृष्टांत युक्त धवल-मंगल गीत गा रही थीं। इन्द्र महाराजा पैदल चल रहे थे एवं जगत प्रभु औरावत हाथी पर थे। इसे देखकर अन्य देवों को आश्चर्य हुआ। किन्तु तत्काल ही समझ गये कि इन्द्र तो केवल स्वर्ग के स्वामी हैं, जबकि प्रभु तो तीनों लोकों के स्वामी हैं, अत: यह उचित ही है कि प्रभु को इन्द्र से ऊँचा स्थान मिलना ही चाहिये। खुद ने ऐसा विचार किया वह उनकी भूल ही है, वैसा समझ कर देवों ने प्रभु के पास क्षमा मांगी। देव-गन्धर्वादि के समूह से खुद के गुणों की यशोगाथा का पान करते हुए प्रभु ने संतुष्ट न होकर अपना मुख नीचा कर लिया, क्योंकि उनके गुण भंडार की वस्तु परहस्तगत हो गई हो ऐसा उनको लगा। अब कवि नर्तकियों का वर्णन करता हुआ लिखता है :
मुदश्रुधारानिकरैर्घनायिते, धुसञ्चये कांचनरोचिरुर्वशी।
प्रणीतनृत्या करणैरपप्रथ - तडिल्लताविभ्रममभ्रमंडले॥४-४७ ॥ [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(२७)
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
आकाश मंडल में रह कर स्वर्ग को छोड़ कर आये हुए देवगण हर्ष के आँसुओं की धारा से मेघ के समान आचरण करने लगे एवं सुवर्ण की कांतिवाली उर्वशी आकाश मंडल में नृत्य करती हुई बिजली के समान लगने लगी।
रंभा, घृताची, तिलोत्तमादि नर्तकियों ने भी नृत्य किया । यहाँ कवि ने इन नर्तकियों के देहलावण्य का अलंकार युक्त वर्णन किया है।
कितने ही देवता हाथों में शस्त्रों को खुले रख कर प्रभु के आगे चल रहे थे, जिससे लोगों को ऐसा भ्रम हुआ कि यह विवाह यात्रा है या युद्ध यात्रा ? कितने ही देव हाथ में अष्ट मंगल को धारण कर प्रभु के आगे चले। प्रभु के आगे स्तुति- पाठक भी चल रहे थे। ये स्तुति- पाठक विकसित कमलों पर गुंजार करते भौरों जैसे बोल रहे थे । वे छंदोबद्ध काव्य को मधुर स्वर से गा रहे थे। इससे लोग हर्षित
सूर्य ने भी प्रभु की विवाह यात्रा में किसी को कोई कष्ट न हो वैसा सोच कर खुद का प्रचंड ताप कम कर दिया था। तीनों जगत का रक्षण करने वाले प्रभु चल रहे थे तब वायु ने ऐसी प्रसन्नता व्यक्त की कि धूलि नहीं उड़ी और प्राणियों की आँखों में मिट्टी नहीं गई। वायु के कारण पसीने ने भी शरीर को गीला नहीं किया।
प्रभु को देख कर सुमंगला एवं सुनंदा ने कैसा अनुभव किया ! उसका वर्णन करते हुए कवि लिखता है
:
विचित्रवाद्यध्वनिगर्जितोर्जितो, यथायथासीददसौ गुणैर्धनः ।
तथा तथानंदवने सुमंगला-सुनंदयोरब्दसखायितं हृदा ॥ ४-५९ ॥
विचित्र प्रकार के वाजिंत्रों की ध्वनि रूपी गर्जना से बलवान हुए एवं गुणों से दृढ़ हुए ऐसे मेघ समा प्रभु जैसे-जैसे नजदीक आते गये वैसे-वैसे आनन्द रूपी वन में सुमंगला एवं सुनंदा के हृदय ने मयूर के जैसा आचरण किया।
प्रभु मंडप के अग्रद्वार पर पहुँचे उसका वर्णन करते हुए कवि लिखता है :
कलागुरु: स्वस्य गतौ यथाशयं, समुह्यमानः पुरुहूतदंतिना । मुखं मुखश्रीमुखितेंदुमंडलः, स मंडपस्याप दुरापदर्शनः ॥ ४-६१ ॥
स्वयं की गति के प्रति कलागुरु के समान एवं इच्छा के अनुसार औरावत हाथी पर आरुढ़ दुर्लभ हैं दर्शन जिनके ऐसे एवं मुख की शोभा से लक्षणों द्वारा जीत लिया है चंद्र मंडल को जिन्होंने ऐसे प्रभु मंडप के अग्रभाग पर पहुँचे। उसके बाद इन्द्र ने सहयोग देकर प्रभु को औरावत हाथी पर से नीचे उतारा। प्रभु क्षण मात्र वहाँ खड़े रहे। मंडप के द्वार पर कदली-स्तंभ को देख कर प्रभु को देवलोक की रंभा के नृत्य से जो आनन्द हो उस से भी अधिक आनन्द हुआ।
उस समय कितनी ही स्त्रियाँ मोतियों के थाल लेकर, कितनी ही दूर्वा एवं दही लेकर, कितनी ही शरावसंपुट, मुशल आदि विवाह योग्य सामग्री लेकर प्रभु के सन्मुख चली। कितनी ही देवांगनायें स्मित हास्य द्वारा मानों भगवान का स्पर्श किया हो ऐसा अनुभव करने लगीं। लवण एवं अग्नि से भरे शरावसंपुट को प्रभु के सन्मुख रखे, जिसे प्रभु ने सेके हुए पापड़ की तरह पग से तोड़ दिये । कोई स्त्री समर्थ प्रभु को भी लाल वस्त्र कंठ में डालकर खींचती - खींचती मंडप में ले गई, जैसे पाप रूपी प्रकृति कर्म रूपी अवसर प्राप्त होने पर आत्मा को अनिच्छा से संसार समुद्र में ले जाती है। हर्ष को धारण करने
(२८)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाला इन्द्र आग्रह के साथ अखंडित पराक्रम वाले प्रभु को जल्दी से मातृ गृह में जहाँ दोनों कन्यायें शुरु से ही बैठी थीं वहाँ लाकर उनके सन्मुख बिठाया।
दोनों कन्याओं के मुख वरी का वेश (शादी का जोड़ा) से ढका हुआ था। वे दोनों स्वामी के ध्यान में मग्न थीं। फिर वे कन्यायें मंद स्वर से परस्पर इस प्रकार कहने लगीं कि, 'सरोवर समान प्रभु के पास से लावण्य रूपी पानी पीने हेतु हमारे दोनों के नेत्र प्रकट रूप से समर्थ नहीं हैं। चोरी छिपे देखने पर कभी भी तृप्ति नहीं होती है। जैसे विद्यार्थी की चपलता अध्यापक के सामने विलय हो जाती है वैसे ही उन दोनों की जो दुस्त्यज लज्जा थी वह स्वामी के सामने विलीन हो गई।
इस प्रकार महाकाव्य के चौथे सर्ग में कवि ने प्रभु के विवाह अवसर पर देवों का आगमन, देवों द्वारा की गई विविध चेष्टायें, इन्द्र द्वारा प्रभु का देह शृंगार, औरावत हाथी, प्रभु की विवाह यात्रा, देवांगनाओं का परस्पर आलाप, विवाह की लौकिक विधि आदि प्रसंगों का वर्णन कुल 80 श्लोकों में किया है।
सर्ग - ५ इसके बाद सभी अंगों का आलिंगन (सेवा) करने पर भी हृदय को जानने हेतु कौतुकी के समान इन्द्र ने करुणासागर ऋषभ कुमार का उन दोनों कन्याओं के साथ हस्तमिलाप करवा दिया। प्रभु के हाथ पर उनके हाथ रहने से तुरन्त ही दोनों कन्याओं के शरीर में सात्विक भाव प्रकट हुए। कवि वर्णन करता है :
बाल्ययौवनवयोविदंतर्वर्तिनं जगदिनं परितस्ते।
रेजतुर्गतघनेऽहनि पूर्वपश्चिमे इव करोपगृहीते ॥ ५-६॥ हाथों से ग्रहण की गई ऐसी उन दोनों कन्याओं, बादल रहित दिवस में सूर्य के आसपास जैसे पूर्व और पश्चिम दिशायें शोभा देती हैं वैसे ही बाल्य एवं यौवन रूपी आकाश में स्थित प्रभु के आसपास शोभा देती थीं। इसके बाद इन्द्र ने प्रभु एवं वधुओं की स्नेह-ग्रंथि कभी भी शिथिल न हो ऐसा सोचकर वस्त्रों का गठबंधन बाँधा। फिर इन्द्राणी दोनों कन्याओं को एवं इन्द्र अद्भुत रूप वाले वर को उठा कर, हरे एवं ऊँचे बांसों से जुड़े हुए हैं सुवर्ण कलश जिस में ऐसी वेदिका (मंडप) में ले गये। फिर पुरोहित बनकर स्वविद्या से अग्नि को प्रकट किया। जैसे देवताओं का प्रिय सूर्य मेरु पर्वत को प्रदक्षिणा करता है वैसे प्रभु एवं दोनों वधुओं ने अग्नि के चारों तरफ प्रदक्षिणा की। हस्तमोचन विधि में इन्द्र ने साढ़े बारह करोड़ सुवर्ण की वर्षा की, कारण कि इन्द्र के हाथ में सौ करोड़ स्वर्ण-मुद्रा रहती है । उत्तम जाति के मोतियों, सूक्ष्म, श्वेत एवं कोमल वस्त्रों, रत्नों का सिंहासन, अविच्छिन्न शोभा वाला छत्र, निर्मल चामरों, ऊँची एवं विशाल शय्या एवं दूसरी भी मनपंसद प्रशंसा लायक वस्तुयें थी वे सब इन्द्र ने प्रभु को दी।
तीन भुवन के स्वामी जो याचक न हो तो उन्हें देने वाला इन्द्र याचक की कैसे संभावना करे? इस प्रकार प्रभु ने बहुत काल से शून्य हुई विवाह विधि प्राणियों के हितार्थ प्रारम्भ करके बताई। कंसार खाते समय वधुओं के मुख में कौर दे रहे थे तब प्रभु चंद्र कमल के विरोध का नाश करते हों वैसा दिखाई दे रहा था। कारण कि, दोनों वधुओं के मुख चंद्र समान थे एवं प्रभु के हाथ कमल समान शोभा देते थे। उन दोनों का योग होने से उनका जैसे विरोध नष्ट हो गया हो। फिर प्रभु
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(२९)
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
ने उन दोनों कन्याओं के हाथ से भोजन किया। पश्चात् इन्द्र ने लौकिक विधिपूर्वक प्रभु एवं वधुओं के गठबंधन छोड़ दिये।
विवाहित प्रभु के मुखचंद्र को देखने से पुष्ट हुए हर्षरूपी समुद्र की तरंगे, देवों के हृदय रूपी किनारे से टकराकर आकाश में व्याप्त हो जाए ऐसा शोर करने लगीं। प्रभु की विवाह विधि सिद्ध हुई और खुद की इच्छायें पूर्ण हुईं जानकर इन्द्र हर्ष से नाचने लगा। अभी इन प्रभु का वरण करने के लिये वैराग्य की सखी को नहीं भेजें, इस तरह से मुक्ति वधू को रोकने के लिये ही हो, वैसे नाचते हुए इन्द्र के दोनों हाथ ऊँचे उछल रहे थे। स्त्रियों द्वारा मंगल गीत गाये गये। अप्सरायें नृत्य कर रही थीं। इसके बाद प्रभु घर की तरफ चले । प्रभु को वधुओं सहित आते हुए सुन कर स्त्रियाँ निज के काम को छोड़कर प्रभु को देखने हेतु दौड़ कर गईं।
कवि ने यहाँ 10 श्लोकों में प्रभु के रूप के पीछे दीवानी बनी स्त्रियों का वर्णन किया है।
कितनी ही स्त्रियाँ अर्ध वस्त्र को पहन कर ही दौड़ी एवं वस्त्र गिर जाने पर भी वह नहीं शरमाई, कारण कि लोगों की दृष्टि तो प्रभु को देखने में ही लगी थी। कोई स्त्री यौवन गर्विष्ठ पुरुष के कटाक्ष रूपी भालों से घायल होकर भी सुभट के समान उस समय वहाँ आगे चली आई। जल्दी से मूढ दृष्टि वाली कोई स्त्री खुद के रोते बच्चे को छोड़ कर कमर में बिल्ली को रख कर दौड़ी आई। कोई स्त्री नाखूनों के अग्र भागों में काजल को, आँखों में मेहंदी, पैरों में कंठी एवं कंठ में पायल को धारण कर, स्नान के बाद खुले बालों वाली एवं विपरीत वस्त्रों को धारण करके आ गई।
स्त्रियों के समुदाय में अन्य कितनी ही स्त्रियाँ निर्निमेष नयन वाली हुईं। नाखूनों से पृथ्वी का स्पर्श भी नहीं कर रही थीं, उन्हें देख लोग कहने लगे कि प्रभु के ध्यान में यह जैसे जल्दी से देवी हो गई है। भगवान को देखने की इच्छुक कितनी ही स्त्रियाँ ईर्ष्या से इस प्रकार बोलने लगीं 'प्रभु तो पहले भी रमणीय ही थे, उसमें इन देवों ने क्या अधिक शोभा की है कि वे ही प्रभु को घेरे हुए खड़े हैं?' कितनी ही नाटी स्त्रियाँ उनके आगे खड़ी ऊँची स्त्रियों के कारण प्रभु के दर्शन नहीं कर सकती थी, अत: वे चाटु वचन बोलती हुई आगे जाकर कहने लगी, 'हे सखी! मार्ग को छोड़।'
पूर्व कथनानुसार अद्भुत रस से पूर्ण नारियों के नेत्रों एवं नील-कमलों द्वारा पूजित देहधारक प्रभु के दर्शन करने से सुवर्ण प्राप्ति से जितना आनन्द हो उससे भी अधिक आनन्द हुआ। इसके बाद जगत-प्रभु अपने आवास-द्वार में गये। उत्कट बलवान इन्द्र ने प्रभु को औरावत हाथी पर से उतारा एवं दोनों वधुओं को भी नीचे उतारा।
नेत्र मंडल में से झरते पानी की धारा की मनोहारिता के भाव को धारण करने वाला इन्द्र अब कृतार्थ हो कर देवलोक में जाने की इच्छा से प्रभु को नमस्कार कर कहने लगा :
'हे नाथ! मैं प्रभु भक्ति से कुछ कहता हूँ। इन दोनों विचक्षण कुल-कन्याओं को आपसे जो आदर और स्नेह मिला है, उस स्नेह को कदाचित कम मत करियेगा क्योंकि ये दोनों माता-पिता का स्नेह त्याग करके आपके पास आई हैं।' कवि लिखता है :
अंतरेण पुरुषं न हि नारी, तां विना न पुरुषोऽपि विभाति। पादपेन रुचिमंचति शाखा, शाखयैव सकलः किल सोऽपि॥५-६१॥
__ (३०)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृक्ष से शाखायें एवं शाखाओं से वृक्ष शोभा देते हैं, इसी प्रकार पुरुष से स्त्री एवं स्त्री से पुरुष शोभा देते हैं । हे प्रभु! इन दोनों कन्याओं के मुग्धता के हेतु वाले अन्याय को भी आपको सहना उचित है, कारण कि अधिक रेत को लाने वाली नदी के प्रति भी समुद्र क्रोध नहीं करता है । इसी प्रकार प्रभु को समयोचित्त वचन निवेदन करे हर्पित होकर इन्द्र जब मौन रहे तब कुलीन स्त्रियों के आचार को जानने वाली इन्द्राणी भी प्रभु की नव विवाहित पलियों को शिक्षा देने लगी। कवि कहते हैं :
श्रोत्रयोर्गरुगिरां श्रुतिरास्ये, सूनृतं हृदि पुन: पतिभक्तिः।
दानमर्थिषु करे रमणीनामेष भूषणविधिर्विधिदत्तः॥ ५-७१॥ कानों से गुरु वचनों का श्रवण, मुख से सत्यवचन, हृदय से पति की भक्ति एवं हाथ से याचकों को प्रति दान इस प्रकार के आभूषणों की विधि ब्रह्मा ने स्त्रियों को दी है।
पुनः दिन में पति के खाने के बाद जो स्त्री भोजन करती है, रात्रि को उसके सोने के बाद सोती है, सुबह उससे पूर्व ही बिस्तर का त्याग करती है वही उत्तम शरीर वाली स्त्री पति की देहधारी लक्ष्मी है। कुलीन स्त्री दूषित होने के बाद भी, अवगणना पाने के बाद भी एवं घायल होने के बाद भी पति के प्रति प्रेम को त्यागती नहीं है क्योंकि धारा रूपी दंड श्रेणी से आहत मालती बरसात से ही संतुष्ट होती है। इसलिये हे सुमंगला एवं सुनंदा! आप भी स्त्री के आभूषण रूप गुणों को उपार्जन करने हेतु प्रयास करें, जिससे स्त्री वृन्द गुणों की परम्परा में आपके प्रति गुरुबुद्धि को धारण करे।
इस प्रकार बुद्धिमानों में उत्तम वर-वधू को भक्ति के आवेश से शुद्ध बुद्धि रूपी भेंट देकर, शुद्ध हृदय वाले इन्द्र एवं इन्द्राणी उनके चरणों में नमन कर, खुद के अपराध का त्याग करते हुए, कई समय (काल) के विरह से अति व्याकुल सभावाले देवलोक में तुरन्त गये एवं अन्य देव भी अपने-अपने देवलोक में गये।
इस सर्ग की रचना कवि ने 85 श्लोकों में की है। उसमें कवि ने वर-कन्या के हस्तमेलाप, करमोचन आदि विधि, प्रभु को इन्द्र विविध उत्तम वस्तुएँ देते हैं उसका, वर-कन्या कंसार भोजन करते हैं उसका, प्रभु के समक्ष इन्द्र नृत्य करते हैं उसका, प्रभु को देखने आई नगर की स्त्रियों का और इन्द्र एवं इन्द्राणी द्वारा अनुक्रम से प्रभु, सुमंगला एवं सुनंदा को दी गई हितशिक्षा आदि प्रसंगों का सुंदर वर्णन किया है।
सर्ग - ६ अब परिवार सहित सभी मनुष्य एवं देवगण अपने-अपने खुद के स्थानों पर गये। इसके बाद नव विवाहित स्वामी को एकांत में देखने हेतु चंद्र की पत्नी रूपी रात्रि आई। यहाँ कवि ने 21 श्लोकों में रात्रि का वर्णन किया है। अब श्री युगादीश प्रभु निद्रासुख को चाहने लगे। कवि लिखता है :
तदैव देवैः कृतमग्र्यवर्णं, समं वधूभ्यां मणिहर्म्यमीशः।
ततो गुरुद्नंधि विवेश शास्त्रं , मतिस्मृतिभ्यामिव तत्त्वकामः॥६-२३॥
जैसे तत्त्व की इच्छा वाला मनुष्य मति एवं स्मृति से शास्त्र में प्रवेश कर सके वैसे ही प्रभु ने उन दोनों स्त्रियों के साथ देवों द्वारा तत्काल निर्मित, उत्तम रंग वाले एवं अगरु की सुगंध वाले प्रासाद में प्रवेश किया। विवाह एवं दीक्षा की विधि को जानने वाले प्रभु दोनों स्त्रियों के साथ निद्रा को प्रिय बनाकर
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(३१)
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुख से शय्या पर सोये । पूर्व जन्म में उपार्जित किये खुद के भोगावली कर्म को अवश्य भोगने योग्य जानकर मोक्ष की अभिलाषा होने पर भी प्रभु निरासक्त भाव से उन स्त्रियों के साथ उचित उपचारों से विषयों को भोगने लगे । नाट्य समय में आई हुई एवं विलास रूपी तरंगों वाली अप्सराओं से प्रभु क्षुभित हुए नहीं, कारण कि प्रभु इंद्रियों के स्वामी मन का भी शोषण करने में समर्थ थे। जिसके आगे रंभा भी कांति हीन हो गई थी एवं रति का रूप भी विगलित हो गया, ऐसी वह प्रभु की प्रथम स्त्री सुमंगला थी । वह कामदेव की अस्खलित प्रभा के समान शोभा देती थी। कवि रस का निरूपण करता हुआ कहता
:
पूर्वं रसं नीरसतां च पश्चा- द्विवृण्वतो वृद्धिमतो जलौघैः ।
जगज्जने तृप्यति तद्रिरैव-स्थानेऽभवन्निष्फलजन्मतेोः ॥ ३६॥
नेने खुद के जन्म को निष्फल माना वह योग्य ही है। कारण कि प्रथम रस को एवं पीछे से नीरसता को प्रकट करने वाला एवं जलसमूह से वृद्धि प्राप्त करता है, जबकि सुमंगला की वाणी जगत को तृप्ति देने वाली है।
इसके बाद कवि सुमंगला की महत्ता दिखाते हुए लिखता है :
यया स्वशीलेन ससौरभांग्या, श्रीखण्डमन्तर्गडुतामनायि । देवार्चने स्वं विनियोज्य जात- पुण्यं पुनर्भोगिभिराप योगम् ॥ ६-३७ ॥
खुद के शील से सुगंधित अंगों वाली इस सुमंगला ने चंदन को निरर्थक बना दिया। इससे वह चंदन खुद की आत्मा को देव पूजन में जोड़ कर पुण्यशाली हुआ एवं पुनः से भोगियों के योग को प्राप्त किया।
सुमंगला के शील का माहात्म्य बताते हुए कवि कहता :
शंकर का कंठ विष से, चंद्र हिरन से, गंगा का पानी शेवाल से एवं वस्त्र मेल से मलिन होता है, लेकिन सुमंगला का शील कभी भी मलिन नहीं होता है। वह सुमंगला शरीर से तो सुंदर वस्त्रों से निर्मित वास भवन में बसती है किन्तु गुणों से तो प्रभु के हृदय में बसती है। सुमंगला की वर्षाऋतु के साथ तुलना करता हुआ कवि लिखता है :
नागमप्रीणितसत्कदंबा, सारस्वतं सा रसमुद्गिरंती ।
रजोव्रजं मंजुलतोपनीतच्छाया प्रती प्रावृषमन्वकार्षीत् ॥ ६-४० ॥
सुमंगला शास्त्रज्ञान से सज्जनों को प्रसन्न करती है; जबकि मेघ आगमन से उत्तम कदंब जाति वृक्ष प्रफुल्लित होते हैं। सुमंगला सरस्वती समान वाणी को प्रकट करती है एवं खुद के पापों का नाश करती है । वर्षाऋतु सरस्वती नदी में जल बरसाती है एवं मिट्टी के समूह को नाश करती है। सुमंगला में बुद्धि रूपी छाया है, जबकि वर्षाऋतु में सुंदर लताओं की छाया है। इस प्रकार सुमंगला वर्षाऋतु का अनुकरण करती थी ।
कवि शरद ऋतु के समान सुमंगला का वर्णन करता है :
स्मेरास्वपद्मा स्फुटवृत्तशालि क्षेत्रानदद्धंसकचारुचर्या । पास्तपंका विलास पुण्य-प्रकाशकाशा शरदंगिनीव ।। ६-४१ ॥
(३२)
[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमंगला विकस्वर मुखकमल वाली है एवं शरद ऋतु में भी विकस्वर कमल होते हैं। सुमंगला औदार्यादिक आचरणों से मनोहर शरीर वाली है, शरद ऋतु में खेतों में चावल बहुत होते हैं। वह शब्दायित झांझर से मनोहर गमन वाली है, शरद ऋतु में हंस मनोहर आवाज करते हैं। वह नष्ट पापों वाली है, जबकि शरद ऋतु में कीचड़ नष्ट हो जाता है। सुमंगला पुण्य को प्रकाशित करने वाली है, जबकि शरद ऋतु पवित्र प्रकाश वाले काश पुष्पों वाली है। इस प्रकार सुमंगला देहधारी शरद ऋतु समान शोभा देती थी। फिर कवि हेमंत ऋतु के साथ तुलना करता हुआ लिखता है :
. सत्पावकार्चिः प्रणिधानदत्ता - दरा कलाकेलिबलं दधाना।
श्रियं विशालक्षणदा हिमाः, शिश्राय सत्यागतशीतलास्या॥ ४२ ॥
उत्तम पवित्रता एवं तेज के ध्यान में आदर दिया है जिसने ऐसी कलारूपी क्रीडा के बल को धारण करने वाली, विशाल उत्सव देने वाली, शीतल मुखचंद्र वाली सुमंगला है, जबकि हेमंत ऋतु में लोग ध्यान विशेष करते हैं, कामदेव के पराक्रम को धारण करते हैं, रात्रि बहुत बड़ी होती है एवं ठंडी भी ज्यादा होती है। इस प्रकार श्लेषालंकार द्वारा कवि ने यहाँ सुमंगला की हेमंत ऋतु के साथ तुलना की है। पुनः कवि शिशिर ऋतु के साथ सुमंगला की तुलना करता हुआ लिखता है :
सत्रं विपत्रं रचयन्त्यदभ्रा - गम क्रमोपस्थितमारुतौघा।
सा श्रीदकाष्ठामिनमानयन्ती, गोष्ठ्यां विजिग्ये शिशिरतुकीर्तिम्॥४३॥
लोगों का आवागमन जिसमें ज्यादा है ऐसी दानशाला का आपदा से रक्षण करने वाली, देवगण जिसके चरणों में आकर नमस्कार करते हैं एवं जो बातों में स्वामी को लक्ष्मी की पराकाष्ठा पर पहुँचाती है अर्थात् प्रशंसा करती है ऐसी सुमंगला है, जबकि शिशिर ऋतु लोगों का आपदा से रक्षण करती है, अनेक वृक्षों वाले वन को पत्र रहित करती है, अनुक्रम से पवन वेग को धारण करने वाली एवं सूर्य को उत्तर दिशा में ले जाने वाली ऐसी वह शिशिर ऋतु है। इस प्रकार सुमंगला शिशिर ऋतु की कीर्ति को जीतने लगी। अब कवि वसंत ऋतु के साथ उसकी तुलना करते हुए लिखता है :
उल्लासयंती समन: समूहं, तेने सदालिप्रियतामुपेता।
वसंतलक्ष्मीरिव दक्षिणाहि-कांते रुचिं सत्परपुष्टघोषा॥६-४४॥ उत्तमों के समूह को उल्लसित करने वाली, सखियों के प्रेम को प्राप्त करने वाली एवं साधुओं के उत्कृष्ट गुणों का गायन करने वाली ऐसी वह विचक्षण सुमंगला वसंत ऋतु की लक्ष्मी के समान अपने पति के प्रति अभिलाषा बढाने लगी। हमेशा भँवरों के स्नेह को प्राप्त हुई, मनोहर कोकिला के शब्दों वाली वैसे ही वसंत ऋतु दक्षिण दिशा के पवन के प्रति अभिलाषा विस्तृत करने लगी।
सुमंगला की ग्रीष्म ऋतु के साथ तुलना करते हुए कवि लिखता है :
संयोज्य दोषोच्छ्यमल्पतायां, शुचिप्रभां प्रत्यहमेधयन्ती।
तारं तपः श्रीरिव सातिपट्वी, जाड्याधिकत्वं जगतो न सेहे॥ ४५ ॥
जैसे अत्यंत चतुर वह सुमंगला दोषों को अल्प करके हमेशा निर्मल प्रभा को बढ़ाती रही, वैसे ही ग्रीष्म ऋतु जगत की मूर्खता की अधिकता को नहीं सहने लगी। ग्रीष्म ऋतु अत्यन्त तीव्र रात्रि के विस्तार को अल्प करके सूर्य की कांति बढ़ाती हुई जल के अधिक रूप को नहीं सहने लगी।
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(३३)
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणों की श्रेणियों से अनुपम ऐसी दूसरी सुनंदा नाम की पत्नी भी प्रभु को हर्ष देती थी। सुमंगला एवं सुनंदा भी आपस में मैत्री से रहती थी। प्रभु भी उन दोनों पर समान भाव रखते थे। छहों ऋतुओं ने प्रभु की सेवा की। प्रभु यथेच्छ रूप से विहार करते एवं पुण्य रूपी सूर्य से उदित धैर्य रूपी कांति वाले दिवसों को बिताने लगे। इस प्रकार कुमार-अवस्था की क्रीडायें करते-करते छः लाख पूर्व एक लव (क्षण) के समान ही व्यतीत हो गये। इधर प्रभु की प्रथम पत्नी सुमंगला ने अविनश्वर ऐसा गर्भ धारण किया।
इस ७० स'। म काव ने प्रारम्भ के इक्कीस श्लोकों में रात्रि का एवं प्रभु समक्ष कामदेव के पराजित रूप का वर्णन करने के बाद सुमंगला की समानता इन्द्रियों के विषय (शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्शादि) के साथ की है। छहों ऋतुयें प्रभु के अनुकूल आचरण करती थी। प्रभु का क्रीडा करते-करते छः लाख पूर्व का समय बीत गया और सुमंगला गर्भ धारण करती है आदि प्रसंगों का कवि ने खुद की मौलिक शक्ति से आलेख किया है।
सर्ग - ७ श्री आदिनाथ प्रभु की सुमंगला नाम की पत्नी रात्रि के समय खुद के वास भवन में गई। जिस वास भवन में जलते दीपकों के प्रकाश से अंधकार दूर हुआ। श्याम वर्ण वाले निर्मल चंदरवा में बंधी मोतियों की मालायें आकाश में रहे लाखों तारों के सदृश शोभा देती थीं। रत्नमय स्तम्भों में सुवर्ण की पुतलियाँ शोभा दे रही थीं। लता के गुच्छों से उत्पन्न हुआ एवं जालियों के मार्ग से आया हुआ वायु रूपी चोर मोती जानकर स्त्रियों के स्वेदबिंदु को हर लेता था। वास भवन के चारों तरफ सर्व ऋतुमय बगीचों को देख कर नंदनवन की भी लोग तारीफ नहीं करते थे। उस वास भवन में श्वेत चद्दर वाले झुले वाली शय्या पर दायीं तरफ सुमंगला सो रही थी। अंधकार रूपी शत्रु के भय को नष्ट करने हेतु जाग रहे सिपाहियों के समान मनोहर दीपक सुन्दर लग रहे थे। सुमंगला की इंद्रियाँ अपना-अपना व्यापार पूर्ण होने से राज कर्मचारियों के समान रात्रि को निश्चल होकर निवृत्ति को प्राप्त हुईं। सुमंगला की निद्रा के भंग के भय से आभूषण भी मौन हो गये। लावण्यरूपी उत्तम मधु वाला ऐसा उसका मुख वायु के बिना निष्क्रिय कमल के जैसे अप्सराओं के नेत्र रूपी भँवरों से पान किया जाने लगा। सुमंगला की निद्रावस्था का वर्णन करते हुए कवि लिखता है :
आप्तनिद्रासुखा सौख्यदायीति स्वप्नदर्शनम्।
अन्वभूत् पुण्यभूमी सोत्सवांतरमिवोत्सवे ॥ ७-२३॥ निद्राधीन ऐसी वह पुण्यशाली सुमंगला एक उत्सव में दूसरे उत्सव के समान निम्न सुखदायक स्वप्न दर्शन का अनुभव करने लगी। हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, फूलों की माला, चंद्र, सूरज, ध्वज, कुंभ, पद्मसरोवर, क्षीर समुद्र, देवविमान, रत्न राशि एवं अग्नि शिखा ऐसे चौदह स्वप्नों को सुमंगला ने देखा। ये चौदह स्वप्न उस समुमंगला के मुखद्वार से प्रवेश कर उसकी कुक्षिरूपी घर में स्थिर गृहपति रूप को धारण करने लगे। गुण-समूह के स्थान समान सुमंगला जाग्रत हुई। फिर वह सुमंगला पहले नहीं प्राप्त किये ऐसे चौदह स्वप्नों के सम्बन्ध में निद्रारहित लोचन वाली होकर मन में चिन्तन करने लगी।
हर्ष से कदंब वृक्ष की मंजरी के समान रोमांचित हुई। जैसे वृद्धि प्राप्त करते बड़ के अंकुर पृथ्वी
(३४)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
को आनन्द देते हैं वैसे वृद्धि प्राप्त करने वाला सुमंगला का आनन्द उसके हृदय को उल्लासमय करने लगा। सुमंगला उसके बाद सोचती है कि इन स्वप्नों की विचारणा करने में स्त्री-जाति समर्थ नहीं है। उसके योग्य तो जगत के स्वामी ही हैं , कारण कि उत्तम रत्नों की परीक्षा करने में क्या मूर्ख अधिकारी बन सकता है? ऐसा सोच, शय्या का त्याग कर, अत्यन्त धीमे पैरों से अपने स्वामी के पास वह आई। रत्नप्रदीपरुचिसंयमितांधकारे,
मुक्तावचूलकमनीयवितानभाजि। सा तत्र दिव्यभवने भुवनाधिनाथं,
निद्रानिरुद्धनयनद्वयमालुलोके ॥७-७५ ॥ रत्न-दीपकों की प्रभा से अंधकार नष्ट हुआ है जिसमें से एवं मोतियों के गुच्छों से मनोहर हुए चंद्र वाले ऐसे उस दिव्य भवन में उस सुमंगला ने निद्राधीन श्री ऋषभदेव को देखा। एक क्षण में ही प्रभु जागृत हुए और उन्होंने आँखें खोली। उसे देख सुमंगला हर्षित हुई।
इस सातवें सर्ग में कवि ने सुमंगला के निद्राधीन बंद नेत्रों का वन के संकुचित कमलों की उपमा को धारण करने का, सुमंगला के आभूषणों का, सुमंगला द्वारा देखे हुए चौदह महास्वप्नों का, स्त्री जाति की अविचारशील बुद्धि है अत: स्वप्रफल का निर्देश स्वामी ही करने योग्य हैं ऐसे सुमंगला के विचारों का, धीरे कदमों से प्रभु के आवास में सुमंगला के आगमन आदि का वर्णन कवि ने अपनी विशिष्ट मौलिक कल्पना शक्ति द्वारा किया है।
सर्ग - ८ तत्पश्चात् प्रभु का प्रसन्न मुख देखने में लीन बनी सुमंगला ने पैदल चलने से उत्पन्न हुए श्रम को दूर किया। सुमंगला के मन की स्थिति का वर्णन करते हुए कवि लिखता है :
भर्तुः प्रमीलासुखभंगभीति - स्तामेकतो लंभयतिस्म धैर्यम्। स्वप्नार्थशुश्रूषणकौतुकं चान्यतस्त्वरां स्त्रीषु कुतः स्थिरत्वम्॥ ८-५॥
प्रभु के निद्रासुख के भंग होने का भय उसे एक ओर से धीरज रखवा रहा था तो दूसरी तरफ स्वप्नों के अर्थ को सुनने की इच्छा का कौतुक त्वरा करवा रहा था। स्त्रियों में स्थिर बुद्धि कहाँ होती है? स्वामी की निद्रा में विघ्न न हो इसलिये 'हे स्वामी! आपकी जय हो। आप आयुष्यमान हों!' इस प्रकार कोमल वाणी सुनकर कृपालु प्रभु भी शय्या छोड़कर बैठ गये। दूर रहने वाली फिर भी हृदय में वास करने वाली, रात्रि में जागृत रहने पर भी कमलिनी समान एवं मौनधारी होकर भी स्फुरायमान होने वाली (बोलने की इच्छा वाली) सुमंगला को देख उसे पास के सिंहासन पर बिठाकर प्रभु ने पूछा-हे देवि! आपका आगमन शुभ तो है न? सुवर्ण से भी अधिक देदीप्यमान शरीर निराबाध तो है न? आपकी सखियाँ कुशल तो हैं न? माणिक्य के आभूषण निर्दोष तो हैं न? आधी रात को निद्रा का त्याग कर मुझे मिलने क्यों आई हो? अथवा कोई संदेह का निराकरण करने हेतु यह प्रयास किया है? क्योंकि हृदय में रहा संदेहरूपी शल्य आदमी को मृत्यु तक की पीडा देता है। अगर आपको किसी पदार्थ की जरूरत हो तो निःसंकोच मुझे बतायें, क्योंकि स्वर्ग से पाताल तक कोई भी चीज मुझे दुर्लभ नहीं है।
प्रभु की अमृत समान वाणी सुनकर हर्षित सुमंगला कहने लगी, 'हे स्वामी ! तीनों जगत का रक्षण करने वाले, त्रिलोकवेत्ता एवं जन्म के साथ उत्पन्न हुए तीनों ज्ञान के तेज को धारण करने वाले [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(३५)
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऐसे आपसे कुछ भी अनजाना नहीं है फिर भी आप स्नेह से पूछ रहे हो ऐसा लगता है । हे प्रभु! आपकी कृपा से केवल स्त्री मात्र होकर भी मैंने बड़प्पन प्राप्त किया है, कारण कि सूत का तार भी मोतियों के समूह का संग प्राप्त कर, राजा के हृदय पर क्रीडा करता है । हे स्वामी! आप मेरे नाथ हो जिससे वायु देवता मेरे गृहांगण को साफ करते हैं, देवांगनायें मेरे कुंभों को पानी से भर देती हैं, सूर्य भोजन बनाते हैं और दासियाँ भी मेरे प्रतिकूल कुछ भी नहीं करती। मैं जिस हेतु से यहाँ आई हूँ वह आपको बताती हूँ, उसे आप सावधान होकर सुनें। कवि वर्णन करता है :
क्रियां समग्रामवसाय सायं - तनीमनीषद्धृतिरत्र रात्रौ।
अशिश्रियं श्रीजितदिव्यशिल्पं, तल्पं स्ववासौकसि विश्वनाथ॥ ७-३२॥
हे जगत के स्वामी ! सर्व संध्याविधि पूर्ण कर इस रात्रि को मैं अत्यन्त समाधियुक्त होकर अपने वास भवन में शय्या पर सो रही थी तब अनुक्रम से हाथी, वृषभादि चौदह स्वप्न देखे । इसलिये हे विश्व पूज्य ! इन सभी उत्तम स्वप्नों के समूह को देखने से कृतार्थ हुई मैं निद्रा त्याग कर तत्त्वार्थ के विचार की इच्छा से आपके समीप आई हूँ। स्वप्नदर्शन के समय वायु आदिक के कोप से मेरे शरीर में कोई भी विकार नहीं था। आपके नाम रूपी औषध की प्राप्ति से शरीर में कोई रोग भी नहीं था। इस प्रकार हे स्वामी! मन एवं शरीर के क्लेश से रहित जो स्वप्न मैंने देखे हैं उन स्वप्नों का अर्थ कह कर मुझे प्रसन्न करें। सूक्ष्म भावों के विचार में मेरी बुद्धि दौड़ सके वैसी नहीं है। इसलिये हे सर्वज्ञ प्रभु! इन विषय में आप ही प्रमाण रूप हैं।
इस प्रकार सुमंगला के मधुर वचनों को सुन कर प्रीति वाले तीनों जग के स्वामी श्री ऋषभदेव प्रभु कोमलता एवं मधुरता से जैसे अमृत समुद्र में से उत्पन्न हुई हो वैसी वाणी बोले-हे विचक्षण सुमंगला! उत्तम फल देने में समर्थ ऐसे स्वप्नों को तेरे मुख से सुनकर मेरा हृदय हर्षित हुआ है । हृदय रूपी क्यारियों में तुम्हारे वचन रूपी अमृत का सिंचन करने से पुष्ट हुए ऐसे आनन्द रूपी आम्रवृक्ष के रक्षण रूपी बाड़ करने हेतु मेरा शरीर रोमांचित हुआ है ! फिर महाबुद्धिमान प्रभु ने मन के तरंगों का त्याग कर क्षण भर समाधि धारण की। अब तीनों लोक के नायक ऐसे श्री ऋषभदेव प्रभु का बुद्धिमानों में मुख्य ऐसा मनरूपी छड़ीदार सभी स्वप्नों को बुद्धिरूपी हाथी से खींचकर विचार रूपी मनोहर सभा में ले गया। अब ज्ञान रूपी अंजन से मनोहर ऐसे प्रभु के चित्त ने गंभीर विचार रूपी सरोवर को तैर कर उन स्वप्नों के फलों के युक्ति रूपी मोती प्रभु को दिये। स्वप्र-विचार से एवं हर्षोल्लास से प्रभु का शरीर रोमांचित हो गया। प्रभु के नेत्रों एवं शरीर को उल्लास युक्त देखकर सुमंगला ने ये स्वप्न महान फल देने वाले हैं ऐसा अनुमान किया, फिर भी प्रभु के मुख से ही स्वप्र फल सुनने की सुमंगला को इच्छा हुई।
इस आठवें सर्ग में स्वामी के मुख से स्वप्न फल जानने की इच्छा से सुमंगला प्रभु के पास आती है का, प्रभु अर्द्ध रात्रि को उसको आई देख कुशलता पूछते हैं उस प्रसंग का, सुमंगला प्रभु के गौरव का वर्णन करती है, स्वप्न दर्शन की बात करती है उसका एवं प्रभु ने स्वप्रों का माहात्म्य समझाया उसका वर्णन कवि ने किया है।
सर्ग - ९ इस अवसर पर प्रभु के मुखरूपी चंद्र से उल्लासमान एवं वचन रूपी अमृत रस के स्वाद में आदर युक्त है कर्ण जिसके ऐसी उस सुमंगला को प्रभु ने कहा-'हे देवी! शीतल भोजन से एवं अनाच्छादित
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थान पर सोने से प्राणी जो स्वप्न देखते हैं वे स्वप्र सोचने योग्य नहीं हैं । मल-मूत्र की बाधा से, भय से, देखने या सुनने से जो स्वप्न देखते हैं वे फल देते नहीं। अधिक धर्म करने वाला आदमी स्वप्न देखे तो वे फलदायी होते हैं। पुनः हे देवी! आपका कुल निर्मल है, आपकी बुद्धि पाप-विमुख है, आपकी वाणी शरदऋतु की चंद्र किरणों का अनुकरण करती है, हंसी समान आपकी चाल है, आपका शरीर-लावण्य अपार मंगल रूप है, आपके गुण वाचाल कवीश्वर रूप है। ये सभी आपको पूर्वजन्म में किये पुण्यों से प्राप्त हुए हैं। इंद्राणी, देवांगनायें, नाग कन्यायें हमेशा आपकी सेवा करती हैं। इस प्रकार आप तीनों जगत की स्त्रियों में उच्च स्थान रखती हैं। पुनः हे प्रिये! उज्ज्वल गुणों वाला देखा हुआ स्वप्न समूह उत्तम मणि के समान वृथा नहीं होता है । बरसात के एणनी से जैसे लतायें वैसे ही गर्भ प्रमाण गुणों के अनुभाव वाले इन स्वप्नों से नई लक्ष्मी उत्पन्न होती है एवं वह लक्ष्मी गृहीत आश्रय से रस युक्त होती है। निर्दोष बुद्धि से उत्पन्न हुए ऐसे ये स्वप्न रसायन तुल्य होते हैं। इससे स्वजनों से समृद्ध कुल में नये रोग वास नहीं करते हैं एवं पुराने रोग भी शांत होते हैं।
चतुर्दशस्वप्ननिभालनद्रुम - स्तनोत्यसौ मातुरुभे शुभे फले।
इहैकमर्हज्जननं महत्फलं, तनु द्वितीयं ननु चक्रिणो जनुः॥९-२९॥
इस जगत में इन चौदह स्वप्न-दर्शन रूपी वृक्ष माता को दो उत्तम फल देते हैं। इसमें एक तो अरिहंत प्रभु के जन्मरूपी महान फल देते हैं और दूसरा चक्रवर्ती के जन्म रूप सूक्ष्म फल देते हैं । सात स्वप्र-दर्शन वासुदेव की उत्पत्ति का सूचन करते हैं। चार स्वप्न दर्शन बलदेव एवं उनमें से एक स्वप्न दर्शन मांडलिक पुत्र जन्म की सूचना देते हैं। इसलिये हे देवी! इस प्रकार के चौदह स्वप्न देखने से आपका पुत्र चक्रवर्ती होगा।
त्वया यदादौ हरिहस्तिसोदरः, पुरः स्थितस्तन्वि करी निरीक्षितः। मनुष्यलोकेऽपि ततः श्रियं पुरा, दधाति शातक्रतवीं तवांगजः॥९-३३॥
हे सूक्ष्मांगी सुमंगला! तुमने पहले स्वप्न में औरावत हाथी के समान हाथी देखा जिससे आपका पुत्र मनुष्यलोक में भी इन्द्र सम्बन्धी लक्ष्मी को धारण करेगा। अक्षीण शोभायुक्त एवं पृथ्वी पर चार पैर से प्रतिष्ठित हुआ वृषभ जो तुमने देखा, इससे तेरा पुत्र सहस्रयोधी सुभटों का अग्रेसर बनकर वीरों की धुरा को धारण करेगा।
न्याय से प्राप्त सप्तांग राज्य की रणभूमि के संवाहक एवं बलिष्ठ अस्त्र-शस्त्र धारक हे स्वामी! आप कहाँ? और न्याय की निपुणता के बिना वन में रहने वाला पशुओं का स्वामी तथा नाखून रूपी आयुध वाला ऐसा मैं कहाँ? फिर भी आप क्रोध मत करना, कारण कि पराक्रम से युद्ध में विचक्षणजन मेरे साथ आपकी तुलना करेंगे! इस प्रकार प्रार्थना करता हुआ केशरीसिंह जैसे तेरे पुत्र के पास आया हो, ऐसा तूने इस स्वप्न में देखा । तूने चौथे स्वप्न में लक्ष्मी को देखा, इसलिये वह लक्ष्मी समान सैकड़ों स्त्रियाँ तेरे पुत्र को प्राप्त होंगी। पुनः हे देवी! अपनी सुगंध से भ्रमर रूपी पथिकों को आकर्पित करने वाली पुष्पों की माला को तूने देखा, जिससे तेरा पुत्र अपनी कीर्ति रूपी सुगंध से तीनों जगत को व्याप्त करने वाला होगा। पुन: वह पूर्णिमा का गोल आकार वाला एवं रात्रि में अत्यन्त तेजस्वी ऐसा जो चंद्र देखा है इससे सर्वदा पृथ्वी को हर्षित एवं शोभित करने वाला एवं कलाओं के समूह वाला तेरा पुत्र होगा। पुनः सूर्य को देखने से हमेशा गुणों का स्थानभूत, स्त्रियों के सुगंधित मुखकमल को प्रकाश देने वाला तेरा पुत्र दोषरहित तेज को प्राप्त करेगा। [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(३७)
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुन: ध्वज को देखने से तेरा पुत्र कुसंग से उत्पन्न हुए दोषों से अस्पृष्ट शरीर वाला एवं गुणवान होकर महान उत्सव वाले विशाल कुल में मस्तक पर के मुकुट रूप को प्राप्त करेगा। पुनः वह जो कलश देखा है इससे उत्तम आचार वाला, देवों के समूह से पूजित, लक्ष्मी का एकमात्र अधिकारी ऐसा तेरा पुत्र अभंग मांगलिक की दशा को प्राप्त होगा।
तूने जो पद्मसरोवर देखा है इससे तेरा पुत्र संतुष्ट मित्रों से युक्त होकर, विकस्वर लक्ष्मी युक्त होकर एवं उत्तमों के रक्षण वाला होकर, गहन आगम से उत्पन्न हुए रस को धारण करेगा।
तूने क्षीर समुद्र देखा है इससे सम्पूर्ण रसमय वाणी का धारक एवं गंभीर और अनेक याचकों का आश्रय स्थल ऐसा तेरा पुत्र स्वयं की मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं करेगा।
फिर तूने विमान देखा है इससे भोग सहित वृद्धि को प्राप्त करने वाला, देवों को प्रिय ऐसी लक्ष्मी वाला एवं अत्यन्त श्रेष्ठ ज्ञान वाला तेरा पुत्र होगा।
फिर तूने रत्नों का समूह देखा है, इससे मर्यादाओं के प्रति विचित्र प्रकार के औचित्य को धारण करता तेरा पुत्र इस जगत में उत्कृष्ट तेजस्वी शरीर को धारण कर, भूमंडल के महान राजाओं से पूजित होगा।
फिर हे देवी! तुने निर्धूम अग्नि को देखा है; इससे उत्तम रस के उपभोग से स्फुरायमान तेज वाला, अत्यन्त बुद्धिमान एवं कांति के हेतुभूत ऐसे अस्त्रों को धारण करने वाला तेरा पुत्र पतंगियों की तरह क्षणमात्र में शत्रु को भस्म कर देगा।'
सुदुर्वचं शास्त्रविदामिदं मया, फलं स्वसंवित्तिबलादलापि ते। दुरासदं यव्यवसायसोष्मणां, सुखं तदाकर्षणमांत्रिकोऽश्नुते॥ ९-७५॥
हे सुमंगला! शास्त्रवेत्ता को भी अगम्य ऐसा इन स्वप्नों का फल मैंने तुझे मेरे ज्ञान के बल से कहा है, कारण कि व्यवसायी आदमियों को जो दुर्गम है उसे मांत्रिक सुख से जान सकते हैं।
इस प्रकार आवास में रहकर बोलने वाले श्री ऋषभदेव प्रभु को, 'हे संशय रूपी क्षयरोग को मिटाने में उत्तम राज्य वैद्य समान प्रभु! आप जय प्राप्त करें। ऐसे बोलते हुए हर्षित होकर आकाश में रहे देवों ने पुष्पों की वृष्टि की।
इस प्रकार स्वामी के वचन सुन कर सुमंगला अत्यन्त हर्षित हुई और उसका शरीर भी रोमांचित हुआ।
इस सर्ग में श्री ऋषभदेव प्रभु कौन से स्वप्न फल देने वाले हैं एवं कौन से निष्फल हैं वह बताते हैं, पुण्यरहित स्त्रियों की अपेक्षा सुमंगला की उत्कृष्टता को दर्शाते हैं, ऐसे महान स्वप्नों का दर्शन उत्तम फल देने वाले हैं उसका वर्णन, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, मांडलिक आदि की मातायें अनुक्रम से अत्यन्त तेजस्वी चौदह स्वप्न, थोड़े से अस्पष्ट चौदह स्वप्न, सात स्वप्र, चार स्वप्न एवं एक स्वप्न देखते हैं। ये प्रत्येक स्वप्न पुत्र की कैसी अलग-अलग महत्ता का सूचन करते हैं उसका प्रभु माहात्म्य बताते हैं, उस समय उन पर देवता पुष्पवृष्टि करते हैं। स्वप्न फल सुन कर सुमंगला रोमांचित होती है । इस प्रकार पूरा नौवें सर्ग की रचना कवि ने स्वप्रों एवं उसके फलों का वर्णन करने हेतु की है।
(३८)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्ग - १० सखियों को प्रिय ऐसी सुमंगला श्री ऋषभदेव प्रभु के मुख रूपी कमल से वाणी रूपी मकरंद (शहद) को पीकर गौरव से कोमल एवं मनोहर वाणी से इस प्रकार बोलने लगी, 'हे प्रभु! विद्वान मनुष्यों के कर्णाभरण समान एवं वांछितार्थ फल को सिद्ध करने वाली और मूर्ख के प्रति अग्नि की कांति समान ऐसी आपकी यह आश्चर्यकारी वाणी विजय को प्राप्त हो। आपके सम्पूर्ण रूप को इन्द्र ही देख सकते हैं और सूर्य ही उसका पूजन कर सकते हैं। सहस्र जिह्वाओं को धारण करने वाले शेषनाग भी आपके सहस्र गुणों का वर्णन करने में समर्थ नहीं है । हे प्रभु! मैं जो कुछ बोलती हूँ वह भक्ति से बोलती हूँ। पुनः हे नाथ! आपकी वाणी के गुणों का जैसे कि स्वादुता, कोमलता, उदारता, सर्व भावों की विचक्षणता एवं सत्यता आदि की स्तुति करने हेतु विधाता ने जैसे कि मुझे अनेक जिह्वाएँ दी हो ऐसा लगता है।
___ 'हे नाथ! आपकी वाणी सुधा बनकर वसुधा में आई है। अमृत तो स्वस्थान में रहे लोगों को ही सुखी करता है; जबकि आपकी वाणी तो दु:खियों और सुखियों को भी सुखी करती है। जो व्यक्ति आपके वचनों का पान करते हैं उसे मिश्री भी कंकर जैसी लगती है। आम्रफल भी आपकी वाणी की समानता को प्राप्त नहीं करता। अंगूर भी आपके पास से मधुरता ग्रहण करना चाहते हैं । (आपकी वाणी रूपी बादल मेरे कर्ण रूपी जलाशयों को भरने वाले हैं और वही बादल मेरे संशय रूपी अंधकार को शांत करते हैं।) जैसे सुभट के म्यान में से तलवार निकलती है तब कायर चोर भाग जाते हैं वैसे ही आपके मुख से जब वचन निकलता है तब सर्व संशय नष्ट हो जाते हैं।'
अब सुमंगला प्रभु के ज्ञान की प्रशंसा करती है-'हे नाथ! आपका ज्ञान दो नेत्रों का अतिक्रमण करके जीतने का प्रयत्न कर रहा है और वह ज्ञान हमेशा सत्य का ही सत्संग करता है।
शैलसागरवनीभिरस्खलत्पममात्रमिलनान्नियंत्रितम्।
ज्ञानमेकमनलीकसंगतं, नेत्रयुग्ममतिशय्य वर्तते ॥ १०-१७॥
पर्वत, समुद्र एवं महावन कदाचित स्खलित हो जायें पर आपका ज्ञान कभी भी स्खलित नहीं होता है। दोनों नेत्रों की पलकें बंद हो जायें, किन्तु आपका ज्ञान तो कभी भी बंद नहीं होता है। यहाँ कवि केवलज्ञान की नेत्रों के साथ तुलना करता है।
'हे नाथ! काजल रूपी ध्वज है जिसका ऐसा दीपक, तेल एवं बाती से जलता है किन्तु बिना किसी की सहायता के ही अधिकता को प्राप्त हुए आपके ज्ञानमय तेज के शतांश को भी सचमुच में वह दीपक प्राप्त नहीं कर सकता है। चारों तरफ से ज्योत्स्ना को फैलाते हुए भी चंद्रमा की कालिमा शांत नहीं होती है। वह चंद्र आपके स्व-पर भासी ज्ञान को तो स्पर्श भी नहीं कर सकता। हे स्वामी ! सूर्य की जो प्रभा जडत्व के हेतुभूत ऐसे हेमंत ऋतु के संकट के समय अत्यन्त कृशता को पाती है, उस प्रभा की हमेशा आपकी तेजस्वी वाणी के साथ तुलना कर मानव लज्जा का अनुभव करता है। हे स्वामी! अतीन्द्रिय मति को धारण करने वाले आपने जिस वस्तुतत्त्व को समझाया वह सूक्ष्य बुद्धिमान नहीं कह सकता है। आपकी वाणी रूपी लता उत्तम फल का स्थान रूप हो।'
सुमंगला इस प्रकार बोल रही थी तब प्रभु ने आदेश दिया कि 'आप वासभवन में पधारें'। उसके बाद जब वह सुमंगला रत्नों की कांति के समूह से प्रकाशित मार्ग पर मस्तक पर श्वेत छत्र को
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(३९)
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
धारण करती हुई चली तब नूपुरों की मधुर ध्वनि सुनाई देती थी। मन्थर गति से सुमंगला अपने वासभवन में गई। उसी समय सोई हुई सखियाँ जाग गईं और जैसे पद्मिनी के चारों तरफ भंवरों की श्रेणी इकट्ठी हो जाती है वैसे ही विकसित कमल के समान मुख वाली सुमंगला को सखियों ने घेर लिया।
सेवा में निपुण ऐसी तीन-चार सखियाँ आगे आकर सुमंगला को प्रणाम करके बोली, 'हे स्वामिनी! हम तो आपकी अंतरंग थीं, फिर भी आप हमको सोते हुए छोड़ कर क्यों चली गई? आप गईं वह हम नहीं जाने सके। उस समय हम चेतना रहित थीं। हमारा यह अपराध हमारे हृदय को शल्य की भांति जला रहा है। पुन: देवांगनाओं का जमघट निरंतर आपके पास सेवा में हाजिर रहता है । अचानक कौन सा कार्य आ गया! पहले तो आप स्वामी के घर कई बार मनाने पर जाती थी और आज स्वयं चली गईं? आपके विनय की रक्षा न करने के कारण दुःख से तप्त हुई सब सखियों को कार्यरूपी वाणी के जलकण से आप शीतल/शान्त करें। पहले आप हमेशा सखियों को अलग नहीं मानती थीं, तो अब भी अनादर न करें।'
__इस प्रकार सखियों के कहने पर वह सुमंगला छोटे कमलों से घिरे हुए बड़े कमलों पर जैसे लक्ष्मी सोए वैसे ही चारों ओर से स्थापित किये उत्तम सिंहासनों की श्रेणी वाली शय्या पर सो गई। फिर सखियों के उत्सुक हाथ सुमंगला के चरणों की सेवा करने लगे। वात्सल्य भाव वाली सुमंगला ने भी सखियों को रोका नहीं एवं स्वप्न दर्शनादिक की कथा सखियों को बताई। हर्ष एवं आश्चर्य से सखियों के कोलाहल से घोंसलों में सोये पक्षी जग गये।
श्री ऋषभदेव प्रभु के मुख रूपी चंद्र से निर्गत वाणी रूपी किरणों से परिपूर्ण ऐसा आपका हर्ष रूपी समुद्र हमेशा वृद्धि को प्राप्त हो, ऐसे कर्णों को आनन्द देने वाले, सखियों के वचन को सुनकर सुमंगला ने उस समय सखियों को कहा :
अर्जिते न खलु नाशशंकया, क्लिश्यमानमनसस्तथा सुखम्। जायते हृदि यथा व्यथाभरो, नाशितेलसतया सुवस्तुनि॥ १०-५०।।
'हे सखियों ! उत्तम वस्तु को आलस से खोने पर दुःखी मन वाले पुरुष के हृदय में जैसा दु:ख का वेग होता है वैसा सुख उस वस्तु का उपार्जन करने से नहीं होता है। मिला हुआ एवं बाद में नष्ट हुआ है धन जिसका ऐसा पुरुष हमेशा निर्धन पुरुषों को भाग्यवान मानता है। इसलिये हे सखियों! मेरे स्वप्नफल को निद्रा नहीं ले जाए इसलिये आप सब आलस का त्याग कर मेरे स्वप्नफल का रक्षण करें। मेरे साथ धर्मकथा करके ऐसा करें कि जिससे अभी मुझे निद्रा वापस न आये!'
सखियाँ भी सुमंगला को निद्रा नहीं आये इसलिये धर्मकथा करने लगीं, कारण कि अगर सुमंगला को निद्रा आ जाये एवं उसके बाद कोई अशुभ स्वप्न आ जाये तो पूर्व दृष्ट अच्छे स्वप्नों का फल मिलता नहीं है।
अच्छी तरह से ज्ञात एवं स्खलानारहित ऐसे मोक्ष मार्ग का अनुसरण करने वाली, शरीर संबंधी समग्र क्रियाओं की जानकार एवं भोक्ता और स्वयं के कार्य-कलापों की कलाओं में चतुर ऐसी कोई सखी नृत्य करती हुई अपनी आत्मा को ही अर्हत् धर्म कहने लगी। पुनः उस समय कोई सखी मानो कपिलमद (सांख्यमत के) का आधार लेकर विनयादि उत्तम गुणों के स्वभाव वाली हो कर, सुमंगला
(४०)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
की आत्मा साक्षीभूत होने से रंगमंडप के योग्य ऐसी नृत्यक्रिया की लीला करती हुई चपलता को प्राप्त करने लगी ।
कोई सखी पवित्र राग उत्पन्न होने वाली मूर्छनाओं से सुमंगला को मूर्छायुक्त कर, सुगत एवं ध्वनिगत और उससे उत्पन्न हुए असत्यदूषण को नष्ट करने लगी। बौद्धों का भी यही सिद्धांत है। कोई सखी तत्त्व से अधिक ऐसे खुद के गीत को यहाँ प्रकट करती हुई ब्रह्मा एवं श्री कृष्ण द्वारा दिया गया है मोक्ष जिसमें ऐसे नैयायिकमत को अन्यथा करने लगी।
सखी प्रख्यात स्वरगुण की श्रुति के समक्ष अन्य ऐसे सभी प्रपंच को निरर्थक मानती थी; वह मूर्छना के समय संकुचित वाली आँखों वाले सज्जनों के उत्कृष्ट तेज को प्राप्त हुई। परमहंस के मत का भी यही स्वरूप है ।
स्वयं तथा दूसरों से निष्पादित शृंगार आदि की शोभा को धारण करने वाली, मदिरा-मांस का निषेध करने में निपुण और इन्द्रियों से भी अगोचर ऐसे अर्थों को जानने वाली कोई सखी बृहस्पति मत को भी उचित रूप से निष्फल करने लगी।
प्रवीण हृदय वाली कोमल एवं तेजस्वी नादवाली ऐसी दूसरी सखी ने एकाग्र मन वाली ऐसी सुमंगला का वाणी रूप गुणग्राम करके अपनी वीणा के दंड को भी कठोर शब्द वाला बना दिया। श्री ऋषभदेव प्रभु के उत्तम गुणगान में तत्पर किसी सखी ने तो सुमंगला की सेवा करने आई किन्नरी को भी निस्तेज कर दिया । अंग संबंधी नाट्य-विधि में चतुर, मनोहर और त्रिपताकादि चौसठ कलाओं में पारंगत दूसरी सखी ने सुमंगला के अंग का अनुकरण किया।
किसी दूसरी सखी ने गाये हुए धवल मंगल से मनोहर ऐसे श्री ऋषभदेव के गुणग्राम को सुनती हुई सुमंगला से कहा - 'नवकुंड से भी अधिक ऐसा अमृत का स्थान तो इन सखियों का ही मुख है। पुनः इस जगत में कौन बलवान है ? शोक का स्थान कौन है ? लोभिष्ठ के पास याचना करने से वह क्या कहता है ? सिपाही का मन कैसे होता है ? देवों में भयानक कौन है? तेरा स्वामी कैसा है?' इस प्रकार के प्रश्नों को पूछने वाली सखी को सुमंगला ने 'नाभिभूत' एक ही शब्द से उत्तर दिया ।
इस प्रकार ज्ञानामृत का पान करते-करते सुमंगला ने रात्रि व्यतीत की। उस समय किसी सखी आकर कहा कि 'सूर्योदय हो गया है। मंगल सूचक शंख बज रहा है। पक्षी कलरव कर रहे हैं । प्रभात में विकस्वर कमलदल की उत्कृष्ट सुगंध रूपी लक्ष्मी को चुराने वाला एवं नदी की शीतलता के गुण का हरण करने वाला वायु वेलडिओं को कंपायमान कर आने वाले ऐसे सूर्य के भय से व्यवस्थारहित पृथ्वी पर घूम रहा है।' कवि प्रभात का वर्णन करते हुए लिखता है :
योगाभ्यास वाले एवं कामविलास रहित पुरुष को जैसे स्त्री छोड़ देती है, वैसे ही आकाश एव स्व-परिवार को छोड़ते हुए ऐसे अल्प कांतिवाले अपने स्वामी चंद्र को रात्रि छोड़ देती है । शीतल स्वभाव वाला चंद्र सूर्य के भय से आकाश को खाली कर भाग गया और इसी कारण आकाश मार्ग में तारे भी बिखर गये क्योंकि निर्नायक सैन्य में बल नहीं होता है। गहरे पानी में रहे हुए रात्रि को मुख बंध कर भीतर गुंजारव करते हुए भंवरों के बहाने से इस दृष्टिमंत्र का जाप जपने वाले कमल ने प्रात:काल में उस मंत्र के सिद्ध होने से तुरंत लक्ष्मी को चंद्र बिंब में से खींच कर अपनी गोद में बिठा लिया ।
[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
(४१)
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस दसवें सर्ग में कवि ने आरम्भ के 79 श्लोकों की स्वागता छंद में रचना की है। इस सर्ग में कुल 84 श्लोक हैं। सुमंगला ने अपने पति ऋषभदेव की वाणी का महिमागान, सुमंगला का वासभवन की तरफ गमन, वासभवन में पहुँचने पर कई सालों के स. विविध वार्तालाप, सखियों द्वारा कथावार्ता, नृत्यादि, छंद के माध्यम से षड्-दर्शन के विषय की चर्चा, सुमंगला के साथ बिताई गई रात एवं सूर्योदय होने की तैयारी में अंधकार के नाश का वर्णन कवि ने उपमादि अलंकारों द्वारा किया है।
__ सर्ग - ११ दिशा रूपी स्त्रियों के मुख को प्रसन्न करता हुआ, अंधकार रूपी शत्रुगणों का नाश करता हुआ और पर्वतों एवं राजाओं के मस्तक पर चरण रखता हुआ ग्रहों का अधिपति सूर्य का उदय हुआ।
अंधकार का नाश करना, कमल विकसित करना, तारों को भगाना, जल का शोषण करना, मार्ग को स्वच्छ करना आदि अनेक कार्य सूर्य को करने होते हैं । यह देख कर ब्रह्मा ने मानो सूर्य को एक हजार किरणों वाला बनाया है।
फिर कवि उत्प्रेक्षा करता हुआ कहता है :
तमो ममोन्मादमवेक्ष्य नश्यदेतैरमित्रं स्वगुहास्वधारि।
इति कुधेव धुपतिगिरीणां, मूर्भो जघानायतके तुदंडैः॥ ११-४॥
सूर्य अपने उन्माद को देख कर भागते हुए शत्रु-अंधकार को इन पर्वतों ने अपनी गुफा में रक्षण दिया है इससे मानो क्रोध से सूर्य ने स्वयं की विस्तृत किरण रूपी दंड से पर्वतों के शिखर पर प्रहार किया। अर्थात् सूर्य ने अपनी किरणे पर्वतों के शिखर पर डाली। उस समय कितने ही लोग ऐसा कहने लगे कि खारा पानी पीने से अतृप्त प्यास वाला वडनावल नदी एवं तालाब के स्वादिष्ट पानी पीने हेतु पूर्व समुद्र से आता है। चंद्र की अमृत झरने वाली किरणों के महोत्सव को जानने वाली एवं सूर्य के ताप को जानने वाली कुमुदिनी रात्रि जागरण के गौरव के बहाने से सुख से सरोवर में निद्रित हुई।
सूर्य के उदय से विकसित हुई पद्मिनी को देख कर, स्वामी रहित हुई कुमुदिनी जो स्वयं रात्रि में पद्मिनी के दुःख पर हंसी थी, उसने बंद होने के बहाने हाथ जोड़ कर क्षमा मांगी। रात्रि में कमलों ने शरीर से जिस चंद्र के किरण प्रहार को सहा था उस पराभव को, प्रभात ने सूर्य की किरणों का संग होने पर अंदर से निकलते भंवरों के बहाने वमन किया। पुनः उस समय अंधकार रूपी शेवाल के समूह को भेद कर, विस्तीर्ण किरणों वाले सूर्य रूपी हाथी के प्रवेश करने पर, आकाश रूपी सरोवर में से पूर्व में रहा हुआ तारक रूपी पक्षियों का समूह तत्काल उड़ गया। रात्रि में अल्प तेज वाले दीपकों ने पतंगों का नाश किया था, इसी कारण प्रभात में किसी उदय हुए पतंग (सूर्य) ने दीपकों का उच्छेद कर उस वैर की शुद्धि की।
सूर्यास्त होने पर अंधकार की वृद्धि हुई और अंधकार के जाने पर सूर्य प्रकाशित हुआ। फिर भी सूर्य 'अंधकार का छेदन करने वाला है ' इस प्रकार प्रसिद्ध हुआ। सचमुच! यश भी भाग्य से ही मिलता है । जिन उल्लूओं ने अंधकार के बल से कर्कश शब्द ध्वनि से लोगों के कानों को अशांति दी थी, वे ही उल्लू सूर्य द्वारा अंधकार के नाश को देख, मौन धारण कर, भयभीत होकर गुफाओं में छुप कर बैठ गये। अपनी ही किरणों से चक्रवाकों के हर्ष को एवं कमलों के विकास को विस्तृत करने वाले सूर्य ने पोष्यवर्ग के प्रति स्वाधीन अधिकार के स्वरूप वाली नीति का उल्लंघन नहीं किया। (४२)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदीयमान सूर्य की किरणों से विकसित केसरवन के जैसे पृथ्वी दिखाई दे रही थी । मानो सुमंगला केसर का अंगविलेपन करवाने की इच्छा वाली हो वैसे शैय्या को छोड़ दिया। उसी समय कोई सखी पानी से भरी हुई चंद्रकांत मणि की झारी हाथ में लेकर सुमंगला के पास आई। सुमंगला के कोमल हाथ पर निर्मल जल की धारा को छोड़ती वह सखी मेघमाला समान दिखाई दे रही थी । सुमंगला रानी के मुख रूपी चंद्र की पानी ने संगति की इसी कारण जगत में विद्वानों ने उसका नाम 'अमृत' दिया । जिस दर्पण को प्रातः काल भस्म से साफ करते हुए कष्ट सहना पड़ा था उस दर्पण ने सुमंगला के मुख का स्पर्श करके स्वयं की प्रशंसा की ।
1
समाधि से युक्त, समीप में आई सखियों द्वारा गाये गये गीत की कर्णप्रिय ध्वनि को सुनती हुई सुमंगला ने पास आये हुए इन्द्र को देखा । फिर श्री युगादीश्वर की वह पत्नी है, ऐसा सोच कर, उनको भी तीर्थ रूप मान कर नमस्कार करते हुए इन्द्र बोले- 'हे परिवार के प्रति मनोहर एवं सौम्य दृष्टि वाली ! हे स्त्री लक्षणों के भंडार की सृष्टि समान! हे महान स्त्री ! हे श्री ऋषभदेव प्रभु के शोभा से रमणीय हृदय रूपी पिंजरे में मैना समान सुमंगला! आप की जय हो ।'
'पर्वत में से उत्पन्न होने के कारण शिलारूप होने से पार्वती भी आपके साथ स्पर्धा करती जड़ हो गई। समुद्र में से उत्पन्न होने के कारण मछली रूप होने से लक्ष्मी भी आपकी शोभा को प्राप्त नहीं कर पाई । वृद्ध ब्रह्मा की पुत्री होने से जिसके साथ किसी ने भी विवाह नहीं किया एवं जिसको भाग्ययोग से निम्नगा ऐसा नाम मिला है और जो समुद्र में जाकर रहती है वह सरस्वती भी आपकी तुलना को नहीं पा सकी। हे गौरी! कला, कुलाचार और सुरूपता की धारक ! आपके गुणों की स्तुति करूं इस योग्य मेरी वाणी नहीं है। कारण कि आपके गुण अगाध समुद्र के समान हैं। महासागर में डूब जाने वाली बकरी जैसे अपने आप तैर कर बाहर निकलने में समर्थ नहीं है वैसे मेरी वाणी भी आपके महासागर जैसे गुणों का संकीर्तन करने में समर्थ नहीं है।'
"
'आप तीन लोक के स्वामी की पत्नी हो और आपने शास्त्रवेत्ताओं को भी सोचने योग्य ऐसे श्रेष्ठतम स्वप्न देखे हैं। अगर कदाचित् सूर्य पश्चिम दिशा में उदित हो अथवा मेरु पर्वत चलायमान हो जाए, कदाचित् समुद्र मर्यादा का उल्लंघन कर जाए, कदाचित् अग्नि शीतलता को प्राप्त करे, कदाचित् पृथ्वी अपनी सर्व सहनशीलता का त्याग कर पाताल के अतिथि रूप को प्राप्त करे फिर भी हे सुमंगला! आपके स्वामी का वचन कभी भी विपरीत नहीं होता है। फिर हे देवी! श्री ऋषभदेव प्रभु की मुनीन्द्रों को भी मननीय ऐसी वाणी को आप सत्य ही मानें तथा पूर्ण समय होने पर महान पुत्र रत्न को प्राप्त करें ।'
कवि उसके बाद मालोपमा अलंकार द्वारा वर्णन करता है :
सुवर्णगोत्रं वरमाश्रितासि, गर्भं सुपर्वागममुद्वहंती ।
श्रियं गता सौमनसीमसीमां, न हीयसे नंदनभूमिकायाः ॥ ११-३५॥
हे सुमंगला! आप उत्तम वर्ण के गोत्र वाले स्वामी के आश्रित हुई हैं, देवलोक से आये गर्भ को धारण करती हैं, उत्तम जनों की असीम शोभा को प्राप्त हुई हैं, इससे आप नंदनवन की भूमि से उतरने वाली पंक्ति तो नहीं हो ।
यहाँ कवि ने मालोपमा अलंकार द्वारा सुमंगला की नंदनवन के साथ तुलना की है।
'हे देवी! आपके इस पुत्र से आपका आत्मीय तेज बढ़ेगा। मैं भी उसी दिन से प्रार्थना करता हूँ
[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
(४३)
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
कि जब आप पूर्व दिशा के समान पुत्र को जन्म दोगी तब मेरा शरीर सरोवर के समान आचरण करेगा।
सूर्योदय होने पर सरोवर में कमलों की पंक्ति खिलती है, वैसे ही आपके पुत्र का जन्म होने पर हमारे नेत्र रूपी कमल विकसित हो जायेंगे। फिर देवांगना आपके पुत्र को खिलाने हेतु पृथ्वी पर आकर हर्ष सहित उसका आलिंगन कर सुख प्राप्त करेंगी। आपका पुत्र जब एक आसन पर बैठेगा तब देवसमूह उनके केवल पृथ्वी तलस्पर्श एवं निमेषादि चिह्न से ही मुझे पहचान सकेंगे।'
सुमंगला के पुत्र की ऊँचाई के विषय में इन्द्र महाराज कहते हैं, 'हे सुमंगला ! तलवार से उग्र हाथ वाला यह आपका पुत्र हाथी पर चढ़कर जब रणसंग्राम में सन्नद्ध होगा तब कितने ही शत्रु राजा युद्ध से भागते हुए अपने शरीर की ऊँचाई एवं शरीर की गुरुता की निंदा करेंगे। पुनः आपके इस पुत्र के बाण पर लिखित अक्षरों को देखकर संग्राम किये बिना ही मद रहित होकर, मनुष्य ही क्या लेकिन मागधादिक देव भी नृत्य करके आपके पुत्र के दास रूप को प्राप्त करेंगे । '
कवि लिखता है कि :
अस्मिन् दधाने भरताभिधानमुपेष्यतो भूमिरियं च गीश्च । विद्वद्भुवि स्वात्मनि भारतीति ख्यातौ मुदं सत्प्रभुलाभजन्माम् ॥ ११-४३॥
हे सुमंगला! यह आपका पुत्र 'भरत' ऐसा नाम धारण करेगा जिससे यह भूमि और सरस्वती विद्वानों में अपना नाम 'भारती' ऐसा प्रख्यात होने से उत्तम स्वामी के लाभ से हर्षित होगी । पुनः सुमंगला! जैन सूत्रों में जैसे अर्थों का अभ्यास करने पर भी क्षय होता नहीं है वैसे ही जिसमें रहे हुए द्रव्यों को निकालने पर भी क्षय नहीं होता, ऐसे नौ निधानों की स्वाधीनता आपके पुत्र को प्राप्त होगी । कवि लिखता है :
उदच्यमाना अपि यांति निष्ठां, सुत्रेषु जैनेष्विव येषु नार्थाः ।
तेषां नवानां निपुणे निधीनां, स्वाधीनता वत्स्र्त्स्यति ते तनूजे ॥ ११-४४॥
हे देवी! कोटा कोटी वर्ष पर्यन्त साधर्मिकों को विविध प्रकार के भोज्य पदार्थों का भक्ति पूर्वक भोजन कराने वाले आपके इस पुत्र के भक्ति रस और भोजनरस के अतिशय रूप को कहने के लिये विद्वान भी समर्थ नहीं होंगे। कवि लिखता है :
(४४)
निवेशिते मूर्त्यमुना विहार-निभे मणिस्वर्णमये किरीटे ।
न सुभ्रु भर्ता किमुदारशोभां भूभृद्वरोऽष्टापदनामधेयः ॥ ११-४७ ॥
हे सुमंगला! यह आपका पुत्र प्रासाद पर मणि एवं सुवर्णमय मुकुट को शिखर पर रखेगा तब अष्टापद पर्वत की शोभा को धारण करेगा। आपके इस पुत्र ने पूर्वभव (पूर्वजन्म) में योगाभ्यास से मोक्षतत्त्व की आराधना की है, अतः मोक्षतत्त्व स्वरूप देखने से होने वाले मदकर्म के बंधन से ( अभिमान के बंधन से) वह उनकी रक्षा करेगा। इसलिये हे सुमंगला! पुरुषार्थ को विस्तृत करने में समर्थ, प्रभा के भंडार रूप एवं दरिद्रता का नाश करने में सक्षम ऐसे गर्भ में स्थित आपके पुत्र का, पृथ्वी में रहे हुए माणिक्य के समान प्रयत्नपूर्वक रक्षण करें। हे देवी! जैसे देवलोक में मैं स्वामी हूँ इस प्रकार मनुष्य लोक में वह स्वामी होगा एवं जब वह युवावस्था को प्राप्त होगा तब मेरी आत्मा-तुल्य मित्रों के संग का सुख प्राप्त करेगा।
इस प्रकार के वचनों से, वर्षा के शीतल पानी के समान मेघ की प्रशंसा को व्यर्थ करके, इन्द्र
[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
खुद की कांति से चारों तरफ आकाश में बिजली के चमकारे के समान अदृश्य हो गये। हृदय एवं नेत्र रूपी कमलों को विकसित करने वाले, उत्तम सूर्य समान इन्द्र के दृष्टि मार्ग से दूर जाने पर सुमंगला क्षण भर शोक से श्याम मुखवाली हो गई और घुटने के पास इकट्ठी होकर बैठी हुई सखियों को गद्गद् वाणी से सुमंगला कहने लगी-'हे सखियों! हम लोगों की रस-तृप्ति तो अभी तक हुई नहीं, वहीं इन्द्र बोलते हुए क्यों रुक गये? हे सखियों! इस प्रकार की कथाओं के विस्तार में क्या इन्द्र को भी दरिद्रता आ गई? अथवा वह कथाओं के विस्तार को मेरे में स्थापित करने में क्या मैं ही योग्य नहीं हूँ? क्योंकि वाणीरस में अपूर्ण इच्छा वाली ऐसी मुझे त्याग कर वह आकाश में चले गये। कवि कहता है कि इन्द्र का भोजन अमृत से है। उनका वचन अमृत वृष्टि के समान आचरण करता है, परन्तु वह वचनामृत पीने वाले की तृष्णा कम होती नहीं है, वह आश्चर्य है।'
सज्जनों की वाणी स्वादिष्ट भोजन की तरह जैसे खाई नहीं जाती, जैसे दूध अंजलि से पिया नहीं जाता, फिर भी वह वाणी जगत को भोजन एवं क्षीरपान से भी अधिक तृप्ति देती है। सज्जनों के वचन जितने हर्षदायक हैं उतना चंदन या चंद्र की किरणे अथवा दक्षिण की वायु अथवा उद्यान, या मिश्री का पानी या अमृत भी हर्षदायक नहीं है। विद्वानों की वाणी, गाय का दूध एवं गन्ने का रस इन दोनों को तिरस्कृत करती है, अर्थात् कम करती है। गाय के आंचल एवं गन्ना इन दोनों को अंगूठे से दबाने से रस प्राप्त होता है, जबकि विद्वानों के स्वभाव से ही अमृत बहता है। हे सखी! जब इन्द्र बात करते थे तब दिन कैसे बीतता था उसका भी पता नहीं चलता था। अब सखियाँ उस सुमंगला को विनती करने लगी कि 'हे मुग्धमन वाली सखी! जो बात चली गई उसकी चिंता करना अच्छा नहीं। देखो, आकाश के मध्य में सूर्य आ गया है इसलिये स्नान एवं भोजन के लिये प्रस्थान करें।'
यह सूर्य धीरे-धीरे मध्याह्न में आ गया है और अभी ऊँचा आने के लिये प्रयत्न कर रहा है। अपनी किरणों को ज्यादा उष्ण कर खुद की गति से आगे बढ़ रहा है। जैसे किरणों से सूर्य उच्च गति को प्राप्त करता है वैसे ही शूरवीर एवं विद्वान भी निज के हाथ में शक्ति हो तब ही ऊपर आ सकते हैं।
सूर्य मस्तक को तपाने वाले किरण रूपी दंड से, जब मनुष्य रहित निर्जन सरोवरों में कमलिनियों के उत्संग में किरणों को फेंकता है, सूर्य के किरणों से कमल लक्ष्मी का घर होता है, तब वही सूर्य की किरणों से सूर्यकांतमणि धूमकेतु के समान आचरण करती है। स्वामी की समान कृपा होने पर भी भाग्यवश ही फल की प्राप्ति होती है । श्रम से थके हुए पथिक सूर्य को कहते हैं-रात्रि के समय जो राजा शब्द को धारण करता है वह चंद्रमा भी दूर देश चला गया है; तो फिर किस पर तीव्र प्रचंड ताप वाली किरणों को धारण करते हो?
पानी की आशा से दौड़ते एवं मृगजल से छले हुए पथिकगण पानी नहीं मिलने से झरते आँसुओं से बंजर जमीन पर भी सचमुच पानी को प्रकट करते हैं। पुनः हे कमल के समान लोचन वाली सुमंगला! बंद आँखों वाले एवं छोड़ दिया है संसार में घूमना जिसने ऐसे मौनधारी के समान ये पक्षी मानों योगाभ्यासी हों वैसे सघन वृक्षों की पर्णशाला का आश्रय ले रहे हैं।
उगते हुए सूर्य ने अपना 'लोक कर्म साक्षी' ऐसा नाम सत्य किया था और इस वक्त तो अपने तेज से सभी प्राणियों को दुःख देकर खुद का 'कृतांत तात' ऐसा नाम सत्य किया है। ऐसा कहती हुई वे सखियाँ सुमंगला को स्नानगृह में ले गई। अब स्नान हेतु बाजोठ पर बैठी सुमंगला को ये सखियाँ जल से शोभित सुवर्ण-कलशों से तुरन्त ही स्नान कराने लगी। [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(४५)
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
जगभर्तुर्वाचा प्रथममथ जंभारिवचसा,
रसाधिक्यात्तृप्तिं समधिगमितामप्यनुपमाम्। स्वरायातैर्भक्ष्यैः शुचिभुवि निवेश्यासनवरे,
बलादालीपाली चटुघटनयाऽभोजयदिमाम्॥११-७०॥ इसके बाद प्रथम श्री ऋषभदेव प्रभु की वाणी से एवं इन्द्र की वाणी से अनुपम ऐसी रसाधिकता की तृप्ति को प्राप्त करने वाली उस सुमंगला को, सखियों ने जबरदस्ती से पवित्र भूमि पर बिछे हुए उत्तम आसन पर बिठाकर, मधुर वचनों से, रचना-पूर्वक देवलोक से आये हुए भोज्य पदार्थों से भोजन करवाने लगी।
इस ग्यारहवें सर्ग में कवि ने सूर्योदय वर्णन, इन्द्र का आगमन, सुमंगला की इन्द्रकृत प्रशंसा, इन्द्र के जाने के बाद सुमंगला का खेद, सखियों द्वारा सुमंगला को स्नान एवं भोजन करवाना इत्यादि प्रसंगों का कवि ने अपनी मौलिक कवित्व शक्ति से उपमा-रूपकादि अलंकारों द्वारा आलेख किया है।
कुमारसम्भव और जैन कुमारसम्भव काव्यों में समानता कवि श्री जयशेखरसूरि ने महाकवि कालिदास के 'कुमारसंभव' को लक्ष्य में रखकर अपने महाकाव्य का सर्जन किया है। इसीलिये तो उन्होंने 'जैन कुमारसंभव' ऐसा महाकाव्य का नाम दिया है। कदाचित् सरस्वती देवी ने प्रसन्न होकर महाकाव्य के आरंभ हेतु उन्हें जो दो पद दिये थे उनमें से एक पद कालिदास के महाकाव्य का प्रथम चरण है, इसलिये भी उन्होंने इस महाकाव्य के सर्जन करने हेतु सोचा हो अथवा उन्हें इस कथानुसार प्रेरणा मिली हो, जैसे कालिदास को भी 'कुमारसंभव' के प्रथम पद हेतु प्रेरणा मिली थी।*
श्री जयशेखरसूरि कवि कालिदास का अनुसरण करके प्रथम श्लोक की रचना करते हैं। कालिदास 'कुमारसंभव' का प्रारंभ इस प्रकार करते हैं :
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधि वगाह्य, स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥ १-१॥ (उत्तर दिशा में देवता स्वरूप हिमालय नाम से पर्वतों का राजा पूर्व एवं पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर पृथ्वी के मानदंड की तरह विद्यमान है।)
श्री जयशेखरसूरि ‘जैन कुमारसंभव' का प्रारम्भ निम्न श्लोक से करते हैं :
कालिदास का विवाह विदुषी राजकुमारी के साथ हुआ था। राजकुमारी को पता चला कि उसके पति मूर्ख हैं इसलिये उसको बाहर निकाल दिया। कालिदास वहाँ से निकल कर भगवती के मंदिर में गये। वहाँ भगवती देवी को प्रसन्न कर सर्व शास्त्रों के पंडित हुए। फिर जब घर वापस आये तब उनकी पत्नी संस्कृत में पूछती है कि 'अस्ति कश्चित् वाग्विशेष:?' तब तीन शब्दों के इन वाक्यों के आधार पर कालिदास ने तीन महाकाव्यों की रचना की। अस्ति' से 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि' से 'कुमारसंभव' की, 'कश्चित्' से 'कश्चित् कान्ता' से 'मेघदूत' की एवं वाग्' से 'वागर्थाविव' से 'रघुवंश' महाकाव्य की रचना की ऐसी किंवदंती कही जाती है।
(४६)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीता परमर्द्धिलोकैः।
निवेशयामास पुरः प्रियायाः, स्वस्यावयस्यामिव यां धनेशः॥ १-१॥ (उत्तर दिशा में कोशला नाम की नगरी है जो अत्यंत ऋद्धि वाले लोगों से भरी हुई है, इस नगरी की कुबेर ने अपनी स्त्री की सखी के समान स्थापना की है।)
इस प्रकार इन दोनों महाकाव्यों के प्रारम्भ के प्रथम श्लोक में कुछ मिलता-जुलता रूप है और काव्य विषय की दृष्टि से भी मिलता-जुलता है। इन दोनों महाकाव्यों की सविस्तार तुलना करने पर पता चलता है कि कवि जयशेखरसूरि ने कालिदास का अनुकरण नहीं किया है। उनके पास उनकी अपनी मौलिक कवित्वशक्ति है और इसी दृष्टि से वे सर्जन करते जाते हैं। फिर भी कुछ स्थूल समानता ही करनी हो तो निम्न दृष्टि से कर सकते हैं।
कालिदास ने 'कुमारसंभव' का सर्जन सतरह सर्ग* में किया है। जबकि श्री जयशेखरसूरि ने 'जैनकुमारसंभव' की रचना ग्यारह सर्ग में की है। कालिदास ने 'कुमारसंभव' में मुख्य रूप से उपजाति छंद का प्रयोग किया है। इसी प्रकार जयशेखरसूरि ने भी उपजाति छंद का उपयोग किया है । कालिदास ने कुल 1096 श्लोकों (सतरह सर्ग के हिसाब से) में से 434 श्लोक उपजाति छंद में लिखे हैं। श्री जयशेखरसूरि ने जैनकुमारसंभव' की रचना कुल 849 श्लोक में की है, उसमें से 353 श्लोक उपजाति छंद में लिखे हैं । कालिदास ने उपजाति के अतिरिक्त अनुष्टप्, वंशस्थ, वसंततिलका, रथोद्धता, वियोगिनी, इन्द्रवंशा छंद में भी सर्गों की रचना की है, जबकि श्री जयशेखरसूरि ने उपजाति के अतिरिक्त अनुष्टप्, वंशस्थ एवं स्वागता छंद में सर्गों की रचना की है।
कालिदास कृत 'कुमारसंभव' एवं श्री जयशेखरसूरिकृत 'जैनकुमारसंभव' के मध्य विषय निरूपण में भी कुछ समानता है। जैसे कि 'कुमारसंभव' में शंकर-पार्वती के विवाह एवं कार्तिकेय के जन्म का प्रसंग है, जबकि 'जैनकुमारसंभव' में ऋषभदेव-सुमंगला के विवाह एवं भरत के जन्म का प्रसंग है। 'कुमारंसभव' में हिमालय के कैलास पर्वत का वर्णन है; तो 'जैनकुमारसंभव' में अष्टापद पर्वत का वर्णन है। 'कुमारसंभव' में पार्वती के सौंदर्य का वर्णन है, तो 'जैनकुमारसंभव' में सुमंगला के सौंदर्य का वर्णन है। 'कुमारसंभव' में औषधिप्रस्थ नाम की नगरी का वर्णन है; तो कुमारसंभव में कोशलानगरी का वर्णन है । 'कुमारसंभव' में शंकर को देखने हेतु नगर-नारियों के कुतूहल का वर्णन है, तो 'जैनकुमारसंभव' में ऋषभदेव को देखने हेतु निकली नगर-नारियों का वर्णन है।
इस प्रकार बाह्य दृष्टि से इन दोनों महाकाव्यों के बीच किंचित साम्य अवश्य है. लेकिन विस्तार से देखने पर जान पड़ता है कि श्री जयशेखरसूरि ने कल्पना-वैभव, अलंकार आदि में कालिदास का सर्वत्र अनुकरण किया हो वैसे नहीं दिखाई देता है। श्री जयशेखरसूरि ने स्वयं की मौलिक स्वतंत्र सर्जन प्रतिभा से इस महाकाव्य का सर्जन किया है। इसमें उन्होंने उधार कुछ भी नहीं लिया है। अर्थात् 'जैनकुमारसंभव' में कालिदास के 'कुमारसंभव' की शब्द-अलंकार या कल्पना की स्थूल छाया विशेष रूप से कहीं भी दिखाई नहीं देती। फिर भी कितने ही निम्न श्लोकों की उदाहरण के तौर पर तुलना की जा सकती है।
* 'कुमारसंभव' के कुल अधिकृत सर्ग कितने हैं? इस विषय पर विद्वानों में मतभेद हैं। एक मुख्यमत के अनुसार कालिदास ने आठ सर्ग का महाकाव्य लिखा था एवं पीछे के सर्ग बाद में मिलाये गये हैं।
(४७)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालिदास 'कुमारसंभव' में लिखते हैं :
प्रसन्नदिक्पांसुविविक्तवातं शङ्कस्वनाऽनन्तर पुष्पवृष्टिः।
शरीरिणां स्थावरजंगमानां सुखाय तज्जन्मदिनं बभूव ।। १-२३॥ (निर्मल दिशाओं से युक्त, धूल रहित वायु से सम्पन्न, शंख ध्वनि से युक्त, पुष्पवृष्टि से सुशोभित ऐर, पार्वती का जन्मदिवस स्थावर एवं जंगम प्राणियों के लिये सुखकारक हुआ।)
इसके साथ तुलना करें 'जैनकुमारसंभव' का निम्न श्लोक :
मध्येऽनिशं निर्भरदःखपूर्णास्ते नारका अप्यदधुः सुखायाम्।
यत्रोदिते शस्तमहोनिरस्त-तमस्ततौ तिग्मरुचीव कोकाः॥ १-२०॥ (जैसे सूर्य के उदय से रात्रि का नाश होने पर चक्रवाक पक्षी सुख का अनुभव करता है, वैसे ही निरंतर क्षेत्रजन्यकृत एवं परमाधामीकृत वेदना से अत्यन्त दु:खी ऐसे नारकी के जीव भी जब भगवान का जन्म होता है तब सुख का अनुभव करते हैं।)
_ 'कुमारसंभव' में हिमालय अपने भावी जामाता को औषधिप्रस्थ नगर में ले गये उस समय शिव दर्शन हेतु नगर की उत्सुक स्त्रियाँ अपने-अपने कार्यों को छोड़कर देखने हेतु दौड़ कर आईं। उस प्रसंग का कालिदास ने सात श्लोकों में वर्णन किया है, इसमें से उदाहरण स्वरूप निम्न श्लोक देखें :
आलोकमार्गे सहसा व्रजन्त्या कयाचिदुद्वेष्टनवान्तमालयः।
बद्धं न सम्भावित एव तावत्करेण रुद्धोऽपि च केशपाशः॥ ७-५७।। (कोई स्त्री बालों में फूल गूंथ रही थी, वहीं शंकर के आने के समाचार सुन कर हाथ के बाल पकड़ कर दर्शन हेतु दौड़ गई।)
विलोचनं दक्षिणमज्जनेन सम्भाव्य तद्वञ्चितवामनेत्रा।
तथैव वातायनसन्निकर्षं ययौ शलाकामपरा वहन्ती॥ ७-५८॥ (किसी ने अपनी बायीं आँख में काजल लगाया और दायीं आँख में लगाना अभी बाकी था, लेकिन दर्शन की उत्सुकता में हाथ में सलाई लेकर ही वह दर्शन मार्ग तक चली गई।)
अर्धाचिता सत्वरमुत्थितायाः पदे पदे दुर्निमिते गलन्ती।
कस्याश्चिदासीद्रशना तदानीमङ्गष्ठमूलार्पित सूत्रशेषा॥ ७-६१॥ (कोई स्त्री जो स्वयं मोती की माला पिरो रही थी वह शंकर के आने का कोलाहल सुनकर उसे देखने गई। कदम-कदम मोती गिर जाने से आलोक-मार्ग तक केवल पैर के अंगूठे में बंधा धागा मात्र ही रहा।)
इसी प्रकार 'जैनकुमारसंभव' में ऋषभदेव के विवाह प्रसंग पर नर-नारियों के कुतूहल का श्री जयशेखरसूरि ने ग्यारह श्लोकों में वर्णन किया है। इनमें से उदाहरण रूप निम्र श्लोक देखे :
पंक्तिमौक्तिक निवेशनिमित्तं, स्वक्रमांगुलिकया धृतसूत्राम्।
हारयष्टिमवधूय दधावे, वीरुधं करिवधूरिव काचित्॥ ५-३८॥ (उस समय कोई स्त्री, हथिनी जैसे बेलड़ी को धारण करती है वैसे हार माला पिरोने हेतु खुद की
(४८)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
उंगलियों में धारण किये धागे वाली हारयष्टि को त्याग कर दौड़ने लगी । )
तूर्णिमूढदृगपास्य रुदंतं पोतमोतुमधिरोप्य
कटीरे । कापि धावितवती नहि जज्ञे, हस्यमानमपि जन्यजनैः स्वम् ॥ ५-४१॥ (शीघ्रता के कारण मूढ दृष्टि वाली कोई स्त्री रोते हुए अपने बालक का त्याग कर, कटि में बिल्ली को रख कर दौड़ने लगी। लोगों से हास्य प्राप्त करने वाली होने पर भी अपनी जाति को नहीं पहचान पाई ।) कज्जलं नखशिखासु निवेश्यालक्तमक्षणि च वीक्ष्णलोला । कंठिकां पदि पदांगदमुच्चैः कंठपीठलुठितं रचयंती ॥ ५-४२॥ (इसे देखने हेतु चपल हुई ऐसी कोई स्त्री नाखूनों के अग्र भाग में काजल को, आँखों में अलता को, पैरों में कंटी को एवं कंठ में पायल को धारण करके आई ।)
इस प्रकार नारियों का कुतूहलवश विपरीत क्रिया का वर्णन करना, वह केवल कालिदास या जयशेखरसूरि में ही देखने को मिलता है ऐसा नहीं है; महाकवियों की परंपरा में यह उनकी एक पारंपरिक लाक्षणिकता है।
महाकाव्य में प्रयुक्त छन्द
कवि श्री जयशेखरसूरि ने अपने इस महाकाव्य की रचना किस प्रकार की है, उसे बाह्याकार की दृष्टि से समझने हेतु कवि ने प्रत्येक सर्ग की कितने पद्यों में रचना की है और इस काव्य में कौन-कौन छंदों का प्रयोग किया है, उसका विवरण द्रष्टव्य है :
सर्ग - 1. श्लोक 77
छंद का नाम
उपजाति
वसंततिलका
शिखरिणी
शार्दूलविक्रीडित
छंद का नाम
वंशस्थ
मालिनी
पृथ्वी
छंद का नाम
उपजाति
श्लोक संख्या
1 से 73
74,75
76
77
श्लोक संख्या
1 से 7:
72
सर्ग
73
de
श्लोक संख्या
1 से 75
कुल श्लोक
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
73
2
1
1
2. श्लोक 73
कुल श्लोक
71
1
सर्ग - 3. श्लोक 81
1
कुल श्लोक
75
एक चरण के अक्षर
11
14.
17
19
एक चरण के अक्षर
12
15
17
एक चरण के अक्षर
11
(४९)
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
वसंततिलका
स्वागता
मालिनी
शार्दूलविक्रीडित
छंद का नाम
वंशस्थ
द्रुतविलंबित
शालिनी
वसंततिलका
स्वागता
मंदाक्रान्ता
वैश्वदेवी
छंद का नाम
स्वागता
मन्दाकान्ता
छंद का नाम
उपजाति
द्रुतविलंबित
वसंततिलका
छंद का नाम
अनुष्टुप्
वसंततिलका
प्रहर्षिणी
मन्दाक्रान्ता
(५०)
76,77
78
'9,80
81
श्लोक संख्या
1 से 74
75
76
77
78
79
80
1
सर्ग - 4 श्लोक 80
श्लोक संख्या
1 से 83
84, 85
श्लोक संख्या
1 से 72
73
74
2
1
श्लोक संख्या
1 से 74
2
75
76
1
सर्ग - 5. श्लोक 85
77
कुल श्लोक
74
1
1
1
1
2
सर्ग - 6. श्लोक 74
1
कुल श्लोक
83
कुल श्लोक
1
सर्ग - 7. श्लोक 77
72
1
कुल श्लोक,
74
1
1
1
14
11
15
19
एक चरण के अक्षर
2 2 2 2
12
12
11
14
17
17
12
एक चरण के अक्षर
11
17
एक चरण के अक्षर
11
12
14
एक चरण के अक्षर
00
14
13
17
[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्ग - 8. श्लोक 68 श्लोक संख्या कुल श्लोक
छंद का नाम
एक चरण के अक्षर
उपजाति
मन्दाक्रान्ता
वसंततिलका
वैश्वदेवी
सर्ग - 9. श्लोक 80 एलोक संख्या कुल श्लोक
1 से 77
छंद का नाम वंशस्थ प्रहर्षिणी
एक चरण के अक्षर
वसंततिलका मालिनी
छंद का नाम
एक चरण के अक्षर
सर्ग - 10. श्लोक 84 श्लोक संख्या कुल श्लोक 1 से 79
79 80-81
स्वागता
मालिनी
वसंततिलका
हरिणी
मन्दाक्रान्ता
सर्ग - 11. श्लोक 70 श्लोक संख्या कुल श्लोक 1 से 68
68
छंद का नाम उपजाति
एक चरण के अक्षर
भुजंगप्रयात
शिखरिणी
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(५१)
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुल सर्ग ग्यारह - सब सर्गों की कुल श्लोकों की संख्या 849 है। छंदवार श्लोक निम्र हैं :क्रम छंद का नाम
कुल श्लोक उपजाति वंशस्थ
स्वागता
अनुष्टप्
वसंततिलका मालिनी मन्दाक्रान्ता प्रहर्षिणी द्रुतविलंबिन शार्दूलविक्रीडित शिखरिणी
वैश्वदेवी
हरिणी
पृथ्वी
शालिनी 16.
भुजंगप्रयात उपरोक्त विवरण से देख सकते हैं कि कवि श्री जयशेखरसूरि ने इस महाकाव्य में उपजाति, वंशस्थ, स्वागता, अनुष्टप्, वसंततिलका आदि 16 छंदों का प्रयोग किया है। महाकाव्य की शैली के अनुरूप उन्होंने प्रत्येक सर्ग में एक मुख्य छंद का प्रयोग किया है एवं सर्ग के अंतिम में एक, दो या अधिक से अधिक 6 श्लोकों की अन्य छंदों में रचना की है। इन सभी छंदों में कवि को महाकवि कालिदास या महाकवि श्री हर्ष के समान उपजाति छंद सबसे अधिक प्रिय एवं अनुकूल हो ऐसा दिखाई देता है; कारण कि उसमें उन्होंने पाँच सर्ग लिखे हैं । ग्यारह सर्ग में पाँच सर्ग उपजाति में लिखने से वह छंद उनकी कवि प्रतिभा में कितना बस गया होगा उसकी जानकारी देता है। उन्होंने हरिणी, पृथ्वी, शालिनी जैसे छंद का इस महाकाव्य में केवल एक-एक बार ही प्रयोग किया है। उपजाति उपरांत वंशस्थ, अनुष्टप् आदि छंदों पर भी उनका प्रभुत्व देख सकते हैं। उन्होंने 'धम्मिलकुमार चरित्र' सम्पूर्ण महाकाव्य अनुष्टप् छंद में 3500 श्लोकों में लिखा है। उस पर से महाकवि कालिदास के समान उपजाति एवं अनुष्टप् छंद पर जयशेखरसूरि असाधारण प्रभुत्व रखते हैं उसकी स्पष्ट प्रतीति होती है।
कवि श्री जयशेखरसूरि के जैनकुमारसंभव' महाकाव्य की तुलना अन्य प्रसिद्ध संस्कृत महाकाव्यों के साथ महाकाव्य के बाह्य देह की दृष्टि से करने पर भी जयशेखरसूरि की कवि प्रतिभा का परिचय
(५२)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
2.
849
मिल जाता है। यहाँ निम्न तुलनात्मक तालिका द्रष्टव्य है :महाकाव्य का नाम कुल श्लोक सर्ग प्रयुक्त सबसे अधिक
संख्या कुल छंद प्रायोजित छंद
कुल श्लोक संख्या 1. नैषधीय चरित 2827
उपजाति (866) शिशुपाल वध 1642
अनुष्टुप् (232) रघुवंश 1569
उपजाति (578) 4. किरातार्जुनीय
1040 18 15 वंशस्थ (204) 5. कुमारसंभव 1096
उपजाति (434) 6. जैनकुमारसंभव
11 16
उपजाति (353) इस तालिका से देख सकते हैं कि कवि श्री जयशेखरसूरि का महाकाव्य आकार में छोटा होने पर भी अन्य महाकवियों के समान उनका विविध छंदों पर प्रभुत्व प्रशस्य है एवं अन्य कितने ही महाकवियों के जैसे उनको भी उपजाति छंद सर्वाधिक प्रिय एवं सानुकूल है।
महाकाव्य आकार में छोटा क्यों? कवि जयशेखरसूरि ने जैनकुमारसंभव' महाकाव्य की रचना करने का निर्णय लिया उससे यह तो स्पष्ट है कि उनके समक्ष महाकवि कालिदास कृत 'कुमारसंभव' था। उसके अनुकरण पर इस महाकाव्य को लिखा हो एवं कवि के पास महाकाव्य लिखने की असाधारण कवि प्रतिभा हो तो उन्होंने अपने महाकाव्य को ग्यारह सर्ग में ही इतना छोटा क्यों लिखा? ऐसा प्रश्न होता है।
___ कवि कालिदास ने 'कुमारसंभव' के अंत में कार्तिकेय के जन्म प्रसंग का एवं उसके बाद का वर्णन कई सर्गों में किया है। श्री जयशेखरसूरि के 'जैनकुमारसंभव' में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत के जन्म (संभव) का विषय लिये जाने पर भी भरत के जन्म का वर्णन इस काव्य में नहीं है। क्या कवि ने जन्म-प्रसंग लिखने का पहले निर्धारण नहीं किया था? इससे यह प्रश्न खड़ा होता है कि अगर ऐसा है तो 'जैनकुमारसंभव' महाकाव्य का ऐसा शीर्षक देने का प्रयोजन क्या था? अथवा क्या वे इस महाकाव्य को सम्भव के अनुसार पूरा नहीं कर सके होंगे? कुछ भी हो यह महाकाव्य पढ़ने पर सम्पूर्ण महाकाव्य पढ़ने का संतोष, कथा-सामग्री की दृष्टि से होता नहीं है। इसलिये यह प्रश्न भविष्य के संशोधन का विषय बनता है।
महाकाव्य में प्रयुक्त अलंकार उपमा यह महाकवि का सहज अलंकार है। अन्य महाकवियों की भांति जयशेखरसूरि ने भी इस महाकाव्य में कैसी सुन्दर एवं मौलिक उपमाओं का प्रयोग किया है वह निम्न कुछ उदाहरणों से स्पष्ट हो जाएगा :
ओष्ठद्वयं वाक् समयेऽवदात-दंतद्युतिप्लावितमेतदीयम्।
बभूव दुग्धोदधिवीचिधौत-प्रवालवल्लिप्रतिमल्लितश्रि॥ १-५१॥ [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(५३)
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
(बोलते समय श्वेत दांत की कांति से शोभित ऐसे प्रभु के दोनों होठ क्षीर समुद्र की तरंगों से धोये हुए प्रवाल (मूंगों) की वेल के समान शोभा देते थे ।)
विमुक्तवैरा मृदुतिग्मताजुषः सुराऽसुराः स्वोचितचिह्नभासुराः । प्रभुं परीयुः शशिभास्वतोरिवांशवो दिवो गोत्रमुदारनंदनम् ॥ ४- ३९॥
(वैरवृत्ति विहीन, कोमलता एवं तीव्रता के गुणवाले एवं स्वोचित चिह्नों से शोभित ऐसे देव और दानव जैसे सूर्य-चंद्र की किरणें मेरु पर्वत को घेर कर रहती हैं वैसे ही मनोहर एवं समृद्धिदायक ऐसे प्रभु को घेर कर रहे ।)
प्रगृह्य कौसुंभसिचा गलेऽबला, बलात्कृषंत्येनमनैष्ट मंडपम् । अवाप्तवारा प्रकृतिर्यथेच्छया भवार्णवं चेतनमप्यधीश्वरम् ॥ ४-७४ ॥
(जैसे अवसर प्राप्त होने पर प्रकृति यथेच्छ रूप से आत्मा को भव समुद्र की तरफ ले जाती है वैसे कोई स्त्री समर्थ प्रभु को कसुंबी वस्त्र से कंठ बांधकर बड़ी कठिनाई से मंडप में ले गई।) निर्नष्टनेत्रनिद्रा सा, स्वप्नानंतरचिंतयत् ।
मुनिरप्राप्तपूर्वाणि, पूर्वाणीव चतुर्दश ।। ७-५५ ।
(पहले अप्राप्त ऐसे चौदह पूर्वो का जैसे मुनिराज चिंतन करते हैं वैसे ही सुमंगला निद्रारहित लोचनवाली होकर मन में उन चौदह स्वप्नों का चिंतन करने लगी ।)
उदच्यमाना अपि यांति निष्ठां, सूत्रेषु जैनेष्विव येषु नार्थाः ।
तेषां नवानां निपुणे निधीनां, स्वाधीनता वर्त्स्यति ते तनूजे ॥ ११-४४ ॥
(हे सुमंगला! जैसे जैन सूत्रों के अर्थों को पढ़ने पर भी उसका क्षय होता नहीं है वैसे ही नौ निधानों में से द्रव्य निकालने पर क्षय नहीं होता है। ऐसे नौ निधानों की स्वाधीनता आपके पुत्र को होगी ।)
महाकाव्य में उपमा के साथ-साथ साधर्म्यमूलक रूपक अलंकार भी आये बिना नहीं रहते । इस महाकाव्य में कवि जयशेखरसूरि ने जो विविध मनोहर रूपकालंकार का प्रयोग किया है। उसमें से कुछ उदाहरण अवलोकनीय हैं :
(५४)
पूढेऽस्य वक्षस्यवसत्सदा श्री-वत्सः किमुच्छद्मधिया प्रवेष्टम् ।
रुद्धः परं बोधिभटेन मध्य अध्यूषुषासीद्बहिरङ्ग एव ॥ १-४६ ॥
( क्या प्रभु के विशाल वक्षस्थल पर श्रीवत्स (कामदेव) कपट बुद्धि से अंदर प्रवेश करने हेतु सदा निवास करता है? किन्तु अंदर रहने वाले बोधि रूपी सैनिक द्वारा रोके जाने के कारण वह बाहर ही रहता है ।)
भहाबलक्ष्मापभवे यथार्थकीं चकर्थ बोधैकबलान्निजाभिधाम् ।
अखर्व चार्वाकवचांसि चूणर्यन्नऽयोधनानक्षरकोट्टकुट्टने॥ २-५८॥
(हे प्रभु! महाबल राजा के भव में बोध के एकमात्र बल से मोक्ष रूपी गढ़ को ध्वस्त करने में लोहे के घन समान प्रौढ़ ऐसे नास्तिकों के वचनों का नाश करते हुए आपने अपना नाम सार्थक किया है ।)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्वदागमाम्भोनिधितः स्वशाक्त्या - ऽऽदायोपदेशाम्बुलवान् गभीरात् । घना विधास्यन्त्यवनीवनीस्थान्, विनेयवृक्षानभिवृष्य साधून् ॥ ७ ॥
(हे प्रभु! गंभीर ऐसे आपके आगम रूपी समुद्र से स्वशक्ति के अनुसार उपदेश रूपी जल बिंदुओं को लेकर लोकरूपी बादल पृथ्वी रूपी वन में रहने वाले शिष्य रूपी वृक्षों का सिंचन कर उनको उत्तम निर्ग्रन्थ बनायेगा | )
ये तयोरशुभतां करमूले, काममोहभटयोः कटके ते । अंगुलीषु सुषमामददुर्या उर्मिका ननु भवांबुनिधेस्ताः ॥ ३-७८॥
( उन दोनों कन्याओं के हाथ में काम एवं मोह नामक सुभट सैन्य रूपी दो कंगन शोभा देते थे एवं भवरूपी समुद्र की लहर के समान अंगुलियों में रही हुई अंगुठियाँ शोभा देती थीं ।)
स्वप्नानशेषानवधृत्य बुद्धि - बाह्वा मनोवेत्रधरः पुरोगः ।
महाधियामूहसभामभीष्टां, निनाय लोकत्रयनायकस्य॥ ८-६४॥
(तीन लोक के नायक श्री ऋषभदेव प्रभु को बुद्धिमानों में अग्रेसर ऐसा मनरूपी छड़ीदार सभी स्वप्नों को बुद्धि रूपी बाहु से खींच कर विचार रूपी मनोहर सभा में ले गया।
'जैनकुमारसंभव' में उत्प्रेक्षा, श्लेष, अर्थान्तरन्यास इत्यादि अलंकारों का जयशेखरसूरि ने कितने सुन्दर रूप से प्रयोग किया है वह निम्न उदाहरण से देखा जा सकता है :
भवे द्वितीये भुवनेश युग्मितां कुरुष्वऽवाप्ते त्वयि किंकरायितम् । मनीषितार्थक्रियया सुरद्रुमैः जितैरिवं प्राग् जननापवर्जनैः ॥ २-५६॥
( हे तीनों भुवन के स्वामी ! आपने दूसरे भव में उत्तर कुरु क्षेत्र में जब युगलिक रूप प्राप्त किया था तब मानो पूर्वकृत दान से विजित हों वैसे कल्पवृक्षों ने इच्छितार्थ की क्रिया से नौकरों के जैसा आचरण किया ।)
यहाँ कवि ने कैसी सुन्दर उत्प्रेक्षा की है।
निमील्य नेत्रे विनियम्य वाचं, निरुध्य नेताखिलकायचेष्टाः ।
निशि प्रसुप्ताब्जमनादिहंसं, सरोऽन्वहार्षीदलसत्तरंगम् ॥ ८-६३ ॥
(मानो श्री ऋषभदेव प्रभु ने आँखें बंद करके, वाणी एवं समस्त शरीर चेष्टाओं को रोक कर, रात्रि के संकुचित कमलों वाले शब्द नहीं करते हंसों वाले एवं स्थिर तरंगों वाले सरोवर का अनुकरण किया ।) रूपसिद्धिमपि वर्णयितुं ते, लक्षणाकर न वाक्पतिरीशः ।
}
यच्चतुष्ककलनापि दुरापा, तद्धितप्रकरणं मनुते कः ।। ५-५६ ॥
( छत्र- चामरादिक एक हजार आठ लक्षणों के भंडार रूप (पक्ष में : व्याकरण शास्त्र के भंडार रूप) प्रभु! आपकी रूप सिद्धि का वर्णन करने में बृहस्पति भी समर्थ नहीं है, क्योंकि जिसकी सभा में जाना भी दुर्लभ है, उसका हित प्रकरण कौन जान सकता है ? (पक्ष में : जिसको प्रथम वृत्ति भी नहीं आती वह तद्धित प्रकरण कहाँ से जान सकता है।) )
इस श्लोक में व्याकरण की परिभाषा का उपयोग सरस श्लेषालंकार द्वारा कवि ने किया है। श्लेषालंकार का दूसरा उदाहरण देखें :
[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
(५५)
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदारमुक्तास्पदमुल्लसद्गुणा समुज्ज्वला ज्योतिरुपेयुषी परम् ।
तदा तदीये हृदि वासमासदद्धृतेऽक्षर श्रीरिव हारवल्लरी ।। ४-२६॥
(मनोहर मोतियों के स्थान रूप (पक्ष : उल्लासमान है क्षमादिक गुण जिसमें ) उज्ज्वल एवं उत्कृष्ट ज्योति को प्राप्त हुई ऐसी हारवल्लरी (दीक्षा होने पर भी मोक्ष लक्ष्मी) की तरह उस समय उनके हृदय में वास करती थी ।)
अर्थान्तरन्यास अलंकार का उदाहरण देखें :
अवशमनशद्भीतः शीतद्युतिः स निरंबरः ।
खरतरकरे ध्वस्यद्ध्वांते रवावुदयोन्मुखे । विरलविरलास्तज्जायन्ते नभोऽध्वनि तारकाः ।
परिवृढदृढीकाराभावे बले हि कियद्बलम् ॥ १०-८३॥
(हे स्वामिनी ! प्रचंड किरणों वाला एवं अंधकार का नाशक सूर्योदय होने पर भयभीत चंद्र आकाश को खाली करके भाग गया, जिससे आकाश मार्ग में तारे भी बिखर गये। नायक बिना सैन्य में कितना बल
होता है ? )
कवि की शब्द- समृद्धि
संस्कृत में महाकाव्य की रचना करने वाले कवि के पास शब्द भंडार छोटा हो तो चल नहीं सकता है । महाकाव्य में कवि को उपमादि अलंकारों के साथ विविध पात्र, प्रसंग, परिस्थिति इत्यादि का भी वर्णन करना होता है । कवि का शब्द भंडार अगर छोटा हो तो महाकाव्य में एकविधता आती है, वैविध्य नहीं, शब्द सौंदर्य के उच्च शिखर को जीत नहीं सकते । कवि श्री जयशेखरसूरि के पास महाकाव्योचित श्रेष्ठ कवि प्रतिभा होने से इस महाकाव्य में उनकी शब्द समृद्धि का दर्शन स्थान-स्थान पर होता है। उन्होंने कितने ही प्रचलित शब्दों के जिन विविध शब्द-पर्यायों का उपयोग किया है।
:
इन्द्र, आवास, रात्रि, आकाश, कमल, पवन, समुद्र, चंद्र, सूर्य, पृथ्वी, देव, कामदेव, दिवस, स्त्री, गुफा, अंधकार, श्री ऋषभदेव, आम्र वृक्ष, मेरुपर्वत, पर्वत, भ्रमर, हाथी, बादल, मोक्ष आदि कई शब्दों के विविध पर्यायों का यथास्थान पर योग्य विशेषार्थ सहित कवि ने सहज रूप से छंदरचना में बाधक न हो इस प्रकार प्रयोग किया है। इसलिये कई स्थानों पर काव्य में विशेष चमत्कार उत्पन्न हो गया है । यहाँ कवि द्वारा प्रमुख कुछ ऐसे शब्दों के पर्यायों के उदाहरण दिये जा रहे हैं :
इन्द्र : महेन्द्र (सर्ग: 2/20, 3 / 37 ), दिव: पति (2/26), हरि (2/21, 2/73, 4/5), पुरदर (2/28. 4/14, 4/33), वासव (2/42, 4/28), शचीपति: (2/48), निर्जरेश्वर (2/47), पवि: (2/68), उग्रधन्वा (3/1), वज्री (3/34, 4/25, 5/1 ), शचीश ( 3 / 40, 4 / 10 ), सौधर्मेश (4/1 ), सुरेश्वर (2/12, 2/ 30), इन्द्र (3/36), मघवा (11,51 ), बिडौजस (4/14), पुरुहूत (4/61), पविपाणि (4/62), शतमख (4/75), घुसदीशिता (4, 44 ), मघोना (5/9), मघवान् (5/22), गिरिभिदा (5/21), ऋभुक्षा (5/24 ), दिवीश (5/27), ऋभु (5/52), शतक्रतु ( 5/ 55, 9 / 33 ), त्रिदशेश (8 / 10), विबुधेश (8/21), नाकनाथ (8/21), सहस्रलोचन (10/3), जंभवैरि (10/77), शतमन्यु (11, 12 ), देवराज (11,59), जंभारि ( 11/70 ) ।
५६)
[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय 1
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
आकाश : धु (2/26, 5/49), घन (2/28), नभ (3/49,7,49), विहाय (3/4, 11/54), नभस् (41 7,7/3), अंबर (4/45,5/32, 10/82), अन्तरिक्ष (6/46, 10/74), दिव (9/54), अभ्रंकष (7/ 47), व्योनि (7/75),ख (11/60), अभ्र (11/37), अन्तरस्थ (17/62)। कमल : अम्बुज (2/47, 6/21, 11/2), पद्म (3/80, 4/53, 9/59), अरविन्द (9/50, 10/1), कमल (4/31,7/42), राजीव (10/81, 11/51), अंबुरुह (10/82), तामरस (5/22), नलिन (5/ 48, 11/8), अब्ज (10, 84), पंकज (5/76), जलज (11/18), सरोज (6/22, 9/49, 10/3), नीरज (11/16), पयोज (6/63), नीरजन्मन् (8/7), पद्मिनी (8/9, 11/52)। रात्रि : निशा (2/33,6/2, 6/6, 10/84), तमस्विनी (2/35,6/8), क्षिपा (2/41, 6/20), रजनि (6/ 1, 9/46), भौती (6/3), हरिद्रा (6/7), रात्रि (6/19, 10/78), त्रियामा (6/21), नक्तं (6/88), शर्वरि (10/54), निशि (10/13), दोषा (6/57, 11/30), यामिनी (7/1, 10/82), क्षपा (11/10, 10/80)। देव : सुपर्व (2/45,4/46), विबुध (2/62, 4/25,5/17), अनिमिष (1/43), सुर (2/13), नाकिन् (2/70), देव (3/6), ऋभुक्षा (3/38,4/10, 4/12), त्रिदश (3/42), सुधाभुज (4/8, 10/5), अमर (4/19, 6/1, 11, 40), देवता (4/29), नाकसद (6/31), सुमनस् (6/31), सुधाशिन् (9/68)। सूर्य : पूषा, तिग्मरुचि, दिवाकर (सर्ग 2/20, 9/51), भास्कर (2/21, 8/42), रवि (2/36, 2/41, 2/ 53,11/11,11, 2, 9/50), विभाकर (3/17), तरणि (3/76, 9/20), दिनाधिप (3/77), विवस्वत् (4/22), भानु (6/70, 11/11), सूर (6/14, 11/8, 11/12), अहनीनं (5/6), द्युतिपति (5/57), भास्वद् (6/5,6/15,6/65), पतंग (6/10), भास्वान् (6/50), अंशु (6/69), सूर्य (7/46), अंशुमाली (8/30, 11/9), कर्मसाक्षी (8/44), प्रभाकर (4/54), धुपति (11/4), चण्डदीधिति (10/80), अशीतांशु (9/27), अर्यमाण (8/60), चंडरोचि (11/60), चक्रबंधु (11/52), व्योममणि (11, 37), अरुण (10, 77), सहस्रकर (10/3), ग्रहाणामधिभू (11/1)। पृथ्वी : मही (3/9,4/13, 9/66), पृथिवी (3/41), भुव (3/47,4/12, 4, 13), इला (4/1,6/55, 11/40), भुवि (4/9, 9/74), क्षिति (4/27, 9/73),क्ष्मा (5/53), क्षोणि (7/7), धरा (9/64), अवनि (9/38, 3/7), वसुधा (10/8), भू, क्षमा । चंद्र : इंदु (1/39, 2/21, 6/9, 9/47), चांद्र (1/40), शशी (2/22), चंद्र (2/27), शीतगु (2/34), कलानिधि (2/35,7/9), कलाभृत (3/26, 5/57, 9/41), शशिन् (4/38), सोम (5,28), सितांशु (6/6, 6/22), शुभ्रांशु (6/14), विधु (6/21, 6/63, 6/65), गोरधुति (6/38), दोषाकर (9/17), कुरंगाक्षी (7/44), तमस्विनि वल्लभ, शीतद्युति (10/83), चंद्रबिंब।
उपरोक्त उदाहरणों को देखते हुए समग्र महाकाव्य पढ़ते समय शब्दराशि पर कवि के असाधारण प्रभुत्व की प्रतीति होगी। कवि ने कितने ही अप्रचलित शब्दों का प्रयोग भी किया है। कितने ही सामान्य शब्दों का असाधारण अर्थ में प्रयोग किया है और कितने ही स्थानों पर शब्दश्लेष
का उपयोग किया है तथा भावानुकूल प्रसंगानुरूप प्रसादमय पदावली का प्रयोग किया है। शब्द भंडार और व्याकरण पर भी कवि का असाधारण प्रभुत्व देख सकते हैं। फिर भी उनके महाकाव्य में पांडित्य प्रदर्शन की कृत्रिमता कहीं दिखाई नहीं देती है। उनकी रचना संस्कृत महाकाव्यों के
(५७)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
अस्तगामी युग की होने पर भी उसकी भाषा माघ कवि के सदृश कठिन, समासान्त एवं कष्ट साध्य नहीं है। उनकी भाषाशैली में प्रौढ़ता और उदात्तता के लक्षण विद्यमान हैं। इसीलिये उनकी कितनी ही पंक्तियाँ सूक्ति जैसी बन गई हैं, जैसे : 1. व : स तदाभचेष्टित: (सर्ग 2/6 ), 2. न कोथवा स्वेऽवसरे प्रभूयते ( 4/69), 3. रागमेधयति रागिषु सर्वम् (5/16), 4. अतित्वरी विघ्नकरीष्टसिद्धे (8/62), 5. अहो यशो भाग्यवशोपलभ्यम् (11/11)।
रस-निरूपण एवं विविध प्रसंग
'जैनकुमारसंभव' में संस्कृत महाकाव्य की परम्परानुसार विविध प्रसंग, परिस्थिति एवं नायकनायिका सहित पात्रों के निरूपण में कवि कितनी बार ऐसे-ऐसे विषयों का सविस्तर वर्णन करता है कि जिसमें उन विषयों में कवि की जानकारी के उपरांत तत्कालीन परिस्थिति का प्रतिबिंब भी प्राप्त होता है। इस महाकाव्य में भी राजनीति, भोजन विधि, आभूषण, प्रसाधन सामग्री, विविध वाद्यों, समुद्री व्यापार एवं लग्न की विधि इत्यादि के निरूपण में तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति का प्रतिबिंब एवं सामाजिक चेतना का स्पंदन देखने को मिलता है। इसमें तत्कालीन सामाजिक मान्यताओं एवं कुरीतियों का निर्देश भी हुआ है। अर्थात् 'जैनकुमारसंभव' तत्कालीन जीवन की अभिव्यक्ति की व्यापक एवं गहन दृष्टि से एक महत्त्व की काव्यकृति बनी है।
इस महाकाव्य में सुमंगला के मुख से नारियों के विषय में जो निम्न प्रकार का अभिप्राय प्रकट किया है :- (सर्ग 7/61 से 67) उसमें भी तत्कालीन वास्तविक लोकमान्यता का प्रतिबिंब देख सकते हैं।
इस महाकाव्य का विषय जैन कथानक है। कवि जैनधर्मी है और फिर आचार्य है। इसलिये उनकी वाणी में जैन धर्म की बातों का सहज रूप में वर्णन हो स्वाभाविक है। इस महाकाव्य में उपमादि अलंकारों के वर्णन में कवि ने जैन तत्त्वज्ञान की परिभाषा कैसे सहज रूप से ग्रथित की है वह निम्न श्लोक से जान सकते हैं :
नयस्य वश्यः किमु संग्रहस्य, स्त्रैणं चलं ध्यायसि सर्वमीश | कोशातकी कल्पलते लतासु, दृष्ट्वां च विश्वं व्यवहारसारम् ॥ ३-२०॥
(हे ईश ! संग्रहनय के वश होकर आप सर्व स्त्री-समूह को चलायमान क्यों मानते हो? लताओं में तुरई की वेल एवं कल्पलता को देख कर जगत का व्यवहार नय में सार है ऐसा मानो ।)
इस श्लोक में कवि ने संग्रहनय एवं व्यवहार-नय की जैन परिभाषा का प्रयोग करके अर्थ चमत्कृति उत्पन्न की है :
सुश्रुताक्षरपथानुसारिणी, ज्ञातसंमतकृतांगिक क्रिया ।
आत्मकर्मकलनापटुर्जगौ, कापि नृत्यनिरता स्वमार्हतम् ॥ १०-६१ ॥
-
(अच्छी तरह जाने हुए एवं स्खलनारहित ऐसे मार्ग को अनुसरने वाली (पक्ष में अच्छी तरह सुने हुए मोक्ष मार्ग को अनुसरने वाली), जानी हुई; मानी हुई एवं की हुई है शरीर संबंधी क्रिया जिसने (पक्ष - जानी हुई, मिली हुई एवं की हुई है शास्त्र संबंधी क्रिया जिसने ) एवं अपने कार्यों को समझने में चतुर (पक्ष में - आत्मा एवं कर्म संबंधी विचार करने में चतुर) ऐसी कोई सखी नृत्य करती हुई खुद की आत्मा को जैन कहने लगी ।)
(५८)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृत महाकाव्यों में श्रृंगार, वीर, करुण इत्यादि रसों का निरूपण हो वह उसका महत्त्वपूर्ण लक्षण है। जैन विरक्त, संयमी, साधु-कवि श्रृंगार रस का निरूपण नहीं करे यह स्वाभाविक है। कालिदास ने 'कुमारसंभव' में शंकर-पार्वती के वर्णन में जैसा शृंगार रस का विस्तृत निरूपण किया है वैसा कवि श्री जयशेखरसूरि ने नहीं किया है, तब भी यह उनका महाकाव्य श्रृंगार रस रहित नहीं है। उन्होंने प्रसंगोपात्त श्रृंगार रस का सांकेतिक निरूपण भी किया है। कवि वर्णन करता है :
ऋषभदेव के विवाह में आते समय प्रियतमा का स्पर्श होने पर किसी देवांगना की मैथुनेच्छा जागृत हो गई। भावोच्छ्वास से उसकी कंचुकी के बंधन टूट गये। वह कामवेग के कारण विह्वल हो गई, वह प्रिय को मनाने हेतु उसकी प्रशंसा करने लगी। देखें :
उपात्तपाणिस्त्रिदशेन वल्लभा श्रमाकुला काचिदंचिकंचुका। वृषस्य या चाटुशतानि तन्वती जगाम तस्यैव गतस्य विघ्नताम्॥४-१०॥
नवविवाहित ऋषभदेव को देखने हेतु उत्सुक एक नगर नारी की अधबंधी नीवी दौड़ने के कारण खुल गई। उसका अधोवस्त्र नीचे उतर गया लेकिन उसका उसे ध्यान भी नहीं रहा। वह प्रभु को देखने दौड़ गई एवं जनसमुदाय में मिल गई। देखें :
कापि नार्धयमितश्लथनीवी, प्रक्षरन्निवसनापि ललजे।
नायकानननिवेशितनेत्रे, जन्यलोकनिकरेऽपि समेता ॥ ५-३९॥
श्री जयशेखरसूरि ने 'जैनकुमारसंभव' में रस निरूपण कैसा किया है इस विषय में श्री सत्यव्रत लिखते हैं :
'मानव हृदय की विविध अनुभूतियों का रसात्मक चित्रण करने में जयशेखर सिद्धहस्त हैं, जिसके फलस्वरूप 'कुमारसंभव' सरसता से आर्द्र है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार श्रृंगार को इसका प्रमुख रस माना जा सकता है, यद्यपि अंगीरस के रूप में इसका परिणाम नहीं हुआ है । जैनकुमारसंभव' में श्रृंगार के कई सरस चित्र देखने को मिलते हैं। काव्य में श्रृंगार की मधुरता का परित्याग न करना पवित्रतावादी जैन कवि की बौद्धिक ईमानदारी है।' ('श्रीआर्यकल्याण-गौतम-स्मृति ग्रन्थ' हिन्दी विभाग 3, पृष्ठ ७०)
___ 'जैनकुमारसंभव' में वात्सल्य, भयानक एवं हास्यरस भी शृंगार के पोषक बन कर आये हैं। ऋषभ कुमार के शैशव के चित्रण में वात्सल्य रस का निरूपण देखने को मिलता है। शिशु ऋषभ दौड़ कर पिता के गले लग जाते हैं, उसके अंग स्पर्श से पिता आनन्द विभोर हो जाते हैं, हर्ष से उनकी आँखें बंद हो जाती हैं एवं ऋषभ कुमार तात-तात की आवाज देते हैं । देखें :
दूरात् समाहू य हृदोपपीडं माद्यन्मुदा मीलितनेत्रपत्रः।
अथांगजं स्नेहविमोहितात्मा यं तात तातेति जगाद नाभिः ।। १-२८॥
नगर वासियों के सम्भ्रम के चित्रण में निम्र पद्य में हास्य रस की रोचक अभिव्यक्ति हुई है, देखें :
तूर्णिमूढदृगपास्य रुदन्तं, पोतमोतुमधिरोप्य कटीरे । कापि धावितवती नहि जज्ञे, हस्यमानमपि जन्यजनैः स्वम्।। ५-४१॥
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(५९)
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्य रूप से महाकवि स्वकीय महाकाव्य में विभिन्न रसों का निरूपण करने के साथ शृंगार, वीर या करुण में से कोई एकाध रस को प्रधानता देते हैं। श्री जयशेखरसूरि ने इस महाकाव्य में विभिन्न रसों का निरूपण किया है। जैन साधुकवियों ने , का 'व्य रस के रूप में वर्णन किया हो ऐसा देखने को नहीं मिलता है। अर्थात् 'जैनकुमारसंभव' के मुख्य रस के रूप में 'शांत रस' को मानना हो तो मान सकते हैं, क्योंकि उपशम वह शांत का स्थायी भाव है।
___ इस प्रकार जैनकुमारसंभव' में कवि की वाणी सहज रूप से ही प्रसादादि गुणों एवं अलंकारों सहित प्रवहमान है। कवि के पास कल्पना वैभव है एवं महाकवि की प्रतिभा है, उसकी प्रतीति स्थानस्थान पर बारंबार इस महाकाव्य का रसपूर्वक बारीकी से पढ़ने पर हमको होती है। कवि ने भले ही अपने महाकाव्य का नाम अनुकरणात्मक दिया हो, लेकिन जैनकुमारसंभव' वह हमारे महाकाव्य की परंपरा में सबहुमान विराजमान हो ऐसा मौलिक उत्तम महाकाव्य है।
(महाकवि श्रीजयशेखरसूरि भाग-१ से साभार उद्धृत)
(६०)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. प्रथमो सर्गः
...
-
-
अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीता परमर्द्धिलोकैः।
निबेशयामास पुरः प्रियायाः, स्वस्या वयस्यामिव यां धनेशः॥१॥ अर्थ :- परम ऋद्धि वाले लोगों से घिरी हुई उत्तर दिशा में अयोध्या नाम की नगरी थी, जिसे कुबेर ने अपनी प्रिय नगरी अलका के सामने सखी के समान स्थापित किया था। विशेषार्थ :- ऐसा आगम से ज्ञात होता है कि जन्म के अनन्तर बीस लाख वर्ष पूर्व व्यतीत होने पर ऋषभदेव भगवान ने इस अवसर्पिणी के तृतीय आरे की समाप्ति पर विश्व व्यवहार-बन्धत्व से मुग्धमति वाले प्रजाओं को समस्त न्याय के प्रदर्शन के लिए राज्यभार अङ्गीकार किया। तब सौधर्मेन्द्र के निर्देश के वशीभूत कुबेर ने सुवर्ण के प्रकार वाली आकाश के छूने वाले स्फटिक मणि निर्मित भवनों से युक्त. नई-नई पूजा, उत्सव तथा विहारों से युक्त, नवयोजन चौड़ी तथा बारह योजन लम्बी, सरोवर, सरसी (तलैयों), बावड़ी, गृह तथा वाटिकाओं से सुन्दर अयोध्या नाम की पुरी की रचना की। कवि कल्पना करता है कि जिस प्रकार कोई धनी व्यक्ति अपनी प्रिया की सखी नियुक्त करता है उसी प्रकार कुबेर ने अयोध्या के रूप में मानों अपनी प्रिय नगरी अलका की सखी की ही नियुक्ति की हो।
इस काव्य में नगर, सागर, शैल, ऋतु, चन्द्रोदय, सूर्योदय, उद्यान, जलक्रीड़ा, मधुपान, सुरतमन्त्र, दूतप्रयाण, जिनालयाभ्युदय, विवाह, विप्रलंभ तथा कुमार वर्णन रूप अठारह लक्षण होने से यह महाकाव्य है। प्रश्न : आदि में मङ्गलाचरण के बिना श्रोता की प्रवृत्ति का निमित्त नहीं होता है? उत्तर : यह महाकाव्य श्री ऋषभदेव के नाम-मन्त्र से पवित्र है, अत: सब कुछ मङ्गलमय है। मङ्गल का भी मङ्गल करने से अनवस्था नामक दोष दुर्निवार है। प्रकाशमय प्रदीप अपने प्रकाशन के लिए अन्य प्रदीप की अपेक्षा नहीं करता है। दूसरी बात यह है कि जो अर्हन्त भगवान् से अध्यासित हो, उसे भी तीर्थ कहते हैं, इस वचन के अनुसार बहत से तीर्थंकरों से अध्यासित अयोध्या (कोशला) भी तीर्थ रूप है।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
(१)
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
शास्त्र के आरम्भ में उनके नाम का ग्रहण करने से कर्ता और श्रोता का निश्चित रूप से मङ्गल और अभ्युदय होता है, इस प्रकार सब कुछ सुस्थ है।
सम्पत्रकामा नयनाभिरामाः, सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः।
यत्रोज्झितान्यप्रमदावलोका, अदृष्टशोका न्यविशन्त लोकाः॥२॥ अर्थ :- जिस कोशला नगरी में सम्पन्न मनोरथ, नयनाभिराम, सदैव (जीवितावधि) जीवित रहने वाली सन्तानों से युक्त, परस्पर प्रतिकून न रहने वाले, परस्त्री पर दृष्टिपात का त्याग किए हुए तथा (इष्ट वस्तु आदि का वियोग न होने के कारण) जिनका शोक दिखाई नहीं देता है, ऐसे लोग निवास करते हैं।
चन्द्राश्मचञ्चत्कपिशीर्षशाली, सुवर्णशालः श्रवणोचितश्रीः। ।
यत्राभितो मौक्तिकदत्तवेष्ट,-ताटङ्कलीलामवहत् पृथिव्याः॥३॥ अर्थ :- जिस नगरी में चन्द्रकान्तमणि से सुशोभित होने वाले कंगूरों से शोभायमान श्रवण (सुनने अथवा कान) के योग्य शोभा से युक्त सुवर्ण का प्राकार चारों ओर पृथिवी के मोतियों से वेष्टित कर्णाभरण की लीला को धारण करता था। विशेष :- यहाँ श्रवणोचितश्री: में श्लेष अलंकार है । प्राकार पक्ष में अर्थ होगा - सुनने के योग्य जिसकी शोभा है। कर्णाभरण पक्ष में अर्थ होगा - कान के योग्य जिसकी लक्ष्मी है।
दद्भिरर्हद्भवनेषु नाट्य-क्षणे गभीरध्वनिभिः मृदङ्गैः।
यत्राफलत्केलिकलापिपंक्ते-विनाऽपि वर्षा घनगर्जिताशा॥ ४॥ अर्थ :- जिस कोशला नगरी में नाटक के अवसर पर अर्हन्त भगवान् के भी भवनों में गम्भीर ध्वनि वाले मृदङ्गों के कारण क्रीड़ामयूरों की पंक्ति की वर्षा के बिना भी मेघ की गर्जन की आशा फलीभूत हुई।
हर्षादिवाधःस्थितनायकानां, प्राप्य स्थितिं मौलिषु मन्दिराणाम्।
यस्यां क्वणत्किंकिणिकानुयायि, नित्यं पताकाभिरकारि नृत्यम्॥५॥ अर्थ :- जिस कोशला नगरी में जिनके नीचे स्वामी हैं ऐसे मन्दिरों के शिखरों पर स्थिति प्राप्त करके मानो हर्ष से ही बजती हुई क्षुद्रघंटिकाओं का अनुसरण करने वाली पताकाओं से नित्य नृत्य कराया गया।
तमिस्रपक्षेऽपि तमिस्रराशे, रुद्धेऽवकाशे किरणैर्मणीनाम्। यस्यामभूवन्निशि लक्ष्मणानां, श्रेयोर्थमेवावसथेषु दीपाः॥६॥
(२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- जिस कोशलापुरी में लक्ष्मीवानों के आवासों में अन्धकार पक्ष में भी अन्धकार समूह का अवकाश होने पर मणियों की किरणों से रुकने पर रात्रि में दीपक मङ्गल के लिए ही हुए।
रत्नौकसां रुग्निकरेण राकी - कृतासु सर्वास्वपि शर्वरीषु।
सिद्धिं न मन्त्रा इव दुःप्रयुक्ता, यत्राभिलाषा ययुरित्वरीणाम् ॥७॥ अर्थ :- जिस नगरी में रत्नमय आवासों के कान्ति के समूह से समस्त रात्रियों के पूर्णिमा के सदृश किए जाने पर असती स्त्रियों की अभिलाषा दुःप्रयुक्त (मारणादिक कर्म में लगाए हुए) मन्त्र के समान सिद्धि को प्राप्त नहीं हुई।
यद्वेश्मवातायनवर्तिवामा - जने विनोदेन बहिःकृतास्ये।
व्योमाम्बुजोदाहरणं प्रमाण - विदां भिदामापदभावसिद्ध्यै॥८॥ अर्थ :- जिस नगरी में महलों के झरोखों में विद्यमान स्त्रियों के विनोद के कारण मुख के बाहर किए जाने पर तार्किक लोगों का आकाशकमल का उदाहरण अभाव की सिद्धि के लिए प्रयुक्त किए जाने पर भेद को प्राप्त हुआ। विशेषार्थ :- असद् वस्तु की प्रमाण से जो स्थापना की जाती है, वह अभावसिद्धि कही जाती है। जैसे आकाशकमल के समान पृथ्वीतल पर घड़ा नहीं है। स्त्रियों के मुख ही आकाशकमल थे, अत: वे सत्य थे। अतएव असत्कल्पनावादियों की आकाशकमल की कल्पना व्यर्थ हो गई।
युक्तं जनानां हृदि यत्र चित्रं, वितेनिरे वेश्मसु चित्रशालाः
यत्तत्र मुक्ता अपि बन्धमापुर्गुणैर्वितानेषु तदद्भुताय॥ ९॥ अर्थ :- जिस नगरी में आवासों में चित्रशालाओं ने लोगों के हृदय में चित्रकर्म अथवा आश्चर्य का ठीक ही विस्तार किया (क्योंकि जिसके पास जो वस्तु होती है, वह अन्य को भी देता है, यह बात ठीक भी है) । उन चित्रशालाओं में मुक्तों ने भी गुणों के विस्तार से बन्धन को प्राप्त किया। वह आश्चर्य के लिए हुआ; क्योंकि जो मुक्त (सिद्ध) होते हैं, वे सत्त्व, रज, तमो लक्षण रूप गुणों से कैसे बन्धन को प्राप्त होते हैं? अथवा शून्यप्रदेशों में जो मुक्त स्थापित होते हैं वे विनयादि गुण से कैसे बन्ध को प्राप्त होते हैं? अथवा जो उक्त चोरादि हैं वे गुणों - रस्सियों से कैसे बन्धन को प्राप्त होते हैं? इस प्रकार विरोध उपस्थित होता है। यहाँ विरोध का परिहार कहते हैं - मोतियों ने वितान चन्द्रमा के उद्योत में तन्तुओं से बन्धन को प्राप्त किया। विशेष :- यहाँ पर विरोध अलङ्कार है।
(३)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रभुप्रतापप्रतिभनचौरे , पौरे जने ज्योतिषिकैर्न यत्र।
चौराधिकारः पठितोऽपि सम्यक्, प्रतीयते स्मानुभवेन वन्ध्यः॥१०॥ अर्थ :- जिस अयोध्या नगरी में ज्योतिषियों के द्वारा चौराधिकार भले प्रकार पठित होने पर भी ज्ञात नहीं होता था; क्योंकि नगर निवासियों ने प्रभु ऋषभदेव के प्रताप से चौरकर्म का परित्याग कर दिया था, अत: चौराधिकार अनुभव के बिना निष्फल था।
पणायितुं यत्र निरीक्ष्य रत्न-राशिं प्रकाशीकृतमापणेषु।
रत्नाकराणां मकराकरत्व-मेवावशिष्टं बुबुधे बुधेन॥ ११॥ अर्थ :- जिस अयोध्या नगरी में बाजार में रत्नराशि को प्रकाशीकृत देखकर विद्वान् लोगों ने समुद्र को मत्स्य आदि का आकार ही शेष रह गया है, इस रूप में जाना।
यच्छ्रीपथे संचरतो जनस्य, मिथो भुजेष्वङ्गदघट्टनोत्थैः।
व्यतायत व्योमगतैः स्फुलिङ्ग-नक्षत्रचित्रं न दिवापि कस्य॥ १२॥ अर्थ :- जिस अयोध्यापुरी में राजमार्ग में संचरण करते हुए लोगों की पारस्परिक भुजाओं के बाजूबन्दों की रगड़ से उत्पन्न आकाश में गई हुई चिंगारियों ने दिन में भी किस पुरुष के मन में नक्षत्र सम्बन्धी आश्चर्य का विस्तार नहीं किया? अर्थात् सब लोगों के मन में उन चिंगारियों के रूप में नक्षत्रोदय होने का आश्चर्य हुआ।
हल्लीसके श्रीजिनवृत्तगानै - र्यद्वालिकालिः किल चारणीन्।
शुश्रूषमाणानिह निश्चलय्या - लुम्पद्दिवः सप्तऋषिव्यवस्थाम्॥१३॥ अर्थ :- जिस अयोध्यापुरी की बालिकाओं की पंक्ति ने रासक नामक नृत्य के मध्य में श्री ऋषभदेव के चरित्र का गान करने से चारण ऋद्धिधारी ऋषियों को निश्चल कर निश्चित रूप से सप्त ऋषियों की मर्यादा का लोप कर दिया अर्थात् आकाश में सात से भी अधिक ऋषि हो गए।
दत्तोदकभ्रान्तिभिरिन्द्रनील-भित्तिप्रभाभिः परिपूर्यमाणाः।
आनाभिनीरा अपि केलिवापी-र्यस्यां जनो मन्दपदं जगाहे ॥१४॥ अर्थ :- जिस अयोध्यापुरी में लोग इन्द्रनीलमणि की भित्तियों की प्रभा से परिपूर्ण नाभि तक जल से भरी हुई भी क्रीडावापिकाओं में जल से लबालब भरी हुई होने की भ्रान्ति से मन्द-मन्द रूप से जैसे चरणनिक्षेप हो; उस प्रकार अवगाहन करते थे।
ययाचिषौ यत्र जने यथेच्छं, कल्पद्रुमाः कल्पितदानवीराः। निवारयन्तिस्म मरुद्विलोल-प्रवालहस्तैः प्रणयस्य दैन्यम्॥ १५॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- जहाँ पर वाञ्छित दान में समर्थ कल्पवृक्ष वायु के द्वारा चञ्चल कोमल पत्ते रूप हाथों से इच्छानुसार याचना करने वाले व्यक्तियों की याचना सम्बन्धी दीनता का निवारण करते थे ।
पूषेव पूर्वाचलमूर्ध्नि घूक कुलेन घोरं ध्वनतापि यत्र । नाखण्डि पाखण्डिजनेन पुण्य-भावः सतां चेतसि भासमानः ॥ १६ ॥ अर्थ :- जैसे पूर्वाचल ( उदयाचल) के मस्तक पर दीप्यमान सूर्य घोर आवाज करने वाले भी उल्लूओं के समूह के द्वारा भी खण्डित नहीं होता है, उसी प्रकार सज्जनों के चित्त में भासमान पुण्यभाव पाखण्डि लोगों के द्वारा जिस नगरी में खण्डित नहीं हुआ । ईक्ष्वाकु भूरित्यभिधामधाद्भू-र्यदा निवेशात् प्रथमं पुरोऽस्याः । नाभेस्तदा युग्मिपतेः प्रपेदे, तनूजभूयं प्रभुरादिदेवः ॥ १७॥ अर्थ :- जिस अवसर पर इस नगरी की रचना के पूर्व भूमि ने इक्ष्वाकु भूमि इस प्रकार के नाम को धारण किया उस अवसर पर श्री ऋषभ प्रभु ने युगल स्वामी नाभि राजा के पुत्रभाव को प्राप्त किया।
यो गर्भगोऽपि व्यमुचन्न दिव्यं, ज्ञानत्रयं केवलसंविदिच्छुः । विशेषलाभं स्पृहयन्त्र मूलं, स्वं संकटेऽप्युज्झति धीरबुद्धिः ॥ १८ ॥
अर्थ :- केवल ज्ञान को प्राप्त करने के इच्छुक जिन भगवान् ने गर्भ में स्थित रहते हुए भी दिव्य ज्ञानत्रय (मति, श्रुति और अवधि ज्ञान) को नहीं छोड़ा। धीरबुद्धि पुरुष विशेष के लाभ की इच्छा करता हुआ सङ्कट में भी अपनी मूलधन को नहीं छोड़ता है । विशेष इस पद्य में अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है ।
:
यत्रोदरस्थे मरुदेव्यदीव्यत्, पुण्येति साध्वीति न कस्य चित्ते । श्रीधानि सन्मौलिनिवासयोग्ये, महामणौ रत्नखनिः क्षमेव ॥ १९॥
अर्थ :- शोभा के गृह, साधुओं के सिर पर निवास करने के योग्य जिन भगवान् के उदर में रहने पर लक्ष्मी के गृह प्रशंसनीय तथा मुकुट में निवास के योग्य, महामणि जिसके मध्य में है तथा जो रत्नों की खान हैं, ऐसी पृथिवी के समान मरुदेवी, पवित्र है, साध्वी है, इस प्रकार किसके मन में दीप्त नहीं हुई? अर्थात् सबके मन में दीस हुई।
विशेषार्थ :- जो शोभा के घर हैं तथा साधुजन जिन्हें श्रद्धापूर्वक अपने सिर पर धारण करते हैं ऐसे भगवान् ऋषभदेव के गर्भ में आने पर मरुदेवी के विषय में लोग ऐसा कहने लगे कि यह पुण्या है, यह साध्वी है, जिस प्रकार कि प्रशंसनीय मुकुट में निवास [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१ ]
(५)
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
के योग्य महामणि जिसके उदर में है तथा जो रत्नों की खान है, ऐसी पृथिवी के विषय में लोग कहा करते हैं कि यह पुण्या है, यह साध्वी है । यहाँ पर उपमा अलङ्कार है।
मध्येऽनिशं निर्भरदुःखपूर्णा-स्ते नारका अप्यदधुः सुखायाम्।
यत्रोदिते शस्तमहोनिरस्त-तमस्ततौ तिग्मरुचीव कोकाः॥ २०॥ अर्थ :- रात्रि के मध्य में अत्यधिक दुःख से पूर्ण चक्रवाक पक्षी जिस प्रकार जिसने अपने तेज से अन्धकार के समूह का नाश कर दिया है ऐसे सूर्य के उदित होने पर सुख का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार जिन भगवान् ऋषभदेव का उदय होने पर चित्त में निरन्तर अत्यधिक दुःख से पूर्ण नारकियों ने भी सुख का अनुभव किया।
निवेश्य यं मूर्धनि मन्दरस्या-चलेशितुः स्वर्णरुचिं सुरेन्द्राः।
प्राप्तेऽभिषेकावसरे किरीट - मिवानुवन्मानवरत्नरूपम्॥ २१॥ अर्थ :- इन्द्रों ने पर्वतों के स्वामी मन्दराचल के मस्तक पर मुकुट के समान सुवर्णवत् कान्ति वाले, मनुष्यों में रत्न स्वरूप जिन्हें बैठाकर अभिषेक का अवसर प्राप्त होने पर स्तुति की। विशेषार्थ :- राजा के मस्तक पर जिस प्रकार सुवर्ण की कान्ति वाला, लक्ष्मी के नए रत्न रूप के समान मुकुट रखा जाता है, उसी प्रकार इन्द्रों ने पर्वतों के स्वामी मन्दराचल के मस्तक पर मुकुट के समान सुवर्ण कान्ति उन भगवान् ऋषभदेव को बैठाकर अभिषेक के समय उनकी स्तुति की। वे भगवान् मनुष्यों में रत्नस्वरूप थे।
सुपर्वसु स्वानुचरेषु तोषा-दिवेक्षुदण्डेऽस्य सुपर्वणीन्द्रः।
शिशोर्विदित्वा रुचिमाशु वंश-मीक्ष्वाकुनामाङ्कितमातनिष्ट ॥ २२॥ अर्थ :- इन्द्र ने मानो अपने अनुचर देवों के सन्तोष से ही इस शिशु की शोभन पोर वाले इक्षुदण्ड में रुचि जानकर शीघ्र ही इक्ष्वाकु नाम से अङ्कित वंश का विस्तार किया। विशेष :- अतीत, वर्तमान और आगामी तीर्थंकरों के वंशों की स्थापना ही का कार्य इन्द्र के अधीन है, अतः प्रभु ऋषभदेव के वंश की स्थापना के लिए प्रस्तुत इन्द्र ने आकर जब उनकी रुचि ईख के विषय में देखी तो उनसे कहा-प्रभो! क्या ईख खाओगे? भगवान् ने अपने हाथ को फैलाया, अत: इन्द्र ने इसी घटना पर इक्ष्वाकुवंश नाम रखा। अन्य भी क्षत्रिय ईख खाने से इक्ष्वाकु हुए। अक् धातु भक्षण अर्थ में आती है। प्रभु के पूर्वजों ने काश्य = इक्षुरस का पान किया था, अतः काश्यप गोत्र कहलाया।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
विलोक्य यं पालनके शयालु, यशोऽस्य लोकत्रयपूरकं च।
कार्य कलामञ्चति कारणस्ये - त्युक्तिम॒षैवानिमिषैरघोषि॥ २३ ॥ अर्थ :- जिन भगवान् ऋषभदेव को पालने में सोता हुआ देखकर और इनके यश को तीनों लोकों में व्यापक देखकर देवों ने कार्य कारण की कला को प्राप्त होता है, यह उक्ति झूठी ही घोषित कर दी।
आशाम्बरः शान्तविकल्पवीचि-मना विना लक्ष्यमचञ्चलाक्षः।
बालोऽपि योगस्थितिभूरवश्यः, स्वस्यायतौ यः कमनेन मेने॥ २४॥ अर्थ :- बालक होने पर भी जो योग की मर्यादा की भूमि थे, दिशायें ही उनके वस्त्र थे, उनके मन की विचार-तरंगें शान्त हो गई थीं, लक्ष्य के बिना भी उनके नेत्र चंचल नहीं थे, जिन्हें कामदेव उत्तरकाल में अपने वश में नहीं रहने वाला मानते थे।
अस्तन्यपायीति विनिश्चितोऽपि, काऽमुंपयोऽपीप्यदिति स्वमातुः। चिराय चेतश्चकितं चकार, स्मितेन धौताधरपल्लवो यः॥ २५॥ अर्थ :- जो स्तनपान नहीं करते हैं, इस प्रकार निश्चित होने पर भी किसने इन्हें दूध पिलाया, इस प्रकार मन्द मुस्कराहट से जिनके अधर रूप पल्लव धोए गए हैं, ऐसे जिन भगवान् ने चिरकाल तक अपनी माता के चित्त को चकित कर दिया।
अौघदंभाबहिरु द्गतेन, माता नमाता हृदि सम्मदेन।
परिप्लुताक्षी तनुजं स्वजन्ती, यं तोषदृष्टेरपि नो बिभाय॥ २६॥ अर्थ :- हृदय में जो समाता नहीं था ऐसे हर्ष के कारण बाहर निकले हुए आँसुओं के समूह के बहाने से जिसके दोनों नेत्र भीग गए हैं ऐसी माता मरुदेवी जिस बालक का आलिङ्गन करती हुई सन्तोष रूपी दृष्टि से युक्त होने पर भी डरती नहीं थी।
अव्यक्तमुक्तं स्खलदंघ्रियानं, निःकारणं हास्यमवस्त्रमङ्गम्।
जनस्य यद्दोषतयाभिधेयं, तच्छेशवे यस्य बभूव भूषा ॥ २७॥ अर्थ :- लोगों के लिए अव्यक्त बोलना, लड़खड़ायी हुई गति से गमन करना, बिना कारण हँसना तथा निर्वस्त्र अङ्ग दोष रूप में कहा जाता है, वह जिन भगवान् ऋषभदेव का आमरण हुआ।
दूरात् समाहूय हृदोपपीडं, माद्यन्मुदा मीलितनेत्रपत्रः।
अथाङ्गजं स्नेहविमोहितात्मा, यं ताततातेति जगाद नाभिः॥ २८॥ अर्थ :- जिनकी आत्मा स्नेह से विमोहित थी, हर्ष से जिनके नेत्र रूपी पत्र बन्द हो रहे
(७)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
थे ऐसे नाभिराय ने जिस अपने पुत्र को दूर से बुलाकर हृदय की पीड़ा से तात, तात इस
प्रकार कहा ।
भारेण मे भूभरणाभियोगि, भुग्नं शिरो मा भुजगप्रभोर्भूत् । इतीव ता ह्वयति द्रुतं यो, मन्दांघ्रिविन्यासपदं चचाल ॥ २९॥
अर्थ :- मेरे भार से पृथिवी के भार को धारण करने में उद्यमशील शेषनाग अथवा धरणेन्द्र का शिर टेढ़ा न हो जाय मानो इसी कारण से पिता नाभिराय के द्वारा बुलाए जाने पर जो शीघ्र ही मन्द मन्द कदम रखकर चल पड़े।
विशेष :- इस पद्य में उत्प्रेक्षा अलङ्कार है ।
यः खेलनाद्धूलिषु धूसरोऽपि कृताप्लवेभ्योधिकमुद्दिदीपे । तारैरनभैः प्रभयानु भानु-रभ्रानुलिप्तो ऽप्यधरीक्रियेत ॥ ३० ॥ अर्थ :- धूलि में खेलने से जो स्नान किए हुओं से भी अधिक देदीप्यमान हो रहे थे । मेघों से अनुलिप्त भी सूर्य बादलों से रहित तारों की प्रभा से क्या तिरस्कृत किया जा सकता है? अर्थात् नहीं किया जा सकता है?
उद्भूतबालोचितचापलोऽपि, लुलोप यो न प्रमदं जनानाम् ।
कस्याप्रियः स्यात् पवनेन पारि-प्लवोऽपि मन्दारतरोः प्रवालः ॥ ३१ ॥
अर्थ
:- बालक के योग्य चपलता के प्रकट होने पर भी जिसने लोगों के हर्ष का लोप नहीं किया । मन्दारवृक्ष का कोमल पत्ता वायु से चञ्चल होने पर भी किसका अप्रिय होता है अर्थात् किसी का भी नहीं होता है ।
लसद्विशेषाकृतिवर्णवेषा, लेखाः परेषामसुलम्भमर्भम्।
यं बालहारा इव खेलनौघैः, कटीतटस्थं रमयांबभूवुः॥ ३२॥ अर्थ :- जिनकी विशेष आकृतियाँ और वेष सुशोभित हो रहे हैं, ऐसे देवों ने कमर के तट पर स्थित जिस बालक को जिस प्रकार राजा के बच्चों को क्रीडा कराने वाले खेलों के समूह से रमण कराते हैं, उसी प्रकार दूसरों के लिए जो सुलभ नहीं हैं, ऐसे खेलों से
रमण कराया।
:
विशेष देवों की देह स्वभाव से केश, रोम, नख, माँस, चर्म, अस्थि, वसा, रुधिर और मल-मूत्र से रहित शुभ वर्णादि से युक्त पुद्गलों से निष्पन्न तेजोमय स्वरूप होने से उन देवों ने वैक्रियिक रूप धारण कर सर्वोत्तम वर्ण और वेषादि से युक्त भगवान् को
रमण कराया।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१ ]
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
रसालसालं प्रति दृत्तदृष्टौ, श्रोतुं च सूक्तानि सतृष्णकर्णे।
अनन्यकृत्या अभजनमा, यत्र स्वभक्त्याशुकवित्वमुच्चैः॥ ३३॥ अर्थ :- जिन्हें दूसरा कार्य नहीं है ऐसे देवों ने आम के वृक्ष के प्रति दृष्टि लगाए हुए तथा सुभाषितों को सुनने के लिए सतृष्ण कानों वाले जिन भगवान् के प्रति अपनी अत्यधिक भक्ति के कारण शुकपक्षीपने (अथवा आशुकवित्व) का सेवन किया।
परार्थदृष्टिं कलहंसकेकि - कोकादिकेलीकरणैरकाले।
नीत्वाभिमुख्यं सुखतो यमीशं, मुधाभिधानं विबुधैर्न दधे ॥ ३४॥ अर्थ :- परार्थदृष्टि वाले, जिस स्वामी को अथवा संयमियों के स्वामी को सुखपूर्वक अपने सम्मुख पाकर देवों ने असमय में सुन्दर हंस, मयूर तथा चक्रवाकों की क्रीड़ा करने से 'विबुध' (देव अथवा विद्वान्) इस नाम को व्यर्थ नहीं किया।
क्रोडीकृतः काञ्चनरुग्जनन्या, प्रियङ्गकान्त्या घननीलचूलः।
यः सप्तवर्षांपगतः सुमेरोः, श्रियं ललौ नन्दनवेष्टितस्य ॥ ३५॥ अर्थ :- स्वर्ण के समान जिनकी कान्ति है, बादलों के समान नीली जिनकी शिखा है तथा जो सात वर्ष के हैं ऐसे जिन भगवान् ऋषभदेव ने प्रियंगुलता के समान नीली कान्ति वाली माता मरुदेवी के द्वारा गोद में लिये जाने पर नन्दनवन से वेष्टित सुमेरु की शोभा को प्राप्त किया। (मेरु भी स्वर्ण का है, उसके शिखर भी बादलों के कारण नीले दिखाई पड़ते हैं तथा वह भरत, हैमवत्, हरि, विदेह , रम्यक्, हैरण्यवत् तथा ऐरावत इन सात क्षेत्रों (वर्षों) से युक्त है।)
पुरा परारोहपरा भवस्या - वश्याः कशाकष्टमदृष्टवन्तः।
बबन्धिरेऽनेन बलात्कुरङ्गा, इवोल्ललन्तः शिशुना तुरङ्गाः॥ ३६॥ अर्थ :- बालक इन भगवान् ने पहले दूसरों के द्वारा आरोहण करने रूप पराभव के कारण जो वश में नहीं रहे हैं तथा हरिणों के समान जिन्होंने कोड़े के कष्ट को देखा नहीं है, एवं जो हरिणों के समान उछल रहे हैं, ऐसे घोड़ों को बतपूर्वक बाँध लिया।
करे करेणुः स्वकरेण मत्तो, वने चरन् येन धृतो बलेन।
रोषारुणं चक्षुरिहादधानो, गात्रं धुनानोऽपि न मोक्षमाप॥ ३७॥ अर्थ :- यहाँ जिसने रोष से लाल नेत्र कर, वन में विचरण करती हुई मतवाली हथिनी के शुण्डादण्ड को अपने हाथ से बलपूर्वक पकड़ लिया। शरीर हिलाने पर भी उस हथिनी ने छुटकारा प्राप्त नहीं किया। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
चापल्यकृद्वाल्यमपास्य सोऽथ, स्वे यौवनं वासयति स्म देहे।
साध्वौचिती द्युम्नविशेषदानात्, प्रकाशयामास तदप्यमुष्य ॥ ३८॥ अर्थ :- अनन्तर उन भगवान् ऋषभदेव ने चंचलता को करने वाली बाल्यावस्था को छोड़कर अपनी देह में यौवन को वास कराया। उस यौवन ने भी विशेष द्रव्य अथवा बल प्रदान कर सत्पुरुष के औचित्य गुण को प्रकाशित किया। (सज्जनों का यह लक्षण है कि उपकार करने वाले पर प्रत्युपकार करते हैं)।
तस्याननेन्दावुपरि स्थितेऽपि, पादाब्जयोः श्रीरभवन हीना।
धत्तां स एव प्रभुतामुदीते, गुह्यन्ति यस्मिन्न मिथोऽरयोऽपि ॥ ३९ ।। अर्थ :- उनके मुखचन्द्र ऊपर विद्यमान रहने पर भी चरण कमलों की शोभाहीन नहीं हुई। वही पुरुष प्रभुता को धारण करता है, जिस पुरुष का उदय होने पर पारस्परिक शत्रु भी द्रोह नहीं करते हैं।
दत्तैर्नमद्भिः ककुभामधीशै-श्चान्द्रैः किरीटैर्निजराजचिन्हैः।
पद्धयां प्रभोरङ्गुलयो दशापि, कान्ता अभूष्यन्त मिषानखानाम् ॥४०॥ अर्थ :- प्रभु के दोनों चरणों से निकली दशों अङ्गुलियाँ सुन्दर नाखूनों के बहाने से चन्द्रकान्तमणिनिर्मित, झुकते हुए दिग्पालों के द्वारा दिए गए अपने राजचिह्न रूप मुकुटों से अलङ्कृत रहती थीं। (दूसरा कोई भी जो महान् राजा की सेवा करता है, वह अपने राजचिह्नों को सामने रख देता है)।
अन्तः ससारेण मृदुत्वभाजा, पादाब्जयोरूर्ध्वमवस्थितेन।
विलोमताऽधायि तदीयजंघा-नालद्वयेनालमनालमेतत् ॥ ४१॥ अर्थ :- मध्य भाग में सार सहित, सुकुभारता का सेवन करने वाली, चरणकमलयुगल के ऊपर अवस्थित उसकी जंघा रूप नालद्वय ने अत्यधिक विसदृशपने अथवा विपरीतपने (या लोभरहितपने) को धारण किया। यह नाल नहीं था। विशेष :- चूँकि भगवान् ऋषभदेव का जंघा रूप नालद्वय उनके चरणकमलों के ऊपर स्थित था, अत: अन्य कमलनालों से वह विपरीत था।
धीराङ्गनाधैर्यभिदे पृषत्काः , पञ्चेषुवीरस्य परेऽपि सन्ति।
तदूरुतूणीरयुगं विशाल-वृत्तं विलोक्येति बुधैरतर्कि ॥ ४२॥ अर्थ :- विद्वानों ने विशाल वृत्त वाले धीर स्त्रियों के धैर्य का भेदन करने वाले उनकी जंघाओं रूपी तूणीर युगल को देखकर, वीर कामदेव के अन्य भी बहुत से बाण हैं, ऐसा विचार किया। (१०)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
कटीतटीमप्यतिलंघ्य धावँ - लावण्यपूरः प्रससार तस्य ।
तथा यथा नाऽनिमिषेन्द्रदृष्टि-द्रोण्योऽप्यलं पारमवाप्तुमस्य ॥ ४३ ॥
अर्थ :- भगवान् का सौन्दर्य प्रवाह कटी रूप तट का उल्लंघन कर दौड़ते हुए उस प्रकार फैला कि देवेन्द्रों की दृष्टि रूपी नावें भी इसको पार करने में समर्थ नहीं हुईं। सनाभितामञ्चति नाभिरेकः, कूपस्य तस्योदरदेशमध्ये | प्रभाम्बु नेत्राञ्जलिभिः पिपासुः, कथं वितृष्णा जनतास्तु तत्र ॥ ४४ ॥ अर्थ :- उन भगवान् के उदर स्थान के मध्य में एक नाभि के कुयें के सादृश्य को प्राप्त करने पर, नेत्र रूपी अज्जलियों से उसका प्रभा रूप जल को पीने का इच्छुक जनसमूह किस प्रकार तृष्णा से रहित हो (अपितु नहीं हो) ।
उपर्युरः प्रौढमधः कटी च, व्यूढान्तराभूत्तलिनं विलग्नम् । किं चिन्मयेऽस्मिन्ननु योजकानां, त्रिलोकसंस्थाननिदर्शनाय ॥ ४५ ॥ अर्थ :- भगवान् के ऊपर प्रौढ़ वक्षःस्थल था, नीचे कटिभाग विस्तीर्ण था, मध्य में लगा हुआ उदर कृश था। क्या ज्ञानमय इनमें यह पूछने वालों के लिए तीनों लोकों की आकृति को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने के लिए था ।
व्यूढेऽस्य वक्षस्यवसत्सदा श्री - वत्सः किमु छद्मधिया प्रवेष्टम् ।
रुद्धः परं बोधिभटेन मध्य अध्यूषुषासीद्बहिरङ्ग एव ॥ ४६ ॥ अर्थ :- कामदेव इन भगवान् के विशाल वक्षस्थल पर क्या कपटबुद्धि से प्रवेश करने के लिए सदा रहता था । केवल मध्य में निवास करने वाले सम्यक् परिज्ञान रूप सुभट से रोका जाता हुआ वह बहिरङ्ग ही था ।
यत्र त्रिलोकी निहितात्मभारा, शेते सुखं पत्रिणि पत्रिणीव । सोऽस्मन्मते तद्भुज एव शेषः, कोऽन्यो जराजिह्मगतेर्विशेषः ॥ ४७ ॥
अर्थ :- जहाँ पर तीनों लोक अपने भार को रखकर वृक्ष पर पक्षी के समान सुखपूर्वक शयन करते हैं वह भगवान् का भुजा ही हमारे मत में शेषनाग हैं। वृद्धावस्था के कारण जिसकी कुटिल गति हो गई है ऐसे शेषनाग से अन्य क्या भेद हो सकता है ?
पाणेस्तलं कल्पपुलाकि पत्रं, तस्याङ्गलीः कामदुघास्तनांश्च । चिन्तामणींस्तस्य नखानमंस्त, दानाद दानावसरेऽर्थिसार्थः ॥ ४८ ॥
अर्थ :- याचकों का समुदाय भगवान् के दान के अवसर पर उनके हस्ततल को कल्पवृक्ष का पत्ता मानता था । उनकी अङ्गुलियों को कामधेनु का स्तन मानता था और उनके नाखूनों को चिन्तामणि मानता था ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१ ]
(११)
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
येन त्रिलोकीगतगायनौघं, जिगाय धीरध्वनिरस्य कण्ठः।
क्रमेण तेनैव किमेष रेखा-त्रयं कृतं साक्षिजनैर्बभार ॥ ४९॥ अर्थ :- इन भगवान् ऋषभदेव के गम्भीरध्वनि वाले कण्ठ ने जिस क्रम से तीनों भुवनों में स्थित गायनों के समूह को जीत लिया, उसी क्रम से क्या साक्षिजनों के द्वारा की हुई तीन रेखाओं को धारण किया था? विशेषार्थ :- तीनों भुवनों में इन स्वामी सदृश किसी अन्य की धीर ध्वनि नहीं है, मानो इस कारण से ही साक्षिजनों ने इनके गले में तीन रेखायें बना दी थीं।
यजातिवैरं स्मरता तदास्यां-भोजन्मनाऽभञ्जि जगत्समक्षम्।
निशारुचिस्तत्किमपत्रपिष्णुः, सोऽयं दिवाभूद्विधुरप्रकाशः ।। ५०॥ अर्थ :- चूँकि उन भगवान् के मुख रूपी कमल से यह चन्द्रमा संसार के समक्ष जातिवैर का स्मरण करते हुए जीत लिया गया अत: वह लज्जाशील रात्रि में कान्ति युक्त चन्द्रमा दिन में निस्तेज अथवा अप्रकट हो गया।
ओष्ठद्वयं वाक्समयेऽवदात - दन्तद्युतिप्लावितमेतदीयम्।
बभूव दुग्धोदधिवीचिधौत - प्रवालवल्लिप्रतिमल्लितश्रि॥ ५१॥ अर्थ :- इनका यह वचन के अवसर पर स्वच्छ दाँतों की युति से व्याप्त ओष्ठद्वय क्षीरसागर की तरङ्गों से धोई हुई प्रवाल रूप लता की प्रतिद्वन्द्वी शोभा से युक्त हुआ।
व्यक्तं द्विपंक्तिभवनादजस्त्रं, श्रीरक्षणे यामिकतां प्रपन्नाः।
द्विजा द्विजेशस्य तदाननस्य, लक्ष्मीसमूहं प्रभुदत्तमूहुः॥ ५२॥ अर्थ :- भगवान् के मुख रूप चन्द्रमा के प्रकट रूप से दो पंक्ति होने से निरन्तर शोभा के रक्षण में आरक्षकता को प्राप्त हुए दाँत प्रभु के मुख से दी हुई शोभा के समूह को धारण कर रहे थे।
अदान्मृदुमार्दवमुक्तियुक्त्या, युक्तं तदीया जनतासु जिह्वा।
लोला स्वयं स्थैर्यगुणं तु सभ्या-नभ्यासयन्ती कुतुकाय किं न॥५३॥ अर्थ :- उन भगवान् की मृदु जिह्वा जनसमूह में वचनों के चातुर्य से सौकुमार्य प्रदान करती थी किन्तु स्वयं चंचल होती हुई सभाजनों को स्थैर्य गुण का अभ्यास कराती हुई क्या आश्चर्य के लिए नहीं हुई? अपितु अवश्य हुई।
प्राणं जगजीवनहेतुभूतं, नासा यदौनत्यपदं दधाति। कर्मारिमाराय तदग्रवीक्षा-दीक्षादिनात्तेन ततो विधाता॥ ५४॥
(१२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- चूँकि नासिका उच्चता के स्थान, संसार के जीवन के लिए हेतुभूत प्राण को धारण करती है अत: वे भगवान् कर्म रूपी शत्रु के विनाश के लिए दीक्षा के दिन से लेकर उस नासिका का अग्रनिरीक्षण करेंगे। विशेषार्थ :- स्वामी दीक्षा के अनन्तर नासाग्रदृष्टि रखकर कर्मशत्रुओं का हनन करेंगे। लोक में भी जो बलवान् होता है, उसी का अग्रनिरीक्षण शत्रु हनन के अवसर पर किया जाता है।
श्रेयस्करावुल्लसदंशुराशी, पार्श्वद्वयासीनजनेषु तस्य।
कलौ कपोलावकरप्रयत्न - हैमात्मदर्शत्वमशिश्रियाताम्॥ ५५॥ अर्थ :- उन भगवान् के सुन्दर कल्याणकारक तथा जिनसे किरणों के समूह निकल रहे हैं, ऐसे दोनों कपोलों ने दोनों पार्श्व में बैठे हुए लोगों के हस्तोपक्रम से रहित स्वर्णमय दर्पणत्व का आश्रय लिया।
वितेनुषी श्मश्रुवने विहारं, दोलारसाय श्रितकर्णपालिः।
म्फुरत्प्रभावारि चिरं चिखेल, तदाननाम्भोजनिवासिनी श्रीः॥५६॥ अर्थ :- उनके मुख कमल पर निवास करने वाली दाढ़ी-मूंछ रूपी वन में विहार करने वाली, झूला झूलने का आनन्द लेने के लिए कर्ण के अग्रभाग का आश्रय लेने वाली लक्ष्मी ने चमकती हुई कान्ति रूपी जल में चिरकाल तक क्रीड़ा की। विशेष :- तीर्थंकर के दाढ़ी-मूंछ नहीं होती है। उपर्युक्त कल्पना कवि की निजी कल्पना है।
पद्मानि जित्वा विहितास्य दृग्भ्यां, सदा स्वदासी ननु पद्मवासा।
किमन्यथा सावसथानि याति, तत्प्रेरिता प्रेमजुषामखेदम्॥ ५७॥ अर्थ :- इन भगवान् के दोनों नेत्रों ने कमल पर निवास करने वाली लक्ष्मी को सदा अपनी दासी बनाया अन्यथा क्या वह लक्ष्मी उनसे प्रेरित होकर स्नेह करने वालों के घर पर खेदरहित होकर जाती।
कृष्णाभ्ररेखाभ्रगतो निभाल्य, तद्भूयुगं यौवनवह्नितप्तैः । __ अकारि नृत्यं प्रमदोन्मदिष्णु-मनोमयूरैर्विलसत्कलापैः॥ ५८॥ अर्थ :- स्त्रियों के उन्मादशील (पक्ष में-हर्ष से उन्मादशील), यौवन रूपी अग्नि से सन्तप्त, जिनमें कलाओं की प्राप्ति सुशोभित हो रही है अथवा जिनमें पिच्छों का समूह सुशोभित हो रहा है ऐसे मन रूपी मयूर उन भगवान् के भौंह रूप युगल को काले मेघ की पंक्ति के भ्रम से काला देखकर नृत्य करते थे। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
(१३)
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
भ्रान्त्वाखिलेऽस्य दृशो वशानां प्रभापयोऽक्षिप्रपयोर्निपीय । छायां चिरं भ्रूलतयोरुपास्य, भालस्थले संदधुरध्वगत्वम् ॥ ५९॥ अर्थ :- स्त्रियों की दृष्टियाँ इन भगवान् के मस्त अ में घूमकर लोचन रूप दो प्याऊओं के प्रभारूप जल को पीकर भौंह रूप लताद्वय की छाया की चिरकाल तक उपासना कर ललाट रूप स्थल में पथिकपने को धारण करता थीं ।
अर्धं च पूर्णं च विधुं ललाट-मुखच्छलाद्वीक्ष्य तदङ्गभूतौ ।
न के गरिष्ठां जगुरष्टमीं च, राकां च तन्नाथतया तिथीषु ॥ ६० ॥
अर्थ आधे और पूर्ण चन्द्रमा को ललाट और मुख के बहाने से उनके अङ्ग के रूप में देखकर किस विज्ञ पुरुष ने अष्टमी और पूर्णिमा को अर्द्ध और पूर्ण चन्द्रमा के नाथ होने पर (पन्द्रह ) तिथियों में ज्येष्ठ नहीं कहा।
,
विशेषार्थ :- स्वामी का भाल अर्द्धचन्द्र के सदृश था और मुख सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान था अतः अष्टमी और पूर्णमासी तिथियाँ समस्त तिथियों के मध्य में ज्येष्ठ हुईं, ऐसा कहा जाता है ।
द्विष्टोऽपि लोकैरमुना स्वमूर्ध्नि, निवेशितः केशकलापरूपः । वर्णोऽवरः श्रीभरमाप नाथ- प्रसादसाध्येह्युदये कुलं किम् ॥ ६१ ॥
अर्थ :- श्याम वर्ण ने लोगों से द्वेष किए जाने पर भी भगवान् के द्वारा अपने मस्तक पर केशों के समूह के रूप में धारण किए जाने पर शोभा के समूह को प्राप्त किया । निश्चित रूप से प्रभु की कृपा से साध्य उदय के होने पर कुल का क्या देखना ? अर्थात् राजा जिस पुरुष पर कृपालु होता है, उस अकुलीन के भी सम्पदायें हो जाती हैं।
(१४)
बुद्धवा नवश्मश्रुसमाश्रिताङ्क - श्रीकं निशोदीतमदोमुखेन्दुम् । केशौघदम्भात् किमु पुष्पतारा-लङ्कारहारिण्यभिसारिकाऽभूत् ॥ ६२ ॥
अर्थ : :- पुष्प रूप ताराओं के अलङ्कार के कारण मनोहरा रात्रि केशों के समूह के बहाने से नवीन दाढ़ी-मूंछ से आश्रित शोभा यक्त उनके मुख रूप चन्द को उदित जानकर अभिसारिका हुई ।
विशेष
तीर्थंकर के दाढ़ी-मूंछ नहीं होती है । यह कवि की निजी कल्पना है । वर्णेषु वर्णः स पुरस्सरोऽस्तु, योऽजस्त्रमाशिश्रियदङ्गमस्य । अवेपि यच्छायलवेऽपि लब्धे, लोके सुवर्णश्रुतिमाप हेम ॥ ६३ ॥
अर्थ :वर्णों में वह (पीत) वर्ण अग्रसर हो, जिसने इनके अङ्ग का आश्रय लिया ।
:
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१ ]
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
अचलित जिनकी कान्ति का लेशमात्र भी प्राप्त करने पर हेम ने लोक में 'सुवर्ण' इस ख्याति को प्राप्त किया।
द्युम्नं जगभृत्युपयोगि गुप्तं, यच्छैशवऽभूत् परमार्थदृष्टेः।
तद्यौवनेनोत्सववत् प्रकाश-मकारि माद्यत्प्रमदेन तस्य ॥ ६४॥ अर्थ :- संसार का भरण पोषण करने में समर्थ जो बल मोक्ष के प्रति दृष्टि वाले उन भगवान् ऋषभदेव के शैशव अवस्था में गुप्त था, उसे उत्सव के समान जिससे प्रमदायें मत्त होती हैं अथवा जिससे हर्ष से मतवाले होते हैं, ऐसे यौवन ने प्रकट किया था।
यूनोऽपि तस्याजनि वश्यमश्व-वारस्य वाजीव सदैव चेतः। ___ सशङ्कमेवोरसिलोऽप्यनङ्ग - स्तदङ्गजन्मा तदुपाचरत्तम्॥ ६५॥ अर्थ :- उन भगवान् का चित्त घुड़सवार के अधीन घोड़े के समान सदैव वश में रहता था। वह चित्त का पुत्र बलवान् भी कामदेव उन भगवान् की सशंक होकर सेवा करता था।
पश्चादमुष्यामरवृन्दमुख्याः, पट्टाभिषेकं प्रथयाम्बभूवुः।
प्रागेव पृथ्व्यां प्रससार दुष्ट-चेष्टोरगीवज्रमुखः प्रतापः॥ ६६॥ अर्थ :- देवसमूहों के प्रमुखों (सुरेन्द्रों) ने इनके पट्टाभिषेक का विस्तार किया। इनका दुष्टों की चेष्टा रूप नागिनी के लिए गरुड़ के समान प्रताप पृथिवी पर पहले से ही फैल रहा था।
आनर्चुरिन्द्रा मकरन्दबिन्दु -संदोहवृत्तस्नपनावयत्नम्।
मन्दारमाल्यैर्मुकुटाग्रभाग - भ्रष्टैनमन्तोऽनुदिनं यदंघी॥ ६७॥ अर्थ :- इन्द्रों ने मकरन्द बिन्दुओं के समूह से जिनका स्नान किया गया है, ऐसे जिनके दोनों चरणों की मुकुटों के अग्रभाग से गिरी हुई मन्दार पुष्पों की मालाओं से निरन्तर नमन करते हुए बिना यत्न के ही अर्चना की।
आमोक्षसौख्यांहतिसन्धयास्मि-नात्मातिरेकेऽभ्युदिते पृथिव्याम्।
अशिश्रियन्मन्दरकन्दराणि, संजातलज्जा इव कल्पवृक्षाः॥ ६८॥ अर्थ :- इन भगवान् के विद्यमान रहने पर मोक्षावधि जो सुख है उसके दान के विषय में प्रतिज्ञा के कारण अपने से अधिक पृथिवी पर अभ्युदित होने पर कल्पवृक्षों ने मेरु की गुफाओं का आश्रय लिया। विशेषार्थ :- कल्पवृक्ष अपने से भी अधिक दाता भगवान् को देखकर लज्जा से मेरु गुफा में छिप गया।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वर्गायनैः स्वर्गिपतेः सभायामाविष्कृते कीर्त्यमृते तदीये।
तत्यानतस्तृप्यति नाकिलोके, सुधा गृहीतारमृते मुधाभूत् ॥ ६९॥ अर्थ :- स्वर्ग के गायक तुंबरु, नारद आदि यक. द्वारा इन्द्र की सभा में उन भगवान् के कीर्ति रूपी अमृत के प्रकट करने पर उसके पान से स्वर्गवासी देवों के तृप्त होने पर अमृत गृहीता के बिना व्यर्थ हो गया।
मेरौ नमेरुद्रुतले तदीयं, यशो हयास्यैरुपवीण्यमानम्।
श्रोतुं विशालापि सुरैः समेतैः, संकीर्णतां नन्दनभूरलम्भि॥ ७० ॥ अर्थ :- मेरु पर्वत पर नम्ररु वृक्ष के नीचे घोड़े के मुख के समान जिनका मुख है ऐसे गन्धर्वो अथवा किन्नरों के द्वारा वीणा से गाए जाते हुए उन भगवान् के यश को सुनने के लिए एकत्रित हुए देवों के द्वारा विशाल भी नन्दन वन की भूमि सङ्कीर्णता को प्राप्त हो गयी।
यशोऽमृतं तस्य निपीय नागां-गनास्थकुण्डोद्भवमद्भुतेन।
शिरो धुनानस्य भुजङ्ग भर्तु- भार एवाभवदन्तरायः॥ ७१॥ अर्थ :- उन स्वामी के सों की स्त्रियों के मुख रूप कुण्डों से उत्पन्न यश रूप अमृत का पान कर शेषनागाधिराज के आश्चर्य से शिर हिलाने पर पृथ्वी का भार ही विघ्न रूप हुआ।
धत्तां यशोऽस्याखिललोलगर्व-सर्वस्वसर्वंकषताभिमानम्।
गुणैर्दृढव्यूढघनैर्निबद्ध-मपि त्रिलोकाटनलम्पटं यत्॥ ७२॥ अर्थ :- उन भगवान् का गुणों से दृढ़ता से विशला घने रूप में निबद्ध भी तीनों लोगों में भ्रमण करने का रसिक यश समस्त चंचल पदार्थों के गर्व को सब प्रकार से कसौटी पर कसने के अभिमान को धारण करता था।
स एव देवः स गुरुः स तीर्थं, स मङ्गलं सैष सखा स तातः।
स प्राणितं स प्रभुरित्युपासा-मासे जनैस्तद्गतसर्वकृत्यैः॥ ७३॥ अर्थ :- उन भगवान् में सब कुछ कृत्यों की स्थिति मानने पर लोगों ने वही देव हैं, वही गुरु हैं , वही तीर्थ हैं, वही मङ्गल हैं, यह वही सखा है, वही तात हैं , वही जीवन हैं, वही स्वामी हैं, इस प्रकार उनका सेवन किया। विशेषार्थ :- भगवान् के सुर, असुर और नरों आदि के चौंसठ इन्द्रों द्वारा चरणकमल सेवित किए जाते हैं, अत: वे देव हैं। लोगों को आचार, व्यवहार, विद्या, शिल्प, विज्ञान आदि का प्रकाशन करते हैं, अत: भगवान् गुरु हैं । संसार रूपी समुद्र से तारने के कारण वे तीर्थ हैं, समस्त पापों का क्षय करने के कारण वे मङ्गल हैं, आश्रित जनों के प्रशंसनीय कर्मोदय के कारक होने से वही मित्र हैं, भव्यजनों की अन्तरङ्ग शत्रुओं से
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
रक्षा करने के कारण वही पिता हैं , पुण्यशाली लागों को पुण्य रूप जावनदान करने के कारण वही जीवन हैं, समस्त रीति, नीति और स्थितियों से प्रजाओं का पालन करने से वही प्रभु हैं। योगीश्वरोऽभिनवमन्यतनुप्रवेश-मभ्यस्तवानुदरकन्दरगः स्वमातुः। बालो युवाप्यनपहाय तनूं स याव-द्वेदं विवेश हृदयानि यदीक्षकाणाम्॥७४॥ अर्थ :- अपनी माता के उदर रूपी कन्दरा में चूँकि वे स्थित थे अत: योगीश्वर होते हुए उन्होंने अभिनव परकीय शरीर में प्रवेश का अभ्यास किया। उन्होंने बाल्यावस्था और युवावस्था में शरीर का परित्याग किए बिना ही यथालाभ आलोकन करने में तत्पर लोगों के हृदय में प्रवेश किया। अप्राप्यकारि नयनं न मृषाह जैनः, सम्पृच्य चेद्भगवतो वपुषा विदध्युः। सेवामुपासकदृशस्तदिमा अपीह, दध्युः कराद्यवयवा इव दिव्यभूषाम् ॥ ७५॥ अर्थ :- जैन नेत्र को अप्राप्यकारी झूठ नहीं कहता है । यदि उपासक की दृष्टि भगवान् के शरीर की सेवा करती तो हाथ आदि अवयवों के समान (कंकण, मुकुट आदि) दिव्यभूषा को भी धारण करती। हृदि ध्याते जातः कुसुमशरजन्मा ज्वरभरः,
श्रुते चान्याघा वचनविरुचित्वं श्रवणयोः । दृशोर्दष्टे स्पष्टेतरविषयगत्यामलसता,
तथापीह स्नेहं दधुरमरवध्वो निरवधिम् ॥ ७६ ॥ अर्थ :- भगवान् का हृदय में ध्यान करने पर कामज्वर का समूह उत्पन्न हो गया। इन स्वामी के विषय में सुनने पर दोनों कानों की अन्य की प्रशंसा करने के लिए प्रयुक्त वचनों के प्रति आलस्य स्पष्ट रूप से हो गया। भगवान् का दर्शन होने पर दृष्टि की दूसरे विषय के प्रति गति की अलसता स्पष्ट हो गई, फिर भी देवाङ्गनायें भगवान् के प्रति अवधिरहित स्नेह को धारण कर रही थीं। विशेष :- जिनका ध्यान करने पर ज्वर, सुनने में अरुचि और दृष्टि में आलस्य उत्पन्न होता है, वहाँ स्नेह कैसे धारण किया जाता है, इस प्रकार विरोध है। नारीणां नयनेषु चापलपरीवादं विनिघ्नन् वपुः,
सौन्दर्येण विशेषितेन वयसा बाल्यात्पुरोवर्तिना। निर्जेतापि मनोभवस्य जनयंस्तस्यैव वामाकुले,
भ्रान्तिं कालमसौ निनाय विविधक्रीडारसैः कञ्चन॥७७॥
(१७)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सग-१]
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- कामदेव के जीतने वाले होने पर भी स्त्री वर्ग में रूप की लक्ष्मी से उसी कामदेव की भ्रान्ति उत्पन्न करते हुए बाल्यावस्था से अग्रेसर यौवन लक्षण रूप विशिष्टता को प्राप्त कराए हुए शरीर के सौन्दर्य से नारियों के नेत्रों में चंचलता से अपवाद का विनाश करते हुए वे भगवान् विविध प्रकार की क्रीडारसों से कुछ काल बिताते थे। इति श्रीमद्अञ्चल गच्छ में कविचक्रवर्ति श्रीजयशेखरसूरि विरचित
श्री जैन कुमारसंभव की प्रथम सर्ग की व्याख्या समाप्त हुई।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि
र्धम्मिलादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान्॥ वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गों जैनकुमारसम्भवमहाकाव्येऽयमाद्योऽभवत् ॥ १॥ कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्ल कुमारचरितादि महाकवित्व से युक्त नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैन कुमारसंभव महाकाव्य में यह आद्य सर्ग समाप्त हुआ।
इति श्रीमद् अञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित
श्री जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में प्रथम सर्ग समाप्त हुआ।
000
(१८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
२. द्वितीयः सर्गः
तदा हरेः संसदि रूपसम्पदं, प्रभोः प्रभाजीवनयौवनोदिताम् । अगायतां तुम्बरुनारदौ रदो- च्छलन्मयूखच्छलदर्शिताशयौ ॥ १ ॥
अर्थ :- उस अवसर पर जिन्होंने दाँतों से निकलती हुई किरणों के बहाने से अपने अभिप्राय को प्रकट किया है, ऐसे तुम्बरु और नारद ने इन्द्र की सभा में श्री ऋषभदेव के कान्तिलक्षण जीवन रूप यौवन से उत्पन्न रूप सम्पदा के विषय में गाया ।
प्रभुः प्रभाम्भोनिधिरामरी सभा, किमु स्तुमस्तौ यदि गातुमुद्यतौ । मणिर्महार्घ्यः शुचिकान्ति काञ्चनं, कला कलादस्य कलापि वर्ण्यताम् ॥२ ॥ अर्थ :- प्रभु ऋषभदेव प्रभा के सागर हैं, सभा देवसभा है, यदि वे तुम्बरु और नारद गाने के लिए उद्यत हैं तो हम क्या स्तुति करें, मणि अत्यधिक कीमती होता है, सुवर्ण पवित्र कान्ति वाला होता है, सुवर्णकार की कला (विशिष्ट) होती है, अतः कला का भी वर्णन किया जाय।
गुणाढ्या गेयविधिप्रवीणया, न वीणया गीतमदोन्वगायि न । सरस्वती पाणितलं न मुञ्चती, किमौचितीतश्चवते कदापि सा ॥ ३ ॥
अर्थ :- गुणों से समृद्ध, गेय विधि में प्रवीण वीणा से नारद और तुम्बरु सम्बन्धी गीत का अनुसरण नहीं होता है, ऐसा नहीं है। सरस्वती के हस्त तल को न छोड़ती हुई क्या वह वीणा कभी भी औचित्य गुण से च्युत होती है ? अर्थात् नहीं होती है ।
निनिन्दुरेकेऽमरधेनुजं पयो, मरुदुमाणामपरे फलावलिम् । परेऽर्णवालोडनसाधितां सुधां प्रभोः पिबन्तश्चरितामृतं सुराः ॥ ४ ॥
अर्थ :- प्रभु के चरित्र रूपी अमृत का पान करते हुए कुछ देवों ने कामधेनु के दूध की निन्दा की, दूसरे देवों ने कल्पवृक्षों के फलसमूह की निन्दा की, अन्य देवों ने समुद्रमन्थन से प्रकटित अमृत की निन्दा की।
विशेष :- देवों के लिए श्री युगादिदेव ऋषभदेव का चरित्ररूपी अमृत कामधेनु के दूध, कल्पवृक्ष के फल तथा अमृत से भी अधिक सरस हुआ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - २ ]
(१९)
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवः श्रियं प्रापुरमी प्रभोर्गुणै-र्वयं वृथा भारकृतः किमास्महे।
मुदा शिरः स्वं धुनतां सभासदा, मितीव पेते किल कर्णवेष्टकैः॥५॥ अर्थ :- सभासदों के हर्ष से अपना सिर हिलाने पर, इन सभासदों ने प्रभु के गुणों से ही कान की शोभा को प्राप्त किया, व्यर्थ ही भार करने वाले हम कैसे ठहरें, मानों इसलिए कानों के कुण्डल गिर गए।
यशोऽमृतौघः प्रससार तन्मुखा-त्तथा प्रभोः पार्षदनिर्जरैर्यथा।
अयं श्रवः कूपकहृत्सरः स्वमान्, दृगध्वनावामि मुदश्रुदम्भतः॥६॥ अर्थ :- तुम्बरु और नारद के मुख से श्री ऋषभदेव का यश रूपी अमृत का समूह कर्ण रूप कूप और हृदय रूपी सरोवरों में समाने में समर्थ न होने से जिस प्रकार फैला उसी प्रकार पार्षद देवों के द्वारा यह यश रूपी अमृत का समूह हर्ष के आँसुओं के बहाने से दृष्टिमार्ग से वमन किया जाता था (प्रकट किया जाता था)।
ध्रुवं दृशोश्च श्रवसोश्च संगतं, प्रवाहवान्तरमस्ति देहिनाम्।
श्रुतिं गतो गीतरसो दृशोदभून्, मुदश्रुदम्भाद् धुसदां किमन्यथा॥ अर्थ :- मनुष्यों के दोनों नेत्र और कानों का पवनमार्ग मिला हुआ है, यह बात निश्चित है, अन्यथा देवताओं के कान में गया हुआ गीतरस हर्ष के आँसुओं के बहाने से नेत्र से क्या बाहर निकलता?
कथामृतं पीतवतां विभोरभू-द्यथा ऋभूणां श्रवसो शं सुखम्।
तथा दृशोरर्तिरदोदिदृक्षया, न जन्तुरेकान्तसुखी क्वचिद्भवे ॥ ८॥ अर्थ :- प्रभु ऋषभदेव की कथा रूप अमृत का पान करते हुए देवों के कानों को जिस प्रकार अत्यधिक सुख हुआ वैसे ही उन्हें न देखने के कारण आँखों को पीड़ा हुई। प्राणी संसार में कहीं भी नियम से सुखी नहीं होता है।
प्रकृत्य कृत्यान्तरशून्यतां सद-स्यदस्यगीतेन तदा दिवौकसाम्।
ध्वनेः खजन्यत्वमसूचितं यथा, यदुद्भवो यः स तदाभचेष्टितः॥९॥ अर्थ :- सभा में तम्बरु और नारद के गीत ने उस अवसर पर कार्यान्तर की शून्यता का आरम्भ कर शब्द के आकाश से उत्पन्न होने का कथन किया। जो जिससे उत्पन्न होता है, वह उसके सदृश चेष्टा वाला होता है। यदि आकाश शून्य कहा जाता है तो उससे उत्पन्न शब्द भी शून्यताकारी होता है, यह बात युक्त ही है।
तदीयगीताहितहत्तया समं, समुज्झिताशेषशरीरचेष्टितैः ।
स्वभावनिःस्पन्दनिरीक्षणैः क्षणं, न तत्र चित्रप्रतिमायितं न तैः॥१०॥ (२०)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- उन भगवान् ऋषभदेव सम्बन्धी गीतों से जिनका हृदय हरण किया गया है, इस कारण जिन्होंने अपने शरीर की समस्त चेष्टाओं को छोड़ दिया है तथा स्वभाव से जिनके निरीक्षण निश्चल हैं ऐसे देवों ने वहाँ पर क्षण भर के लिए चित्रलिखित प्रतिमा का आचरण नहीं किया, ऐसा नहीं है, अपितु चित्रलिखित प्रतिमा के समान ही आचरण किया।
विभुं तमद्यापि निशम्य तन्मुखादखण्डकौमारकमाकरं श्रियाम्।
मृतः स कामः किमिति प्रजल्पिते, सुरीसमूहे मुमुचे रतिं रतिः ॥११॥ अर्थ :- देवियों के मध्य लक्ष्मी की खान उन विभु (भगवान्) को आज भी तुम्बरु
और नारद के मुख से सुनकर, वह काम क्या मृत्यु को प्राप्त हो गया है? ऐसा कहे जाने पर रति ने समाधि को छोड़ दिया।
त्रिलोकभर्तुः परमार्हतो विद-नथो विवाहावसरं सुरेश्वरः।
विसृज्य सभ्यानुपसर्जनीकृता-परक्रियः प्रास्थित वैक्रियाङ्गभृत् ॥१२॥ अर्थ :- अनन्तर वैक्रियिक शरीर को धारण करने वाले इन्द्र ने तीनों लोकों के स्वामी । परमहित श्री ऋषभदेव के विवाह का अवसर जानकर सदस्यों को छोड़कर दूसरी क्रियाओं को गौण कर प्रस्थान किया।
स्वयंप्रयाणे वद किं प्रयोजनं, समादिशेष्टं तव कर्म कुर्महे।
इमाः सुराणामनुगामिनां गिरो, यियासतस्तस्य ययुर्न विघ्नताम्॥१३॥ अर्थ :- अनुगामी देवों की 'हे स्वामिन् ! कहिए, स्वयं जाने का क्या प्रयोजन है, ये वाणियाँ जाने की इच्छा वाले इन्द्र के विघ्न को प्राप्त नहीं हुईं।'
व्रजैः सुराणामनुवव्रजे व्रज-नसावनुक्त्वाप्यतिरिक्तभक्तिभिः।
बलात् किमामन्त्रयते बलाहकः, स यद् बलाकापटलैः परीयते॥१४॥ अर्थ :- इन्द्र का बिना कहे ही जाते हुए अतिरिक्त भक्ति युक्त देवों के समूह ने अनुसरण किया। मेघ बलात् क्या बगुलियों के समूह को बुलाता है? (अर्थात् नहीं बुलाता है) जिस कारण वह मेघ बगुलियों के समूह से घिरा रहता है। .. नचिक्लिशे क्वापि विभोः प्रयोजनात्, स योजनानामयुतानि लंघयन्।
पदे पदे प्रत्युत तद्विवन्दिषा, रसेन कृष्टो गतिलाघवं दधौ ॥ १५ ॥ अर्थ :- स्वामि के कार्य से दश हजार योजन लाँघते हुए इन्द्र ने किसी भी स्थान पर खेद प्राप्त नहीं किया, अपितु पद पद पर उन भगवान् की वन्दना करने की इच्छा रूप इस से आकृष्ट होकर गमन में शीघ्रता को धारण किया अर्थात् चलने में शीघ्रता की। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
(२१)
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिरांसि सर्पन रुचकादिभूभृतां, तदग्रसिद्धायतनस्थितार्हतः।
विलम्बभीरुर्मनसैवसोऽनम-त्रयं न भिन्ते विबुधेशिता यतः॥१६॥ अर्थ :- विलम्ब से डरने वाले उस इन्द्र ने रुचक आदि पर्वतों के शिखरों पर गमन करते हुए उन पर्वतों के अग्र भाग पर स्थित सिद्धों के आयतनों में स्थित अहिन्तों को मन से ही नमस्कार किया; क्योंकि इन्द्र (अथवा विद्वन्मुख्य) न्याय का उल्लंघन नहीं करते हैं।
न तस्य वज्रेऽपि विलोकितेऽधरै-धेरैर्बभूवे क्वचिदञ्जनादिभिः।
तदीयमौलौ प्रतिमा अकत्रिमाः, सदासते यज्जगदेकपालिनाम्॥१७॥ अर्थ :- इन्द्र का वज्र देखने पर भी अञ्जनादि पर्वत किसी भी प्रकार से दुःखी नहीं हुए; क्योंकि उन पर्वतों के मस्तक पर जगत् के एकमात्र पालन करने वाले जिनेन्द्रों की अकृत्रिम प्रतिमायें सदा स्थित हैं। विशेष :- हिन्दू पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि इन्द्र ने एक बार पर्वतों के पंख काट डाले थे। कवि के अनुसार अञ्जनादि पर्वत इन्द्र को देखकर किञ्चित् भी क्षुब्ध नहीं हुए; क्योंकि उनके शीर्ष पर शाश्वत जिन प्रतिमायें विराजमान थीं। - रुचाञ्जनक्ष्माधरमौलिमूलयां-तरा तमस्यञ्चति सूचिभेद्यताम्।
निरुद्धचक्षुर्विषयः स चिन्मयीं, चरन् सहस्त्राभ्यधिकां दृशं दधौ॥१८॥ अर्थ :- मध्य में अञ्जन पर्वत के मस्तक पर जिसकी उत्पत्ति है, ऐसी कान्ति से अन्धकार के सूचि-भेद्यपने को प्राप्त करने पर जिसके नेत्रों का विषय रुक गया है ऐसे इन्द्र ने जाते हुए हजार से भी अधिक नेत्र धारण कर लिए।
लतामयागारशया रिरंसया, सुराः सदारा ददृशुस्तमध्वगम्।
स तानपश्यन्नतिवेगतस्त्रपा-जडान चक्रेऽचलमूर्धिचाचलिः॥१९॥ अर्थ :- स्त्री सहित, क्रीडा की इच्छा से लतामय आगार में शयन करने वाले देवों ने उस इन्द्र को मार्ग में स्थित देखा। पर्वत के मस्तक पर चलनशील इन्द्र ने उन देवों को अतिवेग के कारण न देखते हुए लज्जा से मूर्ख नहीं बनाया।
दिवाकरस्योर्ध्वमधश्च रेजिरे, नभोऽजिरे ये प्रखरांशुदण्डकाः।
अमी महेन्द्रस्य दिवोऽवरोहतः, करावलम्बत्वमिव प्रपेदिरे ॥ २०॥ अर्थ :- जो सूर्य की प्रखर किरणें रूप दण्ड आकाश रूपी आंगन में सुशोभित हो रहे थीं वे आकाश से उतरते हुए सौधर्म इन्द्र के लिए मानो हाथ के सहारेपन को प्राप्त हो रही थीं।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग २]
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाहहर्म्य त्रिजगत्प्रभोर्युवा-मवाप्स्यथः किं न मणिप्रदीपताम्।
इति प्रलोभ्याह्वयदिन्दुभास्करौ, कृतातिथेयौ पथि सङ्गतौ हरिः॥ २१॥ अर्थ :- इन्द्र ने मार्ग में मिले हुए अतिथि सत्कार किए हुए चन्द्रमा और सूर्य को, क्या तुम दोनों तीनों लोकों के स्वामी भगवान् ऋषभदेव के विवाहमण्डप में मणिमय दीपकपने को प्राप्त नहीं करोगे? इस प्रकार प्रलोभन देकर बुलाया।
निमेषविचेषिसमग्रदृग्मये, प्रिये सदा सन्निहितेऽत्र वज्रिणि।
क्वचिन्न या मुह्यति सा किमायसी, शचीति तं वीक्ष्य जगुः शशिप्रियाः॥२२॥ अर्थ :- चन्द्रमा की पत्नियाँ रोहिणी आदि वज्र को धारण करने वाले, निमेष रहित समस्त लोचनों वाले उस इन्द्र को देखकर आपस में इस प्रकार कहने लगीं। क्या वह शची लोहे की बनी है जो इस प्रिय इन्द्र रूप पति के सदा समीप रहने पर किसी प्रकार से मूढ़पने को धारण नहीं करती है।
विलोचनैरूर्ध्वमुखैर्वियत्युडू-रधोमुखैर्वार्धिजलेऽतिनिर्मले।
स विप्रकीर्णा अवलोकयन्मणी-रणीयसीमप्यविदन्न मुद्भिदम्॥२३॥ अर्थ :- आकाश में ऊर्ध्वमुख नेत्रों से ऊपर नक्षत्रों को देखते हुए, अधोमुख नेत्रों से अत्यन्त निर्मल समुद्रजल में फैली हुई मणियों को देखते हुए उस इन्द्र ने थोड़े से भी हर्षभेद को प्राप्त नहीं किया।
अविश्रमे वर्त्मनि तस्य यायिनः, श्रमस्य यः कोऽपि लवोऽजनिष्ट सः।
अनोदि दुग्धोदधिशीकरैस्तटा, -चलस्खलद्वीचिचयोत्पतिष्णुभिः॥ २४॥ अर्थ :- जिसमें विराम नहीं है, ऐसे मार्ग में जाने वाले उस इन्द्र के श्रम का जो कोई भी अंश उत्पन्न हुआ, वह श्रम का अंश तटवर्ती पर्वतों पर स्खलन करती हुई कल्लोलों के समूह से उड़ने वाले क्षीर समुद्र के जलकणों से दूर हो गया। विशेषार्थ :- इन्द्र के आधे राजू प्रमाण मार्ग का अतिक्रमण कर आते हुए जो श्रम हुआ, वह शीतल क्षीर समुद्र के जलकणों से दूर हो गया।
प्रभूतभौमोष्मभयंकरः स्फुर-न्महाबलेनाञ्जनभञ्जनच्छविः।
निजानुजाभेदधियामुना घनः, पयोधिमध्यान्निरयन्निरक्ष्यत ॥ २५॥ अर्थ :- इन्द्र के द्वारा प्रभूत भूमि सम्बन्धी उष्मा से भयङ्कर वायु के द्वारा कृष्णकान्ति मेघ अपने छोटे भाई नारायण की अभेदबुद्धि से समुद्र के मध्य से निकलता हुआ दिखाई दिया।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिवस्पते द्यौरहमस्मि सांप्रतं, न सांप्रतं मोक्तुमुपेत्य मां तव।
इति स्ववर्णाम्बुदगर्जितेन सा, द्रुतं व्रजन्तं किमु तं व्यजिज्ञपत्॥ २६॥ अर्थ :- आकाश ने अपने वर्ण वाले मेघ की गर्जना से उसे शीघ्र जाते हुए क्या हे दिवस्पते ! मैं द्यौ हूँ, तुम्हारा मेरे समीप आकर छोड़कर जाना उचित नहीं है, इस प्रकार निवेदन किया। विशेष :- धु शब्द स्त्रीलिङ्ग-स्वर्ग और आकाशवाची है । तुम दिवस्पति हो, मैं द्यौ होने के कारण तुम्हारी भार्या हूँ । अतः मेरे समीप आकर तुम्हारा इस प्रकार जाना उचित नहीं
है।
पथि प्रथीयस्यपि लंघिते जवा-दवाप स द्वीपमथादिमं हरिः।
विभाति यो द्वीपसरस्वदुत्करैः, परैः परीतः परिवेषिचन्द्रवत् ॥ २७॥ अर्थ :- अनन्तर वह इन्द्र वेगपूर्वक विस्तृत भी मार्ग लाँघने पर आदि द्वीप (जम्बू द्वीप) को प्राप्त हुआ। जो द्वीप द्वीप और समुद्रों के समूह से परिधियुक्त चन्द्रमा के समान सुशोभित होता है।
इहापि वर्ष समवाप्य भारतं, बभार तं हर्षभरं पुरन्दरः।
घनोद्रयोऽलं घनवमलंघनं, श्रमं शमं प्रापयति स्म योऽद्भुतम् ॥ २८॥ अर्थ :- इन्द्र ने जम्बूद्वीप के मध्य में भी भारतवर्ष को पाकर उस हर्ष के समूह को धारण किया। प्रचुर उदय वाला अद्भुत् हर्ष मेघ के मार्ग के लंघन के श्रम को शान्त करता है। विनीलरोमालियुजो वनीघनो, गभीरनाभेर्बहु निम्न पल्वलः।
बभूव शच्या अपि मध्यदेशतो-ऽस्य मध्यदेशः स्फुटमीक्षितो मुदे॥ २९॥ अर्थ :- कृष्ण रोमराजियुक्त, बहुत बड़े वनों से घना, गहरे मध्यभाग वाले बहुत सारे गम्भीर तालाबों से युक्त स्पष्ट रूप से देखा गया मध्यदेश इन्द्र के लिए शची के मध्यदेश से भी अधिक हर्ष के लिए हुआ। विशेष :- जहाँ पर जिनेन्द्र भगवान्, चक्रवर्ती तथा अर्द्धचक्रवर्ती जैसे प्रमुख महापुरुषों का जन्म हुआ, वह भरत क्षेत्र सम्बन्धी मध्यदेश इन्द्राणी के उदरप्रदेश से भी अधिक इन्द्र के प्रमोद के लिए हुआ।
ददर्श दूरादथ दीर्घदन्तकं, घनालिमाद्यत्कटकान्तमुन्नतम्। प्रलम्बकक्षायितनीरनिर्झरं, सुरेश्वरोऽष्टापदमद्रिकुञ्जरम्॥ ३०॥
(२४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
होते
अर्थ :- अनन्तर इन्द्र ने जिसके प्रदेश बाहर निकले हुए हैं, . मेघों के समूह से स्थूल हुए . पर्वत के मध्य भाग जहाँ है, जो उन्नत है, लटकती हुई रस्सियों का सा आचरण करने वाले जहाँ जल के झरने हैं, ऐसे अष्टापद नामक पर्वत श्रेष्ठ को दूर से देखा ।
द्वितीय अर्थ :- (हाथी के पक्ष में) अनन्तर इन्द्र ने जिसके दाँत बड़े थे, बहुत से भौरों से युक्त मद बिखेरने वाले कपोलों से उन्नत, लटकी हुई रस्सियों का सा आचरण करने वाले जहाँ जल के झरने हैं ऐसे पर्वतीय हाथी को दूर से देखा ।
शिरो ममात्प्रतिमानविंशति-श्चर्युताध्यास्यवतंसयिष्यति । इति प्रमोदानुगुणं तृणध्वज- व्रजस्य दम्भात्पुलकं बभार यः ॥ ३१ ॥ अर्थ :- जो अष्टापद मेरा शिर चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का आश्रय कर कर्णाभूषण बनाएगा, इस प्रकार प्रमोद के योग्य तृणद वज नामक बाँसों के समूह के बहाने से रोमाञ्च धारण कर रहा था ।
यदुच्च शृङ्गाग्रजुषोऽपि खेचरी-गृहीतशिम्बाफलपुष्पपल्लवाः । न सेहिरे स्वानुपभोगदुर्यशो, द्रुमा मरुत्प्रेरितमौलिधूननैः ॥ ३२ ॥ अर्थ :- जिसके ऊँचे शिखरों के अग्रभाग का सेवन करने पर भी विद्याधरियों के द्वारा जिनके छीमी, फल, फूल और पल्लव ग्रहण किए गए हैं, ऐसे वृक्षों ने वायु से प्रेरित शिर के कम्पन के बहाने से अपने उपभोग रहित होने की अपकीर्ति को सहन नहीं किया।
निवासभूमीमनवाप्य कन्दरे - ष्वपि स्फुटस्फाटिकभित्तिभानुषु ।
तले तमस्तिष्ठति यन्महीरुहां, शितिच्छविच्छायनिभान्निशात्यये ॥ ३३ ॥ अर्थ :- अन्धकार रात्रि की समाप्ति हो जाने पर जिन वृक्षों के नीचे काली कान्ति वाली छाया के बहाने से स्पष्ट रूप से स्फटिक की भित्ति रूपी किरणों वाली कन्दराओं में भी निवासभूमि को न पाकर ठहरता है ।
प्रतिक्षिपं चन्द्रमरीचिरेचिता
मृतांशुकान्तामृतपूरजीवना ।
वनावली यत्र न जातु शीतगोः, पिधानमैच्छन्मलिनच्छविं घनम् ॥ ३४॥ अर्थ :प्रत्येक रात्रि में चन्द्रमा की किरणों से द्रवित किया चन्द्रकान्त मणियों का अमृतपूर ही जिसका जीवन है, ऐसी वनपंक्ति जहाँ पर कभी भी मलिन छवियुक्त, चन्द्रमा को आच्छादित करने वाले मेघ की इच्छा नहीं करती है।
विशेष शीतगो पिधानं मलिनच्छवि का एक अन्य अर्थ है
तब शीतगो की व्युत्पत्ति होगी - शीता गौ ( वाणी) यस्य स शीतगु:' अर्थात् जिसकी
:
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग -२ ]
(२५)
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
शीतल वाणी है उसे छिपाने के कारण जो मलिन छवि होती है, वह सभी के लिए
अनिष्ट ही होती है ।
यदौषधिभिर्ज्वलिताभिरर्दितं तमः सपत्नीभिरवेक्ष्य सर्वतः । तमस्विनी गच्छति लाञ्छनच्छलात्, कलानिधिं किं दयितं स्थितेः कृते ॥ ३५ ॥
अर्थ :- दीप्त सपत्नी औषधियों के द्वारा सब ओर से पीड़ित अन्धकार को देखकर रात्रि कलङ्क के बहाने से क्या मर्यादा के लिए चन्द्रमा रूप पति के समीप जाती है ? विशेष :औषधियों का और रात्रि का पति चन्द्रमा है। रात्रि अपनी सन्तान अंधकार को दीप्त औषधियों से सब प्रकार से पीड़ित देखकर उलाहना देने के लिए अपने पति चन्द्रमा के पास गई । लाञ्छन के बहाने से वह आज भी चन्द्रमा में दिखाई देती है । पतन्ति ये बालरवेः प्रगे करा, यदुल्लसद्गैरिक धातुसानुषु । क्रियेत तैरेव विसृत्य चापला - दिलाखिला गैरिकरङ्गिणी न किम् ॥ ३६ ॥ अर्थ :- प्रातःकाल बालसूर्य की जो किरणें जिस पर्वत के सुशोभित होते हुए गैरिक धातुओं से युक्त शिखरों पर पड़ती है, उन्हीं किरणों से चपल भाव से विस्तार को प्राप्त समस्त पृथ्वी गैरिक रंग वाली क्या नहीं की जाती है ? अपितु की ही जाती है ? विशेष :- बालक प्राय: क्रीडासक्त होता है, अतः स्थिरभाव को त्याग कर बालसूर्य किरणों ने समस्त पृथ्वी को लाल बना दिया ।
यदीयगारुत्मतभित्तिजन्मभिः, करैरवंच्यन्त तथा हरित्प्रभैः ।
न चिक्षिपुर्मुग्धमृगा मुखं वचि - द्यथाऽनलीकेषु तृणांकुरेष्वपि ॥ ३७॥ अर्थ :भोले-भाले मृग जिस पर्वत की गरुड़ रत्नों की भित्ति से जन्य हरी प्रभा वाली किरणों से उस प्रकार ठगे गए कि सत्य तृणाङ्कुरों के ऊपर भी वे मुख को क्वचित् नहीं
लगाते थे ।
,
शरन्निशोन्मुद्रितसान्द्रकौमुदी - समुन्मदिष्णुस्फटिकांशुडम्बरे । निविश्य यन्मूर्द्धनि साधकैरसा-धिकैर्महोऽन्तर्बहिरप्यदृश्यत ॥ ३८ ॥
अर्थ
शरत्कालीन रात्रियों में खुली हुई घनी चाँदनी से वृद्धि को प्राप्त स्फटिक मणियों की किरणों का समूह जिसके शिखर पर बैठकर रसाधिक साधकों के द्वारा अध्यात्मतेज बाहर और अन्दर दिखाई दिया।
-:
(२६)
तरुक्षरत्सूनमृदूत्तरच्छदा, व्यधत्त यत्तारशिला विलासिनाम् । रतिक्षणालम्बितरोषमानिनी -स्मयग्रहग्रन्थिभिदे सहायताम् ॥ ३९॥
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - २ ]
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :
वृक्ष से गिरते हुए पुष्पों से मृदु दुपट्टे वाली जिस पर्वत की रजतशिला ने विलासियों के रति क्षण में जिन्होंने रोष का सहारा लिया है ऐसी मानिनी स्त्रियों के मानग्रहण रूप ग्रन्थि के भेदन करने में सहायता की।
यदुच्चवृक्षाग्रनिवासिनीं फला- वलीमविन्दन्नुपलैः पुलिन्द्रकः ।
कपीनदः स्थानभिवृष्य तान् सुखं, समश्रुते तैः प्रतिशस्त्रितां रुषा ॥ ४० ॥ अर्थ :- भील, वृक्षों पर स्थित, क्रोध से प्रतिशस्त्रीकृत वानरों को पाषाणों से सम्मुख प्रहार कर जिस पर्वत के ऊँचे वृक्षों के शिखर पर निवास करने वाले फलों के समूह को न प्राप्त कर भी सुख प्राप्त करता है ।
इमाः सुवर्णैस्तुलिता इति क्षिपा- मुखे रविः स्वं प्रवसन् वसुन्यधात्। तदीयगुञ्जासु किमन्यथा हिम-व्यथां हरीणां सहिता हरन्ति ताः ॥ ४१ ॥ अर्थ :- रात्रि के प्रारम्भ में प्रवास पर जाते हुए सूर्य ने अपने तेजोद्रव्य को पर्वत की गुंजाओं में रख दिया। ये गुंजायें सुवर्ण के समान हो गयीं अन्यथा वे मिलकर वानरों की हिम सम्बन्धी पीड़ा का कैसे हरण करतीं?
विशेष :सूर्य ने संध्या के समय अपने तेज को गुंजाओं में डाल दिया, इस कारण वानर एकत्र होकर गुंजाओं से तापते हैं। इस प्रकार उनकी शीत जाती ही है ।
जिनेशितुर्जन्मभुवः समीपगं, नगं तमाधाय मुदा दृगध्वगम् । सगोत्रपक्षक्षतिजातपातकैर्विमुक्तमात्मानममंस्त वासवः ॥ ४२ ॥
अर्थ :- उस इन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान् की जन्मभूमि के समीपस्थित अष्टापद पर्वत को हर्ष से दृष्टिमार्गगोचर करके पर्वतों के पंखों के छेदन से उत्पन्न पापों से अपने को विमुक्त माना ।
विशेष पहले पर्वत पंखों से उड़कर गाँव और नगरों के ऊपर गिर जाते थे । इन्द्र ने वज्र से पर्वत के पंख काट डाले, ऐसी लोकरूढ़ि है । इन्द्र जिनेन्द्र भगवान् की जन्मभूमि के समीप अष्टापद पर्वत को देखकर पर्वतों के पंख काटने के पाप से छूट गया । अन्य प्राणी भी महातीर्थ के दर्शन कर अपने गोत्र में उत्पन्न लोगों के वंश का छेदन करने रूप से मुक्त हो सकते हैं। जैसे - पाण्डवादिक शत्रुञ्जय तीर्थ पर सिद्ध हुए । अथ प्रभोर्जन्मभुवं पुरन्दरो ऽसरच्छरच्चन्द्रिकयेव दृष्टया । ययाचिरादुत्कलिकाभिराकुलं, प्रसादमासादयदस्य हृत्सरः ॥ ४३ ॥
पाप
अर्थ :- अनन्तर इन्द्र प्रभु की जन्मभूमि को गया । जिस जन्मभूमि के देखने से इसका चिरकाल की उत्कण्ठा से व्याप्त हृदय रूप सरोवर निर्मलता को प्राप्त हो गया ।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - २ ]
-
(२७)
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
स तत्र मन्दारमणीवकस्रवन्-मधुच्छटासौरभभाजने वने। अमुक्तपूर्वाचलहेलिलीलया, निविष्टमष्टापदसिंहविष्टरे ॥ ४४॥ दृशोरशेषामृतसत्रमङ्गिनामनङ्गनाट्योचितमाश्रितं वयः। वयस्यतापन्नसुपर्वसङ्गतं, रसङ्गतं तत्कृतनर्मकर्मसु ॥ ४५ ॥ शिरःस्फुरच्छत्रमखण्डमण्डन-धुसद्वधूधूनितचारुचामरम्। विशारदैर्वन्दितपादमादरा-दरातिरद्रेर्जगदीशमैक्षत ॥ ४६॥
त्रिभिर्विशेषकम् अर्थ :- उस (पर्वत के शत्रु) इन्द्र ने मन्दार पुष्पों से प्रवाहित होते हुए मधु की छटा से युक्त, सुगन्धि के पात्र उस वन में प्राणियों के दोनों नेत्रों में समस्त अमृत के आगार, कामदेव के नाटक के योग्य, यौवन पर आश्रित, मित्रत्व को प्राप्त देवों से मिले हुए, सुरों से किए हुए क्रीडा कर्मों में रस को प्राप्त, पूर्वांचल को न छोड़े हुए सूर्य की लीला से युक्त अष्टापद रूप सिंहासन पर बैठे हुए, शिर पर चमकते हुए छत्र रूप अखण्ड आभरण वाले, देवाङ्गनाओं के द्वारा जिन पर चँवर डुलाए जा रहे हैं तथा चतुर लोगों के द्वारा आदरपूर्वक जिनके चरणों की वन्दना की गई है, ऐसे श्री ऋषभदेव भगवान् को देखा।
कनीनिकादम्भमधुव्रतस्पृशां, दृशां शतैर्बिभ्रदिवाम्बुजस्त्रजम्।
ततस्त्रिलोकीपतिमेनमञ्चितुं, रयादुपातिष्ठत निर्जरेश्वरः॥ ४७॥ अर्थ :- अनन्तर पुतलियों मिष से भौंरों का स्पर्श करने वाली सैकड़ों आँखों से मानों कमल की माला को धारण करने वाले इन्द्र तीनों लोकों के स्वामी युगादि भगवान् की पूजा करने के लिए वेग से आए।
शिरः स्वमिन्दिदरयन् विनम्य तत्-पदाब्जयुग्मे लसदङ्गुलीदले।
इति स्फुरद्भक्तिरसोर्मिनिर्मलं, शचीपतिः स्तोत्रवचः प्रचक्रमे ॥४८॥ अर्थ :- इन्द्र ने जिनमें अंगुलियों का समूह सुशोभित हो रहा है, ऐसे उन चरणकमल युगल में नमस्कार कर अपने शिर को भ्रमर के समान करते हुए इस प्रकार प्रकट होते हुए भक्ति के रस रूप लहरों से निर्मल स्तुतिवचन प्रारम्भ किए।
अथ स्तोत्रवचः प्राह महामुनीनामपि गीरगोचरा-खिलस्वरूपास्तसमस्तदूषण।
जयादिदेव त्वमसत्तमस्तम-प्रभाप्रभावाल्पितभानुवैभव ॥ ४९॥ अर्थ :- महामुनियों की वाणी के भी अगोचर समस्त स्वरूप वाले, जिनके समस्त
(२८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
दोष नष्ट हो गए हैं, ऐसे हे आदिदेव ! अत्यन्त निष्पाप प्रभा के प्रभाव से जिन्होंने सूर्य के वैभव को भी अल्प बना दिया है, ऐसे आपकी जय हो।
गुणास्तवाङ्कोदधिपारवर्तिनो, मतिः पुनस्तच्छफरीव मामकी।
अहो महाधाष्टर्यमियं यदीहते, जडाशया तत् क्रमणं कदाशया॥५०॥ अर्थ :- हे नाथ! आपके गुण अङ्क समुद्र के भी पारगामी हैं, मेरी बुद्धि उस समुद्र की मछली के समान है जो जड़ बुद्धि बुरे अभिप्राय से उस समुद्र का उल्लंघन करना चाहते हैं, आश्चर्य है, यह उनकी महान् धृष्टता है।
मनोऽणुधर्तुं न गुणांस्तवाखिला-न तद्धृतान्वक्तु मलं वचोऽपि मे।
स्तुतेर्वरं मौन मतो न मन्यते, परं रसज्ञैव गुणामृतार्थिनी॥५१॥ अर्थ :- हे नाथ! मेरा छोटा सा मन आपके समस्त गुणों को धारण करने में और मेरा वचन भी धारण किए हुए गुणों का कथन करने में समर्थ नहीं है। अतः स्तुति से मौन अच्छा है, किन्तु गुण रूपी अमृत को चाहने वाली जीभ ही नहीं मानती है।
सुरद्रुमाद्यामुपमा स्मरन्ति यां, जनाः स्तुतौ ते भुवनातिशायिनः।
अवैमि तां न्यक्कृतिमेव वस्तुत-स्तथापि भक्तिर्मुखरीकरोति माम्॥५२॥ अर्थ :- हे नाथ लोग भुवनातिशायी आपकी स्तुति में कल्पवृक्ष आदि की उपमा को याद करते हैं । वस्तुतः उस स्तुति को मैं निन्दा के रूप में ही जानता हूँ, फिर भा भक्ति मुझे वाचाल बना रही है।
अनङ्गरूपोऽप्याखलाङ्गसुन्दरो, रवेरदभ्रांशुभरोऽपि तारकः।
अपि क्षमाभृन्न सकूटतां वह-स्यपारिजातोऽपि सुरद्रुमायसे॥ ५३॥ अर्थ :- हे नाथ! आप अङ्गरहित होने पर भी समस्त अङ्गों से सुन्दर हो (आप कामदेव के समान रूप वाले होने पर भी सर्वाङ्ग सुन्दर हैं), सूर्य से भी अधिक तेज के समूह होने पर भी तारा हो (सूर्य से भी अधिक आपकी किरणों का समूह है, फिर भी आप संसार सागर से पार उतारने वाले हैं), पर्वत होने पर भी शिखर को धारण नहीं करते हैं (क्षमाशील होने पर भी कपट धारण नहीं करते हैं), पारिजात न होने पर भी देववृक्ष के समान आचरण करते हैं (आपका शत्रुओं का समूह नष्ट हो गया है और आप दानशीलता रूप गुण में - कल्पवृक्ष का सा आचरण करते हैं)। विशेष :- इस पद्य में विरोधाभास अलङ्कार है।
इदं हि षटखण्डमवाप्य भारतं, भवन्तमूर्जस्वलमेकदैवतम्।
बिभर्ति षट्कोणकयन्त्रसूत्रणां, नृणां स्फुरत्पातकभूतनिग्रहे ॥५४॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
(२९)
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- हे नाथ! निश्चित रूप से यह षट् खण्ड वाला भरत क्षेत्र शक्तिशाली एकमात्र देव आपको प्राप्त कर मनुष्यों का प्रकट होते हुए पाप रूप भूत के निग्रह में षट्कोणयन्त्र की रचना का आश्रय लेता है। विशेष :- भरत क्षेत्र ने परमदेव भगवान् को प्राप्त कर मनुष्यों के पाप रूप भूत निग्रह करने में षटखण्ड रूप षट्कोणयन्त्र की रचना का आश्रय लिया।
तपोधनेभ्यश्चरता वनाध्वना, धनस्य भावे भवता धनीयता।
अदीयताज्यं यदनेन कौतुकं, तवैव शिश्वाय वृषो वृषध्वज॥ ५५ ॥ अर्थ :- हे नाथ! आपने वनमार्ग से विचरण करते हुए धन सार्थवाह के भव में तपस्वियों को जो घृत दिया था, धन की इच्छा करते हुए उस घी से हे वृषभ लाञ्छन आश्चर्य की बात यह है कि आपका ही वृषभ या पुण्य फलने फूलने के लिए वृद्धि को प्राप्त हुआ।
भवे द्वितीये भुवनेश युग्मितां, कुरुष्ववाप्ते त्वयि किङ्करायितम्।
मनीषितार्थक्रियया सुरदुमै-र्जितैरिव प्राग् जननापवर्जनैः॥५६॥ अर्थ :- वाञ्छित पदार्थों के करने से पहले पूर्वजन्म क दानों से मानों पराजित हुए कल्पवृक्षों ने दूसरे भव में उत्तर कुरु में युगलपने को प्राप्त हुए आपकी सेवा की थी।
सधर्म सौधर्मसुपर्वतां ततो-ऽधिगत्य नित्यं स्थितिशालिनस्तव।
सुराङ्गना कोटिकटाक्षलक्ष्यता-जुषोऽपि नो धैर्यतनुत्रमत्रुटत्॥५७॥ अर्थ :- हे धर्मयुक्त! अनन्तर सौधर्म देवत्व को प्राप्त कर देवाङ्गनाओं के करोड़ों कटाक्षों के लक्ष्यों से युक्त होने पर भी नित्य मर्यादा से शोभायमान आपका धैर्य रूपी कवच नहीं टूटा।
महाबलमापभवे यथार्थकी, चकर्थ बोधैकबलान्निजाभिधाम्।
अखर्वचार्वाकवचांसि चूर्णय-नयोघनानक्षरकोट्टकुट्टने॥ ५८॥ अर्थ :- हे नाथ आपने महाबल राजा के भव में प्रौढ़ चार्वाक के वचनों को चूर्ण करते हुए मोक्ष रूपी दुर्ग के कूटने में बोध रूप एक बल से लौहमुद्गरों का प्रयोग करते हुए अपने नाम को यथार्थ कर दिया।
द्वितीयकल्पे ललिताङ्गतां त्वया, गतेन वध्वा विरहे व्यलापि यत्। .
दरिद्रपुत्र्यै ददितुं तपः फलं, तदन्यदर्था हि सतां क्रियाखिला॥ ५९॥ अर्थ :- हे नाथ! तुमने दूसरे कल्प में ललिताङ्ग नाम को प्राप्त हुए वधू के विरह में जो
(३०)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
विलाप किया, वह दरिद्र पुत्री, निर्नामिका के लिए तप का फल देने के लिए जानना चाहिए; क्योंकि सज्जनों की समस्त क्रियायें दूसरों के उपकार की हेतु होती हैं ।
स वज्रजंघो नृपतिर्भवन् भवा- नवाप हालाहलधूमपायिताम् । यदङ्गजादङ्गजतस्ततस्तवा-धुनापि विश्वासबहिर्मुखं मनः ॥ ६० ॥ अर्थ :- हे भगवान् ! उन आपने वज्रजंघ राजा होकर जो पुत्र से हालाहल धूमपायिता को प्राप्त किया। अतः अब भी आपका मन अङ्गज (कामदेव) के विश्वास से बहिर्मुख
है ।
विशेष
भव में
अङ्गज शब्द से कामदेव और पुत्र भी कहा जाता है । आपने वज्रजंघ राजा के पुत्र से मरण प्राप्त किया । पश्चात् तीर्थंकर जन्म में आपका मन अङ्गज अर्थात् काम के प्रति विश्वासरहित हो गया ।
:
उपास्य युग्मित्वमथाद्यकल्पग-सुधाशनीभूय भिषग् भवानभूत् । मुने: किलासं व्यपनीय यः स्वकं, कलाविलासं फलितं व्यलोकत ॥ ६१॥ अर्थ :- हे नाथ! अनन्तर आप युगलपने का भली भाँति सेवन कर प्रथम देव लोक में देव होकर वैद्य हुए, जिसने मुनि के कुष्ट रोग को दूर कर अपने कलाविलास को फलित देखा ।
अथेयिवानच्युतनाकिधाम चे-दवातरस्तत्किमिह प्रभोऽथवा ।
लयं लभन्ते विबुधा हि नाभिधा-गुणेषु यत्ते परमार्थदृष्टयः ॥ ६२ ॥ अर्थ :- अनन्तर हे प्रभो यदि तुम अच्युत नाम वाले देवलोक को प्राप्त हुए तो पृथ्वी पर क्यों अवतीर्ण हुए अथवा देव (या विद्वान्) नाम गुणों में विश्राम प्राप्त नहीं करते हैं । क्योंकि वे देव (अथवा विद्वान्) परमार्थ दृष्टि वाले होते हैं ।
विशेष :जिसमें च्युत नहीं होते हैं, ऐसे अच्युत स्वर्ग को जाकर वे कैसे अवतीर्ण हुए ? किन्तु इन्द्रगोप के समान उसका अच्युत यह नाममात्र है, अतः आपने उसे छोड़ दिया ।
निरीक्ष्यतां तीर्थकृतः पितुः श्रियं, न चक्रिसम्पद्यपि तोषमीयुषा । तदर्थमेव प्रयतं ततस्त्वया, त्रपा हि तातोनतया सुसूनुषु ॥ ६३॥ अर्थ :हे नाथ! अनन्तर तीर्थंकर पिता की उस लक्ष्मी को देखकर तुमने चक्रवर्ती की सम्पदा पर भी सन्तोष प्राप्त नहीं किया । निश्चित रूप से सत्पुत्रों की पिता से हीनता लज्जा की बात है ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - २ ]
(३१)
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेष :- वज्रसेन तीर्थङ्कर का वज्रनाभ नामक पुत्र चक्रवती हुआ। उसने चक्रॉपने को छोड़कर संयम ग्रहण कर तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया। अत: चक्रवर्ती की लक्ष्मी से तीर्थकर लक्ष्मी अधिक है।
ससीमसर्वार्थविमानवासिनः, शिवश्रियः सङ्गममिच्छतोऽपि ते।
अभूद्विलम्बस्तदसंस्तुते जने, रिरंसया को न दधाति मन्दताम्॥ ६४॥ अर्थ :- हे नाथ! समीपवर्ती सर्वार्थ विमान वासी तुम्हें मोक्ष लक्ष्मी से मिलन की इच्छा होने पर भी जो विलम्ब हुआ (वह ठीक ही है; क्योंकि) अपरिचित जन से रमण करने की इच्छा से जड़ता को कौन धारण नहीं करता है? अपितु सभी जड़ता को धारण करते हैं।
ध्रुवं शिवश्रीस्त्वाय रागिणी यत-स्तटस्थितस्यापि भविष्यदीशितुः।
असंस्पृशन्मारविकारजं रजः, स्वसौख्यसर्वस्वमदत्त ते चिरम्॥६५॥ अर्थ :- हे नाथ! निश्चित रूप से मोक्षलक्ष्मी आपके प्रति रागवती है; क्योंकि उसने भविष्य पर प्रभुत्व रखने वाले, कामदेव के विकार से उत्पन्न रज का स्पर्श न करने वाले तुम्हारे समीपवर्ती स्थित होने पर भी चिरकाल तक अपने सुख के सर्वस्व को दिया।
अवाप्य सर्वार्थविमानमन्तिकी-भवत्परब्रह्मपदस्तदध्वगः।
यदागमस्त्वं पुनरत्र तद् ध्रुवं, हितेच्छया भारतवर्षदेहिनाम्॥६६॥ अर्थ :- हे नाथ! समीप होते हुए मोक्ष पक्ष के पथिक तुम सर्वार्थ विमान को पाकर जो पुनः यहाँ आए, वह निश्चित रूप से भारतवर्ष के प्राणियों के हित की इच्छा से ही आए। विशेष :- तुम सवीर्थ विमान के समीप होने पर भी मोक्ष को नहीं गए, किन्तु लोक के हित की इच्छा से ही यहाँ अवतीर्ण हुए।
तदेव भूयात् प्रमदाकुलं कुलं, महीमहीनत्वमुपासिषीष्ट ताम्।
क्रियाजनं स्वस्तुतिवादिनं दिनं, तदेव देवाऽजनि यत्र ते जनिः॥६७॥ अर्थ :- हे नाथ! वही कुल हर्ष से व्याप्त हुआ, पृथ्वी महानता से सेवित हुई, उसी दिन ने लोगों से अपनी प्रशंसा कराई, हे देव जिस कुल में, जिस दिन में आपका जन्म हुआ।
अमी धृताः किं पविचक्रवारिजा-सयः शये लक्षणकोश दक्षिणे।
शचीशचक्रयच्युतभूपसम्पद-स्त्वया निजोपासकसाच्चिकीर्षता॥६८॥ अर्थ :- हे लक्षणों के भण्डार! क्या आपने इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव और राजा को
(३२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
लक्ष्मी को अपने उपासकों के आधीन करने की इच्छा करते हुए दायें हाथ में वज्र, चक्र, शंख और तलवार ये धारण किए ?
विशेष :- भगवान् के शरीर में प्रासाद, पर्वत, शुक, अंकुश, पद्माभिषेक, यव, दर्पण, चामर इत्यादि एक हजार आठ लक्षण होते हैं, अत: उन्हें लक्षण कोश कहा । कवि ने कल्पना की है कि भगवान् के दायें हाथ में वज्र, चक्र, शंख और असि ये चिह्न इन्द्रादि पदवी अपने उपासकों को प्रदान करने के लिए थे ।
सदम्भलो भादिभटव्रजस्त्वया, स्वसंविदामोहमहीपतौ हते । स्वयं विलाता घनवारिवारिते, दवे न हि स्थेमभृतः स्फुलिङ्गकाः ॥
अर्थ :हे नाथ! आपके द्वारा आत्मज्ञान से मोह रूपी राजा के मारे जाने पर माया सहित लोभादि भटों का समूह स्वयं विलय को प्राप्त हो जाएगा; क्योंकि दावानल के मेघ के जल से रोके जाने पर चिनगारियाँ स्थायी नहीं रह जाती है ।
इषुः सुखव्यासनिरासदा सदा, सदानवान् यस्य दुनोति नाकिनः । स्मरो भवद्ध्यानमये विभावसा - वसावसारेध्मदशां गमिष्यति ॥ ७० ॥
अर्थ
जिस कामदेव का सुख के विस्तार के निराकरण को प्रदान करने वाला बाण सदा दानवों सहित स्वर्ग के देवों को पीड़ित करता है । हे नाथ! वह कामदेव आपकी ध्यान रूप अग्नि में असार काष्ठ की दशा को प्राप्त करेगा ।
अर्थ
:
परं न हि त्वत् किमपीह दैवतं, तवाभिधातो न परं जपाक्षरम् ।
न
पुण्यराशिस्त्वदुपासनात्पर-स्तवोपलम्भान्न परास्ति निर्वृतिः ॥ ७१ ॥
हे नाथ! तुमसे श्रेष्ठ अन्य इस संसार में देव नहीं है ( क्योंकि आप तीनों लोकों द्वारा पूज्य हैं, इस संसार में तुम्हारे नाम से श्रेष्ठ जप के अक्षर नहीं हैं ( क्योंकि आप सर्वोत्कृष्ट हैं), इस संसार में तुम्हारा सेवन करने से उत्कृष्ट कोई पुण्य की राशि नहीं है और तुम्हारी प्राप्ति से उत्कृष्ट कोई शान्ति नहीं है ।
-:
तव हृदि निवसामीत्युक्तिरीशे न योग्या, मम हृदि निवस त्वं नेति नेता नियम्यः । न विभुरुभयथाहं भाषितुं तद्यथार्हं, मयि कुरु करुणार्हे स्वात्मनैव प्रसादम् ॥ ७२ ॥
अर्थ :- हे नाथ! मैं तुम्हारे हृदय में निवास करता हूँ, यह कथन स्वामी में योग्य नहीं हैं, तुम मेरे हृदय में निवास करो, इस प्रकार नियन्त्रण करना योग्य नहीं है (जो नेता होता है, वह सेवकादि को नियंत्रित करता है, सेवक नेताओं को नियंत्रित नहीं करते
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - २ ]
(३३)
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं) । मैं दोनों प्रकार से बोलने में समर्थ नहीं हैं. अत: करुणा के योग्य मेरे प्रति स्वयं ही कृपा करो।
इति स्तुतिभिरान्तरं विनयमानयन् वैबुधे, प्रतीतिविषयं गणेऽनणुधियां धुरीणो हरिः। प्रसन्ननयने क्षणैर्भगवता सुधासोदरै -
रसिच्यत सुधाशनैरपि च साधुवादोर्मिभिः॥७३॥ अर्थ :- इस प्रकार की स्तुतियों से आन्तरिक विनय को देवसमूह में प्रतीति के विषय तक पहुँचाते हुए महान् बुद्धिशालियों में अग्रसर इन्द्र श्री ऋषभस्वामी तथा प्रसन्न नेत्रों के अवलोकन से अमृत के समान देवों के द्वारा भी प्रशंसा रूप तरङ्गों से सिक्त किया
गया।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविर्धम्मिलादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान्॥ वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते।
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये द्वितीयोऽभवत्॥ २॥ कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लाकुमारचरितादि महाकवित्व से युक्त नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में द्वितीय सर्ग समाप्त हुआ। इति श्रीमद् अञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित
श्री जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में द्वितीय सर्ग समाप्त हुआ।
000
(३४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
३. तृतीयः सर्गः
अथ प्रसादाभिमुखं त्रिलोकाधिपस्य पश्यन् मुखमुग्रधन्वा।
अवाप्तवारोचितरोचितश्रि, वचः पुनः प्रास्तुत वक्तुमेवम्॥ १॥ अर्थ :- अनन्तर इन्द्र ने तीनों लोकों के अधिपति भगवान् ऋषभदेव के मुख को कृपा की ओर अभिमुख देखकर अवसर प्राप्त होने के कारण रुचि को प्राप्त शोभा वाले वचन पुनः इस प्रकार बोलना आरम्भ किया।
स्वयं समस्तान्न न वेत्सि भावां-स्तथाप्यसौ त्वां प्रति मे प्रजल्पः।
इयत मेघंकरमारुतत्व-मदेष्यतः कालबलाद घनस्य॥२॥ अर्थ :- हे नाथ! तुम स्वयं समस्त भावों को नहीं जानते हो, ऐसा नहीं है अर्थात् आप समस्त भावों को जानते ही हैं, फिर भी यह आपके प्रति मेरा कथन है। काल के बल से उदय हो प्राप्त होने वाले मेघ के प्रति मेघोत्पादक वायु जाए।
साधारणस्ते जगतां प्रसादः स्वहे तुम्हे तमहं तु हन्त।
हृद्यो न कस्येन्दुकलाकलापः, स्वात्मार्थमभ्यूहति तं चकोरः॥३॥ अर्थ :- हे नाथ! आपकी कृपा सबके प्रति साधारण है, किन्तु मैं उस कृपा को आत्मनिमित्त विचारता हूँ । चन्द्रमा की कलाओं का समूह किसके लिए हृदयहारी नहीं है तथापि चकोर उसे अपने लिए विचारता है।
भवन्तु मुग्धा अपि भक्तिदिग्धा, वाचो विदग्धाग्य भवन्मुदे मे।
अश्मापि विस्मापयते जनं किं, न स्वर्णसंवर्मित सर्वकायः॥४॥ अर्थ :- हे विद्वन्मुख्य ! मेरी भक्ति से लिप्त वाणी भोली-भाली होने पर भी आपके हर्ष के लिए हों । स्वर्ण से जिसका समस्त शरीर वेष्टित है, ऐसा पाषाण भी क्या लोगों को विस्मित नहीं करता है? अर्थात् करता ही है।
जडाशया गा इव गोचरेषु, प्रजानिजाचारपरम्परासु। प्रवर्तयनक्षतदण्डशाली, भविष्यसि त्वं स्वयमेव गोपः॥ ५॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
(३५)
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- हे नाथ! गायों को जिस प्रकार ग्वाला अपने मार्ग पर ले जाता है, उसी प्रकार मूर्ख अभिप्राय वाली प्रजाओं को अपनी आचार परम्पराओं में प्रवृत्त करते हुए तुम अक्षत सेना से सुशोभित हुए (पक्ष में अक्षत दण्ड से) सुशोभित हुए ग्वाले (अथवा राजा) स्वयं ही होंगे ।
कलाः समं शिल्पकुलेन देव, त्वदेव लब्धप्रभवा जगत्याम् । क्व नो भविष्यन्त्युपकारशीलाः, शैलात्सरत्ना इव निर्झरिण्यः ॥ ६ ॥
अर्थ :हे देव ! शिल्पसमूह के साथ पृथ्वी पर तुमसे ही उत्पन्न कलायें पर्वत से निकली हुई सरला नदियों के समान हमारे लिए कहाँ उपकार करने रूप स्वभाव वाली नहीं होंगी अर्थात् सब जगह होंगी ।
त्वदागमाम्भोनिधितः स्वशाक्तयाऽऽदायोपदेशाम्बुलवान् गभीरात् । घना विधास्यन्त्यवनीवनीस्थान्, विनेयवृक्षानभिवृष्य साधून् ॥ ७॥
अर्थ :लोग (अथवा मेघ) गम्भीर होने से आपके आगम रूप समुद्र से उपदेश रूप जलकणों को अपनी शक्ति के अनुसार लेकर शिष्य रूप वृक्षों को सींचकर साधुओं को पृथ्वी रूपी महावन में स्थित करेंगे। (मेघ समुद्र से जल ग्रहण करते हैं, यह लोकरूढ़ि है ) । भवद्वयेऽप्यक्षयसौख्यदाने, यो धर्मचिन्तामणिरस्त्यजिह्मः ।
प्रमादपाटच्चारलुंट्यमानं त्वमेव तं रक्षितुमीशितासे ॥ ८ ॥
1
अर्थ
दोनों जन्मों में भी अक्षय सुख प्रदान करने में जो सरल धर्म रूप चिन्तामणि है, प्रमाद रूपी चोर से लूटे जाते हुए उस धर्मचिन्तामणि की रक्षा करने में आप ही
समर्थ हैं
-:
( ३६ )
तद्गेहिधर्मद्रुमदोहदस्य, पाणिग्रहस्यापि भवत्वमादिः ।
न युग्मिभावे तमसीव मग्नां, महीमुपेक्षस्व जगत्प्रदीप ॥ ९ ॥
अर्थ
हे नाथ! अत: तुम गृहस्थ धर्म रूपी वृक्ष के लिए दोहद स्वरूप पाणिग्रहण के भी प्रथम होओ। हे जगत्प्रदीप ! अन्धकार के समान युगलभाव में डूबी हुई पृथ्वी की उपेक्षा मत करो ।
वितन्वता केलिकुतूहलानि, त्वया कृतार्थीकृतमेव बाल्यम् ।
विना विवाहेन कृपामपश्य-त्तवाद्य न ग्लायति यौवनं किम् ॥ १० ॥ अर्थ :जलक्रीडा और गीत, नृत्य, नाटक आदि करते हुए तुमने बाल्यावस्था को कृतार्थ किया ही है । विवाह के बिना तुम्हारी कृपा को न देखते हुए यौवन क्या दुःखी नहीं होता है? अर्थात् दुःखी होता ही है ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३ ]
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
दृष्ट्वा जगत्प्राणहृतोऽपि सर्वं - सहे स्वहेतीस्त्वयि नाथ मोघाः।
अनगतां कामभटोऽस्य मुख्यः, सखा विषादानुगुणां दधाति ॥११॥ अर्थ :- हे नाथ! यौवन का मुख्य मित्र संसार के प्राणियों का जीवन लेने वाला काम रूप योद्धा भी सब कुछ सहन करने वाले अपने अस्त्रों को तुम्हारे विषय में निष्फल देखकर विषाद के योग्य अङ्गरहितता को धारण करता है।
मधुर्वयस्यो मदनस्य मूच्र्छा, मत्वा ममत्वाद्विषमां विषण्णः।
तनोत्यपाचीपवनानखण्ड-श्रीखण्डखण्डप्लवनाप्तशैत्यान्॥१२॥ अर्थ :- मित्र वसन्त, कामदेव की विषम मूर्छा को जानकर खिन्न होते हुए मोह से । दक्षिण दिशा के अखण्ड चन्दन के वनों में गमन करने से शीतलता को प्राप्त हुई वायुओं का विस्तार करता है।
मत्वा मधोर्मित्रशुचा प्रियस्या-मनस्यमाक्रन्दत यद्वनश्रीः।
तदत्र किं कजलविजुलाश्रु-कणाः स्फुरन्त्युल्ललितालिदम्भात्॥१३॥ अर्थ :- प्रिय वसन्त के मित्रशोक से उत्पन्न दुःख को जानकर जिस वन की लक्ष्मी ने ऊँचे स्वर से विलाप किया। अत: इस नेत्र रूप लक्ष्मी में उछलते हुए भौंरो के बहाने से क्या अंजन से कलुषित आँसुओं के कण विस्तार को प्राप्त हो रहे हैं?
ये सेवकाश्चास्य पिकाः स्वभर्तु-दुःखाग्निना तेऽप्यलभन्त दाहम्। किमन्यथा पल्लवितेऽपि कक्षे, तदङ्गमङ्गारसमत्वमेति ॥ १४॥ अर्थ :- और इस वसन्त के सेवक जो कोयल हैं, उन्होंने भी अपने स्वामी वसन्त की दुःख रूप अग्नि से दाह प्राप्त किया, अन्यथा पल्लवित भी वन में उन कोयलों का शरीर अङ्गार के सादृश्य को कैसे प्राप्त होता?
तनोषि तत्तेषु न किं प्रसाद, न सांयुगीनायदमी त्वयीश।
स्याद्यत्र शक्तेरवकाशनाशः, श्रीयेत शूरैरपि तत्र साम॥ १५॥ अर्थ :- हे ईश! उस कारण तुम उन यौवनादि पर कृपा नहीं करते हो। क्योंकि ये यौवनादिक तुम्हारे प्रति रण में ठीक नहीं हैं । जहाँ पर शक्ति के अवकाश का नाश होता है वहाँ पर शूरवीर भी साम्यगुण का आश्रय लेते हैं।
शठौ समेतौ दृढसख्यमेतौ, तारुण्यमारौ कृतलोकमारौ। भेत्तुं यतेतां मम जातु चित्त-दुर्गं महात्मन्निति मास्म मंस्थाः ॥१६॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
(३७)
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :
हे
महात्मन्! तुम इस प्रकार मत मानों क्या ये दोनों धूर्त जो कि गाढ़मैत्री से युक्त हैं तथा जिन्होंने लोगों को संसार भ्रमण रूप किया है ऐसे तारुण्य और कामदेव कभी भी मेरे चित्त रूपी दुर्ग को भेदन करने का यत्न कर सकते हैं?
अर्थ
हे नाथ! विवेक रूपी नेत्र के ज्ञान को हरकर अन्धे हुए जगत् को असमाधि रूप गड्ढे में गिराता हुआ यौवन रूप अन्धकार तुम्हारे ज्ञान रूपी सूर्य के मोह का विस्तार न करे ।
ܚ܀
हृत्वा विवेकाम्बकबोधमन्धी - भूतं जगत्पातयदाधिगर्ते । तावत्तव ज्ञानविभाकरस्य, तन्वीत तारुण्यतमो न मोहम् ॥ १७ ॥
ब्रह्मास्त्रभाजः कुसुमास्त्रयोधी, मारोऽपि किं ते घटते विरोधी । विरोत्स्यते वा खलु तद्बहूक्त्वा, भोक्ता बलिस्पर्धफलं स्वयं सः ॥ १८ ॥
अर्थ :पुष्प रूप अस्त्रों से युद्ध करने वाला कामदेव भी ब्रह्मज्ञान रूप अस्त्र को ग्रहण करने वाले आपका विरोधी कैसे घटित होता है ? अर्थात् विरोधी घटित नहीं होता है । यदि विरोध करेगा तो अधिक कहने से बस, वह स्वयं ही बलवान् के साथ स्पर्द्धा का फल भोगेगा ।
यया दृशा पश्यसि देव समा, इमा मनोभूतरवारिधाराः । तां पृच्छ पृथ्वीधरवंशवृद्धौ, नैताः किमम्भोधरवारिधाराः॥१९॥
अर्थ :हे देव! जिस दृष्टि से ये स्त्रियाँ कामदेव की खड्गधारा को देख रही हैं, उस दृष्टि (अभिप्राय) के विषय में पूछिए। ये स्त्रियाँ राजाओं के वंश की वृद्धि के लिए ( पक्ष में- पर्वतों के वंश की वृद्धि के लिए) क्या मेघ की जलधारा नहीं है ? अपितु हैं
ही ।
नयस्य वश्यः किमु संग्रहस्य, स्त्रैणं चलं ध्यायसि सर्वमीश ।
कोशातकी कल्पलते लतासु, दृष्ट्वा च विश्वं व्यवहारसारम् ॥ २० ॥
-:
अर्थ
हे ईश ! तुम संग्रह नय के वशीभूत होकर क्या समस्त स्त्रीसमूह को चञ्चल मानते हो? लताओं में तोरई और कल्पलता को देखकर विश्व को व्यवहार नय रूप सार
वाला जानिए ।
विशेष :नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ़ तथा एवंभूत के भेद से नय सात प्रकार के होते हैं। संग्रह नय का उदाहरण इस प्रकार है - जैसे यह जगत् सत् रूप है। सत् के अन्तर्गत सारे पदार्थों का संग्रह हो जाता है । व्यवहार नय का कार्य के भेद प्रभेद करना है । जैसे - द्रव्य के छह भेद होते हैं । इन भेदों में एक भेद
वस्तु
(३८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३ ]
-
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीव भी होता है । जीव दो प्रकार के होते हैं - संसारी और मुक्त । संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के होते हैं। इस प्रकार व्यवहार नय वहाँ तक भेद प्रभेद करता जाता है, जहाँ तक सम्भव है। कवि का कहना है कि जैसे सारी लतायें एक जैसी नहीं होती है, उसी प्रकार सारी स्त्रियाँ एक जैसी नहीं होती हैं।
किं शंकशे दारपरिग्रहेण, विरागतां निर्वृतिनायिकायाः।
प्रभुः प्रभूतेऽप्यवरोधने स्या-नागः पदं लुम्पति न क्रमं चेत् ॥ २१॥ अर्थ :- हे नाथ! आप स्त्रियों को स्वीकार करने से मोक्ष रूपी नायिका आपसे विरागता को प्राप्त हो जाएगी, ऐसी आशङ्का क्यों करते हैं? स्वामी प्रचुर अन्तःपुर होने पर भी अपराध के स्थान नहीं होंगे, यदि क्रम का उलंघन न हो। तात्पर्य यह कि इस समय आप पाणिग्रहण करें, बाद में मोक्ष रूपी नायिका का भी सेवन करें।
अद्यापि नाथः किमसौ कुमारो, निष्कन्यकं किं वरिवर्त्यवन्याम्। भृत्योंऽतरङ्गोऽस्य हरिर्विचेता, यायावरं वेंत्ति न यौवनं यः॥ २२॥ इत्थं मिथः पार्षदनिर्जराणां, कथाप्रथाः कर्णकटूर्निपीय। तेषां प्रदाने प्रबलोत्तरस्य, दरिद्रितोऽहं त्वयि नायकेऽपि॥ २३॥
युग्मम्॥ अर्थ :- क्या वह नाथ अब भी कुमार हैं, क्या पृथ्वी पर कन्याओं का अभाव है, इनका अन्तरङ्ग सेवक इन्द्र बेखबर है, जो जाते हुए यौवन को नहीं जान पा रहा है, इस प्रकार सभ्य देवों की कथा परम्परा का पान करते हुए हे नाथ! आप जैसे अधिपति के होने पर भी मैं उन्हें प्रबल उत्तर देने में दरिद्र हो गया हूँ।
वयस्यनङ्गस्य वयस्य भूते, भूतेश रूपेऽनुपमस्वरूपे।
पदीन्दिरायां कृतमन्दिरायां, को नाम कामे विमनास्त्वदन्यः॥२४॥ अर्थ :- यौवन में काम के मित्रसदृश होने पर, रूप में अनुपम स्वरूप होने पर, लक्ष्मी के चरणों में स्थान बना लेने पर हे प्राणियों के स्वामी! तुमसे भिन्न कौन काम के प्रति विमुख होगा?
जाने न किं योगसमाधिलीन, विषायते वैषयिकं सुखं ते।
तथापि संप्रत्यनुषक्तलोक, लोकस्थितिं पालय लोकनाथ॥ २५॥ अर्थ :- हे योग समाधि लीन! क्या मैं यह बात नहीं जानता हूँ अर्थात् जानता ही हूँ कि आपको विषय सम्बन्धी सुख विष के समान लगता है, तथापि इस समय लोक के आश्रय हे लोकनाथ! लोक की स्थिति का पालन कीजिए।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
(३९)
For Private-& Personal Use Only
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्वयैव याऽभूत्सहभूरभूमि-स्तमोविलासस्य सुमङ्गलेति।
राकेव सा केवलभास्वरस्य, कलाभृतस्ते भजतां प्रियात्वम्॥२६॥ अर्थ :- हे नाथ! पाप के विस्तार की अभूमि जो सुमङ्गला तुम्हारे साथ ही उत्पन्न हुई थीं, वह चन्द्रमा की प्रिया पूर्णिमा के समान केवलज्ञान रूपी सूर्य आपकी प्रिया हो जाय।
अवीवृधद्यां दधदंकमध्ये, नाभिः सनाभिर्जलधेर्महिना।
प्रिया सुनन्दापि तवास्तु सा श्री-हरेरिवारिष्टनिषूदनस्य ॥ २७॥ अर्थ :- हे नाथ! विस्तार में समुद्र के समान नाभि ने जिसे गोद में बढ़ाया था वह सुनन्दा विघ्नों का नाश करने वाले आपकी अरिष्ट नाम दैत्य को मारने वाले नारायण की लक्ष्मी के समान प्रिया हो।
कन्ये इमे त्वय्युपयच्छमाने, जाने विमानैस्त्रिदिवेषु भाव्यम्।
भृपीठसंक्रान्तसकान्तदेवरेकै कदौवारिकरक्षणीयैः॥ २८॥ अर्थ :- हे नाथ! मैं यह जानता हूँ कि आपके इन सुमङ्गला और सुनन्दा के परिणय करने पर स्वर्गों से पृथ्वीतल पर गए हुए सपत्नीक देवों के विमान, एक एक द्वारपाल से रक्षित हो जाएगें।
अधौतपूतद्युतिवारिधौ ते, देहे सुरस्त्रीजनदृक्शफर्यः।
भ्रमन्तु लावण्यतरङ्गभङ्गि-प्रेखोलनोद्वेलितकेलिरङ्गाः॥ २९॥ अर्थ :- हे नाथ! उस अवसर पर लावण्य की कल्लोलों के मोह में झूलने रूप लक्षण से जिनके आमोद-प्रमोद वृद्धि को प्राप्त हैं, ऐसी देवाङ्गनाओं की दृष्टि रूपी मछलियाँ आपके बिना धोए हुए पवित्र द्युति समुद्र रूप देह में भ्रमण करें।
श्रीसार्व जन्यास्तव सार्वजन्या, देवा भवन्तः शुभलोभवन्तः।
पुराकृतप्रौढतपः फलानां, विपक्तिमत्वं हृदि भावयन्तु ॥ ३०॥ अर्थ :- हे श्री सर्वज्ञ! सब लोगों में साधु, शुभकार्य में लोभसंयुक्त देव जान्ययात्रिक होते हुए पूर्वजन्म में किए हुए प्रौढ़ तप रूप फलों के परिपाक का हृदय में विचार करें।
शचीमुखा अप्सरसो रसोर्मि-प्रक्षालनापास्तमलाननु त्वाम्।
तदा ददाना धवलान् सुवाचा-माचार्यकं बिभ्रतु मानवीषु ॥ ३१॥ अर्थ :- हे नाथ! उस अवसर पर आपके पीछे श्रृंगारादि रसों की कल्लोलों के प्रक्षालन से जिसके मल दूर हो गए हैं ऐसे इन्द्राणी प्रमुख देवाङ्गनायें धवलमङ्गलों को प्रदान करती हुई मानुषी, स्त्रियों में शोभन वाणी के आचार्य कर्म को धारण करें। (४०)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वरङ्गणेऽकारि चिरं स्वरङ्गा-द्यो रम्भया नृत्यपरिश्रमः प्राक्।
अग्रेभवत्सम्भविता तदानी-मभ्यासलभ्या फलसिद्धिरस्य ॥ ३२॥ अर्थ :- रम्भा नामक देवाङ्गना ने स्वर्ग के आँगन में जो नृत्य के योग्य परिश्रम पहले चिरकाल तक किया। इस श्रम की अभ्यास से प्राप्त करने योग्य फल की सिद्धि पाणिग्रहण के क्षण आपके आगे होगी।
त्वत्तः प्रभोः स्वासहनात्यलाय्य, रागः श्रितस्तुम्बरुनारदादीन्।
गुणावलीगानमिषेण देव, तदा तदास्यात्तव संगसीष्ट॥ ३३॥ अर्थ :- हे देव! अपने समर्थ शत्रु से भागकर तुम्बरु और नारद आदि को जिसने आश्रय लिया है ऐसा राग उस अवसर पर तुम्बरु नारदादि के मुख से गुणों के समूह के गान के बहाने से तुम्हारे सान्निध्य को प्राप्त हो जाय।
एवं विवाहे तव हेतवः स्यु-रन्येऽपि भावाभुवनप्रसत्तेः।
यथोचित्तं तत्प्रविधेहि धीम-नितीरयित्वा विरराम वजी॥ ३४॥ अर्थ :- हे नाथ! इस प्रकार अन्य भी भाव आपके विवाह में तीनों भुवनों में सौख्य के कारण हों। अतः हे धीमन् यथायोग्य कार्य करो। इन्द्र इस प्रकार कहकर निवृत्त हो गया।
स्वं भोगकर्माथ विपाककाल्यं, जानन्नजोषिष्ट जिनः सजोषम्।
अतात्त्विके कर्मणि धीरचित्ताः, प्रायेण नोत्फुल्लमुखी भवन्ति ॥३५॥ अर्थ :- अनन्तर अपने भोगकर्म के विपाक के काल के योग्य कर्म को जानते हुए भगवान् ने मौन का सेवन किया। धीरचित्त अतात्त्विक कर्म में प्रायः प्रहसित मुख नहीं होते हैं।
इन्द्रोऽवसाय व्यवसायसिद्धिं, स्वस्येङ्गितैर्भागवतैस्तुतोष।
भृत्यो हि भर्तुः किल कालवेदी, नेदीयसीं वाक्फलसिद्धिमेति ॥३६॥ अर्थ :- इन्द्र भगवान् सम्बन्धी चेष्टाओं से अपने उपक्रम की सिद्धि जानकर सन्तुष्ट हुआ। निश्चित रूप से स्वामी के अवसर को जानने वाला सेवक समीपवर्तिनी वाणी के फल की सिद्धि को प्राप्त करता है।
जग्राह वीवाहमहाय मंक्षु, मुहूर्तमासन्नमथो महेन्द्रः।
अवत्सरायन्त यदन्तरस्था, लेखेषु हल्लेखिषु काललेशाः ॥ ३७॥ अर्थ :- अनन्तर इन्द्र ने शीघ्र ही विवाहोत्सव के लिए समीपवर्ती मुहूर्त ग्रहण किया। हृदय को लिखने वाले लेखों में मुहूर्त के अन्तराल में स्थित काल के लेश वर्ष के समान आचरण करते थे। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
(४१)
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैवाहिके कर्मणि विश्वभर्तु-र्यदादिदेश त्रिदशानृभुक्षाः।
बुभुक्षिताह्वानसमानमेत-दमानि तैः प्रागपि तन्मनोभिः॥ ३८॥ अर्थ :-- इन्द्र ने स्वामी के वैवाहिक कर्म में देवों को जिस कार्य का आदेश दिया था। उन देवों ने यह कार्य भूखों के आह्वान के समान माना। क्योंकि उनका मन पहले से ही उसके चित्त के अनुरूप था।
मनोभुवा कल्पनयैव जिष्णो-स्तत्र क्षणादाविरभावि शच्या।
तन्नाद्भुतं सा हृदये स्वभर्तु-नित्यं वसन्ती खलु वेद सर्वम् ॥ ३९॥ अर्थ :- इन्द्राणी उस स्थान पर इन्द्र की कल्पना मात्र से क्षण भर में प्रकट हो गई, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। वह अपने स्वामी के हृदय में नित्य रहती हुई निश्चित रूप से सब जानती थी।
स्वयं प्रभूपास्तिपरः शचीशः,शची शुचिप्राज्यपरिच्छदां सः।
न्यदिक्षतोपस्करणे कुमार्यो-र्नार्यो हि नारीष्वधिकारणीयाः॥ ४०॥ अर्थ :- स्वयं प्रभु की उपासना करने में तत्पर इन्द्र ने इन्द्राणी को सुमङ्गला और सुनन्दा कुमारियों के अलङ्करण का आदेश दिया। निश्चित रूप से नारियाँ नारियों पर अधिकार रखने के योग्य होती हैं। . विशेष :- नारियाँ नारियों पर अधिकार रखती हैं, इसके विषय में कहा गया है -
सदा प्रमाणं पुरुषा नृपांगणे रणे वणिज्येषु विचारकर्मसु । विवाहकर्मण्यथ-गेहकर्मणि प्रमाणभूमिं दधते पुनः स्त्रियः। तदाभियोग्या विबुधा वितेनुर्मणिर्मयं मण्डपमिन्द्रवाचा।
स्वं दास्यकर्मापि यशःसुगन्धि, पुण्यानुबन्धीत्यनुमोदमानाः॥४१॥ अर्थ :- उस अवसर पर अपने दास्य कर्म को भी यश की सुगन्धि रूप तथा पुण्य को बाँधने वाला मानकर अनुमोदन करने वाले अभियोग्य जाति के देवों ने इन्द्र की वाणी के अनुसार मणिमय मण्डप बनाया।
रत्नैः सयत्नं जनितैः स्वशक्त्या, तले यदीये त्रिदशैर्निबद्धे।
रत्नप्रभेत्यागमिकी निजाख्या-नया पृथिव्या न वृथा प्रपेदे॥४२॥ अर्थ :- जिस मण्डप के तले देवों द्वारा अपनी शक्ति से यत्नपूर्वक उत्पादित रत्नों से निबद्ध होकर इस साक्षात् दिखाई देती हुई पृथिवी ने रत्नप्रभा इस आगम सम्बन्धी अभिधान को व्यर्थ प्राप्त नहीं किया।
(४२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैडूर्यवर्यधुतिभाजि भूमौ-वितानलम्बी प्रतिबिम्बिताङ्गः।
मुक्तागणो वारिधिवारिमध्य-निवासलीलां पुनराप यत्र ॥ ४३॥ .. अर्थ :- जिस मण्डप में श्रेष्ठ वैडूर्यमणि की द्युति को प्राप्त भूमि में प्रतिबिम्बित अङ्ग वाले चँदोवे पर विस्तार को प्राप्त मोतियों ने समुद्र के जल के मध्य निवास करने की लीला को प्राप्त किया।
संदर्शितस्वस्तिकवास्तुमुक्ता-रदावलिः स्फाटिकभित्तिभाभिः।
यद्भूरदूरप्रभुपादपाता, मुक्ता चिरात्ते न दिवं जहास॥ ४४॥ अर्थ :- जिसने स्वस्तिक स्थान रूप मोतियों के दाँत दिखलाए हैं, प्रभु का चरणनिक्षेप जिसके समीपवर्ती है ऐसी उन भगवान् के द्वारा चिरकाल से मुक्त जो मण्डप की भूमि स्फटिकमणिमय दीवालों की आभा से स्वर्ग लोक की हँसी उड़ाती थी।
विश्वामविश्वासमयीमधीत्य, नीतिं यदौपाधिकपुष्पपुञ्जात्।
सत्येऽपि पुष्पप्रकरे पतद्भि-रालम्बि रोलम्बगणैर्विलम्बः॥४५॥ अर्थ :- जिसके कृत्रिम पुष्पों के समूह से समग्र अविश्वास मयी नीति का अध्ययन कर भौरे गिरने वाले फूलों के समूह पर लटके।।
जगजनो येन पुराखिलोऽपि, व्यलोपितं यत्र विकीर्णमन्तः।
ममर्द पुष्पप्रकरापदेशं, पदैः स्मरेषुव्रजमेष युक्तम्॥ ४६॥ . अर्थ :- जिस कामदेव के बाणों के समूह द्वारा पहले समस्त संसार के लोग लुप्त कर दिए गए थे। इस जगज्जन ने फूलों के समूह के बहाने से उस कामदेव के बाणों के समूह को पैरों से मसल डाला, यह बात उचित ही है।
यत्रादूतस्तम्भशिरोविभागा, बभासिरे काञ्चनशालभंज्यः।
प्रागेव संन्यस्तभुवो भविष्य-जनौघसम्मर्दभियेव देव्यः॥४७॥ अर्थ :- जिस मण्डप में भाविजन समूह की भीड़ के भय से ही मानो पहले से ही जिसने भूमि को छोड़ दिया है, ऐसी देवाङ्गनाओं के समान जिन्होंने स्तम्भ के अग्रभाग का आदर किया है, ऐसी सुवर्णमयी पुत्तलिकायें (शालभञ्जिकायें) सुशोभित हो रही थीं।
सुचारुगारुत्मततोरणानि, द्वाराणि चत्वारि बभुर्यदग्रे।
देवीषु रुद्धाग्रपथासु रोषाद, भ्रूभङ्गभाञ्जीव दिशां मुखानि॥४८॥ अर्थ :- जिस मण्डप के अग्रभाग पर देवियों के द्वारा मार्ग का अग्रभाग रोके जाने पर
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
(४३)
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
रोष से उत्पादित भ्रकुटि संयुक्त दिशाओं के अग्रभाग के समान सुन्दर गरुड़मणि के । तोरणों से युक्त चार द्वार सुशोभित हो रहे थे।
अलम्भि यस्योपरि शातकुम्भ-कुम्भरनुद्भिनसरोरुहाभा।
नभःसरस्यां चपलैर्ध्वजौधैर्विसारिवैसारिणचारिमा च॥ ४९॥ अर्थ :- जिसके ऊपर सुवणे क कुम्भा ने आकाश रूपी सरोवर में अविकासत कमल की आभा और चंचल ध्वजाओं के समूह ने प्रसरणशील मत्स्य की शोभा को प्राप्त किया।
तथा कथाः पप्रथिरे सुरेभ्यस्त्रिविष्टपे तत्कमनायतायाः।
यथा यथार्थत्वमभाजि शोभा-भिमानभङ्गादखिलैर्विमानैः॥५०॥ अर्थ :- तीनों भुवनों में देवों के द्वारा मण्डप की मनोज्ञता की उस प्रकार कथा का विस्तार किया गया कि समस्त विमानों ने शोभा के अभिमान के भङ्ग से यथार्थपने को (निरभिमानिता को) प्राप्त किया।
श्रीदेवता हैमवतं वितन्द्रा, शच्याज्ञया चन्दनमानिनाय।
निनिन्द स स्वं मलयाचलस्तु, द्विजिह्वबन्दीकृतचन्दनदुः॥५१॥ अर्थ :- श्री नामक देवी आलस्य रहित होकर शची की आज्ञा से सुवर्णमयी चन्दन ले आयी। पुनः सर्पो (अथवा दुर्जन) के द्वारा जिसके चन्दन के वृक्ष बन्दी बना लिये गए हैं, ऐसे मलयपर्वत ने अपने आपकी निन्दा की। विशेष :- दुर्जन के हाथ में गयी हुई वस्तु का पवित्र अवसर पर व्यय करना सम्भव नहीं होता है।
उपाहरन्नन्दनपादपानां, पुष्योत्करं तत्र दिशां कुमार्यः।
शिरस्यपुष्पप्रकरस्य शेषै-वृक्षैर्वृथा वैवधिकी बभूवे॥५२॥ अर्थ :- उस मण्डप में दिक्कुमारियाँ नन्दनवृक्षों के पुष्प समूह को ले आयीं। चंपक, अशोक, पुन्नाग, प्रियंगु, पाटला, प्रभृति वृक्ष सिर के फूलों के समूह के व्यर्थ भारवाहक
हुए।
वध्वोरलंकारसहं सहर्षा, मणीगणं पूरयति स्म लक्ष्मीः।
वारांनिधेस्तद्धनिनश्चिरत्नो, रत्नोच्चयः फल्गुरभूच्चितोऽपि॥५३॥ अर्थ :- लक्ष्मी हर्षयुक्त होकर सुमङ्गला और सुनन्दा के अलङ्करण के समर्थ रत्नसमूह को पूरती थी। धनी (कृपण) समुद्र का चिरकाल से संचित रत्नों का समूह निष्फल हो गया।
(४४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन्दाकिनी रोधसि रूढपूर्वा, दूर्वा वरार्थार्य समानिनाय।
पराभिराभिर्नवरं जिजीवे, वालेयदन्तक्रकचार्तिहेतोः॥ ५४॥ अर्थ :- गंगानदी वर के लिए तट पर पहले से ही उगी हुई दूर्वा लायी। अन्य दूर्वाओं न केवल गधों के दाँत रूपी तलवार की पीड़ा के लिए जीवन धारण किया।
कश्मीरवासा भगवत्यदत्त, काश्मीरमालेप्यमनाकुलैव।
यत्रापि तत्रापि भवन हीदं, मद्देशनाम त्यजतीति बुद्धया ॥ ५५॥ अर्थ :- यह कुंकुम जहाँ कहीं विद्यमान रहता हुआ मेरे देश के नाम को नहीं त्यागता है, कश्मीर में रहने वाली सरस्वती ने आलेपन के योग्य कुंकुम को निश्चित रूप से इसी बुद्धि से आकुलता से रहित होकर दे दिया।
करोषि तन्वङ्गि किमङ्गभङ्ग, त्वमर्धनिद्राभरबोधितेव। न सांप्रतं संप्रति तेऽलसत्वं, कल्याणि कार्पण्यमिवोत्सवान्तः॥५६॥ आलम्बितस्तम्भमवस्थितासि, बाले जरातेव किमेवमेव। अलक्ष्यमन्विष्यसि किं सलक्ष्ये, साधोः समाधिस्तिमितेव दृष्टिः॥५७॥ मनोरमे मुञ्चसि किं न लीला-मद्याप्यविद्यामिव साधुसङ्गे। इतस्ततः पश्यसि किं चलाक्षि, निध्यातयूनी पुरि पामरीव॥ ५८॥ भूपां वधव्यां द्रुतमानयध्वं, धृत्वा वरार्थं धवलान् ददध्वम्। शच्येरितानामिति निर्जरीणां, कोलाहलस्तत्र बभूव भूयान्॥ ५९॥
. चतुर्भिः कलापकम् अर्थ :- हे दुर्बल शरीर वाली! तुम अर्द्धनिद्रा के समूह से जाग्रत हुई सी अङ्गभङ्ग क्यों कर रही हो। हे कल्याणि! इस समय उत्सव के मध्य में कृपणता के समान तुम्हारे लिए आलस्यपना युक्त नहीं है । हे बाले ! वृद्धावस्था के कारण दुःखी हुई के समान स्तम्भ का सहारा लिए हुए यों ही क्यों ठहरी हुई हो? हे सलक्ष्ये! साधु की समाधि से निश्चल दृष्टि के समान अलक्ष्य को क्यों ढूँढ रही हो? हे मनोरमे! तुम (किसी) साधु के सङ्ग में अविद्या के समान लीला को नहीं छोड़ रही हो । हे चञ्चल आँखों वाली ! नगर में युवकों को ध्यान से देखती हुई ग्राम्या स्त्री के समान क्या देख रही हो? वधू के योग्य भूषा को शीघ्र ही लाओ। तुम सब वर के लिए धवल (वस्त्र अलङ्कार आदि) दो, इस प्रकार शची के द्वारा प्रेरित देवियों का उस मण्डप में अत्यधिक कोलाहल हुआ।
अथालयः शैलभिदः प्रियायाः, संस्कर्तुकामा वसुधैकरत्ने। निवेश्य कन्ये कनकस्य पीठे, रत्नासनाख्यां ददुरस्य दक्षाः॥६०॥
(४५)
(जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- अनन्तर इन्द्र की प्रिया शची की निपुण सखियों ने संस्कार करने को । अभिलाषा से पृथिवी की अद्वितीय रत्न सुमङ्गला और सुनन्दा को सुवर्ण के आसन पर बैठाकर इसकी रत्नासन आख्या दी।
उभे प्रभौ स्नेहरसानुविद्धे, स्नेहैः समभ्यज्य च संस्नपय्य।
लावण्यपुण्ये अपि भक्तितस्ता, न स्वश्रयेऽमंसत पौनरुक्त्यम्॥६१॥ अर्थ :- श्री ऋषभदेव के प्रेम रस में व्याप्त तथा सौन्दर्य से पवित्र होने पर भी दोनों कन्याओं को तेल लगाकर तथा स्नान कराकर उन सखियों ने भक्ति से अपने श्रम की पुनरुक्ति नहीं मानी। विशेष :- वे दोनों कन्यायें पहले से प्रभु के प्रति प्रेमरस से (अथवा तेल से) व्याप्त थीं तथा लावण्य से पवित्र थीं पुनः स्नेह (तेल) से अनुविद्ध करने पुनरुक्ति होगी, किन्तु भक्तिभाव के कारण यहाँ पुनरुक्ति नहीं मानी जाएगी। स्नेह का अर्थ तेल तथा प्रेम दोनों होता है।
तृषातुरेणेव पटेन चान्त-स्त्रानीयपानीयलवे जवेन।
स्फुरन्मयूखे निभृते क्षणं ते, सुवर्णपुत्र्योः श्रियमन्वभूताम्॥६२॥ अर्थ :- वेगपूर्वक मानो प्यास से आकुल हों, इस प्रकार वस्त्र से ग्रसित किया है स्नान के योग्य जल को जिन्होंने तथा निश्चल किरणें जिनसे निकल रही हैं ऐसी दोनों कन्याओं ने एक क्षण में सुवर्ण पुत्रियों की शोभा का अनुभव किया।
सगोत्रयोर्मूर्ध्नि तयोरुदीय, नितम्बचुम्बी चिकुरौघमेघः।
वर्षन् गलन्नीरमिषान्मुखाब्जा-न्यस्मेरयच्चित्रमवेक्षकाणाम्॥ ६३॥ अर्थ :- सुमङ्गला और सुनन्दा के (जिनके समान गोत्र हैं) नितम्ब का स्पर्श करने वाला (प्रधान पर्वत के) मस्तक पर उदित होकर (अथवा मेखला का स्पर्श करने वाला) आश्चर्य है केशों का समूह रूप मेघ गिरते हुए नीर के बहाने से वर्षता हुआ देखने वालों के मुखकमलों को विकसित करता था।
धम्मिल्लमल्लोऽधिगतस्मरास्त्र-मालोऽन्तरालोल्लसितप्रसूनैः।
तन्मौलिवासाद् बलवान्न कस्य, बलीयसोऽप्येजयति स्म चेतः॥६४॥ अर्थ :- मध्य में जिसके फूल खिल रहे हैं तथा जिसने काम के अस्त्रों की माला प्राप्त की है ऐसा बद्धकेशकलाप रूपी मल्ल किसके बलवान् भी चित्त को कम्पित नहीं करता है।
(४६)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
साराङ्गरागैः सुरभिं सुवर्ण-मेवैतयोः कायमहो विधाय।
जढे सुवर्णस्य सुराङ्गनाभिः, सौगन्थ्यवंध्यत्वकलङ्क पङ्कः॥६५॥ अर्थ :- सुमङ्गला और सुनन्दा के सुवर्णमयी शरीर को श्रेष्ठ विलेपनों से आश्चर्य है, सुगन्धित कर देवाङ्गनाओं ने सुगन्धरहितता के कलङ्क रूपी कीचड़ को हर लिया।
तयोः कपोले मकरी: स्फुटाङ्गी-र्यगन्धधूल्या लिलिखुस्त्रिदश्यः।
स्मरं स्वधार्यं मकरः पुरन्ध्री-स्नेहेन धावंस्तदिहानिनाय॥६६॥ अर्थ :- देवाङ्गनाओं ने सुनन्दा और सुमङ्गला के कपोल पर जो कस्तूरी से प्रकटरूप वाली मकरी लिखी थी, वह मकर स्त्री के प्रति प्रीति से दौड़ता हुआ अपने द्वारा धारण करने के योग्य कामदेव को यहाँ ले आया। विशेष :- कामदेव मकरध्वज कहा जाता है। मकरमकरी के स्नेह से वहाँ कामदेव भी आ गया, यह भाव है।
बभार मारः कुचकुम्भयुग्मं, क्रीडन् धुवं कान्तिनदे तदङ्गे।
यत्पत्रवल्ल्यो मृगनाभिनीला, निरीक्षितास्तत्परितोऽनुषक्ताः॥६७॥ अर्थ :- कामदेव कान्तिनद रूप उस कन्याओं के अङ्ग में क्रीडा करता हुआ निश्चित रूप से स्तनकलशयुगल को धारण करता था; क्योंकि वह कुम्भयुगल चारों ओर से लगी हुई कस्तूरियों से नीली पत्रवल्लियों में दिखाई पड़ता था।
तनूस्तदीय ददृशेऽमरीभिः, संवीतशुभ्रामलमञ्जवासा।
परिस्फुटस्फाटिककोशवासा, हैमीकृपाणीव मनोभवस्य ॥ ६८॥ अर्थ :- देवाङ्गनाओं ने निर्मल स्फटिक के कोश में जिसका वास है, ऐसी कामदेव की सुवर्णमयी छुरी के समान धारण किए हैं शुभ्र, निर्मल और सुन्दर वस्त्रों को जिसने ऐसी कन्याद्वय के शरीर को देखा।
द्वारेण वां चेतसि भर्तुरेष, संश्रेषमाप्स्यामि मुमुक्षितोऽपि।
इतीव लाक्षारसरूपधारी, रागस्तयोरंहितलं सिषेवे॥ ६९॥ अर्थ :- मोक्ष का इच्छुक होने पर भी मैं तुम दोनों के द्वारा ऋषभदेव के चित्त में सम्बन्ध मानों ऐसा मानकर महावर के रूप को धारण करने वाले राग ने कन्याद्वय के चरणतल की सेवा की।
मन्दारमालामकरन्दबिन्दु-सन्दोहरोहत्प्रमदाश्रुपूरा। दूरागता शैत्यमृदुत्वसारा, सखीव शिशेष तदीयकण्ठम् ॥७०॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
(४७)
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- मकरन्द के बिन्दुओं के समूह रूप वृद्धि को प्राप्त स्त्रियों के आँसुओं से भरी हुई, शीतलता और मृदुता रूपसार वाली मन्दार पुष्पों की माला ने दूर से आई हुई सखी के समान सुमङ्गला और सुनन्दा के कण का अलिङ्गन किया।
न्यस्तानि वध्वोर्वदनेऽमरीभिराभाभरं भेजुरभरङ्गम्।
उद्वेगयोगेऽपि भुजङ्गवल्ले-दलानि सुस्थानगुणः स कोऽपि ॥७१॥ अर्थ :- नागवल्ली के देवाङ्गनाओं के द्वारा कन्याद्वय के मुख पर फेके गए पत्तों ने सन्ताप का योग (सुपारी का योग) होने पर भी जिसमें चूर्ण या रंग का भङ्ग नहीं हुआ है ऐसे आभासमूह का सेवन किया। वह कोई अच्छे स्थान का गुण जानना चाहिए। विशेष :- एक नागवल्ली के पत्ते, दूसरे उद्वेग का योग, ऐसी स्थिति होने पर भी जो रंग हुआ वह कन्याद्वय के मुखस्थान का गुण जानना चाहिए। - मास्म स्मरान्धं त्वरया पुरान्तः-संचारिचेतः पतदत्र यूनाम्।
इतीव काप्युत्पलकर्णपूरै-स्तत्कर्णकूपौ त्वरितं प्यधत्त॥ ७२॥ अर्थ :- किसी देवाङ्गना ने नील कमल रूप कर्णाभूषणों से उन दोनों के कर्णकूप शीघ्र आच्छादित कर दिए, मानो ऐसा मानकर इन दोनों के कर्णकूप के यौवन को प्राप्त शीघ्र ही अन्तःपुर के अन्दर विचरण करने वाला चित्त काम से अन्धा होता हुआ पतित नहीं हुआ था।
भोगीदमीयः किलकेशहस्त-स्ततान यूनां हृदि यं विमोहम्।
सोऽवर्धि चूडामणिनापि तेषा-मथो गतिः केत्यवदन्मघोनी॥७३ ।। अर्थ :- इन दोनों के कुसुम कस्तूरिकादि के सद्भाव से युक्त (पक्ष में-सर्प से युक्त) केशकलाप ने युवकों के हृदय में जिस विमोह का विस्तार किया। वह विमोह चूडामणि से भी वृद्धि को प्राप्त हुआ। युवकों की अब क्या गति होगी? इस प्रकार इन्द्राणी बोली। विशेष :- सर्ममणि का विष उतरता है, ऐसी रुढि है। उस कन्याद्वय के शिर पर केशसमूह और सर्प के ऊपर चूडामणि देखकर युवक विशेष रूप से व्यामोहित हो गए।
हस्ते शिलाकावदने च तिष्ठदनिष्ठरं तन्नयनप्रविष्टम्।
धिक्कज्जलं भस्मयति स्म यूनः, को विश्वसेत्तापकरप्रसूतेः॥७४॥ अर्थ :- हाथ में और सलाई के मुख (अग्रभाग में) ठहरता हुआ शान्त जो नेत्रों में प्रविष्ट होता हुआ युवक को भस्म करता है, उस कज्जल को धिक्कार हो, अग्नि अथवा दुर्जनादि से जिसकी उत्पत्ति है, उसका कौन विश्वास करता है? विशेष :- कज्जल पहले हाथ में धारण किया जाता है, अनन्तर सलाई के अग्रभाग पर (४८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
रखा जाता है। इस अवसर पर वह किसी को व्यामोहित नहीं करता है, किन्तु नयनों में प्रविष्ट होते ही कज्जल ने विश्वासघात किया । अग्नि अथवा दुर्जनादि (तापकर) का विश्वास नहीं करना चाहिए, यह भाव है ।
शची स्वहस्तेन निवेश्य मौलौ, मौलिं मणीनां किरणैर्जटालम् । तयोर्गुणाधिक्यभवं प्रभुत्व-मशेषयोषित्सु दृढीचकार ॥ ७५ ॥
अर्थ :- इन्द्राणी ने अपने हाथ से उन दोनों कन्याओं के सिर पर मणियों की किरणों से व्याप्त मुकुट रखकर समस्त स्त्रियों में गुणों की अधिकता से प्रभुत्व को दृढ़ किया । पारे शिरोजतमसामुदियाय भाले, लक्ष्म्या घनावसथतां गमिते तदीये । विक्षिप्तनागजरजोव्रजसांध्यराग-संकीर्णसीनि तरणिस्तिलकच्छलेन ॥ ७६ ॥
अर्थ :सूर्य उन दोनों कन्याओं की शोभा से दृढ़स्थानकला को प्राप्त विस्तारित हाथियों से उड़ायी हुई धूलि समूह से सन्ध्याकालीन लालिमा से व्याप्त पर्यन्त देश वाले प्रकाश की किरण रूप तिलक के बहाने से मस्तक पर केश रूप अन्धकार के पार उदित हुआ ।
यच्चाक्रिकभ्रमिदिनाधिपतापवह्नि सेवापयोवहनमुख्यमसोढकष्टम् । पुण्येन तेन तदुरोरुहतामवाप्य, कुम्भो बभाज मणिहारमयोपहारम् ॥ ७७ ॥ अर्थ :- चूँकि कुम्भ ने कुलाल के परिभ्रम रूप सूर्य के सन्ताप रूपी अग्नि का सेवन बल तथा जल को ले जाना जिसमें मुख्य है, ऐसे कष्ट को सहन किया, उस पुण्य से उन कन्याओं के स्तनत्व को प्राप्त कर मणिमय हार रूप उपहार का सेवन किया ।
-
येतयोरशुभतां करणमूले, काममोहभटयोः कटके ते। अङ्गुलीषु सुषमामददुर्या, ऊर्मिका ननु भवाम्बुनिधेस्ताः ॥ ७८ ॥ जो दो कड़े उन दोनों कन्याओं के करमूल में शोभित हुए वे काम और मोहभट के सैन्य जानना चाहिए। जिन मुद्रिकाओं ने उन कन्याओं की अङ्गुलियों को सुशोभित किया, निश्चित रूप से वे संसार समुद्र की लहरें जानना चाहिए ।
अर्थ :
बाह्या
त्रिभुवनविजिगीषोर्मारभूपस्य
ऽवनिरजनि विशाला तन्नितम्बस्थलीयम् । व्यरचि यदिह काञ्ची किंकिणीभिः प्रवल्गच्चतुरतुरगभूषाघर्घरीघोषशंका ॥
७९॥
अर्थ :यह उन दोनों कन्याओं की - नितम्बस्थली तीनों भुवनों को जीतने के इच्छुक कामदेव रूप राजा की अश्ववाहनिका भूमि हुई; क्योंकि नितम्बस्थली में मेखला की
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ३ ]
(४९)
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षुद्रघंटिकाओं ने उछलते हुए चतुर घोड़ों की भूषा रूप घर्घरी की शङ्का को उत्पन्न कर दिया। विशेष :- जहाँ पर घोड़े चलाए जाते हैं, वहाँ पर घर्घरी घोष (हिनहिनाहट का शब्द) होता ही है।
नखजितमणिजालौ स्वश्रियापास्तपद्मौ, गतिविधुरितहंसौ मार्दवातिप्रवालौ। तदुचितमिह साक्षीकृत्य देवीस्तदंही
सपदि दधतुराभां यत्तुलाकोटिवृत्ताम् ॥ ८०॥ अर्थ :- यहाँ पर देवी को साक्षी बनाकर नखों से मणिसमूह को जीतने वाले अपनी शोभा से कमलों को निराकृत करने वाले, गति से हंसों को जीतने वाले, सौकुमार्य से नए अंकुरों का अतिक्रमण करने वाले उन (कन्याद्वय) के दोनों चरण तत्काल ही तराजू की डंडी के दोनों छोरों की उपमा के (अग्रभाग से उत्पन्न) शोभा को धारण करें, यह बात उचित ही है।
एवं स्नातविलिप्तभूषिततनू उद्धृत्य कन्ये उभे मध्ये मातगृहं निवेश्य दिविषद्योषा अदोषासने।
गायन्त्यो धवलेषु तद्गुणगणं तद्वक्त्रवीक्षोत्सव.. च्छेदानाकुलनिर्निमेषनयनास्तस्थुः स्मरन्त्यो वरम्॥८१॥ अर्थ :- धवल गृहों पर दोनों कन्याओं के गुण समूह का गान करती हुई, उनके मुखावलोकन रूप उत्सव में अन्तराल के प्रति आकुलता से रहित निर्निमेष नयनों वाली देवाङ्गनायें स्नान से भूषित शरीर वाली दोनों कन्याओं को स्नान स्थान से लाकर मातृगृह के मध्य में निर्दोष आसन पर बैठाकर वर का स्मरण करती हुई ठहरीं।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविर्धम्मिलादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान्॥ वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये तृतीयोऽभवत्॥ ३॥ ___ कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले धम्मिलकुमारचरितादि महाकवित्व से युक्त नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भवमहाकाव्य में तृतीय सर्ग समाप्त हुआ। इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्रीजयशेखरसूरि विरचित श्री जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का तृतीय सर्ग समाप्त हुआ।
000 (५०)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
४. चतुर्थः सर्गः
अथात्र पाणिग्रहणक्षणे प्रति-क्षणं समेते सुरमण्डलेऽखिल । इलातलस्यातिथितामिवागता-ममंस्त सौधर्मदिवं दिवः पतिः ॥ १ ॥
अर्थ :- अनन्तर इन्द्र ने इस पाणिग्रहण के अवसर पर समस्त देवसमूह के प्रतिक्षण समागत होने पर सौधर्म स्वर्ग को पृथिवी तल का अतिथि समूह ही आया हो ऐसा माना । नवापि वैमानिकनाकिनायका, अधस्त्यलोकाधिभुवश्च विंशिनः । शशी रविर्व्यन्तरवासिवासवा, द्विकाधिकात्रिंशदुपागमन्निह ॥ २ ॥
अर्थ :नव वैमानिक देवों के नायक, बीस पाताल लोक के स्वामी, चन्द्रमा, सूर्य, व्यन्तरेन्द्र इस प्रकार बत्तीस इस मण्डप में आए।
तदा ह्रदालोडनशाखिदोलन-प्रियामुखालोकमुखो मखांशिनाम् ।
रसः प्रयाणस्य रसेन हस्तिनः, पदेन पादान्तरवद्वयलुप्यत ॥ ३ ॥ अर्थ :- तब देवों का जलाशय में अवगाहन, वृक्षों का हिलना, प्रिया के मुख के आलोक की जिसमें प्रधानता है ऐसा रस प्रयाण के रस से जैसे हाथी के पैर में द्विपद चतुष्पदादि के पैर लुप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार लुप्त हो गया ।
1
विनिर्यतां स्वस्वदिवो दिवौकसां स कोऽपि घोषः सुहृदादिहूतिभूः । अभूद्वहायस्यपि यत्र गोव्रजं, विमिश्रितं कः प्रविभक्तुमीश्वरः ॥ ४ ॥
अर्थ :- अपने अपने स्वर्ग से निकलते हुए देवों का मित्रादि के बुलाने से उत्पन्न वह कोई कौलाहल (गोकुल) हुआ। जहाँ वाणी समूह के (अथवा धेनु समूह के ) एकीभूत होने पर आकाश में भी पृथक् करने में कौन समर्थ होगा? अर्थात् कोई नहीं ।
अमीषु नीरन्ध्रचरेषु कस्यचिन्निरीक्ष्य युग्यं हरिमन्यवाहनम् । इभो न भीतोऽप्यशकत्पलायितुं, प्रकोपनः सोऽपि न तं च धर्षितुम् ॥
अर्थ :- अन्य देव का वाहन हाथी किसी देव के यान भूत सिंह को देखकर भयभीत होने पर भी भागने में समर्थ नहीं हुआ। वह सिंह भी देवों में निश्छिद्र चलने पर ईर्ष्यालु होता हुआ उस हाथी को धमकाने में समर्थ नहीं हुआ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ४ ]
(५१)
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
महातनुः स्थूलशिरा विलोहितेक्षणः परस्यासनकासरः पुरः । पलाययन् वाहनवाजिनो व्यधा-तुरङ्गिणां प्राजनविश्रमं क्षणम् ॥ ६॥ अर्थ :- अन्य देव के वाहन भूत घोड़े दौड़ाते हुए जिसका बहुत बड़ा शरीर है, स्थूल मस्तक है, लाल दोनों नेत्र हैं ऐसे आसनभूत भैंसे ने घुड़सवारों को क्षण भर के लिए धमकाकर विश्रान्त किया ।
विशेष
पहले निश्छिद्रता का वर्णन किया। इस पद्य में पलायन कहा, इस प्रकार वचन विरोध होता है, परन्तु मार्ग में कहीं संकीर्णता कहीं असंकीर्णता के कारण कोई विरोध नहीं है !
-:
प्रभोर्विवाहाय रयाद्यियासतां, वितेनिरे प्रत्युत सादिनां श्रमम् । नभोनदीतीरतृणार्पिताननाः, कशाप्रहारैः पथि यानवाजिनः ॥ ७ ॥
अर्थ श्री ऋषभदेव के विवाह के लिए वेगपूर्वक जाने के इच्छुक आकाशगङ्गा के तीर पर स्थित तृणों पर मुँह डालने वाले यानभूत घोड़ों ने मार्ग में कोड़ों के प्रहारों के कारण अश्वारोहियों को थका दिया।
:
विशेष :आकाशगङ्गा के तीर पर तृण कैसे उद्गमित होते हैं, ऐसा किसी के द्वारा पूछे जाने पर उत्तर यह है कि जैसी आकाशगङ्गा होती है, वैसे ही तृण जानना चाहिए।
·
अथवा लोक की रूढ़ि से ऐसा जानना चाहिए। कविशिक्षा में कहा गया है
जालमाद्य नभोनव्यमंभोजाद्यं नदीष्वषि
इस दृष्टि से आगे का वर्णन भी निर्दोष है।
मिथो निरुच्छ्वासविहारिणां सुधा-भुजां भुजालंकृतिघट्टनात्तदा । मणिव्रजो यत्र पपात ते पयः, क्षितिश्च रत्नाकरखानितां गते ॥ ८ ॥ अर्थ :- उस अवसर पर परस्पर में उच्छ्वास के बिना भी विहार करने वाले देवों की भुजाओं के अलङ्कारों की रगड़ से जहाँ पर मणियों का समूह गिरा वहाँ पर वे जल और पृथिवी रत्नाकर और खान संज्ञा को प्राप्त हुए ।
विशेष :
यहाँ पर अनुमान अलङ्कार है ।
भवेत् प्रयाणे भुवि विघ्नकृन्मृगी-दृशां नितम्बस्तनभारगौरवम् । अधोऽवतारे तु सुपर्वयौवतै- स्तदेव साहायककारि चिन्तितम् ॥ ९॥ अर्थ :- स्त्रियों का नितम्ब और स्तनों के भार की गुरुता पृथिवी पर चलते समय विघ्नकारी होते हैं किन्तु देव युवतियों के नीचे उतरने में वही सहायक माना गया है।
(५२)
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४ ]
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपात्तपाणिस्त्रिदशेन वल्लभा, श्रमाकुलाकाचिदुदञ्चिकञ्चका।
वृषस्य या चाटुशतानि तन्वती, जगाम तस्यैव गतस्य विघ्नताम्॥१०॥ अर्थ :- कोई देवाङ्गना मैथुन की इच्छा से सैंकड़ों चाटुकारियों को करती हुई (जिसका कञ्चुक सुशोभित हो रहा है तथा जो श्रम से आकुल है एवं जिसका पाणिग्रहण किया गया है, ऐसी वह) उसी देव के गमन में विघ्रपने को प्राप्त हुई।
पुरस्सरीभूय मनाक् प्रमादिनं, क्वचित् कृषन्तीष्वमरीषु वल्लभम्। विशां वशाः स्युः पथि पादश्रृंखला, इति श्रुतिं केऽपि वृथैव मेनिरे॥११॥ अर्थ :- देवाङ्गनाओं में कुछ प्रमाद करने वाले पति के आगे होकर बलात् खींचने वाली होने पर 'क्या स्त्रियाँ मार्ग में पुरुषों की पादबन्धन होती हैं, इस प्रकार की श्रुति को कुछ देवों ने वृथा माना। दिवो भुवश्चान्तरलङ्गतागतैरवाहि योऽध्वा त्रिदशैरनेकशः।
धुदण्डकत्वेन स एव विश्रुतः, प्रपद्यतऽद्यापि नभोऽब्धिसेतुताम्॥१२॥ अर्थ :- देवों ने स्वर्ग के और पृथिवी के मध्य में अत्यधिक गमनागमनों से जो मार्ग अनेक बार वाहित किया वही मार्ग द्युदण्डक के रूप में विख्यात होकर आज भी आकाश रूपी समुद्र के सेतुबन्धपने को प्राप्त होता है।
जनिर्जिनस्याजनि यत्र सा मही, महीयसी नः प्रतिभाति देवता।
इतीव देवा भुवमागता अपि, क्रमैन संपस्पृशुरेव तां निजैः॥१३॥ अर्थ :- जहाँ भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ, वह पृथिवी हम लोगों को बहुत बड़ी देवी प्रतीत होती है (उसका चरणों से कैसे स्पर्श करें) मानों ऐसा मानकर क्या देवों ने भूमि पर आकर भी अपने चरणों से भूमि का स्पर्श नहीं किया।
मुहूर्तमासीदति किं बिडौजसां, प्रमादितेत्युगिरि नाकिमण्डले।
विमानमानञ्ज तमञ्जसावरं, वरेण्यतैलैः प्रथमः पुरन्दरः॥ १४॥ अर्थ :- क्या मुहूर्त आसन्न है? क्या इन्द्र प्रमाद कर रहे हैं? इस प्रकार देव समूह के कहने पर प्रथम इन्द्र ने श्रेष्ठ तेलों से उस वर को सम्पूर्ण रूप से वह निरहंकार हो जाय उस प्रकार से तैल मर्दन किया।
तनूस्तदीया पटवासकैरभा-द्विशेषतः शोषिततैलताण्डवा। अकृत्रिमज्योतिरमित्रमत्र न, स्निहिक्रिया स्याद् बहिरङ्गगापि किम्॥१५॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४]
(५३)
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :स्वामी का शरीर पटवास से तैल का नृत्य जिसमें सुखा दिया गया है, ऐसा होकर विशेष रूप से सुशोभित हुआ । इन भगवान् के होने पर बाह्य शरीर में स्थित भी तेल की क्रिया क्या सूर्य की विरोधिनी नहीं होती है ? अपितु होती ही है । विशेष :भगवान् के शरीर पर जो मुख्य तेज था वह तैल लगान से आवृत्त हो गया था। चूर्णों से तैल के सुखा दिए जाने पर वह (तेज) प्रकट रूप से ज्ञात हो गया। जलानि यां स्नानविधौ प्रपेदिरे, पवित्रतां तद्विशदाङ्गसंगतः । तयैव तैरादरसंगृहीतयाधुनापि विश्वं पवितुं प्रभूयते ॥ १६ ॥
जल स्नान की विधि में उन भगवान् के निर्मल अङ्ग के संसर्ग से पवित्रता को प्राप्त हुए। आदर से संगृहीत उसी पवित्रता से वे जल आज भी जगत् को पवित्र करने में समर्थ होते हैं ।
अर्थ
---
सुवस्त्रशान्तोदकलेपभासुरः, समन्ततः सङ्गतदिव्यचन्दनः । घनात्ययोद्वान्तजलं मरुद्विरे:, सिताभ्रलिप्तं कटकं व्यजैष्ट सः ॥ १७ ॥
अर्थ :- अच्छे वस्त्र से शान्त हुए जल के लेप से देदीप्यमान, चारों ओर दिव्य चन्दन से युक्त उन भगवान् ने मेघ की समाप्ति होने पर ( शरत्काल में) जिसका जल सूख गया है, ऐसे मेरु पर्वत के श्वेत बादलों से लिप्त शिखर को जीत लिया ।
अमुं पृथिव्यामुदितं सुरद्रुमं, निरीक्ष्यहृन्मूर्ध्नि सुमाञ्चितं सुराः । जगत्प्रियं पुत्रफलोदयं वयः, क्रमादवोचन्नचिरेण भाविनम् ॥ १८ ॥
अर्थ :- देवों ने हृदय और मस्तक पर मंदार, हरिचन्दन, पारिजातादि पुष्पों से पूजित, विश्व के अभीष्ट भगवान् ऋषभदेव को, पृथिवी पर उदित कल्पवृक्ष को देखकर अवस्था के क्रम से (छह लाख पूर्व के अनन्तर ) शीघ्र ही भावी पुत्रफल रूप उदय वाले उनसे कहा ।
अदः कचश्चोतनवारिविपुषो, निपीय यैश्चातकितं तदामरैः । ततः परं तेषु गतं सुधावधि, स्वधिक्क्रियामेव ययौ रसान्तरम् ॥ १९॥ अर्थ :तब जिन देवों ने इन भगवान् के केशों से चूते हुए जल की बिन्दुओं को पीकर पपीहे के समान आचरण किया, उसके बाद अमरों में अमृत से लेकर अन्य रसों ने अपनी निन्दा को ही पाया ।
(५४)
महेशितुः सद्गुणशालिनो वृषध्वजस्य मौलिस्थितितोऽधिकं बभुः ।
अमुष्य सर्वाङ्गमुपेत्य सङ्गमं विशुद्धवस्त्रच्छलगाङवीचयः ॥ २०॥
1
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४ ]
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- विशुद्ध वस्त्र के छल से गङ्गा की तरंगें महास्वामी, नन्दि चण्ड आदि प्रमुख गणों से सुशोभित, वृष लाञ्छन, ईश्वर भगवान् के सर्वाङ्ग सङ्गम को पाकर अत्यधिक सुशोभित हुईं।
कचान् विभोर्वासयितुं सुगन्धयः, प्रयेतिरे ये जलकेतकादयः।
अमीषु ते प्रत्युत सौरभश्रियं, न्यधुर्नमोघा महतां हि सङ्गतिः॥२१॥ अर्थ :- जल केतकी आदि जिन सुगन्धियों ने स्वामी के केशों को सुवासित करने का प्रयत्न किया। उन केशों ने जल केतकी आदि में विशेष रूप से सुगन्ध की लक्ष्मी को निक्षिप्त कर दिया। निश्चित रूप से बड़े लोगों की सङ्गति निष्फल नहीं होती है।
पिनद्धकोटीरकुटीरहीरक-प्रभास्य मौलेरुपरि प्रसृत्वरि।
प्रतापमेदस्विमदां विवस्वतो-ऽभिषेणयन्तीव करावलीं बभौ ॥२२॥ अर्थ :- बद्धमुकुट रूप स्थान में हीरों की प्रभा भगवान् के मस्तक के ऊपर फैलती हुई, प्रताप से स्थूल मद वाले सूर्य की किरणों को मानों सेना सम्मुख आ रही हो, इस प्रकार सुशोभित हो रही थी।
सनिष्कलङ्कानुचरः प्रभार्णवं, विगाह्य नावेव दृशा तदाननम्।
शिरःपदं पुण्यजनोचितं जनो, ददर्श दूरान्मुकुटं त्रिकूट।॥ २३॥ अर्थ :- निष्कलङ्क अनुचरों के साथ (पक्ष में-सुवर्ण सहित लङ्का के प्रति गमन करने वाले) प्रभा के समुद्र उन भगवान् के मुख को नाव के समान दृष्टि से पार कर लोगों ने त्रिकूट के समान मस्तक पर जिसका स्थान है तथा जो पावत्र लोगों के योग्य है (पक्ष में-राक्षसों के योग्य है) ऐसे मुकुट को दूर से देखा। विशेष :- जैसे नाविक लङ्का के समीप त्रिकूट पर्वत को देखता है, उसी प्रकार भगवान् के शिर पर मुकुट देखा । यहाँ पर मुकुट और त्रिकूट में साम्य है । मुकुट शब्द नपुंसक लिङ्ग में भी है।
ललाटपट्टेश्स्य पृथौ ललाटिका-निविष्टमुक्तामिषतोऽक्षराणि किम्।
पतिवरे पाठयितुं रतिश्रुति, लिलेख लेखप्रभुपण्डितः स्वयम्॥ २४॥ अर्थ :- इन्द्रपण्डित (अथवा लिखने में समर्थ पण्डित) ने विस्तीर्ण ललाटपट्ट पर ललाटाभरण पर स्थापित मोतियों के मिष से स्वयं पति को वरण करने वाली सुमङ्गला और सुनन्दा को रतिशास्त्र पढ़ाने के लिए अक्षर लिखाए।
उदित्वरं कुण्डलकैतवादवि-द्वयं विदित्वा परितस्तदाननम्।
क्षतेक्षिते श्रीरिह वज्रिणामपी-त्यजन्यजन्यं विबुधैः फलं जगे॥२५॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
(५५)
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ देवों ने उन भगवान् के
:―
मुख को चारों ओर कुण्डल के बहाने से उदयनशील दो सूर्य जानकर उत्पात से जन्य फल को लोक में कहा, इस कारण क्या इस लोक में सूर्यद्वय के दिखलाई देने पर इन्द्रों की भी लक्ष्मी क्षय को प्राप्त हो गई?
विशेष
सूर्यद्वय और चन्द्रद्वय के दिखाई देने पर राजाओं के उत्पात होता है । उदारमुक्तास्पदमुल्लसद्गुणा, समुज्ज्वला ज्योतिरुपेयुषी परम् ।
तदा तदीये हृदि वासमासदद्, व्रतेऽक्षरश्रीरिव हारवल्ली ॥ २६ ॥ अर्थ :उस अवसर पर उदारमोतियों के स्थान रूप गुण जिसके सुशोभित हो रहे हैं, ऐसी निर्मल परंज्योति को प्राप्त हारलता ने उनके हृदय में मोक्षलक्ष्मी के समान निवास को प्राप्त किया । अर्थात् व्रत और दीक्षा के होने पर जिस प्रकार मोक्ष लक्ष्मी निवास को प्राप्त करती है, उसी प्रकार हारलता ने उनके हृदय में निवास को प्राप्त किया ।
विशेष
-:
मुक्ति लक्ष्मी में ऊर्ध्वगमन और मुक्ति स्थान की प्राप्ति होती है। ऐसे जीव में ज्ञानदर्शनादिक सुशोभित होते हैं और ब्रह्म के समान तेज की प्राप्ति होती है तथा उसकी मोक्ष लक्ष्मी समुज्ज्वल होती है ।
-:
जगत्त्रयीरक्षणदीक्षितौ क्षितौ भुजौ तदीयाविति केन नेष्यते । अवाप हेमाऽपटुसंज्ञमप्यहो, यदङ्गदत्वं तदुपासनाफलम् ॥ २७ ॥
अर्थ :- किस पुरुष के द्वारा पृथिवी पर उन भगवान् की दोनों भुजायें तीनों लोकों की रक्षा में दीक्षित नहीं मानी जाती है, अपितु सभी के द्वारा मानी जाती है। क्योंकि सुवर्ण ने अपटुसंज्ञक होने पर भी आश्चर्य है उन दोनों भुजाओं की उपासना के फलस्वरूप बाहुरक्षत्व (पक्ष में- देहदाहकत्व) को प्राप्त किया।
(५६)
प्रकोष्ठकन्दं कटकेनवेष्टितं, विधायमन्येऽस्य ररक्ष वासवः ।
स पञ्चशाखोऽमरभूरुहो यदु-द्भवस्त्रिलोकीमदरिद्रितुं क्षमः ॥ २८ ॥
अर्थ :मैं तो यह मानता हूँ कि इन्द्र ने कलाई रूप जड़ को कड़े से वेष्टित कर इसकी रक्षा की। जिससे उत्पन्न पञ्च अङ्गुलियों रूप शाखा वाला वह कल्पवृक्ष तीनों लोगों को अदरिद्र बनाने में समर्थ हुआ ।
विशेष जिस कन्द में इस प्रकार का कल्पवृक्ष होता है, वह कैसे रक्षित नहीं होगा अर्थात् अवश्य रक्षित होगा ।
तलं करस्यास्य परं परिष्कृता खिलाङ्गसाधोर्यदभूदभूषितम् । अवैमि देव्या वसनाय तच्छ्रियो, रतिं न भूम्ना भुवि यन्ति देवताः ॥
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ४ ]
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- जो अलंकृत समस्त शरीर से मनोज्ञ इन भगवान् का हस्त तल केवल अनलंकृत था (पक्ष में - पृथ्वी पर नहीं ठहरा था), वह उनकी सौन्दर्य रूपी देवी के वास के लिए मानता हूँ। देवियाँ पृथिवी पर बाहुल्य से प्रीति को प्राप्त नहीं करती हैं। (इस कारण लक्ष्मी प्रभु के हस्त तल में वास करती है, यह भाव है)।
सुवर्णमुक्तामणिभासि वासवै-य॑वेशि तस्यापघनेषु येषु यत्।
तदीयमुख्यधुतिभङ्गभीषणं, विभूषणं तैस्तदमानि दूषणम्॥ ३०॥ अर्थ :- इन्द्रों ने भगवान् के अङ्गों में जो देदीप्यमान सुवर्ण मोती आदि पहनाये। उन इन्द्रों ने उन भगवान् की मुख्य द्युति का भङ्ग करने से भीषण (उन) विभूषण को दूषण
भाना।
विशेष :- भगवान् के शरीर में जो आभूषण पहिनाए जाते थे, उनसे उनके शरीर की कान्ति आच्छादित होती थी, अतः भूषण दूषण माने गए।
यथा भ्रमर्यः कमले विकस्वरे, यथा विहंग्यः फलिते महीरुहे।
उपर्युपर्यात्तविभूषणे विभौ, तथा निपेतुस्त्रिदशाङ्गनादृशः॥ ३१॥ अर्थ :- देवाङ्गनाओं के नेत्र आभूषणों को ग्रहण करने वाले स्वामी पर उस प्रकार पड़े जैसे भ्रमरियाँ कमल पर, जैसे पक्षि-स्त्रियाँ फलयुक्त वृक्ष पर पड़ती है।
हिरण्यमुक्तामणिभिर्निजश्रिय-श्चिराच्चितायाः फलिनत्वमाप्यत।
अलंकृते नेतरि नाकिनां करैः, प्रसाधनाकर्मणि कौशलस्य च ॥३२॥ अर्थ :- स्वामी के अलंकृत होने पर सुवर्ण और मोतियों ने चिरकाल से संचित अपनी लक्ष्मी की सफलता को प्राप्त किया और देवों के हाथों से प्रसाधन के कर्म में कौशल की फलवत्ता को प्राप्त किया।
अथानयत्तस्य पुरः पुरन्दरः, कृताचलेन्द्रभ्रममभ्रमूपतिम्।
व्यसिस्मयद्यत्कटकान्मदाम्बुभिः क्षरद्भिराबद्धजवा यमी न कम्॥३३॥ अर्थ :- अनन्तर इन्द्र भगवान् के आगे, जिसने हिमालय का भ्रम उत्पन्न किया है, ऐसे ऐरावत को ले आया। जिसके कपोल से (पक्ष में - मध्यप्रदेश से) गिरते हुए मद जल से बढ़े हुए वेग वाली यमुना नदी ने किस पुरुष को विस्मय में नहीं डाला। विशेष :- हिमालय से गङ्गा निकलती है, यमुना नहीं, इस प्रकार यहाँ आश्चर्य है।
अगुप्तसप्ताङ्गतया प्रतिष्ठित-स्तरोनिधि नविधिस्फुरत्करः। प्रगूढचारः सकलेभराजतां, दधौ य आत्मन्यपरापराजिताम्॥३४॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४]
(५७)
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :जो ऐरावत प्रकट सात अङ्ग होने से राज्य के सप्ताङ्ग रूप भाव से प्रतिष्ठित होकर वेग की निधि होकर मदजल के कारण सूँड फटकारता हुआ (दान के वितरण में) हस्तसंचालन करता हुआ, गूढ़ गति वाला (गूढ़ गुप्तचरों वाला) अपने में दूसरों के द्वारा अनर्जित समस्त हाथियों के राजत्व को धारण करता था ।
विशेष
सूँड, पूँछ, जनेन्द्रिय तथा चार पैर ये हाथी के सात अङ्ग हैं। स्वामी, अमात्य, सुहृत्, कोश, राष्ट्र, दुर्ग और बल ये राज्य के सात अङ्ग हैं।
-:
क्रमोन्नतस्तम्भचतुष्टयांचितः, शुभंयुकुम्भद्वितयं वहन् पुरः । गवाक्षकल्पश्रुतिरग्र्यदन्तको, जगाम यो जंगमसौधतां श्रिया ॥ ३५ ॥
अर्थ :- चरण रूप उन्नत चार स्तम्भों से युक्त, आगे शुभ संयुक्त दो गण्डस्थलों (कुम्भों) को धारण करता हुआ, खिड़कियों के समान कान वाले तथा आगे दाँत वाले (खूँटी वाले) जिस ऐरावत ने सौन्दर्य में चल प्रसादपने को प्राप्त कर लिया।
वृषध्वजेशानविभोः पवित्र्यते, सदासनं किं मम नो मनागपि । चटूक्तिमाद्यस्य हरेः प्रमाणय- निवेति तं वारणमारुरोह सः ॥ ३६ ॥ अर्थ :हे वृषचिह्न ! ऑप ईशान इन्द्र के आसन को सदा पवित्र करते हैं। मेरे आसन को थोड़ा भी पवित्र नहीं करते हैं । सौधर्मेन्द्र की इस प्रकार की चाटुकारी पूर्ण उक्ति को ही मानों प्रमाणित करते हुए वह भगवान् गज पर सवार हुए।
विशेष :यहाँ पर उत्प्रेक्षा अलङ्कार है । ईशानेन्द्र का वाहन वृषभ है, भगवान् भी वृषभध्वज हैं, यह भाव है ।
शरद्घनः काञ्चनदण्डपाण्डुरातपत्रदम्भात्तडिता कृताश्रयः । जनैरदातेति जुगुप्सितो जिनं, न्यषेवताध्येतुमुदारतामिव ॥ ३७ ॥
अर्थ
सुवर्णदण्ड के समान पीले छत्र के मिष से विद्युत् ने जिसका आश्रय लिया है, लोगों के द्वारा कृपण है, इस प्रकार जिसकी निन्दा की गई है, ऐसे शरत्कालीन मेघ ने मानों उदारता की शिक्षा लेने के लिए ही 'जिन' का सेवन किया।
विशेष :
यहाँ उत्प्रेक्षा अलङ्कार है ।
*--
विहाय नूनं शशिनं कलंकिनं, प्रकीर्णकच्छद्मधरः करोत्करः । शुचिं भाजोभयतस्तदाननं, विधुं विधाय प्रणतिं मुहुर्मुहुः ॥ ३८ ॥ अर्थ :- निश्चित रूप से कलङ्की चन्द्रमा को छोड़कर दो चामरों के मिष को धारण करने वाला किरणों का समूह बार-बार दोनों पार्श्वों में प्रणाम कर भगवान् के मुखचन्द्र का सेवन करता था ।
(५८)....
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य,
सर्ग - ४ ]
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमुक्तवैरा मृदुतिग्मताजुषः, सुरासुराः स्वोचितचिह्नभासुराः ।
प्रभुं परीयुः शशिभास्वतोरिवां शवो दिवो गोत्रमुदारनन्दनम् ॥ ३९॥
-
अर्थ :- जिन्होंने वैर छोड़ दिया है, जो सौकुमार्य और तीव्रता का सेवन करने वाले हैं तथा अपने योग्य चिह्नों से देदीप्यमान हैं ऐसे सुर और असुरों ने परस्पर प्रीति युक्त, सौकुमार्य और तीव्रता का सेवन करने वाली तथा अपने योग्य चिह्नों से देदीप्यमान चन्द्रमा और सूर्य की किरणें जिस प्रकार विस्तृत नन्दन वन से युक्त मेरु की परिक्रमा करती है, उसी प्रकार उदार और समृद्धिकर मेरु स्वरूप प्रभु की प्रदक्षिणा दी ।
प्रभुः प्रतस्थेऽथ बुधे स्वधैर्यतः, समेधयन् रक्तिविरक्तिसंशयम् । मारतारुण्यविभुत्वयोगजा-भिमानघोरासवघूर्णितेक्षणः ॥ ४० ॥
न
अर्थ :- कामदेव के तारुण्य और विभुत्व के योग से उत्पन्न अभिमान रूपी घोर मदिरा से जिनके नेत्र चलायमान नहीं हैं ऐसे प्रभु ने विद्वानों में अपने धैर्य से राग और वैराग्य के सन्देह को बढ़ाते हुए प्रस्थान किया।
अमाति लावण्यभरे स्वभावतोऽप्यमुष्यदेहे किमुतोत्सवे तदा । स्थितानुपृष्ठं लवणं सुराङ्गनो-चितं समुत्तारयति स्म काचन ॥ ४१ ॥
अर्थ :कोई देवाङ्गना पीठ पीछे खड़ी होकर इन भगवान् के देह में स्वाभाविक कान्ति के समूह के न समाने पर सौन्दर्य को ठीक ही उतारती थी, फिर उत्सव में तो कहना ही क्या ?
वरस्य दृष्टान्तयुतं पुरस्सरी, सुरीषु यं यं धवलैर्गुणं जगौ ।
न तत्र तत्र स्वमवेत्य किं शची, शुशोच हीनोपमयापराधिनम् ॥ ४२ ॥
अर्थ :इन्द्राणी देवाङ्गनाओं में अग्रेसरी होकर वर के धवल दृष्टांतों ( कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि, कामकुंभ प्रभृति दृष्टांतों) से युक्त ( औदार्य, धैर्य, गाम्भीर्य, माधुर्य आदि) गुणों का गायन करती थी । उन गुणों से अन्य उपमायें हीन होने के कारण स्वयं को अपराधिनी जानकर क्या वह खेदखिन्न नहीं होती थी? अर्थात् निश्चित रूप से खेदखिन्न होती थी ।
फलानि यासामशनं द्युभूरुहां, सुधारसैः पानविधिस्तदुद्भवैः ।
उलूलगानैः प्रमदः सुधाभुजां, भुजान्तरीयोऽपि मुमूर्छ कौतुकम् ॥ ४३ ॥ अर्थ :- जिन देवाङ्गनाओं के फल भोजन है, जिनकी अमृत रसों से पानविधि होती है, उन देवाङ्गनाओं से उत्पन्न धवलगानों से देवों का हृदय सम्बन्धी भी हर्ष मूर्च्छा को प्राप्त हो गया (वृद्धि को प्राप्त हो गया) यह कौतुक जानना चाहिए।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ४ ] -
(५९)
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेष :- हृदय दृढ़ होता है, उससे उत्पन्न हर्ष भी दृढ़ होने स उसके मूर्छा कैसे हो सकती है? अमृत रस का पान करने वाली देवाङ्गनाओं से उत्पन्न धवलगान भी अमृतमय होते हैं, उनसे भी हर्ष मूर्च्छित नहीं होना चाहिए, फिर मूर्छा कैसे हुई? यह कौतुक है । यहाँ मुमूर्च्छ का अर्थ वृद्धि को प्राप्त होना है।
देवों का फल भक्षण करना, अमृतपान करना यहाँ लोकरूढ़ि से जानना चाहिए, अन्यथा देवों के तो कवलाहार का निषेध है।
हरौ पदातित्वमिते जगत्त्रयी-पतौ सितेभोपगते सुरैः क्षणम्।
किमेष एव धुसदीशितेत्यहो, वितर्कितं च क्षमितं च तत्क्षणम्॥४४॥ अर्थ :- इन्द्र के पदातिपने को प्राप्त होने पर तीनों लोकों के स्वामी ऋषभदेव के श्वेत हाथी (ऐरावत) पर आरूढ़ होने पर देवों ने आश्चर्य है कि क्षण भर इस प्रकार विचार किया कि - क्या यही इन्द्र है? पुनः तत्क्षण देवों ने इन्द्र से क्षमा कराया।
समग्रवाग्वैभवघस्मरः स्मर-ध्वजवजस्यध्वनिरम्बराध्वनि।
अवाप्तमूर्छः स्वयमस्तु मूर्च्छितं, क्षमः किमुजीवयितुं प्रभौ स्मरम्॥४५॥ अर्थ :- वादित्र समूह की सर्ववचनविलास भक्षक ध्वनि आकाश व मार्ग में स्वयं ऋषभदेव के मूर्छा को प्राप्त होने पर मूर्च्छित कामदेव को प्राबल्य से जीवित करने में क्या समर्थ होगी? अपितु नहीं।
सुपर्वगन्धर्वगणाद्गुणावली, पिबन्निजामेव न सोऽतुषत्तराम्। ___अभूत्पुनर्व्यड्मुख एव दोष्मतां, त्रपा स्वकोशे परहस्तगे न किम्॥४६॥ अर्थ :- वे भगवान् देव तथा गन्धर्व समूह से अपने गुणों के समूह का पान करने पर अत्यधिक सन्तुष्ट नहीं हुए, पुनः अधोमुख ही हुए। बलवानों के अपना भण्डार दूसरे के हाथ में चले जाने पर क्या लज्जा नहीं होती है? अर्थात् लजा होती ही है। विशेष :- स्वकीय सारभूत गुण यदि परहस्तगत होते हैं तो लज्जा कैसे नहीं होगी? यह । कवि का अभिप्राय है।
मुदश्रुधारानिकरैर्घनायिते, द्युसच्चये काञ्चनरोचिरुर्वशी।
प्रणीतनृत्याकरणैरपप्रथ-त्तडिल्लताविभ्रममभ्रमण्डले ॥ ४७॥ अर्थ :- स्वर्ण के समान आभा वाला शारीरिक अवयवों से नृत्य करते हुए देवताओं के समूह पर हर्ष के आँसुओं के समूह से मेघ के समान आचरण करने वाली उर्वशी ने आकाश मण्डल में विद्युल्लता के विभ्रम का विस्तार कर दिया था।
६०)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४]
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
विलग्नदेशस्तनुरुन्नतस्तन-द्वयातिभारव्यथितोऽस्य भाजि मा।
घनांगहारौघविघूर्णितं वपु-विलोक्यराम्भं त्रिदृशा इदं जगुः॥४८॥ अर्थ :- देवों ने रंभा के उस शरीर को बहुत से अङ्गहारों के विक्षेपों के समूह से घुमाया हुआ देखकर यह कहा - इसके शरीर का उदर प्रदेश कृश होकर उन्नत स्तनद्वय के अत्यन्त भार से पीड़ित होकर न टूटे।
प्रकाशमुक्तास्रगसंकुचत्स्तन-द्वयं घृताच्यानटने निरीक्ष्य कः।
कृती न कुम्भावतिगूढमौक्तिका-बभर्त्सयजम्भनिशुम्भिकुम्भिनः॥४९॥ अर्थ :- किस कुशल ने देवनर्तकी के नृत्य में प्रकट में मोतियों की मणिमाला से संकुचित न होते हुए स्तनद्वय को देखकर इन्द्र के हाथी के अत्यन्त गूढ़ मोतियों वाले दो गण्डस्थलों की निन्दा नहीं की, अपितु सबने की।
तिलोत्तमा निर्जरपुञ्जरञ्जनार्थिनी कलाकेलीगृहं ननर्त यत्।
सुरैस्तदङ्गद्युतिरुद्धदृष्टिभिः, प्रभूबभूवे तदवेक्षणेऽपि न॥५०॥ अर्थ :- देवसमूह के रंजायमान करने की इच्छुक कला की क्रीडा गृह स्वरूप तिलोत्तमा ने जो नृत्य किया, उसके अङ्ग की युति से रुकी हुई दृष्टि से देव उसके नृत्य के अवलोकन में भी समर्थ नहीं हुए।
अचालिषुः केऽपि पदातयः प्रभोः, पुरोविकोशीकृतशस्त्रपाणयः।
अमूमुहत्किं विबुधानपि भ्रमः, सजन्ययात्रेत्यभिधासमुद्भवः॥५१॥ अर्थ :- कोशरहित किए हुए शस्त्र जिनके हाथ में है ऐसे कोई देव स्वामी के आगे चले। उस विवाह यात्रा (अथवा संग्राम यात्रा) से उत्पन्न भ्रम ने क्या देवों को भी मोहित कर दिया? विशेष :- यहाँ किम् शब्द संशयार्थक है :
प्रसिद्ध एकः किल मङ्गलाख्यया, ग्रहाः परेऽष्टावपि मङ्गलाय ते।
इतीरयन्तीव सुरैः करे धृता, पुरोगतामस्य गताष्टमङ्गली॥ ५२॥ अर्थ :- देवों के द्वारा हाथ में धारण किए गए दर्पण, भद्रासन, वर्द्धमान, वरकलश, मच्छ, श्रीवत्स, स्वस्तिक तथा नन्द्यावर्त अष्टमङ्गल निश्चित रूप से मङ्गल नामक एक ग्रह तो प्रसिद्ध है, दूसरे आदित्य आदि अन्य ग्रह आपके मङ्गल के लिए होवें मानों ऐसा कहते हुए इन भगवान् के आगे प्राप्त हुए।
प्रबुद्धपद्मानननादिषट्पदा, उदारवृत्ताः सुरसार्थतोषिणः। पुरोऽस्य कल्याणगिरि स्थिता स्तुति-व्रतादधु कतटाकसौहृदम्॥५३॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४]
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- खिले हुए कमलों के समान मुखों पर शब्द करने वाले जिनक छन्द विशेष हैं, उदार जिनके कवित्व है, जो देव समूह को हर्षित करने वाले हैं तथा जो शुभवाणी में स्थित है ऐसे भाट लोगों ने इन भगवान् के सामने स्व के सरे रों के सादृश्य को धारण किया।
स्वर्ग के सरोवर कैसे हैं? - जिनमें विकसित कमल हैं, जिन पर भौरे गुंजार न करते हैं, ऐसे नहीं है, अपितु जिन पर भौरे गुंजार करते हैं तथा वे देव समूह को सन्तुष्ट करते हैं एवं मेरु पर्वत पर स्थित हैं।
अभर्मभृत्यश्चलितेऽर्हतिप्रभाः, प्रभाकरः स्वा विनियुक्तवांस्तथा।
यथा वृथाभावमवाप नो दिवा, न तापमापत्सत जान्यिका अपि॥५४॥ अर्थ :- मजदूरी के बिना सेवक सूर्य ने भगवान् ऋषभदेव के चलने पर अपनी प्रभा को उस प्रकार व्यापारित किया कि जिस प्रकार दिन ने वृथाभाव को प्राप्त नहीं किया। साधारण जनों ने भी ताप को प्राप्त नहीं किया।
तथा प्रसन्नत्वमभाजि मार्गगे, जगत्रयत्नातरि मातरिश्वना। .
यथा दृगान्ध्यं न रजस्तनूमतां, चकार घर्माम्बु च चिक्लिदं वपुः॥५५॥ अर्थ :- वायु ने तीनों लोकों के रक्षक के मार्ग में जाने पर उस प्रकार प्रसन्नता प्राप्त की जिस प्रकार धुलि ने प्राणियों के नेत्रों में अन्धकार नहीं किया और पसीने ने शरीर को मैला नहीं किया।
क्वचिनिषिक्ता द्विरदैर्मदाम्बुभिः, क्वचित्खुरैरुद्धतरेणुरर्वताम्। धुसत्किरीटैः क्वचिदापिता मह-स्तमश्च नीलातपवारणैः क्वचित्॥५६॥ क्वचित्खगानां न पदापि सङ्गता, क्वचिद्रथैः क्षुण्णतलारि धारया।
समाशया स्वं क्षितिरक्षतं जगौ, जगत्सुमाध्यस्थ्यगुणं जगत्प्रभोः॥५७॥ अर्थ :- कहीं हाथियों के द्वारा मदजलों से सींची गई, कहीं घोड़ों के खुरों से उठी धूलि, कहीं देवों के मुकुटों का तेज प्राप्त और कहीं काले छत्रों से अन्धकार को प्राप्त , कहीं विद्याधरों के चरण से भी न मिलित, कहीं रथों की वक्र धारा से खोदे गए तल वाली समाभिप्राय पृथिवी स्वर्ग और पाताल के मध्य में स्थित होने से माध्यस्थ्य गुण को अपने जगत्प्रभु से सम्पूर्ण रूप से कह रही थी।
कृपापयः पुष्करिणीं दृशं न्यधा-दसौ स्वभावादपि यत्र नाकिनि।
स बाढमौष्मायत देवसंहतो, मयि प्रसादाधिकता प्रभोरिति॥५८॥ अर्थ :- भगवान् ने जिस देव में स्वभाव से भी कृपाजल रूप वापी को दृष्टि में रखा उस देव ने देव समूह में इस प्रकार अत्यधिक गर्व धारण किया कि प्रभु की मेरे प्रति कृपा अधिक है। (६२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४]
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
विचित्र वाद्यध्वनिगर्जितोर्जितः, यथा यथासीददसौ गुणैर्घनः।
तथा तथा नन्दवने सुमङ्गला-सुनन्दयोरब्दसखायितं हृदा ॥ ५९॥ अर्थ :- गुणों से घने (अथवा मेघ) वह भगवान् विचित्र वाद्यों की ध्वनि रूप गर्जनाओं से बलवान् होते हुए जैसे-जैसे समीप आए वैसे-वैसे सुमङ्गला और सुनन्दा के हृदयों ने मयूर के समान आचरण किया।
तदाऽन्यबालावदुपेयिवत्प्रभो-र्दिदृक्षयोत्यिञ्जलचित्तयोस्तयोः।
शचीनियुक्तस्वसखीनियंत्रणा, बहिर्विहारेऽभवदर्गलायसी॥ ६०॥ अर्थ :- उस अवसर पर सुमङ्गला और सुनन्दा के आगत स्वामी को देखने की इच्छा से आकुल मन होने पर बाहर निकलने में इन्द्राणी के द्वारा नियुक्त सखियों का रोकना लोकमयी अर्गला हुई।
कलागुरुः स्वस्य गतौ यथाशयं, समुह्यमान पुरुहूतदन्तिना।
मुखं मुखश्रीमुखितेन्दुमण्डलः, स मण्डपस्याप दुरापदर्शनः॥६१॥ अर्थ :- इन्द्र के हाथी ऐरावत के द्वारा अभिप्राय के अनुसार धारण किए हुए, अपनी गति में कलाचार्य, मुख की शोभा से जिसने चन्द्रमण्डल को पराजित किया है तथा जिनका दर्शन दुर्लभ है ऐसे भगवान् मण्डप के अग्रभाग को प्राप्त हुए।'
अथावतीर्येभविभोः ससंभ्रमं, प्रदत्तबाहुः पविपाणिना प्रभुः।
मुहूर्तमालंब्य तमेव तस्थिवान्, श्रियः स्थिरस्येति वचः स्मरन्निव॥६२॥ अर्थ :- अनन्तर श्री ऋषभदेव वज्रबाहु इन्द्र के द्वारा जिसे भुजा दी गई है ऐसे ऐरावत से उतर कर इन्द्र का ही सहारा लेकर स्थिर की लक्ष्मी होती है, इस प्रकार के वचन का मानों स्मरण करते हुए स्थित हुए।
न दिव्ययाऽरञ्जि स रम्भया प्रभु-हरेर्नटैः शिक्षितनृत्यया तथा।
नभस्वता नर्तितयाग्रतोरण-स्थया यथाऽरण्यनिवासया तथा॥६३॥ अर्थ :- इन्द्र के नटों से, शिक्षित नृत्य वायु से नर्तित अग्र तोरण में स्थित अरण्यनिवासिनी कदली से जैसे प्रभुरञ्जायमान हुए वैसे दिव्य रम्भा से रञ्जायमान नहीं हुए।
समानय स्थालमुरुस्तनस्थले, निधेहि दूर्वां दधि चात्र चित्रिणि। सुलोचने सञ्चिनु चन्द्रनद्रवं शरावयुग्मं धर बुद्धिबन्धुरे ॥ ६४॥ गृहाण मन्थं गतिमन्थरे युगं, जगजनेष्ट मुशलं च पेशले। क्षणः समासीदति लग्नलक्षणः, कियच्चिरं द्वारि वरोऽवतिष्ठताम्॥६५॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४]
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
इहोग्रशस्त्रे कुसुमव्रजे निजे, जनोष्मणा म्लानिमुपागते हलाः । महाबलेनापि मनोभुवा भवां-तकोऽत्र देवे प्रभविष्यते कथम् ॥ ६६॥ घनत्वमापद्य मरुन्न चन्दन - द्रवस्य पुष्णानि किमेष सौरभम् । उलूलपूर्वाय वरार्घकर्मणे, विमुच्यतां तत्करकण्ठकुण्ठताम् ॥ ६७॥ इतीरयन्तीष्वितरेतरांद्युस - द्वधूषु काचित्करपाटवाञ्चिता । विलोलकौसुम्भनिचोलशालिनी, प्रभातसंध्येव समग्रकर्मणाम् ॥ ६८ ॥ मणिमयस्थालधृतार्घसाधना, वशोचिताया न वशंवदा हियः । वराभिमुख्यं भजति स्म सस्मया, न कोऽथवा स्वेवसरे प्रभूयते ॥ ६९ ॥ षड्भिः कुलकम्॥
+
अर्थ हे विस्तीर्ण स्तन स्थल से युक्त ! तुम थाल लाओ। (चक्र के समान दाँत, स्तनों की समानता, मधुगंध एवं चक्रकेश होने के कारण) हे आश्चर्यकारिणी ! यहाँ थाली में दूर्वा और दही रखो । हे सुलोचना चन्दन द्रव का संचय करो। हे बुद्धि से मनोज्ञ ! तुम सकोरे का युगल धरो । हे अलसगति ! तुम मथानी पकड़ो। हे समस्त लोगों की अभीष्ट ! तुम पासे के खेल की दो गोटियाँ पकड़ो। हे सुन्दरी ! तुम मुशल ग्रहण करो, लग्न का समय समीपवर्ती है। वर द्वार पर कब तक खड़ा रहेगा । हे सखियो ! इस संसार में अपने फूलों के समूह रूप उग्र शस्त्र, लोगों की उष्मा से मुरझाने पर महान् बलशाली भी कामदेव इन यम को भी जीतने वाले देव पर कैसे समर्थ होगा ? यह वायु चन्दन के द्रव की दृढ़ता को प्राप्त कर क्या सुगन्धि को नहीं चुरा रहा है ? अपितु चुरा ही रहा है । इस कारण धवलध्वनि पूर्वक वरपूजा के कार्य के लिए हाथ और कण्ठ के शब्द की कुंठता को छोड़ दो, देवाङ्गनाओं के इस प्रकार परस्पर कहे जाने पर हस्तलाघव से युक्त, केसरिया रङ्ग के चंचल प्रच्छद पर (दुपट्टे) से शोभायमान समग्र कर्मों की मानों प्रभात सन्ध्या हो, मणिमय थालों में जिसने पूजा की सामग्री रखी हुई है, जो स्त्रियोचित्त लज्जा के वशीभूत नहीं है, ऐसी कोई सगर्वा स्त्री वर के सम्मुखपने का सेवन कर रही थी अथवा अपने अवसर पर कौन समर्थ नहीं होता है ? सभी समर्थ होते हैं ।
जगद्वरेऽत्रार्धमुपाहरद्वरे, यथेक्षिता सा हरिणा सकौतुकम् । स्त्रियोंऽतिकस्था धवलैस्तथा जगुः क्वचिद्भवद्विस्मृतिशंकया किमु ॥ ७० ॥
,
अर्थ
इन्द्र के द्वारा कौतुकपूर्वक देखी गई देवाङ्गना संसार में श्रेष्ठ (वर) के लिए अर्घ ले आयी। समीपस्थ स्त्रियाँ धवलगृहों से वैसा गा रही थीं। क्या क्वचित् आपको भूलने की शङ्का से गा रही थीं?
(६४)
-:
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ४ ]
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
स पस्पृशे हृद्यपि दुर्लभे पर-स्त्रिया तया छेकधिया कृतस्मितम्। .
अमुं कथंचिद्दधिबिन्दुमर्घत-श्चयुतं विनच्मीति गृहीतदम्भया॥ ७१॥ अर्थ :- चतुर बुद्धि वाली उस देवाङ्गना से कृतस्मित वे भगवान् दुर्लभ परस्त्री के द्वारा अर्घ से च्युत इस दधिबिन्दु को कथंचित् पृथक् करता हूँ, इस प्रकार हृदय में भी स्पर्श किए गए।
अपि प्रवृत्तार्घविधिर्वधूद्वयी-दिदृक्षया नोदमनायत प्रभुः।
समाधिनिौतधियां न तादृशां, स्वभावभेदे विषयाः प्रभुष्णवः॥७२॥ अर्थ :- स्वामी अर्धविधि के प्रयुक्त होने पर भी सुमङ्गला और सुनन्दा रूप वधूद्वयी को देखने की इच्छा से उत्सुक नहीं हुए। सन्तोषादि समाधि से जिनकी बुद्धि धोयी गई है, उन जैसों के स्वभावभेद में विषय समर्थ नहीं होते हैं।
तदीयलावण्यरुचोरिवर्णीया, शरावयुग्मं लवणाग्निगर्भितम्।
पुरो विमुक्तं सुदृशाम्रदिष्ट सोऽनलोच्छ्वसत्पर्पटलीलयांहिणा॥७३॥ अर्थ :- उन भगवान् ने स्त्रियों के आगे विमुक्त अपने लावण्य और कान्ति की ईर्ष्या से मानों जो लवण और अग्नि से सहित था ऐसे सकोरे के युगल को वायु के द्वारा उड़ाए जाते हुए वस्त्र की लीला से चरण से मर्दित किया। - प्रगृह्य कौसुम्भसिचा गलेऽबला, बलात्कृषन्त्येनमनैष्ट मण्डपम्।
अवाप्तवारा प्रकृतिर्यथेच्छया, भवार्णवं चेतनमप्यधीश्वरम्॥ ७४॥. अर्थ :- चेतन भी अधीश्वर को जिस प्रकार प्राप्तावसरा प्रकृति अपनी इच्छानुसार संसार समुद्र में ले जाती है, उसी प्रकार स्त्री इन भगवान् को केसरिया वस्त्र गले में . डालकर बलात् खींचती हुई मण्डप में ले गयी।
शतमखस्तमखण्डितपौरुषं, सपदि मातृगृहे विहितांग्रहः।
अभिनिषण्णवरेन्दुमुखीद्वयं, जिनवरं नवरङ्गभृदासयत्॥ ७५॥ .. अर्थ :- नवीन हर्ष रूप रङ्ग को धारण करने वाले इन्द्र ने कृताग्रह होकर अखण्डित पौरुष वाले जिनवर को शीघ्र ही मातृगृह में पहले से बैठी हुई श्रेष्ठ इन्दुमुखीद्वय (दो चन्द्रमुखियों) के सम्मुख बैठाया।
दृष्ट्वाऽऽयान्तं नोदतिष्ठाव नाथं, नाथ स्वास्याविष्कृतिः संगता नौ।
ध्यात्वेतीव स्वामिनोऽभ्यर्णभावे, ते नीरंगीगोपितास्ये अभूताम्॥७६ ॥ अर्थ :- अनन्तर वे सुमङ्गला और सुनन्दा हम दोनों नाथ को आते हुए देखकर खड़ी नहीं हुई, हम दोनों को अपने मुख का प्रकटीकरण युक्त नहीं है, मानों ऐसा ध्यान करके ही स्वामी के समीप नीरंगी से मुख को छिपाने वाली हो गईं। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४]
(६५)
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
लावण्यवारिसरसो दयितादमुष्मात्, पातुं प्रकाशमनलं नयनद्वयं नौ।
पानेन तृप्तिरिह चौरिकया न काचि-देवं मिथोऽकथयतामपृथुस्वरं ते॥७७॥ अर्थ :- वे दोनों कन्यायें मन्द स्वर में आपस में, इन भर्ता रूप सरोवर के सौन्दर्य रूप जल को पीने में हमारे दोनों नेत्र समर्थ नहीं हैं, इस संसार में चोरी से पान करने में किसी प्रकार की तृप्ति नहीं है, इस प्रकार कह रही थीं।
शैशवावधि वधूद्वयदृष्टयो-श्चापलं यदभवदुरपोहम्।
तत्समग्रमुपभर्तृर्विलिल्ये-ऽध्यापकान्तिक इवान्तिषदीयम् ॥ ७८॥ अर्थ :- दोनों वधुओं के नेत्रों की शैशव से लेकर जो चञ्चलता दुस्त्यज हुई, वह छात्र की चपलता जिस प्रकार अध्यापक के समीप विलीन हो जाती है, उसी प्रकार पति के समीप में विलय हो गई।
तारुण्येन प्रतिपतिमुखं प्रेरितोन्मादभाजा, बाल्येनेषत्परिचयजुषा जिह्मतां नीयमाना। दृष्टिर्वध्वोः समजनितरामेहिरेयाहिरातः,
श्रान्तेः पात्रं न हि सुखकरः सीमसन्धौ निवासः॥७९॥ अर्थ :- उन्माद का सेवन करने वाले यौवन से पतिमुख के प्रति प्रेरित कुछ परिचय से युक्त बाल्यावस्था से मन्दता को ले जायी गई वधु की दृष्टि ने आगमन से श्रम के स्थान को उत्पन्न किया; क्योंकि सीमा की संधि में निवास सुखकर नहीं होता है।
जैनी सेवां यो निर्भरं निर्मिमीते, भोगाद्योगाद्वा तस्य वश्यैव सिद्धिः। हस्तालेपे त्वक्तं सिषेवे ययोः श्री-वृक्षोऽभूदेकोऽन्यस्तयोः किं शमी न॥८०॥ अर्थ :- जो पुरुष जैनी सेवा को अत्यधिक करता है, उसकी भोग अथवा योग से सिद्धि वश में ही है। जिन दो वृक्षों की छाल हस्त के आलेप में जिन की सेवा करती थी उनके मध्य में एक वृक्ष लक्ष्मी का (अथवा पिप्पल) वृक्ष हुआ, अन्य क्या शमी नहीं हुआ? अपितु हुआ। विशेष :- इससे श्री वृक्ष भोगी जानना चाहिए। जिसके घर में लक्ष्मी होती है, वही भोगी होता है, इस न्याय से । शमी शमवात्, योगी जानना चाहिए। इस प्रकार जिन सेवा से भोग और योग दोनों की सिद्धि हुई, यह जानना चाहिए।
श्री वृक्ष कुंजराशन इत्यादि पीपल के नाम हैं। जो पाप का शमन करता है, वह । शमी है, ऐसा लोग कहते हैं।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४)
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूरि : श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि
धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान् । वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते, सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये चतुर्थोऽभवत् ॥ ४ ॥
अर्थ :कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्ल कुमारचरितादि महाकवित्व से युक्त नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं । उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में चतुर्थ सर्ग समाप्त हुआ।
इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित श्री जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का चतुर्थ सर्ग समाप्त हुआ ।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४ ]
000
(६७)
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
५. पञ्चमः सर्गः
वज्रिणा दुतमयोजि कराभ्यां, कन्ययोरथ करः करुणाब्धेः।
तस्य हृत्कलयितुं सकलाङ्गालिङ्गनेऽपि किल कौतुकिनेव॥१॥ अर्थ :- अनन्तर समस्त अङ्ग के आलिङ्गन में भी भगवान् के हृदय को जानने के लिए मानो कौतुकी इन्द्र ने करुणा के सागर भगवान् के हाथ को दोनों कन्याओं के हाथों से शीघ्र मिलाया
धावतामभिमुखं समवेत्तुं, तत्करस्य च वधूकरयोश्च।
अङ्गुलीयकमणिघृणिजालैः, प्रष्ठपत्तितुलया मिमिले प्राक् ॥२॥ अर्थ :- स्वामी के हाँथ के और दोनों बन्धुओं के हाथों को सम्मुख मिलाने के लिए दौड़ने से पूर्व मुद्रिका की रत्नों के किरण समूह अग्रेसर पदाति के सदृश मिले।
वामनामनि करे स्फुरणं यत्, कन्ययोः शुभनिमित्तमुदीये।।
तत्फलं प्रभुकरग्रहमाप-दक्षिणः क्षणफलः क्व नु वामः॥ ३॥ अर्थ :- दोनों कन्याओं के बायें हाथ में स्फुरण ने जिस शुभनिमित्त का उदय किया, दायें हाथ ने उसका फल प्रभु के हस्त का ग्रहण प्राप्त किया। बायें को (अथवा प्रतिकल को) उत्सव का फल कहाँ मिल सकता है, कहीं नहीं।
उत्तराधरतयादधदास्थां, तत्करे वरकरः स्फुटमूचे। . अव्यवस्थमधरोत्तरभावं, योग्यभाजि पुरुषे प्रकृतौ च॥४॥ अर्थ :- वर के हाथ ने सुमङ्गला और सुनन्दा के हाथ में अधरोत्तरभाव होने से अवस्थिति को धारण करते हुए अधरोत्तर भाव को पुरुष और प्रकृति में योग करने की व्यवस्था से रहित स्पष्ट रूप से कहा।
तत्करे करशयेऽजनि जन्योः, संचरे सपदि सात्विकभावैः।
सात्विको हि भगवान्निजभावं, स्वेषु संक्रमयतेऽत्र न चित्रम्॥५॥ अर्थ :- दोनों वधूओं के शरीर में शीघ्र सात्विक भावों ने जन्म लिया। स्वामी के हाथ
(६८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
में हस्तस्थित होने पर निश्चित रूप से सात्विक भगवान् का निजभाव अपने में संक्रमित होता है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
बाल्ययौवनवयो वियदन्त-वर्तिनं जगदिनं परितस्ते।
रेजतर्गतधनेऽहनि पूर्वा-पश्चिमे इव करोपगृहीते ॥ ६॥ अर्थ :- वे दोनों कन्यायें हाथ से हाथ के ग्रहण करने पर बाल्य और यौवनावस्था ०५ आकाश के मध्य जगन्नाथ के चारों ओर, किरणों के ग्रहण होने पर विरक्त दिवस में पूर्व और पश्चिम दिशा के समान सुशोभित हुईं।
पाणिपीडनरतोऽपि न पाणी-बालयोः समृदुलावपिपीडत्।
कोऽथवा जगदलक्ष्यगुणस्या-मुष्य वृत्तमवबोद्धमीष्टे ॥ ७॥ अर्थ :- उन भगवान् ने पाणिग्रहण में रत होने पर भी बाल सुमङ्गला और सुनन्दा के कोमल हाथों को पीड़ित नहीं किया अथवा कौन जगत् ने जिसके गुणों को लक्षित नहीं किया है, ऐसे इनके चरित्र को जानने में समर्थ होता है, कोई नहीं?
तत्यजुर्न समयागततारा-मेलपर्वणि वरस्य तयोश्च।
धीरतां च चलतां न दृशः स्वां, देहिनां हि सहजं दुरपोहम्॥८॥ अर्थ :- वर के और दोनों वधुओं के नेत्रों ने अपनी धीरता तथा गति को अवसर पर आगत कनीनिकामेलन के उत्सव में नहीं त्यागा। निश्चित रूप से प्राणियों के सहज बड़ी कठिनाई से त्यागने योग्य होता है। ..
स्वर्वधूविहितकौतुकगानो-पज्ञमस्य वपुषि स्तिमितत्वम्।
योगसिद्धिभवमेव मघोना-शङ्कि वेद चरितं महतां कः॥९॥ अर्थ :- इन्द्र ने भगवान् के शरीर में स्वर्गीय वधुओं के द्वारा किए गए कौतुकगान से प्रणीत निश्चलता को योगसिद्धि से समुत्पन्न ही आशंकित किया। बड़े व्यक्तियों के चरित्र को कौन जानता है? अपितु कोई नहीं जानता है।
बद्धवान् वरवधूसिचयाना-मञ्चलान् स्वयमथाशु शचीशः।
एवमस्तु भवतामपि हार्द-ग्रन्थिरशूथ इति प्रथितोक्तिः॥ १०॥ अर्थ :- अनन्तर आपके भी हृदय की गाँठ दृढ़ हो, इस प्रकार जिसने उक्ति का विस्तार किया है ऐसे इन्द्र ने वर और वधू के वस्त्रों के अञ्चल को शीघ्र बाँधा।
एणदृगद्वयमुदस्य मघोनी, वासवश्च वरमद्भुतरूपम्। वेदिकामनयतां हरिदुच्चै-वंशसंकलितकाञ्चनकुम्भाम्॥ ११॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- इन्द्राणी मृगी के समान नेत्रद्वय को धारण करने वाली दोनों वधुओं को और इन्द्र अद्भुत रूप वाले वर को उठाकर नीले और ऊँची बाँसों से युक्त सुवर्णमय कुम्भों वाली वेदिका पर लाए।
कोऽपि भृधरविरोधिपुरोधा-स्तत्र नूतनमजिज्वलदग्निम्। ।
यः समः सकलजन्तुषु योग्यः, स प्रदक्षिणयितुं न हि नेतुः॥ १२॥ अर्थ :- किसी इन्द्र रूप पुरोहित ने उस वेदी पर नई अग्नि जलाई । जो समस्त प्राणियों में समान है वह अग्नि स्वामी को प्रदक्षिणा कराने के योग्य नहीं है।
मंत्रपूतहविषः परिषेका-दुत्तरोत्तरशिखः स बभासे।
सूचयन् परमहःपदमस्मै, यावदायुरधिकाधिकदीप्तिम्॥१३॥ अर्थ :- उत्कृष्ट तेज का स्थान वह (अग्नि) मन्त्र से पवित्र हवन सामग्री के सिंचन से अधिकाधिक शिखाओं वाला होकर भगवान् की जीवनपर्यन्त अधिकाधिक दीप्ति की सूचना देते हुए सुशोभित हुआ।
हेनि धाम मदुमाधि कथं ते, मां विना वपुरदीप्यत हैमम्।
प्रष्टमेवमनलः किमु धूमं , स्वाङ्गजं प्रभुमभिप्रजिघाय॥१४॥ अर्थ :- अग्नि ने अपने पुत्र धूम को प्रभु के सम्मुख-हे स्वामिन् ! सुवर्ण में तेज मेरे निमित्त से है, मेरे बिना तुम्हारा सुवर्णमय शरीर कैसे दीप्यमान होता है, मानों यह पूछने के लिए भेजा था।
सोऽभितः प्रसृतधूमसमूहा-श्लिष्टकाञ्चनसमद्युतिदेहः।
स्वां सखीमकृत सौरभलुभ्य-ढुंगसङ्गमितचम्पकमालाम्॥१५॥ अर्थ :- भगवान् ने चारों ओर फैले हुए धुयें के समूह से आलिङ्गित सुवर्णसम द्युति से युक्त होकर सुगंधि से लुब्ध हुए भौंरों से संगमित चम्पे के पुष्पों की माला को अपनी सखी बनाया। विशेष :- गौरवर्ण होने से भगवान् का शरीर चम्पे की माला से सदृश था। उस शरीर में लगा हुआ धूम भ्रमर समूह के सदृश था। इस प्रकार भगवान् के देह का चम्पे के पुषण की माला के सदृश्य (सखीत्व) जानना चाहिए।
धूमराशिरसितोऽपि चिरंट्यो-र्लोहितत्वमतनोनयनानाम्।
चूर्णकश्च धवलोऽपि रदानां, रागमेधयति रागिषु सर्वम्॥ १६॥ अर्थ :- काली भी धूमराशि ने दोनों वधुओं के नेत्रों में लालिमा विस्तारित कर दी
(७०)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग५]
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
तथा सफेद भी चूर्ण ने दाँतों को लाल कर दिया। रागियों में समस्त वस्तु राग को ही बढ़ाती है।
पद्मिनीसमवलम्बितहस्तो, बभ्रमभ्रमददभ्रतरार्चिः।
स प्रदक्षिणतया परितोऽग्निं, तं शुचिं विबुधवल्लभगोत्रम्॥१७॥ अर्थ :- बहुतर जिनका तेज है ऐसे उन भगवान् ने सुमङ्गला और सुनन्दा से समवलम्बित हस्त होकर पवित्र तथा देवों के लिए जिसका नाम पवित्र है एवं जो पीतवर्ण है ऐसी उस अग्नि के चारों ओर भ्रमण किया। (जिस प्रकार कमलिनियों से समवलम्बित किरणों वाला सूर्य (शुचि) देवों के प्रिय पर्वत सुमेरु की प्रदक्षिणा करता हुआ भ्रमण करता है।)
यत्तदा भ्रमिरतः परितोऽग्निं, मङ्गलाष्टकरुचिर्विभुरासीत्।
कुर्वतेऽस्य पुरतः किमजस्त्रं, मङ्गलाष्टकमतो मतिमन्तः॥१८॥ अर्थ :- स्वामी उस अवसर पर अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा देकर जो अष्टमङ्गल से सुशोभित हुए थे इसलिए विद्वान् इनके सामने क्या निरन्तर मङ्गलाष्टक करते हैं?
श्यालकप्रतिकृतिः प्रभुपादाङ्गुष्ठमिष्ट विभवेच्छुरगृह्णात्।
पूर्णमेष तमितोऽस्य निरूचे, श्रीगृहांघ्रिकमलाग्रदलत्वम् ॥१९॥ अर्थ :- साले के समान जिसकी आकार है ऐसे पुरुष ने अभीष्ट वैभव का इच्छुक होकर प्रभु के पैरों के अंगूठे को पकड़ लिया। इसने पूर्ण उस वैभव को प्राप्त कर प्रभु के पैर के अंगूठे की लक्ष्मी का गृह जो चरणकमल है उसके अग्रदलत्व के विषय में निश्चित कहा । अर्थात् स्वामी के सच्चरण कमल में लक्ष्मी निश्चित रूप से रहती है जो एकचित्त होकर उसका सेवन करता है वह लक्ष्मी को अवश्य प्राप्त करता है।
पाणिमोचनविधावथ सार्ध-द्वादशास्य पुरतोऽर्जुनकोटीः।
वासवः समकिरत् कियदेतत्, तस्य यः करवसच्छतकोटिः॥२०॥ अर्थ :- अनन्तर इन्द्र ने पाणिमोचन (हाथ छुड़ाने की) विधि में इन भगवान् के आगे बारह करोड़ सुवर्ण बिखेर दिए। इन्द्र के लिए यह बारह संख्या कितनी सी है, जिसके हाथ में शतकोटि (वज्र) है।
रोहणाद्रिबिलवासितयान्योपक्रियाव्रतमहारि पुरा यैः।
तैस्तदा गिरिभिदास्य वितीर्णैः, स्वीयसृष्टिफलमाप्यत रत्नैः॥२१॥ अर्थ :- जिन रत्नों ने पहले रोहणाद्रि की गुहा में वास करने से दूसरे का परोपकार करने का व्रत लिया था, उस अवसर पर उन रत्नों ने इन्द्र से भगवान् के दिए हुए अपने सृष्टिफल को प्राप्त किया था।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
(७१)
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :
इन्द्र ने भगवान् के आगे जो मोती छोड़े थे, मैं पृथिवी पर उन मोतियों को उज्ज्वल कहता हूँ। दूसरे मोतियों का लवण और कीचड़ का वस्त्र होने से निश्चित रूप से धवलता गुण क्षीण ही है ।
याः पुरो मघवतास्य विमुक्ता-स्ता वदामि विशदा भुवि मुक्ताः । क्षारपङ्कवसनादितरासां क्षीण एव खलु शुक्तिमगर्वः ॥ २२ ॥
के
विशेष :- चमक, भारीपन, स्निग्धता, कोमलता, निर्मलता और गोलपना ये छह मोतियों गुण कहे जाते हैं। इन गुणों से युक्त दोषमुक्त मोती विशद (उज्ज्वल) कहे जाते हैं । दीपिकाः सदसि यन्मणिजालैः, क्रोधिताः स्वमहसा परिभूय । क्रुत्फलं शलभकेषु वितेनु-स्ता अढौकयदमुष्य स भूषाः ॥ २३ ॥
अर्थ :इन्द्र ने भगवान् को (हार, अर्द्धहार, कटक, केयूर, नक्षत्रमाला आदि) आभूषण भेंट किए। सभा में दीपिका में मणि समूहों द्वारा अपने तेज से पराभव का स्थान करके जो क्रोध को (ईर्ष्या को) प्राप्त कराई गईं। उन्होंने अपने क्रोध के फल को पतिंगों पर किया । अर्थात् रत्नों का तेज अधिक होने से दीपिकायें पराभूत हुईं। इसका फल पतिंगों को भुगतना पड़ा ( दीपिकाओं की क्रोधाग्नि में पतंगे जल गए)।
1
अर्थ :- इन्द्र ने उन वस्त्राभूषणों को भगवान् को भेंट किया । चिकने, सफेद, मुलायम ले के स्तम्भ के टूटने से उत्पन्न तन्तु समूह ने जिनके गुणों की उपमा के लेश मात्र को ग्रहण किया ।
अर्थ
श्लक्ष्णशुभ्रमृदुरादित रम्भा, स्तम्भभङ्ग भवतन्तुसमूहः 1 यद्गुणोपमितिलेशमृभुक्षा-स्तानि तस्य सिचयान्युपनिन्ये ॥ २४ ॥
:
अर्थ :- इन्द्र ने भगवान् को रत्नमय सिंहासन दिया। भगवान् युवा होते हुए भी रत्नसिंहासन पर बैठे हुए चारों ओर फैलने वाली समुद्र की तरङ्गों के समान किरणों के समूह पर जहाज के समान आचरण कर रहे थे ।
यन्मरीचिनिकरे ननु विष्वक्-द्रीचिवीचिसदृशे जलराशेः ।
पोततिस्म सुयुवापि निविष्टो, रत्नविष्टरमदात् स तमस्मै ॥ २५ ॥
अच्छिन्न रमणीयता से युक्त छत्र, पवित्र चामर, उन्नत और विशाल शयन एवं अन्य जो वस्तु मन को इष्ट होती थी, प्रशंसा की स्थान उस वस्तु को उन भगवान् ने इन्द्र से प्राप्त किया ।
(७२)
छत्रमत्रुटितचारिम चोक्षे, चामरे शयनमुच्चविशालम् । यन्मनोऽभिमतमन्यदपीन्द्रा द्वस्तु स स्तुतिपदं तदवाप ॥ २६ ॥
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ५ ]
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
नायकस्त्रिभुवनस्य न चार्थी, दायकश्च कथमस्य दिवीशः । किंतु वाहितमुवाच विवाह - प्रान्तरं तनुभृतामयमेव ॥ २७ ॥
अर्थ :
तीनों भुवनों का स्वामी याचक नहीं होता है और इन्द्र इनका दाता कैसे हो सकता है। किन्तु भगवान् ने शरीरधारियों के विवाह का मार्ग इस प्रकार कहा ।
वल्भनावसरपाणिगृहीती वक्त्रसङ्गमितपाणिरराजत् ।
जातयत्न इव जातिविरोधं, सोमतामरसयोः स निहन्तुम् ॥ २८ ॥ अर्थ :- वे भगवान् भोजन के अवसर पर दोनों पत्नियों के मुख पर हाथ रखकर इस प्रकार सुशोभित हुए मानों इन्द्र और कमल के जातिविरोध का विनाश करने के लिए उपक्रम कर रहे हों ।
विशेष भगवान् की दोनों पत्नियों का मुख चन्द्रमा था और प्रभु का हाथ कमल था, यह भाव है ।
-:
भक्ष्यमादतुरिमे पतिपाणि-स्पर्शपोषितरसं मुदिते यत् । तज्जनेन युवतीजनवृत्तेः पुंस्यवस्थितिरिति प्रतिपेदे ॥ २९ ॥
अर्थ :- सुमङ्गला और सुनन्दा के मुदित होने पर पति के हाथ के स्पर्श से जिसका स्वाद पोषित है वह भक्ष्य ग्रहण किया था । इस कारण लोगों ने यह स्वीकार किया कि स्त्रीजन के निर्वाह की पुरुष में अवस्थिति जानना चाहिए ।
पाणिना प्रभुरथ प्रणयिन्यो- र्यत्तदा किमपि भक्ष्यमभुंक्त । प्राभवेऽपि नृषु योषिदधीनं, भोजनं तदिति को न जगाद ॥ ३० ॥
अर्थ :- अनन्तर प्रभु ने दोनों पत्नियों के हाथ से उस अवसर पर जो कुछ भी भक्ष्य खाया वह पुरुषों में प्रभुत्व होने पर भी भोजन स्त्रियों के अधीन है, इस बात को किसने नहीं कहा ? अपितु सबने कहा ।
वासवोऽथ वसनाञ्चलमोक्षं निर्ममे विधिवदीशवधूनाम् ।
,
विश्वरक्षणपरस्य पुरोऽस्या - ऽचेतनेष्वपि चिरं नहि बन्धः ॥ ३१ ॥
अर्थ :- अनन्तर इन्द्र ने भगवान् की वधुओं का विधिवत् वस्त्रांचल का मोक्षण किया। विश्व की रक्षा करने में तत्पर भगवान् के आगे अचेतन वस्तुओं में भी बन्ध बहुत देर तक नहीं होता है ।
ऊढवद्विधुमुखेन्दुनिरीक्षा- मेदुरप्रमदवारिधिवीच्यः ।
नाकिनां हृदयरोधसि लग्ना-स्तेनिरे तुमुलमम्बरपूरम् ॥ ३२॥
सर्ग - ५ ]
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य,
(७३)
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- परिणीत प्रभु के मुखचन्द्र के निरीक्षण से पुष्ट हर्ष रूप समुद्र की कल्लोलों ने देवों के हृदय रूप तट में लगकर आकाश को भरने में समर्थ कोलाहल किया था।
यन्ननर्त मघवानघवाक्त्वं, नात्र शम्भुभरतौ बिभृतः स्मः।
तद्विवाहविधिसिद्धनिजेच्छा-भूरभूत् प्रमद एव गुरुस्तु ॥ ३३॥ अर्थ :- इन्द्र ने जो नृत्य किया इस नृत्य में शम्भु और भरत सम्बन्धी निर्दूषणा वाणी के भाव धारण नहीं किए, अपितु स्वामी के विवाह की विधि से निष्पन्न जो निज की इच्छा है, उससे उत्पन्न हर्ष ही प्रौढ़ हुआ।
नृत्यतोऽस्य करयुग्ममलासी-न्मुक्तिमेवमुपरोद्भुमिवोर्ध्वम्।
नात्र नेतरि विरक्तिवयस्यां, संप्रति प्रहिणुया वरणाय॥ ३४॥ अर्थ :- इन्द्र के नृत्य करते हुए हस्तयुगल मुक्ति को ही रोकने के लिए ऊपर उछल रहे थे कि इन स्वामी के रहने पर इस समय विरक्ति रूप सखी को मत भेजो।
अङ्गहारभरभङ्गरहार-स्त्रस्तमौक्तिकमिषामृतबिन्दून्।।
अप्सरः सरसगानसमाने, नर्तनेऽतत शचीप्रमदाब्धिः ॥ ३५ ।। अर्थ :- इन्द्राणी के द्वारा हर्ष समुद्र अप्सराओं के रस से युक्त गान के सदृश नृत्य के होने पर अङ्ग विक्षेप के समूह से त्रुटित हार से गिरे हुए मोतियों के बहाने अमृत की बिन्दुओं का विस्तार कर रहा था।
गेयसारधवलः प्रमदौघैः, क्लीबदुर्वहकरग्रहचिह्नः।
सोऽभ्यगादृ गृहमथो परदेशाद् भूमिपाल इव लब्धमहेलः॥३६॥ अर्थ :- अनन्तर स्त्रियों के समूहों से गाने योग्य सारधवल जिसका है तथा जिसका कातरों से बड़ी कठिनाई से वहन करने योग्य करग्रह का चिह्न है तथा जिसने बहुत बड़ी पृथिवी (अथवा स्तुति) प्राप्त कर ली है ऐसे राजा के समान वे भगवान् परदेश से अपने घर की ओर गए।
प्वामिनः पथि यतः पुरतो य-स्तूरपूरनिनदः प्रससार।
स स्वमन्दिरगतासु बभारा-कृष्टिमन्त्रतुलनां ललनासु॥ ३७॥ अर्थ :- श्री ऋषभदेव के मार्ग में जाते हुए तत, वितत घन सुषिरादि के पूर की ध्वनि फैली। उस ध्वनि ने अपने आवास में गई हुई स्त्रियों में आकर्षण मन्त्र की तुलना को धारण कर लिया।
पंक्तिमौक्तिकनिवेशनिमित्तं, स्वक्रमाङ्गलिकया धृतसूत्राम्।
हारयष्टिमवधूय दधावे, वीरुधं करिवधूरिव काचित्॥ ३८॥ (७४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
|
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- कोई स्त्री पंक्ति से मोतियों की स्थापना के निमित्त अपने पैरों की अंगुली से धारण किए हुए सूत्र वाली हारयष्टि को निरस्कृत कर लता को तिरस्कृत कर भागी हुई हथिनी के समान भागी।
कापि नार्धयमितश्लथनीवी, प्रक्षरन्निवसनापि ललज्जे।
नायकानननिवेशितनेत्रे, जन्यलोकनिकरेऽपि समेता॥ ३९॥ अर्थ :- बराती लोक समूह में भी आगत स्वामी के मुख में जिसने नेत्र निवेशित किए हैं ऐसी कोई स्त्री अर्द्धनिबद्ध ढीली मेख... का गिरता हुआ वस्त्र होने पर भी लज्जित नहीं हुई।
तत्समिन्निशमनोच्छसितान्या, कञ्चकत्रुटिपटूकृतवक्षाः।
यौवनोत्कटकटाक्षितकुन्तैः, पाटितापि सुभटीव पुरोऽभूत्॥४०॥ अर्थ :- भगवान् की सभा (संग्राम) के निरीक्षण से तरोताजा कंचुक के टूटने से उन्मुक्त वक्षःस्थल वाली अन्य स्त्री यौवन से उत्कट तरुण पुरुषों के कटाक्ष रूप भालों से विदारित होने पर भी सुभटी के समान आगे हो गई।
तूर्णिमूढदृगपास्य रुदन्तं, पोतमोतुमधिरोप्य कटीरे।
कापि धावितवती न हि जज्ञे, हस्यमानमपि जन्यजनैः स्वम्॥४१॥ अर्थ :- बालक को रोता हुआ छोड़कर विडाल को कटीतट पर रखकर दौड़ने वाली औत्सुक्य से मूढ दृष्टि वाली किसी स्त्री ने लोगों के द्वारा अपने को हँसी का पात्र होने पर भी नहीं जाना।
कज्जलं नखशिखासु निवेश्या-लक्तमक्षणि च वीक्षणलोला। कण्ठिकां पदि पदाङ्गदमुच्चैः, कण्ठपीठलुठितं रचयन्ती॥४२॥ मजनात्परमसंयतके शी, वैपरीत्यविधृतांशुक युग्मा। काचिदागतवती ग्रहिलेव, त्रासहेतुरजनिष्ट जनानाम्॥ ४३॥
युग्मम्॥ अर्थ :- देखने में चंचल, कज्जल को नख शिखाओं में रखकर, महावर को लोचन में रखकर, कंठी को पैर में रखकर, नूपुर को ऊँचे कंठपीठ में लुठित रचती हुई, स्नान के बाद न बाँधे गए केश वाली, रेशमी वस्त्र युगल को विपरीतता से धारण की गई किसी स्त्री ने भूत लगी हुई स्त्री के समान आकर लोगों में भय का हेतु उत्पन्न कर दिया।
यौवतेन जविना वरवीक्षा-धाविना विधुरितप्रसरान्या। पत्युरिष्टमपि मन्दितचारं, स्वं निनिन्द जघनस्तनभारम्॥ ४४॥
जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
(७५)
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
'अर्थ :- वेग बाली, वर को देखने के लिए दौड़ने वाली, युवतियों के समूह से जिसका त्वरितगमन मन्द कर दिया गया है ऐसी किसी अन्य स्त्री ने पति के अभीष्ट भी, जिनने गमन को मन्द कर दिया है ऐसे जघन और स्तन समूह की निन्दा की । निर्निमेषनयनां नखचर्या - ऽस्पृष्टभूमिमपरामिह दृष्ट्वा । को न देव्यजनि पश्यत देव-ध्यानतो दुतमसाविति नोचे ॥ ४५ ॥
अर्थ :समुदाय में अन्य निर्निमेष नयनों वाली, नखों की चर्चा से जिसने भूमि का स्पर्श नहीं किया है ऐसी स्त्री को देखकर किसने यह नहीं कहा- हे मनुष्यों ! देखो, यह प्रभु के ध्यान से शीघ्र देवी हुई । (देवियाँ भी निर्निमेषनयन और अस्पृष्ट भूमि वाली होती हैं ।)
प्रागपि प्रभुरभूद्रमणीयः, काधिकास्य विदधे विबुधैः श्रीः ।
यत्त एव परियंत्यमुमन्या, तद्दिदृक्षुरितिसेर्घ्यमुवाच ॥ ४६ ॥
अर्थ
अन्य स्त्री ने स्वामी को देखने की इच्छुक होकर, प्रभु पहले से ही रमणीय थे, देवों ने इनकी कौन से अधिक शोभा कर दी, जिस कारण वे देव ही भगवान् को घेरे रहते हैं, इस प्रकार ईर्ष्यायुक्त होकर कहा ।
-:
मुञ्च वर्त्मसखि पृष्ठगतापि, त्वं निभालयसि नाथमकृच्छ्रम्। इत्युपात्तचटुवाक् पुरतोऽभूत्, कापिखर्ववपुरुच्चतरांग्याः ॥ ४७ ॥
अर्थ :- कोई बौने शरीर वाली स्त्री ऊँचे शरीर वाली स्त्री से - हे सखि ! तुम मार्ग छोड़ो, तुम पीछे स्थित भी स्वामी को सुख से देख रही हो, इस प्रकार चाटुकारी पूर्ण वचनों को ग्रहण कर आगे हो गई ।
एवमद्भुतरसोम्भितनारी-नेत्रनीलनलिनाञ्चितकायः ।
तासु काञ्चनमुदं प्रददानः, स्वालयाग्रमगमज्जगदीशः ॥ ४८ ॥
अर्थ :- इस प्रकार अद्भुत रस से पूरित नारियों के नेत्र रूप नीलकमल से पूजित शरीर वाले, स्त्रियों में अपूर्व हर्ष को प्रदान करते हुए जगन्नाथ अपने आवासद्वार को
चले गए।
हस्तिनो हसितमेरुमहिम्नो, गाङ्गपूरवदथावतरन्तम् ।
वासवः शमितपातकतापं तं दधौ द्युगतमेव बलोग्रः ॥ ४९ ॥
"
अर्थ :- अनन्तर बल में उत्कट इन्द्र ने मेरु की महिमा की हँसी उड़ाने वाले ऐरावत हाथी से उतरते हुए पाप रूप ताप की शान्ति करने वाले उन भगवान् को आकाश में स्थित ही धारण किया।
(७६)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ५ ]
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेमकान्ति हरिणा हरिणाक्षी-यामलं पुनरदीयत शच्यै।
पाणिभूषणतया क्षणमस्या-स्तत् सुवृत्तमभजद्वलयाभाम्॥५०॥ अर्थ :- इन्द्र ने सुवर्ण के समान कान्ति युक्त सुन्दर चरित्र, हरिण के समान नेत्र वाले वधू युगल को इन्द्राणी के लिए दिया। उस क्षण ने इन्द्राणी का हस्ताभरण होने से दो कंगन की आभा को प्राप्त किया।
. असंदेशमनयन्नयशाली, तं हरिः स्वमथ शच्यपि वध्वौ। ___ शक्तिमत्त्वमखिलापघनेभ्यो, विश्रुतं किमुपरीक्षितुमस्य॥५१॥ . अर्थ :- अनन्तर समस्त अवयवों से विख्यात शक्तिमत्ता की परीक्षा करने के लिए क्या नीति से शोभायमान इन्द्र उन भगवान् को अपने स्कन्धप्रदेश तक ले गया? शची भी दोनों वधुओं को अपने स्कन्धप्रदेश तक ले गयी।
विश्वविश्वविभुना परिण?-कांसभूरपि विभुः स ऋभूणाम्।
सङ्गतांसयुगलामबलाभ्यां, न स्वतः प्रणयिनी बहु मेने॥५२॥ अर्थ :- देवों के स्वामी इन्द्र ने समस्त विश्व का अधिप होने से व्याप्त एक कन्धे का स्थान होते हुए सुमङ्गला और सुनन्दा अबलाओं से मिलित स्कन्ध युगल होने पर भी इन्द्राणी को अपने से अधिक नहीं माना। विशेष :- इन्द्र ने भगवान् को एक कन्धे पर आरोपित किया। इन्द्राणा न दोनों कन्धों पर वधू युगल को आरोपित किया। इससे इन्द्र ने अपने आपको न्यून नहीं माना; क्योंकि भगवान् अकेले भी भारी थे और दोनों वधुयें अबला थीं।
तत्र तौ प्रमदनिर्मितनृत्यौ, तं च ते च परितोषयतः स्म।
क्ष्मां तदंह्रिकमलस्पृहयालु, प्रक्षरत्सुमचयैः सुखयन्तौ ॥ ५३॥ अर्थ :- उस अवसर पर भगवान् के चरण कमल के स्पृहालु पृथिवी से गिरते हुए फूलों के समूह से सुख उत्पन्न करते हुए वे दोनों (शची और इन्द्र) हर्ष से नृत्य करते हुए उन भगवान् को और उन वधुओं को सन्तुष्ट कर रहे थे।
अप्सरोभिरिति कौतुकगानेऽप्यस्य न स्मरवशत्वमभाणि।
मास्म लजिततरस्तरुणीना-मिष्टमेषकषदेकभटस्तम्॥ ५४॥ ___ अर्थ :- अप्सराओं ने इस कारण कौतुक गान में भी भगवान् के कामदेव के वश में
होने को नहीं कहा; क्योंकि अद्वितीय योद्धा ये भगवान् लज्जित होकर स्त्रियों के इष्ट उस कामदेव की हिंसा न कर डालें।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
(७७)
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
नेत्रमण्डलगलज्जलधारा - धिष्ण्यबन्धुरिमधूर्वहदेहः।
तं शतक्रतुरथो कृतकृत्यः, स्वर्यियासुरभिवन्द्य जगाद॥ ५५॥ अर्थ :- अनन्तर जिसके नेत्रों के समूह स रते हु नल के धारागृह (फव्वारे) की मनोज्ञता के भार को वहन करने वाली जिसकी देह है, ऐसे इन्द्र ने कृतकृत्य होकर स्वर्ग जाने की इच्छा से उन भगवान् की वन्दना कर कहा।
रूपसिद्धिमपि वर्णयितुं ते, लक्षणाकर न वाक्पतिरीशः।
यच्चतुष्ककलनापि दुरापा, तद्धितप्रकरणं मनुते कः॥५६॥ अर्थ :- हे (भृङ्गार, चामर, युगध्वज, शंखयुग्म, मंजीर, समुद्र, सरिता, पुष्करिणी इत्यादि एक हजार आठ) लक्षणों की खानि! तुम्हारे शरीर की भी सिद्धि (पक्ष में शब्दसिद्धि) का भी वर्णन करने में बृहस्पति समर्थ नहीं है। भगवान् की सभा के अवसर को भी प्राप्त करना कठिन है, उनके हित के प्रकरण को कौन जानता है? अर्थात् उनके हित की चिन्ता कैसे की जा सकती है? (दूसरे अर्थ में उन लक्षणाकर के तद्धितप्रकरण को कौन जानता है, जिस चतुष्क (चार का समूह) की आद्यवृत्ति की पकड़ भी दुष्प्राप्य है।)
यन्महः समुपजीव्य जडोऽपि, स्यात् कलाभूदिति विश्रुतिपात्रम्।
यन्नये विनयनं तव तस्य, द्योतनं द्युतिपतेस्तदधीश॥ ५७॥ अर्थ :- हे नाथ! आपका जो तेज है उसके आधार पर मूर्ख भी कलाधारी के रूप में ख्याति का स्थान हो जाता है। (पक्ष में जिस सूर्य के तेज के आधार पर जड़ चन्द्र भी कलाधारी हो जाता है, अमावस्या में सूर्य और चन्द्र मिल जाते हैं । चन्द्रमा सूर्य से तेज प्राप्त का प्रतिपदा के दिन गायों के द्वारा दृष्टव्य होता है, द्वितीया के दिन मनुष्यों से दृष्टव्य हो जाता है, इस प्रकार उसकी कलाधर के रूप में प्रसिद्धि हो जाती है)। उसका जो आपके न्याय विषय में शिक्षण है, वह हे अधीश! सूर्य का प्रकाशन है।
वच्मि किञ्चन पुनः प्रभुभक्त्या, ये इमे ऋजुमती कुलकन्ये।
आदृते भगवता सुविनीते, प्रेम जातु न तयोः शूथनीयम्॥५८॥ अर्थ :- हे नाथ! मैं कुछ प्रभुभक्ति से कहता हूँ जो ये दोनों सरलबुद्धि वाली कुलकन्यायें (सुमङ्गला और सुनन्दा) भगवान् के द्वारा आदर को प्राप्त हैं, उन दोनों के प्रति प्रेम कभी भी शिथिल न करें।
यः परोऽपि विभुमाश्रयतेऽसौ, तस्य पुण्यमनसः खलु पाल्यः। किं पुनः कुलवधूरवधूय, प्रेम पैतृकमुपान्तमुपेता॥ ५९॥
(७८)
_ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- जो अन्य भी स्वामी का आश्रय लेता है, वह पुण्य मन वाले उन स्वामी के द्वारा रक्षणीय होता है। कुलवधू के विषय में तो बात ही क्या कहना, जो कि पिता सम्बन्धी प्रेम को छोड़कर स्वामी के समीप आयी है।
ये द्विषत्सु सहना इह गेहे-नर्दिनः प्रणयिनीं प्रति चण्डाः ।
ते भवन्तु पुरुषाश्चरितार्थाः, श्मश्रुणैव न तु पौरुषभंग्या॥६०॥ अर्थ :- जो पुरुष वैरियों के क्षमापरायण हैं, जो घर में शूर हैं, स्त्री के प्रति रौद्र हैं, वे पुरुष दाढ़ी मूंछ से ही चरितार्थ होवें, पौरुष के प्रकार से नहीं। विशेष :- पुरुष के पाँच लक्षण होते हैं-१. पात्र को दान देने वाला २. गुणों के प्रति अनुरागी ३. परिजनों के साथ भोगी ४. युद्ध में योद्धा तथा ५. शास्त्र का ज्ञाता। पद्य में कथित पुरुष पुरुष के लक्षणों से हीन है।
अन्तरेण पुरुषं न हि नारी, तां विना न पुरुषोऽपि विभाति।
पादपेन रुचिमञ्चति शाखा, शाखयैव सकलः किल सोऽपि॥६१॥ अर्थ :- नारी पुरुष के बिना सुशोभित नहीं होती है, नारी के बिना पुरुष भी सुशोभित नहीं होता है । वृक्ष से शाखा कान्ति को प्राप्त करती है। वृक्ष भी शाखा से ही सम्पूर्ण है।
मुक्तिरिच्छति यदुज्झितदारं, स्त्री स्त्रियं नहि सहेत स हेतुः।
कामयन्त इतरे तु महेला-युक्तमेव पुरुषं पुरुषार्थाः॥ ६२॥ अर्थ :- मुक्ति जिसने स्त्री का परित्याग कर दिया है, ऐसे पुरुष को चाहती है। इसमें हेतु यह है कि स्त्री स्त्री को सहन नहीं करती है (मुक्ति स्त्री है)। अन्य धर्म, अर्थ और काम रूप पुरुषार्थ स्त्री सहित ही पुरुष की कामना करते हैं।
योषितां रतिरलं न दुकूले, नापि हेम्नि न च सन्मणिजाले।
अन्तरङ्ग इह यः पतिरङ्गः, सोऽदसीयहृदि निश्चलकोशः॥६३॥ अर्थ :- स्त्रियों की अत्यधिक रूप से रेशमी वस्त्र के प्रति रति नहीं होती है, न सुवर्ण में और न प्रशस्य मणिसमूह में रति होती है। संसार में अन्तरङ्ग जो पति के प्रति अनुराग है, वह उनके हृदय में निश्चल कोश है।
स्पष्टनैकगुणमुज्झति नैका-दीनवाजनमदीनमनस्कः।
चञ्चलापि किमनल्पगुणाढ्या, धीयते न कुलमूर्ध्नि पताका॥६४॥ अर्थ :- हे नाथ उदार हृदय एक दुर्भाग्य रूप दोष होने से प्रकट अनेक गुणों को नहीं छोड़ता है। बहुत से गुणों से समृद्ध चंचल भी पताका क्या कुल (या गोत्र) के मस्तक पर नहीं रखी जाती है, अपितु रखी जाती है। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
(७९)
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
मौग्ध्यहेतुरनयोरनयोऽपि, स्वामिना समुचितो ननु सोढुम्।
कारिकासु सिकताधिकतायाः, किं प्रकुप्यति नदीषु नदीशः॥६५॥ अर्थ :- हे नाथ! दोनों वधुओं का मुग्धता के कारण अन्याय भी स्वामी को सहन करने योग्य है । समुद्र क्या रेत की अधिकता करने वाली नदियों पर अत्यधिक कुपित होता है? अपितु नहीं होता है।
मन्तुमन्तमपि भावविशुद्धं, शुद्धमेव गणयन्ति गुणज्ञाः।
मान्य एव शुचिरन्तरिहेम्य-स्त्रैणकंठरसिकोऽपि हि हारः॥६६॥ अर्थ :- हे नाथ! गुणों को जानने वाले अपराधी भी पुरुष यदि भाव से विशुद्ध है तो उसे शुद्ध ही मानते हैं । निश्चित रूप से धनी व्यक्तियों की स्त्रियों के समूह के कण्ठ का रसिक भी हार मध्य में पवित्र होता हुआ मान्य ही है।
त्वं परां नृषु यथाञ्चसि कोटिं, स्त्रीष्विमे अपि तथा प्रथिते तत्।
प्रेम्णि वीक्ष्य घनतां जनता वः, स्थैर्यमावहतु दम्पतिधर्मे ॥ ६७॥ अर्थ :- हे नाथ! तुम मनुष्यों में जैसे उत्कृष्ठ कोटि को प्राप्त होते हो उसी प्रकार ये सुमङ्गला और सुनन्दा स्त्रियों में विख्यात हैं, अत: जनसमूह आपके स्नेह में दृढ़ता को देखकर दम्पति के धर्म में स्थिरता धारण करे।
प्राप्तकालमिति वाक्यमदित्वा, मोदभाजि विरते सुरराजे।
आलपत् कुलवधूसमयज्ञा, शच्यपि प्रथमनाथनवोढे ॥ ६८॥ अर्थ :- जिसे अवसर प्राप्त हुआ है, ऐसे मुदित इन्द्र के इस प्रकार कहकर विरत होने पर कुलवधू के आचार को जानने वाली इन्द्राणी ने भी आदिदेव की नूतन स्त्रीद्रय से कहा।
यस्य दास्यमपि दुर्लभमन्यै-स्तत्प्रिये बत युवां यदभूतम्।
भाग्यमेतदलमत्र भवत्योः, कः प्रवक्तुमलमत्रभवत्योः॥ ६९॥ अर्थ :- हे कुलीने ! जिसकी दासता भी अन्यों को दुर्लभ है, तुम दोनों उनकी प्रिया हुई हो यह आप दोनों का अत्यधिक सौभाग्य है। इस संसार में कौन पुरुष उसे हर्ष से कहने में समर्थ हो सकता है, अपितु कोई नहीं।
देवदेवहृदि ये निविशेथे, ते युवां न भवथोऽन्यविनेये।
स्वान्तमेव मम धृष्टधुरीणं, यच्छिशिक्षयिषु वामपि कामम्॥७०॥ अर्थ :- हे सुमङ्गला और सुनन्दा! तुम दोनों जो देवों के भी देव के हृदय में रह रही हो
(८०)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
वे तुम दोनों अन्य के द्वारा शिक्षणीय नहीं हो। मेरा चित्त ही धृष्ट व्यक्तियों में अग्रणी है। जो कि तुम दोनों को भी अत्यधिक शिक्षा देने का इच्छुक है।
श्रोत्रयोर्गुरुगिरां श्रुतिरास्ये, सूनृतं हृदि पुनः पतिभक्तिः ।
दानमर्थिषु करे रमणीना-मेष भूषणविधिर्विधिदत्तः॥ ७१॥ अर्थ :- स्त्रियों की यह भूषणाविधि भाग्य ने दी है। कानों में गुरु की वाणी सुनना, मुख में मधुर वाणी, पुनः हृदय में प्रतिभक्ति और याचकों को दान देना।
सुभ्रुवां सहजसिद्धमपास्यं, चापलं प्रसवसद्म विपत्तेः। ___ येन कूलकठिनाश्मनिपाता-द्वीचयोंऽबुधिभुवोऽपि विशीर्णाः॥७२॥ अर्थ :- सुन्दर भौंह जिनके है ऐसी स्त्रियों को स्वभावसिद्ध, विपत्ति का जन्मगृह चंचलता छोड़नी चाहिए, जिस चपलता से तट पर जो कठिन पाषाण हैं, उन पर पतन से समुद्र से उत्पन्न तरङ्गे भी भग्न हो गईं।
चापलेऽपि कुलमूर्ध्नि पताका, तिष्ठतीति हृदि मास्म निधत्तम्।
प्राप सापि वसतिं जनबाह्यां, दण्डसंघटनया दृढबद्धा॥७३॥ अर्थ :- हे कुलीने! तुम दोनों को हृदय में पताका चंचल होने पर भी घर (अथवा गोत्र) के मस्तक पर ठहरती है, यह बात नहीं सोचनी चाहिए। उस पताका ने भी दण्ड की संघटना से दृढ़बद्ध होती हुई लोगों से बाहर वसती में निवास को प्राप्त किया।
अस्ति संवननमात्मवशं चे-दौचितीपरिचिता पतिभक्तिः।
मूलमन्त्रमणिभिर्मूगनेत्रा-स्तद् भ्रमन्ति किमु विभ्रमभाजः॥७४॥ अर्थ :- हे कुलीने ! स्त्रियों के यदि औचित्य गुण से युक्त पतिभक्ति रूप अपने अान वशीकरण है तो मृगनेत्रा स्त्रियाँ मूलमन्त्र और मणियों से किसलिए विभ्रम की पात्र होकर भ्रमण करती हैं?
भोजिते प्रियतमेऽहनि भुंक्ते, या च तत्र शयिते निशि शेते। . प्रातरुज्झति ततः शयनं प्राक्, सैव तस्य सुतनुः सतनुः श्रीः॥ ७५॥ अर्थ :- जो स्त्री प्रियतम से दिन में भोजन कर लेने पर भोजन करती है और जो प्रियतम के रात्रि में सोने पर सोती है। प्रातः प्रियतम से पूर्व शयन छोड़ती है। प्रियतम की वही सुन्दर शरीर वाली स्त्री शरीर धारिणी लक्ष्मी होती है। विशेष :- कहा भी है
(८१)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुकूला सदा तुष्टा दक्षा साध्वी विचक्षणा।
एभिः पञ्चगुणैर्युक्ता श्रीरिव स्त्री न संशयः॥ अर्थात् जो अनुकूल, तुष्टा, दक्षा, साध्वी और विचक्षण हो, इन पाँच गुणों से युक्त स्त्री लक्ष्मी के समान होती है, इसमें कोई संशय नहीं है।
नेत्रपद्ममिह मीलति यस्या, वीक्षिते परपुमाननचन्द्रे ।
श्रीगृहं सृजति पङ्कजिनीव, तामिनः स्वकरसङ्गमबुद्धाम्॥७६॥ अर्थ :- जिस स्त्री का नेत्रकमल परपुरुष का मुख रूप चन्द्र देखने पर संकुचित हो जाता है। भर्ता (अथवा सूर्य) अपने हाथ (अथवा किरण) के स्पर्श से विकसित उस स्त्री को कमलिनी के समान लक्ष्मीस्थान का सृजन करता है अर्थात् उसे अपने घर की समस्त लक्ष्मी का स्थान बना देता है।
मास्म तप्यत तपः परितक्षीन्, मा तनूमतनुभिर्वतकष्टैः।
इष्टसिद्धिमिह विन्दति योषि-च्चेन लुम्पति पतिव्रतमेकम्॥७७॥ अर्थ :- तप मत तपो। शरीर को बहुत से व्रत के कष्टों से क्षीण मत करो। स्त्री इस संसार में यदि एक पतिव्रत को नहीं छोड़ती है तो इष्टसिद्धि प्राप्त करती है।
उग्रदुर्ग्रहमभङ्गमयत्न-प्राप्यमाभरणमस्ति न शीलम्।
चेत्तदा वहति काञ्चनरत्न-र्वीवधं मृदुपलैर्महिला किम्॥ ७८॥ अर्थ :- स्त्रियों के यदि उत्कट दुःख से ग्राह्य अभङ्ग अयत्नप्राप्य शील रूप आभरण नहीं है तो स्त्री मिट्टी और पत्थरों से निर्मित सुवर्ण और रत्नों से भार को क्यों वहन करती है?
मजितोऽपि घनकजलपङ्के, शुभ्र एव परिशीलितशीलः।
स्वधुनीसलिलधौतशरीरो-ऽप्युच्यते शुचिरुचिर्न कुशीलः॥ ७९॥ अर्थ :- जिसने शील को परिशीलित किया है, ऐसा पुरुष घने काजल के कीचड़ में डूबे रहने पर भी उज्ज्वल है। कुशील पुरुष गङ्गा जल से शरीर धोने पर भी उज्ज्वल कान्ति वाला नहीं कहा जाता है।
कष्टकर्म न हि निष्फलमेत-च्चेतनावदुदितं न वचो यत्।
शीलशैलशिखरादवपातः, पातकापयशसोर्वनितानाम्॥ ८०॥ अर्थ :- (पर्वतादि से गिरना आदि) कष्ट कर्म किए जाने पर निष्फल नहीं होते हैं, यह वचन सचेतन से कथित नहीं है, क्योंकि स्त्रियों का शील रूपी पर्वत के शिखर से गिरना पाप और अपयश के लिए ही होता है। (८२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
या प्रभूष्णुरपि भर्तरि दासी - भावमावहति सा खलु कान्ता । कोपपङ्ककलुषा नृषु शेषा, योषितः क्षतजशोषजलूकाः ॥ ८१ ॥
वह
अर्थ :जो समर्थ होने पर भी प्रियतम के प्रति दासीभाव को धारण करती है, कान्ता जाननी चाहिए। शेष स्त्रियाँ कोप रूपी कीचड़ से कलुष होती हुई मनुष्यों में खून को सोखने के लिए जोंक हैं ।
रोषिताऽवगणिता निहताऽपि, प्रेमनेतरि न मुञ्चति कुल्या । मेघ एव परितुष्यति धारा - दण्डधोरणिहतापि सुजातिः ॥ ८२ ॥
अर्थ :- कुलीना स्त्री (प्रियतम के) रोष को प्राप्त होने पर, तिरस्कृत होने पर अथवा मारे जाने पर भी स्वामी के प्रति प्रेम को नहीं छोड़ती है । जैसे मालती (अथवा कुलीना) मेघ सम्बन्धी धारादण्ड की श्रेणी से हत होने पर भी मेघ में ही सन्तुष्ट होती है ।
तद्युवामपि तथा प्रयतेथां, स्त्रैणभूषणगुणार्जनहेतोः ।
येन वां प्रतिदधाति समस्तः, स्त्रीगणो गुणविधौ गुरुबुद्धिम् ॥ ८३ ॥ अर्थ :हे कुलीने ! तो तुम दोनों भी स्त्रियों के समूह के आभूषण रूप जो गुणों के अर्जन के निमित्त हैं, उनके विषय में उस प्रकार का प्रयत्न करो, जिससे समस्त स्त्रीसमूह तुम दोनों के गुणों के प्रकार में गुरुबुद्धि को धारण करे ।
बुद्धिं शुद्धामिति मतिमतामुत्तमेभ्यः शचीन्द्रौ भक्त्या वेशाद्विशदहृदयौ प्राभृतीकृत्य तेभ्यः ॥ स्वागस्त्यागं चरणलुठनैः क्लृप्तवन्तौ दिवं तौ, द्राग् भेजाते चिरविरहतोऽत्याकुलस्थानपालाम् ॥ ८४ ॥
अर्थ :निर्मल मन वाले अपने अपराध के त्याग को चरण नमस्कार से युक्त करते हुए वे दोनों शची और इन्द्र बुद्धिमानों में उत्तम वरवधू को इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से भक्ति के आवेश से भेंट देकर शीघ्र ही चिरकाल के विरह से अत्यन्त आकुल स्थानरक्षक वाले स्वर्ग लोक को गए ।
अन्येऽपीन्द्राः सकलभगवत्कार्यभारे धुरीणं, सौधर्मस्याधिपमधरमप्युत्तरं भावयन्तः । धन्यं मन्यास्त्रिभुवनगुरोर्दर्शनादेव देवैः, साकं नाकं निजनिजमयुर्निर्भरानन्दपूर्णाः ॥ ८५ ॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ५ ]
(८३)
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- भगवान् के समस्त कार्य में अग्रगामी, सौधर्म इन्द्र को नीचे होने पर भी उत्कृष्ट मानते हुए तीनों भुवनों के गुरु के दर्शन से ही धन्य मानने वाले अन्य भी इन्द्र अत्यधिक आनन्द से पूर्ण होते हुए देवों के साथ अपने-अपने स्वर्ग को गए।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि-, र्धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लेलिनीसानुमान्। वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये ऽभवत् पञ्चमः॥५॥ कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लकुमारचरितादि महाकवित्व के प्रवाह रूप नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में पञ्चम सर्ग समाप्त हुआ। इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित
जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का पञ्चम सर्ग समाप्त हुआ।
000
(८४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
६. षष्ठः सर्गः
अथाश्रयं स्वं सपरिच्छदेषु, सर्वेषु यातेषु नरामरेषु।
नाथं नवोढं रजनिर्विविक्त, इवेक्षितुं राजवधूरुपागात्॥१॥ अर्थ :- अनन्तर सपरिवार समस्त मनुष्य और देवों के अपने घर को जाने पर रात्रि रूपी राजवधू (चन्द्रवधू) नवपरिणीत नाथ को मानों एकान्त में देखने के लिए आयी।
निशा निशाभङ्गविशेषकान्ति-कान्तायुतस्यास्य वपुर्विलोक्य।
स्थाने तमः श्यामिकया निरुद्धं, दधौ मुखं लब्धनवोदयापि॥२॥ अर्थ :- रात्रि ने नया उदय प्राप्त होने पर भी स्त्री से युक्त इन भगवान् के हल्दी के टुकड़े के समान विशेष कान्ति वाले (पक्ष में - रात्रि की समाप्ति पर विशेष कान्ति वाले) शरीर को देखकर अंधकार की कालिमा से व्याप्त मुख को धारण किया।
अभुक्त भूतेशतनोर्विभूति, भौती तमोभिः स्फुटतारकौघाः।
विभिन्नकालच्छविदन्तिदैत्य-चर्मावृतेर्भूरिनरास्थिभाजः॥ ३॥ अर्थ :- अन्धकारों से उपलक्षित, जिसमें ताराओं के समूह प्रकट हो रहे हैं, ऐसी रात्रि ने विशेष रूप से जिसकी कृष्णकान्ति भिन्न हो रही है इस प्रकार के गजासुर का चमड़ा जिसका आवरण है तथा जो अत्यधिक रूप से मनुष्य की अस्थियों का सेवन करती है ऐसे शिव के शरीर की विभूति का सेवन किया। विशेष :- रात्रि का अन्धकार ही दैत्य सम्बन्धी काले चर्म का आवरण है । तारा समूह मनुष्य की अस्थियाँ हैं । इस कारण ईश्वर (शिव) के शरीर का उपमान रात्रि का है।
न्यास्थन्निशा तस्करपुंश्चलीनां, नेत्रेषु लोकाक्षिमहांसि हृत्वा।
सूरे गते दुःसहमण्डलाये, तमस्विनां हि फलिता कदाशा॥ ४॥ अर्थ :- रात्रि लोगों के नेत्रों का तेज हरण कर तस्कर और स्वैरिणी स्त्रियों के नेत्रों में उहरी। जिसका खड्ग दु:सह है, ऐसे सूर्य के (और सुभट के) चले जाने पर अन्धका में विचरण करने वाले पापियों की बुरी आशा फलित हो गई।
जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
(८५
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालीयमालीय गिरेगुहासु, भास्वद्भयेनाह्नि निशा तदस्ते।
भूबद्धखेलाखिलवस्तु काली-चकार कालेन विना व शक्तिः॥५॥ अर्थ :- इस काली रात्रि ने दिन में सूर्य के भय से पर्वत की गुफाओं में छिपकर सूर्य के अस्त होने पर पृथिवी पर क्रीडा कर समस्त वस्तु को काली बना दिया। काल (समय) के बिना शक्ति कहाँ? अर्थात् कहीं भी नहीं है।
कुमुद्वतीं चाकृत रोहिणीं च, प्रिये निशां वीक्ष्य शितिं सितांशुः।
श्रियं च तेजश्च तयोर्ददाना, साधत्त साधु क्षणदेति नाम॥६॥ अर्थ :- चन्द्रमा ने काली रात्रि देखकर कुमुदिनी और रोहिणी को अपनी प्रिया बना लिया। रात्रि ने कुमुदिनी और रोहिणी की शोभा को और अधिक तेज प्रदान करते हुए क्षणदा (उत्सव को देने वाली) यह नाम ठीक ही धारण कर लिया।
हरिद्रयेयं यदभित्रनामा, बभूव गौर्येव निशा ततः प्राक् ।
सन्तापयन्ती तु सतीरनाथा-स्तच्छापदग्धाजनि कालकाया॥ ७॥ अर्थ :- जिस कारण यह रात्रि हरिद्रा के साथ सदृश नाम वाली है (नाम माला में हरिद्रा कांचनी पीता निशाख्या वरवर्णिनी इत्यादि) अतः पहले गौरवर्ण वाली हुई, यह जाना जाता है। पुन: अनाथ सतियों को सन्तापित करती हुई उनके शाप से जलकर काले शरीर वाली हो गई।
किं योगिनीयं धृतनीलकन्था, तमस्विनी तारकशंखभूषा।
वर्णव्यवस्थामवधूय सर्वा-मभेदवादं जगतस्ततान॥ ८॥ अर्थ :- नीले कंथे को धारण की हुई, तारागण ही जिसके शंख सदृश आभूषण हैं ऐसी यह रात्रि क्या योगिनी है? जिसने विश्व की समस्त ब्राह्मण आदि वर्णों अथवा श्वेत कृष्णादि वर्गों की व्यवस्था को छोड़कर अभेदवाद का विस्तार किया।
तितांसति श्वैत्यमिहेन्दुरस्य, जाया निशा दित्सति कालिमानम्।
अहो कलत्रं हृदयानुयायि, कलानिधीनामपि भाग्यलभ्यम्॥९॥ अर्थ :- चन्द्र इस संसार में धवलता का विस्तार करने की इच्छा करता है। इसकी पत्नी निशा कालिमा को देना चाहती है। ओह! हृदय का अनुसरण करने वाली स्त्री कलानिधियों को भी भाग्य से लभ्य होती है।
दत्त्वा पतङ्गः प्रवसन् वसु स्वं, तमो निरोधैं भुवि यान्ययुक्त। तैर्दीपभृत्यैर्निजनाथनाम-विडम्बिनो हन्त हताः पतङ्गाः॥ १०॥
(८६)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
सूर्य ने प्रवास पर जाते हुए द्रव्य अथवा तेज देकर अन्धकार को रोकने के लिए जिन दीप रूप सेवकों को पृथिवी पर व्यापारित किया। उन दीप रूप भृत्यों से अपने नाथ सूर्य के नाम का उपहास कराने वाले, हाय, पतङ्गे ( शलभ) मारे गए। यत्कोकयुग्मस्य वियोगवह्निर्जज्वाल मित्रेऽस्तमिते निशादौ । सोद्योतखद्योतकुलस्फुलिङ्गं, तद्धूमराजिः किमिदं तमिस्रम् ॥ ११ ॥
-:
अर्थ :जिस चक्रवाकमिथुन की रात्रि के आदि में सूर्य के अस्त हो जाने पर वियोग रूपी अग्नि जली । यह उद्योग सहित खद्योत का समूह जिसमें चिंगारी है, ऐसा अन्धकार क्या धुयें का समूह नहीं है ?
अवेत्य पाटच्चरपांसुलानां तमोबलाद्दुर्ललितानि तानि ।
,
प्रभां दिशीन्द्रस्य तमोऽपनोदा-मदीदृशत् स्वोदयचिह्न मिन्दुः ॥ १२ ॥
अर्थ :
तस्कर और असतियों के तमोबल से उन दुश्चेष्टाओं को जानकर चन्द्रमा ने पूर्व दिशा में अन्धकार को दूर करने वाली, अपने उदय की चिह्न स्वरूप प्रभा दिखला दी । धामेदमौत्पातिक मानलं वेत्यूहं वितन्वत्यसतीसमूहे ।
उदीतमेवैक्षत चन्द्रबिम्बं पूर्वांबुधेः कोकनदश्रि लोकः ॥ १३ ॥
:
,
अर्थ :असती स्त्रियों के समूह में क्या यह उत्पातकारी अथवा अग्नि सम्बन्धी तेज है, ऐसा विचार करते हुए पूर्व समुद्र से उदय प्राप्त रक्त कमल के समान शोभा वाले चन्द्रबिम्ब को लोगों ने देखा ।
सुधानिधानं मृगपत्रलेखं, शुभ्रांशुकुम्भं शिरसा दधाना । कौसुम्भवस्त्रायितचान्द्ररागा, प्राची जगन्मङ्गलदा तदाभूत् ॥ १४ ॥
अर्थ :चन्द्रकलश को सिर पर धारण की हुई, कौसुम्भ वस्त्र के समान जिसका चन्द्र सम्बन्धी राग आचरित है, अमृत का निधान, मृत रूप लता वाली पूर्व दिशा तब संसार को मङ्गलदायिनी हुई।
सांराविणं राजकरोपनीत पीयूषपानैर्विहितं चकोरैः । भास्वद्विरोकापगमाप्तशोकाः, कोकाः क्षतक्षारमिवान्वभूवन् ॥ १५ ॥
अर्थ :चन्द्रमा (अथवा राजा) की किरणों से (अथवा हाथ से) पास लाए हुए अमृत के पीने से चकोरों से किए गए कोलाहल को सूर्य की किरणों के विनाश से प्राप्त शोक वाले चक्रवाक् पक्षी घाव पर नमक छिड़कने के समान अनुभव करने लगे ।
`तमस्सु राज्ञा स्वमयूखदण्डै- र्विखंड्यमानेष्वदयं तमो यत् ।
तमेव भेजे शरणं शरण्यं, लक्ष्माभिधां किं तदलम्भि लोकैः ॥ १६॥
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६ ]
(८७)
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- चन्द्रमा द्वारा अपने ( अथवा राजा द्वारा) किरणरूप दण्डों से अन्धकार निर्दयतापूर्वक विखण्डित किए जाने पर जिस अन्धकार ने चन्द्र रूप शरण्य की शरण ही स्वीकार की। लोगों के द्वारा उस अन्धकार ने क्या लाञ्छन रूप नाम को क्या प्राप्त नहीं किया? अर्थात् अवश्य प्राप्त किया।
अत्रेर्द्विजादुद्भवति स्म न श्री तातात्पयोधेर्विधुरित्यवैमि । यज्जातमात्रः प्रतिधिष्ण्यमेषोऽक्षिपत्करं श्रीलवलाभलोभात् ॥ १७॥
अर्थ :- चन्द्रमा अत्रि नामक ब्राह्मण से उत्पन्न हुआ है, लक्ष्मी के पिता समुद्र से उत्पन्न नहीं हुआ है, ऐसा जानता हूँ। जो कि उत्पन्न होते ही लक्ष्मी के लेश के लाभ के लोभ से प्रत्येक नक्षत्र (अथवा प्रत्येक घर ) पर किरणों को (हाथ को ) फैलाता है ।
विशेष :- चन्द्रोदय होने पर नक्षत्र निस्तेज हो गए। ब्राह्मण प्रत्येक घर याचना करते हैं, इस कारण चन्द्रमा भिक्षाचर के घर में उत्पन्न हुआ है, ऐसा जाना जाता है 1
अलोपि सूरोऽपि मया पतन्त्या प्यहं महोऽवग्रहभिद्ग्रहाणाम् ।
मय्येव जन्मोत्तमपूरुषाणां का योगिभोगिष्वपरा मदिष्टा ॥ १८ ॥
1
स्त्री ततः कापि मया समाना, मानास्पदं या बत सा पुरोस्तु ।
इतीव सल्लक्ष्मलिपीन्दुपत्रमुच्चैः समुत्तम्भयति स्म रात्रिः ॥ १९ ॥
अर्थ रात्रि विद्यमान लाञ्छन ही जिसमें लिपि है, ऐसे चन्द्र रूप पत्र को अत्यधिक रूप से ऊपर उठा रही थी मानों इसीलिए क्या मैंने आते हुए सूर्य को भी लुप्त कर दिया। मैं ग्रहों के तेज के विघ्न को भेदकर व्यवहार करती हूँ। उत्तम पुरुषों का जन्म मुझमें ही होता है। योगी और भोगियों में कौन मेरे समान अभीष्ट है ? अतः कोई स्त्री मेरे समान नहीं है, जो मान का स्थान हो वह मेरे आगे हो जाए ।
(66)
—
विशेष :- योगी लोग रात्रि में ही प्रायः ध्यान से निश्चल नेत्रों वाले होकर योगनिद्रा को प्राप्त करते हैं । भोगी भी शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इन पाँच प्रकार के विषयसुख का अनुभव करते हैं।
अदान्मदान्ध्यं तमसामसाध्यं, क्षिपाक्षिपादं प्रति वैरिणां या ।
तां विन्दुरिन्दुर्दयितां चकार, सारं कलत्रं क्व कलङ्किनो वा ॥ २० ॥ अर्थ :- जिस रात्रि ने रात्रि जिसकी स्त्री है उस चन्द्र के प्रति वैरियों का अन्धकार का असाध्य मन्दान्ध्य दिया, विद्वान् भी चन्द्र ने उसे स्त्री बनाया अथवा कलङ्कियों की सार रूप स्त्री कहाँ है ?
जैन कुमारसम्भव महाकाव्य,
सर्ग - ६ ]
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
विधोरुदीतस्य करैरवापि, दिनायितं यत्प्रसृतैस्त्रियामा।
युवाक्षिभृङ्गैस्तदरामि रामा-तरङ्गिणीस्मेरमुखाम्बुजेषु ॥ २१॥ अर्थ :- रात्रि ने उदित होते हुए चन्द्रमा की किरणों के फैलने पर जो दिन के समान आचरण किया, वह युवकों के नेत्र रूप भौंरों के द्वारा स्त्री रूप नदी के मुस्कराते हुए मुख कमलों पर सुशोभित हो रहा था।
. लोके सितांशोर्गमिते मयूखै-र्दुग्धाब्धिकेलीकुतुकानि देवः । .. इयेष स स्वापसुखं सरोज-साम्यं सिसत्यापयिषुः किमक्ष्णोः ॥२२॥ अर्थ :- दोनों नेत्रों के कमल के सादृश्य को सत्यापित करने के इच्छुक लोक में चन्द्रमा की किरणों से क्षीर समुद्र के क्रीडा कौतुक को पहुँचने पर जिस प्रकार नारायण (देव) निद्रा के सुख को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार उन युगादिदेव ने निद्रासुख की इच्छा की।
तदैव देवैः कृतमग्र्यवर्णं, समं वधूभ्यां मणिहर्म्यमीशः। ..... ततो गुरूद्गन्धि विवेश शास्त्रं, मतिस्मृतिभ्यामिव तत्त्वकामः॥२३॥ . अर्थ :- अनन्तर श्री ऋषभ ने सुमङ्गला और सुनन्दा के साथ उसी, देवों द्वारा बनाए गए मणियों के महल में प्रवेश किया। अगुरु की गन्ध से युक्त तत्त्व के इच्छुक से मति और स्मृति के साथ श्रेष्ठ वर्ण वाले शास्त्र में प्रवेश किया। . . .
विवाहदीक्षाविधिविद्वधूभ्यां, कृत्वा सखीभ्यामिव नर्मकेलीः। . निद्रां प्रियीकृत्य स तत्र तल्पे, शिश्ये सुखं शेष इवासुरारिः॥ २४॥ अर्थ :- विवाह दीक्षा की विधि को जानने वाली दोनों सखियों - सुमङ्गला और सुनन्दा के साथ क्रीडा कौतुक करके उन भगवान् ने मणिमय आवास में पलङ्ग पर
निद्रा को अभीष्ट कर नारायण के समान सुख से शयन किया। १ त्रिरात्रमेवं भगवानतीत्या-निरुद्धपित्रानुपरुद्धचित्तः।
ततस्तृतीयेऽपि पुमर्थसारे, प्रावर्ततावक्रमतिः क्रमज्ञः॥२५॥ अर्थ :- अनिरुद्ध के पिता काम से जिसका हृदय अनासक्त है तथा जिसकी बुद्धि कुटिल नहीं है एवं धर्म, अर्थ, काम आदि के क्रम को जानते हैं, ऐसे भगवान् ने इस प्रकार तीन रात्रियाँ बिताकर अनन्तर तीसरे भी (कामरूप) पुरुषार्थ के रहस्य में प्रवृत्ति की। ...भोगाईकर्म ध्रुववेद्यमन्य-जन्मार्जितं स्वं स विभुर्विबुध्य।
मुक्तयेककामोऽप्युचितोपचारै-रभुत ताभ्यां विषयानसक्तः ॥२६॥
.. [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
(८९)
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- उन विभु ने अन्य जन्म में उपार्जित अपने भोगने के योग्य कर्म को अवश्य भोक्तव्य जानकर मुक्ति ही जिनकी अभिलाषा है, ऐसा होने पर भी उचित उपचारों से (शीत, ग्रीष्म तथा वर्षा ऋतु के योग्य उपचारों से ) सुमङ्गला और सुनन्दा के साथ विषयों को भोगा ।
7
न तस्य दासीकृतवासवोऽपि मनो मनोयोनिरियेष जेतुम् । विगृह्णते स्वस्य परस्य मत्वा, ये स्थाम तानाश्रयते जयश्रीः ॥ २७ ॥ अर्थ :- मन जिसका उत्पत्ति स्थल है, ऐसे कामदेव ने इन्द्र को दास बनाने पर भी उन भगवान् के मन को जीतने की इच्छा नहीं की। जो अपने और दूसरे के बल को जानकर विग्रह करते हैं, विजयलक्ष्मी उनका आश्रय लेती है।
श्रोतांसि पञ्चापि न पुष्पचाप - चापल्यमातन्वत तस्य नेतुः । स्वदेहगेहांशनिवासिनां यो, न शासकः सोऽस्तु कथं त्रिलोक्याः ॥ २८ ॥ अर्थ : स्वामी की पंच इन्द्रियों ने काम की चपलता को नहीं किया। जो अपने देह रूप घर के कोने में बसने वालों का शासक न हो, वह तीनों लोकों का शासक कैसे हो सकता है ?
:
या योषिदेनं प्रतिदृष्टिभली-चिक्षेप बाधाकरकामबुद्धया । तामप्यवैक्षिष्ट दृशा स साम्य-स्पृशैव शक्तौ सहना हि सन्तः ॥ २९ ॥ अर्थ :जिस स्त्री ने इन भगवान् के प्रति बाधा करने वाली कामबुद्धि से दृष्टि रूपी भाला फेंका, उन भगवान् ने उसके प्रति भी समता का स्पर्श करने वाली दृष्टि से देखा । निश्चित रूप से सज्जन पुरुष शक्ति के होने पर सहनशील होते हैं ।
नासौ विलासोर्मिभिरप्सरोभि-रक्षोभि नाट्यावसरागताभिः । स्रोतः पतेर्यो मनसोऽपि शोषे, प्रभूयते तस्य किमत्र चित्रम् ॥ ३० ॥ अर्थ :भगवान् नाट्य के अवसर पर आयी हुई अप्सराओं की विलास रूप कल्लोलों क्षोभ को प्राप्त नहीं है। जो इन्द्रियों के स्वामी (अथवा समुद्र) को मन से भी सुखाने में समर्थ हैं, वे यदि अप्सराओं से क्षोभ को प्राप्त नहीं होते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है ?
जगे न गेयेष्वपि नाकसद्भिः, स्मरस्य साराधिकता पुरोऽस्य । शतं सतां वर्धयितुं विरोधं, लोला कथं सौमनसी विलोला ॥ ३१ ॥
अर्थ : देवों ने इन भगवान् के सामने गीतों में भी कामदेव के बल की अधिकता का गान नहीं किया । देवों की जीभ सज्जनों के शान्त विरोध को बढ़ाने में चंचल कैसे हो सकती है ? अपितु नहीं हो सकती है।
(९०)
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६ ]
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :
वैर रूपी अग्नि को बढ़ाने वाले भी नारद ने उन अनन्य तेज भगवान् को बतलाने के लिए कामदेव जीवित होता हुआ जीव समूह को संग्राम में गिराकर मुझे अनेक बार हर्ष पहुँचाएगा, इस बुद्धि से रोका।
,
अवारि वैराग्निविवर्धनोऽपि तं नारदो ज्ञीप्सुरनन्यजौजः । जीवन्नसौ जीवगणान्नियोध्य मां भूरिशस्तोषयितेतिबुद्धया ॥ ३२ ॥
7
आद्यापि या तस्य सुमङ्गलेति, हेतिः स्मरस्यास्खलिता रराज । रम्भाप्यरं भारहिता यदग्रे, रूपं रतेरप्यरतिं तनोति ॥
३३॥
अर्थ : भगवान् की कामदेव का स्खलित न होने वाला आयुध प्रथम पत्नी सुमङ्गला इस प्रकार सुशोभित हुई। रंभा भी अत्यधिक रूप से जिसके आगे प्रभारहित हो गई । जिसके आगे रति का भी रूप अरति को करता है ।
:
यज्ज्वालमालायुजि काञ्चनेना-हुतिः स्वतन्वा विहिता हुताशे । तत्तेन तुष्टेन यदङ्गवर्ण-सवर्णतादायि मनाक्किमस्मै ॥ ३४॥
अर्थ :- सुवर्ण ने ज्वालाओं की श्रेणि से युक्त अग्नि में जो अपने शरीर की आहुति दी उससे सन्तुष्ट हुए अग्नि ने थोड़ा इसे सुमङ्गला के वर्ण की समानता दी ।
पद्मं न चन्द्रं प्रति सप्रसादं, तस्योदितः सोऽपि ददाति सादम् । यस्या मुखं द्वावपि तावलुप्त, श्रीमान् परस्फातिसहः क्व हन्त ॥ ३५ ॥
अर्थ :कमल चन्द्रमा के प्रति सुप्रसन्न उदित नहीं हुआ। वह (चन्द्र) भी कमल को खिन्न करता है । जिस सुमङ्गला के मुख को कमल और चन्द्रमा दोनों ने छिपा दिया । ठीक ही है लक्ष्मीवान् दूसरे की वृद्धि को कहाँ सहते हैं?
-
पूर्वं रसं नीरसतां च पश्चा- द्विवृण्वतो वृद्धिमतो जलौघैः । जगज्जने तृप्यति तद्विरैव-स्थानेऽभवन्निष्फलजन्मतेोः ॥ ३६ ॥
अर्थ :- जल के समूह से (अथवा जड़ समूह से) वृद्धियुक्त सुमङ्गला की वाणी से लोक के तृप्त होने पर पहले रस को पश्चात् नीरसता को प्रकट करते हुए इक्षु की निष्फल जन्मता ठीक ही हुई ।
यया स्वशीलेन ससौरभाड्या, श्रीखण्डमन्तर्गडुतामनायि । देवार्चने स्वं विनियोज्य जात- पुण्यं पुनर्भोगिभिराप योगम् ॥ ३७॥
अर्थ
सुगन्ध सहित शरीर वाली जिस सुमङ्गला ने श्रीखण्ड को निरर्थक बताया । पुन: देवार्चन में अपने आपको लगाकर जिसके पुण्य उत्पन्न हुआ है ऐसे चन्दन ने सर्पों
के साथ अथवा भोगी पुरुषों के साथ योग को प्राप्त किया ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६ ]
(९१)
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :
शिव का कण्ठ विष से, चन्द्र मृग से, गङ्गाजल सेवाल से, वस्त्र मल से कलुषता को प्राप्त होता है परन्तु सुमङ्गला का शील किसी भी प्रकार कलुषता को प्राप्त नहीं होता था ।
-:
गरेण गौरीशगलो मृगेण, गौरद्युतिर्नीलिकयाम्बु गाङ्गम् ।
मलेन वासः कलुषत्वमेति, शीलं तु तस्या न कथञ्चनापि ॥ ३८ ॥
उदारवेदिन्युरुमानभित्तौ, सद्वारशोभाकरणोत्तरङ्गे ।
उवास वासौकसि वर्ष्मणा या, गुणैस्तु तैस्तैर्हृदि विश्वभर्तुः ॥ ३९ ॥
अर्थ -- जो सुमङ्गला शरीर से उत्कृष्ट बराण्डे से युक्त, बड़ी-बड़ी भित्ति वाले तथा उत्तम द्वार की शोभा को करने वाली जिसकी मेहराब है ऐसे निवास समूह में रहती थी, किन्तु (सुन्दर रूप, सौन्दर्य, सुनेत्र, सुन्दर शोभा, प्रिय भाषण, प्रसन्न मुख आदि) गुणों से जो उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त थे, जिसका भारी मान क्षय को प्राप्त हो गया था तथा जो सज्जनों के समूह की शोभा के करने रूप ऊँची-ऊँची कल्लोलों से युक्त थे, ऐसे श्री ऋषभदेव के हृदय में निवास करती थी ।
1:
घनागमप्रीणितसत्कदम्बा, सारस्वतं सा रसमुद्रिरन्ती ।
रजोव्रजं मञ्जुलतोपनीत छाया प्रती प्रावृषमन्वकार्षीत् ॥ ४० ॥
अर्थ
घने आगमों से जिसने सज्जनों के समूह को प्रसन्न किया है, जो सरस्वती सम्बन्धी रस को प्रकट कर रही है, जो पाप के समूह को क्षय कर रही है तथा सौन्दर्य के द्वारा जिसकी कान्ति समीपवर्तिनी है, ऐसी सुमङ्गला ने वर्षा ऋतु का अनुसरण
किया ।
विशेष :- वर्षा ऋतु भी मेघों के आने पर कदम्बों को प्रसन्न करती है, सरस्वती नदी के जल को प्रकट करती है, धूलि के समूह का क्षय करती है तथा सुन्दर सुन्दर लताओं से कान्ति को लाती है ।
स्मेरास्यपद्मा स्फुटवृत्तशालि क्षेत्रा नदद्हंसकचारुचर्या ।
याऽपास्तपङ्का विललास पुण्य-प्रकाशकाशा शरदङ्गिनीव ॥ ४१ ॥
अर्थ :विकसित मुखकमल वाली, प्रकट रूप में औदार्य, गाम्भीर्य, माधुर्य आदि चरित्र से शोभायमान, शब्द करने वाले सुन्दर नूपुरों से मनोज्ञ जिसकी चर्या है, जिसका पाप रूप कर्दम नष्ट हो गया है तथा जिसका जिसकी आशा पुण्य प्रकाशिकी है, ऐसी सुमङ्गला शरद ऋतु के समान सुशोभित हुई ।
विशेष
(९२)
:
• जिस शरद ऋतु का विकसित कमल है, जिसमें शलि के क्षेत्र प्रकट हुए हैं,
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६ ]
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द करते हुए हंसों की सुन्दरचर्या जिसमें है, कीचड़ जिसमें सूख गया है तथा पवित्र काश जिसमें प्रकट है, उस शरद् ऋतु के समान सुमङ्गला सुशोभित हुई। .
. सत्पावकार्चिः प्रणिधानदत्ता-दरा कलाकेलिबलं दधाना।
. श्रियं विशालक्षणदा हिमतॊः, शिश्राय सत्यागतशीतलास्या॥४२॥ . अर्थ :- प्रधान एवं पवित्र करने वाले परब्रह्म के ध्यान को जिसने आदर दिया है, कलाओं में क्रीडा के बल को जो धारण करती है, विशाल क्षण को देती है, जिसमें तकार का त्याग है ऐसे शीतल शब्द अर्थात् शील में जिसका निवेश है ऐसी सुमङ्गला ने हिम ऋतु की शोभा का आश्रय लिया। विशेष :- हिम ऋतु भी प्रधान अग्नि की अर्चियों के ध्यान में आदर रखने वाली, कन्दर्प के बल को धारण करने वाली, विशाल रात्रि से युक्त तथा सत्य से आगत शीत रूप नृत्य वाली होती है।
सत्रं विपत्रं रचयन्त्यदभ्रा-गर्म क्रमोपस्थितमारुतौघा।
सा श्रीदकाष्ठामिनमानयन्ती, गोष्ठयां विजिग्ये शिशिरतुकीर्तिम्॥४३॥ अर्थ :- सत्रागार की विपत्ति से रक्षा करती हुई, जिसमें (जिनके पास) लोगों का बहुत आगमन है, जिसके चरणों में देवों का समूह उपस्थित है ऐसे स्वामी को गोष्ठी में लक्ष्मीदायक कोटि में लाती हुई अर्थात् गोष्ठी में सखियों के मध्य वार्ता में स्वामी की लक्ष्मीदायक के रूप में प्रशंसा करती हुई उस सुमङ्गला ने शिशिर ऋतु की कीर्ति को जीत लिया। विशेष :- शिशिर ऋतु भी ऐसे बहुत से वृक्षों वाले वनों से युक्त होती है, उसमें पत्ते नहीं रहते हैं, पवन समूह वहाँ उपस्थित होता है तथा वह गोष्ठी में सूर्य को उत्तर दिशा में लाती है।
उल्लासयन्ती सुमनः समूह, तेने सदालिप्रियतामुपेता।
वसन्तलक्ष्मीरिव दक्षिणा हि, कान्ते रुचिं सत्परपुष्टघोषा॥४४॥ अर्थ :- अच्छे मन वाले लोगों के समूह को सुशोभित करती हुई, सदैव सखियों के प्रेम को प्राप्त, सज्जनों में उत्कृष्ट घोष वाली अनुकूला सुमङ्गला ने श्री ऋषभदेव के प्रति वसन्त लक्ष्मी के समान अभिलाष का विस्तार किया। विशेष :- वसन्त लक्ष्मी फूलों के समूह को विकसित करती हुई भौंरों की प्रियतता को प्राप्त तथा कोयलों के घोष से युक्त होती है।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
संयोज्य दोषोच्छ्यमल्पतायां, शुचिप्रभां प्रत्यहमेधयन्ती।
तारं तपः श्रीरिव सातिपट्वी, जाड्याधिकत्वं जगतो न सेहे॥ ४५ ॥ अर्थ :- दोषों के विस्तार को अल्पता में मिलाकर प्रतिदिन उस पवित्र और निर्मल जिसकी प्रभा है, अति विदुषी उस सुमङ्गला ने अत्यधिक रूप से तपो लक्ष्मी के समान मूर्खत्व (अथवा जलाधिक्य) को सहन नहीं किया।
परान्तरिक्षोदकनिष्कलङ्का, नाम्ना सुनन्दा नयनिष्कलङ्का।
तस्मै गुणश्रेणिभिरद्वितीया, प्रमोदपूरं व्यतरद् द्वितीया॥ ४६॥ अर्थ :- आकाश के जल के समान निष्कलङ्क नीति रूपी सुवर्ण की लङ्कास्वरूप, गुणों की श्रेणियों से अद्वितीय दूसरी सुनन्दा नामक पत्नी ने श्री ऋषभदेव को हर्षसमूह प्रदान किया।
तयोः सपत्न्योरपि यत्प्रसन्न-हृदोर्मदोद्रेकविविक्तमत्योः।
अभूद्भगिन्योरिव सौहृदं स, सुस्वामिलाभप्रभवः प्रभावः॥४७॥ अर्थ :- प्रसन्न हृदय के मदोद्रेक से रहित उन दोनों सौतों में भी दो बहिनों के समान जो मैत्री हुई वह अच्छे स्वामी के लाभ से उत्पन्न प्रभाव था। ____आत्मोचितामालिमनाप्तवत्यौ, त्रिलोकभर्तुर्हदयंगम ते।
सुरालयस्वामिनिबद्धरुच्या, शच्यापि सख्या समलजिषाताम्॥४८॥ अर्थ :- तीनों लोकों के स्वामी श्री ऋषभदेव के हृदय में प्रविष्ट वे सुमङ्गला और सुनन्दा अपने योग्य सखी को न प्राप्त करते हुए देवलोक के स्वामि इन्द्र के प्रति बद्ध अभिलाष शची से भी लज्जित हुईं।
तयोरहंपूर्विकया निदेशं, विधिसमानासु गताभिमानम्।
स्यगं गतास्वप्यमराङ्गनासु, ययौ न जातु प्रशमं विवादः॥४९॥ अर्थ :- सुमङ्गला और सुनन्दा के आदेश को 'मैं पहले, मैं पहले' इस प्रकार अहंपूर्वकता से देवाङ्गनाओं में अहंकार चले जाने पर कुछ करने की इच्छुक स्वर्ग गामिनियों में भी विवाद शान्ति को प्राप्त नहीं हुआ।
उपाचर वे अपि तुल्यबुद्धया, प्रभुः प्रभापास्त तमःसमूहः।
उच्चावचां न स्वरुचिं तनोति, भास्वनिलीनालिषु पद्मिनीषु॥५०॥ अर्थ :- जिसने अपनी प्रभा से अन्धकार समूह का विनाश किया है ऐसा सूर्य के छिप जाने पर एवं कमलों में भौंरों के छिप जाने पर श्री ऋषभ स्वामी ने दोनों ही
(९४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्त्रियों का सदृश भाव से सेवन किया । विषम अपनी कान्ति या अभिलाषा का विस्तार नहीं किया ।
अर्थ
श्री ऋषभदेव ने पाँच संख्या वाले विषयों में जब जिस
वस्तु को
षड्ऋतु
के
योग्य चाहा तभी उनके इशारे और अभिप्राय के ज्ञाता इन्द्र के द्वारा वह वस्तु दूर से लाई गई ।
-
अर्थ
ऋतूचितं पञ्चसु गोचरेषु, यदा यदाशंसि जिनेन वस्तु । तदिंगिताकूतविदोपनिन्ये, तदैव दूरादपि वासवेन ॥ ५१ ॥
:
श्री ऋषभदेव की कभी वन के मध्य दोनों वधुओं के साथ विहार करने की इच्छा जानकर ही मानों वसन्तु ऋतु ने पत्तों और पुष्पों से समस्त वृक्षों को विभूषित
किया।
कदापि नाथं विजिहीर्षुमन्त र्वणं विबुध्येव समं वधूभ्याम् ।
पत्रैश्च पुष्पैश्च तरूनशेषा-विभूषयामास ऋतुर्वसन्तः ॥ ५२ ॥
-:
शैत्यं सरस्यां मृदुता लतायां, सौरभ्यमब्जे ललनैः प्रकाश्य ।
आनन्दयन्निन्द्यदिगुद्धवोऽपि देवं समेतत्रिगुणः समीरः ॥ ५३ ॥
,
अर्थ
- निन्द्य दिशा (दक्षिण दिशा) से उद्भूत होने पर भी शीतल, मन्द और सुगन्ध रूप तीन गुणों से युक्त वायु सरोवर में क्रीडाओं से शीतलता का प्रकाशन कर लता में मृदुता, कमल में खेलों से सुगन्धि प्रकट कर श्री ऋषभदेव को आनन्द प्रदान करने लगा ।
वल्ली विलोला मधुपानुषङ्गं, वितन्वती सत्तरुणाश्रितास्य ।
पुरा परागस्थितितः प्ररूढा, पुपोष योषित्सु चलत्वबुद्धिम् ॥५४॥
अर्थ :- चञ्चल भौंरों के संसर्ग को करती हुई प्रशस्य वृक्ष के आश्रित होकर पूर्व में पराग की स्थिति से पूर्व उत्पन्न लता ने श्री ऋषभदेव की स्त्रियों में चलत्व बुद्धि का पोषण किया ।
निविश्य गुल्मानि महालतानां, विश्रम्य पत्रर्धिमिलारुहाणाम् । मड्ङ्क्त्वा सदारः सरसां जलानि, कृतार्थयामास कृती वने सः ॥ ५५ ॥ अर्थ :- वह विद्वान् भगवान् ने स्त्री सहित वन में महालताओं और झाड़ियों में बैठकर, वृक्षों की पत्र सम्पत्ति में विश्राम कर, तालाब के जलों को आलोडित कर कृतार्थ किया। विभोर्व्यतायन्त विवाहकाले, यत्पल्लवैस्तोरणमङ्गलानि । चूतस्य तस्याविकलां फलर्धि-मपप्रथत् साधु ततस्तपर्तुः ॥ ५६ ॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य,
सर्ग-६ ]
(९५)
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- आम के पल्लवों ने श्री ऋषभदेव स्वामी के विवाह के समय तोरणमङ्गलों का विस्तार किया। अनन्तर ग्रीष्म ऋतु ने आम की सम्पूर्ण फल सम्पदा का ठीक प्रकार से विस्तार किया।
दोषोन्नतिर्नास्य तमोमयीष्टा, दृष्टेति तामेष शनैः पिपेष।
पुपोष चाहस्तदमुष्य पूजा-पर्यायदानादुदितद्युतीति ॥ ५७॥ अर्थ :- ग्रीष्म ने ऋतु इन भगवान् की तमोमयी (पापमयी) दोषोन्नति (पक्ष-रात्रि की उन्नति) दिखाई दे रही थी (जो कि) इष्ट नहीं थी इस कारण उस दोषोन्नति को मन्दमन्द रूप से चूर्ण-चूर्ण कर दिया और दिन भगवान् की पूजा के अवसर के दान से उदित द्युति वाला है, इस कारण पुष्ट हुआ।
... उदग्रसौधाग्रनिलीनमल्ली-वल्लीसुमश्रेणिसुगन्धिशय्यः। . श्रीखण्डलेपावृतचन्द्रपाद-स्पर्शः कृशा ग्रीष्मनिशाः स मेने ॥५८॥ अर्थ :- ऊँचे महल के अग्रभाग में स्थापित विकसित लता के फूल की श्रेणियों से जिसकी शय्या सुगन्धित है ऐसे भगवान् ने चन्दन के लेप से आवृत्त चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से ग्रीष्मकाल की रात्रियों को क्षीण माना।
पुष्ट्यर्थमीशध्वजतैकस-ककुद्मतः किं जलभृजलौघैः।
उदीततण्यामवनी समन्ता-द्वितन्वती प्रावृडथ प्रवृत्ता॥ ५९॥ अर्थ :- अनन्तर मेघों के जल के समूहों से पृथिवी को उत्पन्न हुए तृण समूह से युक्त करते हुए स्वामी के ध्वज का एक स्थान जो वृषभ है, उसकी पुष्टि के लिए वर्षा प्रवृत्त हुई। . या वारिधारा जलदेन मुक्ताः, सान्द्राः शिरस्यस्य बहिर्विहारे;
असस्मरंस्ता हरिहस्तकुम्भ-नीराभिषेकं शिशुतानुभूतम्॥ ६०॥ अर्थ :- मेघ ने भगवान् के सिर पर जो घनी जल की धारायें बाहर विहार के समय छोड़ी थीं उन्होंने जन्माभिषेक के समय अनुभव किए हुए इन्द्र के हाथ के कलश से किए जल के अभिषेक का स्मरण करा दिया।
असौ बहिर्बर्हिकुलेन क्लृप्तं, मृदङ्गवद्गर्जति वारिवाहे।
निभालयन्नाट्यमदान्मुदा तां, दृशं धनाढ्यैरपि दुर्लभा या॥६१॥ अर्थ :- भगवान् ने बाह्य मृदङ्ग के समान मेघ के गर्जने पर मयूरों के समूह से रचित नाट्य को हर्ष से देखते हुए जो प्रदान किया, वह (दृष्टि) धनियों को भी दुर्लभ है।
(९६)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकोपकाराय स लोकनाथः, कृत्वा क्षमाभृद्भवसिन्धुरोधम्।
तदा तदभ्यासवशाद्विधत्ते-ऽद्यापि क्षमाभृद्भवसिन्धुरोधम्॥६२॥ अर्थ :- वह लोकनाथ उस अवसर पर लोकोपकार के लिए पर्वतों से उत्पन्न नदियों का बन्ध करके उस अभ्यास के वश आज भी क्षमा को धारण करने वाले (साधुओं) के संसार समुद्र के तट का कार्य करते हैं।
प्रसादयन्त्यम्बुपयोजपुञ्ज, प्रबोधयन्त्या विधुमिद्धयन्त्या। _अस्याभिषेकार्चनवक्त्रदास्या-ऽधिकारतोऽसौ शरदोपतस्थे॥ ६३॥ अर्थ :- वे भगवान् जल को स्वच्छ करते हुए, कमलों के समूह को विकसित करते हुए. चन्द्रमा को समृद्ध करते हुए शरद से आश्रित हुए।
पद्धैर्घनोपाधिभिराकुले प्राक्, लोके तिरोभावमुपागतो यः।
अहो स हंसः सहसा प्रकाशी-बभूव भास्वन्महसा विपङ्के॥६४॥ अर्थ :- जो हंस पहले जिनकी मेघ उपाधियाँ हैं, ऐसे कीचड़ अथवा पापों से व्याप्त लोक में अदृश्यपने को प्राप्त हो गया। आश्चर्य है वहीं हंस (अथवा आत्मा) सूर्य के तेज से कीचड़ रहित होकर (अथवा पाप रहित होकर) प्रकट हुआ।
करैः श्रमच्छेदकरैः शरीर-सेवां मणीकुट्टिमशायिनोऽस्य।
विधुर्विविक्ते विदधत्प्रसाद-पूर्वामपूर्वां श्रियमाप युक्तम्॥६५॥ अर्थ :- चन्द्रमा ने भगवान के मणिखचित भूमि पर शयन करने पर निर्जन स्थान में श्रम का छेद करने वाली किरणों से अथवा हाथ से शरीर की सेवा करते हुए प्रसाद (स्वच्छता, प्राञ्जलता) जिसके पूर्व में है, ऐसी अपूर्व शोभा को प्राप्त किया।
मनाग मुखश्री: परमेश्वरस्य, जिहीर्षिता यैः शरदा मदाढ्यैः।
विधाय मन्तोः फलमन्तमेषु, पद्मेषु भेजे प्रशलर्तुरेनम्॥६६॥ अर्थ :- शरद ऋतु ने मद से परवश कमलों से श्री ऋषभदेव प्रभु की थोड़ी सी मुख की शोभा का हरण करना चाहा। इन कमलों के विनाश रूप अपराध के फल को करके हेमन्त ऋतु ने इन भगवान् की सेवा की। विशेष :- शरद में कमल शोभायुक्त होते हैं और हेमन्त ऋतु में दाह को प्राप्त होते हैं।
भृशं महेलायुगलेन खेला-रसं रहस्तस्य विलोकमाना। पौषी पुपोषालसतां गतौ यां, निशा न साद्यापि निवर्ततेऽस्याः॥६७॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
(९७)
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- अत्यधिक रूप से भगवान् की महिलायुगल के द्वारा एकान्त में क्रीडा रस को देखती हुई पौष की रान बीत जाने पर जो आलस्य वद्धिगत हआ वह इस रात्रि के अब भी दूर नहीं होता है।
नक्तं जगत्कम्पयतो हसन्ती, या शीतदैत्यस्य बलं बिभेद
नेतुः पुरःस्थोचितमासचक्रा, सा कृष्णवाश्रयतां बिभर्तु ॥६८॥ अर्थ :- जिसने (शिशिर ऋतु ने) हँसते हुए रात्रि में जगत् को कँपाते हुए शीत रूपी दैत्य की सामर्थ्य का भेदन कर दिया। वह चक्र को प्राप्त करने वाली स्वामी के सामने ठहर रही है अत: यह उचित ही है कि वह अग्नि की आश्रयता (पक्ष में कष्ण के मार्ग की आश्रयता) को धारण करे।
अथ प्रभाह्रासकरी विमोच्य, दुर्दक्षिणाशां शिशिरतुरंशुम्।
अचीकरद्दीप्तिकरं प्रणन्तु-मिवोत्तरासङ्गमसङ्गमेनम् ॥ ६९॥ अर्थ :- अनन्तर शिशिर ऋतु ने आसक्ति रहित इन भगवान् को मानों प्रणाम करने के लिए ही तेज को नाश करने वाली उस दुष्ट दक्षिण दिशा को छुड़ाकर दीप्ति को करने वाले सूर्य को उत्तर दिशा का सङ्ग कराया।
भौ प्रसुप्ते निशि शीतवश्यं, यदम्बु कम्बुच्छवि बन्धमाप।
तज्जाग्रतादिष्ट इवाह्नि तेन, भानुः स्वभावं स्वकरैर्निनाय॥७० अर्थ :- शंख के समान निर्मल जो जल रात्रि में प्रभु के सो जाने पर शीत के वश होकर बन्धन को प्राप्त हो गया था, सूर्य ने उसे दिन में अपनी किरणों से मानों भगवान के जाग जाने पर उनके आदेश से ही अपनी स्वाभाविकता पर ला दिया।
शीतेन सीदत्कुसुमासु युष्मा-स्वर्चास्य देवस्य मदेकनिष्ठा।
इति स्फुटत्पुष्परदा तदानीं, शेषा लताः कुन्दलता जहास॥७१॥ अर्थ :- जिसके पुष्प रूपी दाँत प्रकट हो रहे हैं ऐसी कुन्दलता ने उस शिशिर ऋतु में शेष लताओं की, आप लोगों के शीत से फूल सूख जाने पर इन भगवान् की अर्चा एक मेरे ऊपर ही आश्रित है, इस प्रकार हँसी की।
तत्तादृगाहारविहारवासो - निवासनि शितशीतभीतिः।
शरीरसौख्येन स शैशिरीणां, निशां न सेहे विपुलत्ववादम्॥७२॥ अर्थ :- उस प्रकार के आहार, विहार, वस्त्र और निवास से जिसने शीत के भय को समाप्त कर दिया है ऐसे भगवान् ने शिशिर कालीन निशा को शरीर के सुख के कारण विस्तीर्णभाव से सहन नहीं किया। (९८)
। जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
इति ऋतूचितखेलनकैर्न कै-हतहदेश्वरतोऽस्य यथारुचि।
सुकृतसूरसमुत्थधृतिप्रभा-परिचिता अरुचनखिला दिनाः॥७३॥ अर्थ :- ऋतु के योग्य खिलोनों से जिसका हृदय हरण कर लिया गया है ऐसे भगवान् के स्वेच्छा से विचरण करते रहने पर पुण्य रूपी सूर्य से उत्पन्न समाधि रूप प्रभा से सेवित समस्त दिन सुशोभित हुए।
कौमारकेलिकलनाभिरमुष्य पूर्व-लक्षाः षडेकलवतांनयतः सुखाभिः।
आद्या प्रिया गरभमेणदृशामभीष्टं, भर्तुः प्रसादमविनश्वरमाससाद ॥ ७४॥ अर्थ :- सुख पूर्वक कुमारावस्था की क्रीडाओं की वशवर्ती होकर छः लाख पूर्व को एक लव के समान व्यतीत करते हुए भगवान् की आदि प्रिया सुमङ्गला ने मृगनयनी स्त्रियों को अभीष्ट, स्वामी की कृपारूप अविनश्वर गर्भ प्राप्त किया।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि-, र्धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान्। वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये ऽभवत् षष्ठकः॥६॥ कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लकुमारचरितादि महाकवित्व के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में षष्ठ सर्ग समाप्त हुआ। इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित
जैनकुमारसम्भव महाकाव्य के षष्ठ सर्ग की व्याख्या समाप्त हुई।
900
(जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
(९९)
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
७. सप्तमः सर्गः
अथ प्रथमनाथस्य, प्रिया तस्य सुमङ्गला।
अध्युवास निजं वास-भवनं यामिनीमुखे ॥१॥ अर्थ :- अनन्तर प्रथम नाथ श्री ऋषभदेव की प्रिया सुमङ्गला ने सायंकाल अपने निवास भवन में निवास किया।
यत्र ज्वलत्प्रदीपानां, प्रभाप्राग्भारभापितम्।
धृत्वा धूमशिखेत्याख्यां-तरं दूरेऽगमत्तमः॥ २॥ अर्थ :- जिस निवास भवन में जलते हुए दीपकों की प्रभा समूह से डरा हुआ अन्धकार धूमशिखा इस दूसरे नाम को धारण कर दूर चला गया।
, यत्र नीलामलोल्लोचा-मुक्ता मुक्ताफलस्त्रजः।
बभुर्नभस्तलाधार-तारकालक्षक क्षया॥ ३॥ अर्थ :- जिस आवास में नीले, निर्मल चंदोबों में बद्ध मोतियों की माला आकाश तल जिनका आधार है ऐसे लाखों ताराओं के समान सुशोभित हुई।
सौवर्ण्यः पुत्रिका यत्र, रत्नस्तम्भेषु रेजिरे।
अध्येतुमागता लीलां, देव्या देवाङ्गना इव॥४॥ अर्थ :- जहाँ देवी सुमङ्गला की लीला का अध्ययन करने के लिए आई हुई देवाङ्गनाओं के समान रत्नमयी स्तम्भों में सोने की बनी हुई पुतलियाँ सुशोभित हुईं।
दह्यमाना काकतुण्डा, यत्र धूमैर्विसृत्वरैः।
स्वपंक्तिं वर्णगन्धाभ्यां, निन्युर्वन्तराण्यपि॥ ५॥ अर्थ :- जहाँ पर काले अगुरुओं ने जलते हुए फैलने वाले धूमों से दूसरी लकड़ियों । को भी वर्ण और गंध से अपनी पंक्ति में ले लिया।
उत्पित्सव इवोत्पक्षा, यत्र कृत्रिमपत्रिणः। आरेभिरे लोभयितुं, बालाभिश्चारुचूणिभिः॥६॥
(१००)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग७]
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- जिस आवास में कृत्रिम पिच्छों वाले पक्षियों ने बालिकाओं के सुन्दर भक्षों से मानों ऊपर उड़ने के इच्छुक से होकर लुब्ध करना आरम्भ कर दिया।
यन्मणिक्षोणिसंक्रान्त-मिन्दुं कन्दुकशङ्कया।
आदित्सवो भननखा, न बालाः कमजीहसन्॥७॥ अर्थ :- जिसके आवास की मणिनिर्मित पृथिवी में प्रतिबिम्बत चन्द्रमा में गेंद की शङ्का से ग्रहण करने की इच्छुक टूटे हुए नाखूनों वाली बालायें जहाँ किसे नहीं हँसाती थीं।
व्यालम्बिमालमास्तीर्ण-कुसुमालि समन्ततः।
यददृश्यत पुष्पास्त्र-शस्त्रागारधिया जनैः॥ ८॥ अर्थ :- लोगों ने जहाँ माला लटक रही है, चारों ओर फूलों का समूह लटकाया गया __ है ऐसे आवास गृह को कामदेव के शस्त्रागार की बुद्धि से देखा।
कौतुकी स्त्रीजनो यत्र, पुरः स्फाटिकभित्तिषु।
स्पष्टमाचष्ट पृष्ठस्थ-चेष्टितान्यनुबिम्बनैः॥ ९॥ अर्थ :- जहाँ पर कौतुकी स्त्रियों ने सामने स्फटिक की दीवालों पर प्रतिबिम्बनों से । पीछे स्थित चेष्टाओं को स्पष्ट कहा।
लतागुल्मोत्थितो यत्रा-हरज्जालाध्वनागतः।
मुक्ताधिया मरुच्चौरः, स्वेदबिन्दून् मृगीदृशाम्॥१०॥ अर्थ :- जहाँ पर लताओं और झाड़ियों से उठे हुए वायु रूपी चोर ने मृगनयनी स्त्रियों । को पसीने की बिन्दुओं को मोती मानकर हरण कर लिया।
वीक्ष्य यत्परितोऽध्यक्षं, वनं सर्वर्तुकं जनः।
श्रद्धेयमागमोक्त्यैवाभिननन्द न नन्दनम्॥ ११॥ अर्थ :- लोगों ने जिसके आवास के चारों ओर सब ऋतुओं में साधारण प्रत्यक्ष रूप से वन को देखकर मात्र आगम की उक्ति से ही श्रद्धा के योग्य नन्दन वन की प्रशंसा नहीं की।
श्वेतोत्तरच्छदं तत्र, दोलातल्पमुपेयुषी।
हंसीं गङ्गातरङ्गात्त-रङ्गामभिबभूव सा॥ १२॥ अर्थ :- सुमङ्गला ने उस आवास में श्वेत चादर से युक्त झूलती हुई शय्या को प्राप्त करते हुए गङ्गा की तरङ्गों में जिसने आनन्द को ग्रहण किया है ऐसी हंसी को तिरस्कृत कर दिया।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७]
(१०१)
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
दक्षिणं तमुरीचक्रे , विवाहे भगवानिति।
वामा वाममुपष्टभ्य, पाणिं तस्मिन्नशेत सा॥१३॥ अर्थ :- वह सुमङ्गला, शय्या पर विवाह में भगवान् ने दायें हाथ को स्वीकार किया था, इस कारण बायें हाथ को रोक कर सोती थी।
पूर्वमप्सरसामङ्के, स्थित्वा तत्पादपङ्कजे।
पश्चादवापतां दिव्य-तूलीमौलिवतंसताम्॥ १४॥ अर्थ :- पहले देवाङ्गनाओं की गोद में बैठकर पश्चात् सुमङ्गला के चरण कमलों ने दिव्य रुई के मुकुटत्वपने को प्राप्त किया था।
दीपाः सस्नेहपटवोऽभितस्तां परिवविरे।
ध्वान्तारातिभयं भेत्तुं, जाग्रतो यामिका इव ॥१५॥ अर्थ :- स्नेह सहित चतुर दीपकों ने अन्धकार रूपी शत्रु का भेदन करने के लिए जाग्रत प्राहरिका के समान चारों ओर से सुमङ्गला को घेर लिया।
विसृज्य सा परप्रेमालापपात्रीकृताः सखीः।
निद्रां सुखार्थामेकान्त-सखी संगन्तुमैहत ॥१६॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने उत्कृष्ट प्रेमालाप का पात्र बनाई हुई सखी को छोड़कर सुखकारिणी एकान्त सखी निद्रा के सङ्ग को चाहा।
तस्याः सुषुप्सया जोष-जुषोऽजायत शर्मणे।
मोहो निद्रानिमित्तः स्याद्दोषोऽप्यवसरे गुणः॥१७॥ अर्थ :- सोने की इच्छा से मौन का सेवन करने वाली उस सुमङ्गला का निद्रा जिसमें कारण है, ऐसा मोह सुख के लिए हो गया। दोष भी अवसर पर गुण हो जाता है।
स्रोतांसि निभृतीभूय, नृपस्येव नियोगिनः।
निशि निर्वविरे तस्याः, स्वस्वव्यापारसंवृतेः॥१८॥ अर्थ :- सुमङ्गला की इन्द्रियों ने अपने-अपने कार्य के रुक जाने पर निश्चल होकर राज सेवकों के समान निवृत्ति को प्राप्त किया।
तदा निद्रामुद्रितदृग्, भवने सा वनेऽब्जिनी।
निद्राणकमला सख्योचितमाचेरतुर्मिथः॥ १९॥ अर्थ :- उस अवसर पर भवन में निद्रा से जिसकी दृष्टि संकुचित हो गई है ऐसी सुमङ्गला ने जिसके कमल संकुचित हो गए हैं ऐसी कमलिनी की मैत्री के योग्य आचरण किया।
(१०२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७]
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
आसतामपरे मौनं, भेजुराभरणान्यपि।
असञ्चरतया तस्या, निद्राभङ्गभयादिव॥२०॥ अर्थ :- दूसरों की बात तो रहने दो, सुमङ्गला के आभूषणों ने भी असंचरता से मानों नींद के टूट जाने के भय से ही मौन सेवन किया।
निद्रानिभृतकाया सा, नायासान्नाकियोषिताम्।
लोचनैर्ले ह्यसर्वाङ्ग-लावण्या समजायत ॥ २१॥ अर्थ :- वह सुमङ्गला नींद से निश्चल शरीर वाली होते हुए देवाङ्गनाओं के नेत्रों से खिन्नता को प्राप्त नहीं हुई, अपितु लोचनों से लेह्य (चाटने योग्य) समस्त अङ्गों के । लावण्य वाली हुई।
निर्वातस्तिमितं पद्म-मिवामुष्या मुखं सुखम्।
न्यपीयताप्सरोनेत्र - भृङ्गैर्लावण्यसन्मधु ॥ २२॥ अर्थ :- सुमङ्गला का लावण्य ही जिसमें मकरन्द है, ऐसा मुख वातरहित स्थान में निश्चल कमल के समान अप्सराओं के नेत्र रूपी भौंरों से पिया गया।
आप्तनिद्रासुखा सौख्य-दायीति स्वप्नदर्शनम्।
अन्वभूत् पुण्यभूमी सोत्सवान्तरमिवोत्सवे॥ २३॥ . अर्थ :- पुण्यभूमि उसने नींद के सुख को प्राप्त कर एक उत्सव में दूसरे उत्सव के समान सुखदायी इस प्रकार के स्वप्नदर्शन का अनुभव किया।
प्रथमं सा लसद्दन्त-दण्डमच्छुण्डमुन्नतम्। भूरिभाराद्भुवो भङ्ग-भीत्येव मृदुचारिणम्॥२४॥ गण्डशैलपरिस्पर्धि-कुम्भ कर्पूरपाण्डुरम्।
द्विरदं मदसौरभ्य - लुभ्यभ्रमरमैक्षत ॥ २५॥ युग्मम्॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने पहले जिसके दाँत रूप दो दण्ड सुशोभित हो रहे थे, जो ऊपर की ओर सैंड उठा रहा था, ऊँचा था, अत्यधिक भार से भूमि के टूटने के भय से मानों मन्द-मन्द गमन कर रहा था, जिसका गण्डस्थल पर्वत शिखर से स्पर्धा कर रहा था, जो कर्पूर के समान सफेद था तथा मद की सुगन्ध से भौंरों को लुब्ध कर रहा था, ऐसे गजेन्द्र को देखा।
भाग्यैः शकुनकामाना-मिव गर्जन्तमूर्जितम्। शुभ्रं पुण्यमिव प्राप्तं, चतुश्चरणचारुताम्॥ २६ ।।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७]
(१०३)
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिन्धुरोधक्षमं रोधः, स्यन्तं मृलवलीलया।
., सशृङ्गमिव कैलासं, ककुद्मन्तं ददर्श सा॥२७॥ युग्मम्॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने शकुन की कामना करने वाले भाग्यों के समान गर्जना करते हुए, बलशाली, चार चरण की चारुता को प्राप्त उज्वल मानों पुण्य हो, नदी को रोकने में समर्थ तट को मिट्टी के खण्ड के समान गिराते हुए, मानों सींगयुक्त कैलाशपर्वत हो ऐसे बैल को देखा।
अप्यतुच्छतया पुच्छा-घातकम्पितभूतलम्। अप्युदारदरीक्रोड - क्रीडत्क्ष्वेडाभयङ्करम् ॥२८॥ सद्यो भिन्नेभकुम्भोत्थ-व्यक्तमुक्तोपहारिणम्।
हरिणाक्षी हरिं स्वप्न-दृष्टं सा बह्वमन्यत ॥ २९॥ युग्मम् । अर्थ :- उस मृगनयनी सुमङ्गला ने घने होने के कारण पूछ के आघात से जो मानों पृथिवी को कम्पित कर रहा था, विस्तृत गुफा के मध्य में क्रीडा करते हुए सिंहनाद से जो भयङ्कर था, तत्क्षण ही विदीर्ण किए गए हाथी के गण्डस्थल से प्रकट हुए मोतियों को जो उपहार में दे रहा था ऐसे स्वप्न में देखे हुए सिंह का बहुत आदर किया। , विशेष :- सिंह भयङ्कर होने पर भी मोती रूप उपहार को देने के कारण बहुमान्य
हुआ, यह भाव है।
निधीनक्षय्यसारौघ-तुन्दिलान् सन्निधौ दधिः । भूषाहेग्नः स्ववपुषो, मयूखैरन्तरं प्रती ॥ ३०॥ पद्माकरमयीं मत्वा, नेत्रवक्त्रकरांघ्रिणा।
पद्मवासानिवासार्थ-मिवोपनमति स्म ताम्॥३१॥युग्मम्॥ अर्थ :- अक्षय सार पदार्थों के समूह से जिनका उदर बढ़ा हुआ था, निधियों के समीप में जो दही रखे हुई थी, जो अपने शरीर की किरणों से आभूषणों के सुवर्ण के अवकाश का विनाश कर रही थी, ऐसी सुमङ्गला का लोचन, मुख, हाथ और पैरों से उसे कमलों की खानमयी जानकर लक्ष्मी ने मानों निवास के लिए ही आश्रय लिया था।
भृङ्गैः सौरभलोभेनानुगतं सेवकैरिव। तन्व्या दो:पाशवत् पुण्य-भाजां कण्ठग्रहोचितम्॥३२॥ प्रहितं प्राभृतं पारिजातेनैव जगत्प्रियम्। असमं कौसुमं दाम, जज्ञे तन्नेत्रगोचरः॥ ३३॥ युग्मम्॥
(१०४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग1
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- भौंरों के द्वारा सुगन्धि के लोभ से सेवकों के समान अनुगत, स्त्री के भुजपाश के समान, पुण्यशाली लोगों के कण्ठग्रहण के योग्य, पारिजात के द्वारा भेजी गई भेंट के समान संसार को प्रिय तथा निरूपम पुष्पमाला सुमङ्गला के नेत्रगोचर हई।
चकोराणां सुमनसा-मिव प्रीतिप्रदामृतम्। रोहिण्या इव यामिन्या, हृदयङ्गमतां गतम्॥३४॥ निर्विष्टकौमुदीसारं, कामुकैरिव कैरवैः।
आस्ये विशन्तं पीयूष-मयूखं सा निक्षत॥३५॥ युग्मम्॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने देवों के समान चकोरों का प्रीतिपद अमृत जिसका है, रोहिणी के समान रात्रि के द्वारा जो हृदयंगमता को प्राप्त है, धनुष के समान कुमुदों से जिसका सार उपयुक्त है, ऐसे चन्द्रमा को देखा।
क्षिपन् गुहासु शैलानां, लोकादुत्सारितं तमः। संकोचं मोचितं पद्म-वनाद् घूकदृशां दिशन्॥३६॥ न्यस्यन् प्रकाशमाशासु, तारकेभ्योऽपकर्षितम्।
स्वप्नेऽपि स्मेरयामास, तस्या हत्कमलं रविः॥ ३७॥ युग्मम्॥ अर्थ :- लोगों से दूर किए गए अन्धकार को पर्वतों की गुफाओं में फेंकते हुए, कमलवन से उल्लूओं के नेत्रों को निर्देश देते हुए, ताराओं से गृहीत प्रकाश को दिशाओं में स्थापित करते हुए सूर्य ने सुमङ्गला के हृदयकमल को स्वप्न में भी विकसित कर दिया था।
अखण्डदण्डनद्धोऽपि, न त्यजनिजचापलम्। सहजं दुस्त्यजं घोष-निव किंकिणिकाक्कणैः॥ ३८॥ ध्वजो रजोभयेनेव, व्योमन्येव कृतास्पदः।
तत्प्रीतिनर्तकीनाट्या-चार्यकम्बां व्यडम्बयत्॥३९॥ युग्मम्॥ अर्थ :- अखण्ड दण्ड से बद्ध होने पर भी स्वाभाविक कठिनाई से त्यागने योग्य अपनी चपलता को क्षुद्रघंटियों की आवाज से शब्द करते हुए के समान, रजोभय से .. आकाश में कृतस्थान के समान ध्वज ने सुमङ्गला की प्रीति रूपी नर्तकी के नर्तन में रङ्गाचार्य के छोटे से कम्बल का अनुसरण किया।
स्त्रैणेन मौलिना ध्रीये, सोऽहं साक्षी जगजनः। त्वं धत्सेऽतुच्छमत्सम्प-ल्लुम्पाको हृदये पुनः॥४०॥ मुखन्यस्ताम्बुजच्चञ्चच्चञ्चरीकरवच्छलात्। इति प्रीतिकलिं कुर्वन्निव कुम्भस्तयैक्ष्यत ॥ ४१॥ युग्मम्॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, स]ि
(१०५)
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- मुख में रखे कमल पर भ्रमण करते हुए भौरे के शब्द के बहाने मानों प्रीति से के द्वारा इस प्रकार कलह करते हुए सुमङ्गला ने कुम्भ को देखा कि मैं स्त्री के समूह ( तुम्हें ) मस्तक पर धारण करती हूँ । संसार के लोग इसके साक्षी हैं । तुम पुनः मेरी महती समृद्धि के दो लुटेरों को हृदय में धारण करते हो ।
अम्लानकमलामोद-मनेककविशब्दितम् । क्षमविष्टरडम्बरम् ॥ ४२ ॥
सद्वृत्तपालिनिर्वेश
स्वर्णस्फातिस्फुरद्भङ्गि - वर्ण्यं विश्वोपकारकृत् ।
इभ्यागारमिवातेने, कासारं तद्दृगुत्सवम् ॥ ४३ ॥ युग्मम्॥
-
अर्थ :- जिसमें कमलों की सुगन्धि म्लान नहीं हुई है। (जिसमें लक्ष्मी से हर्ष म्लान नहीं हुआ है), जो अनेक पक्षियों से शब्दित है ( जो कवियों के शब्द से युक्त है), जिसमें प्रशस्य वृत्ताकार पंक्ति ऐसे उपभोग के योग्य वृक्षों का समूह जहाँ पर है (जिसमें अच्छे चरित्र वाले साधुओं की श्रेणी के उपभोग के योग्य आसनों का समूह है), जो अच्छे पानी की स्फुरायमान होती हुई तरङ्गों से वर्णन योग्य है (सुवर्ण के स्फुरायमान होती हुई प्राकारों से वर्णन के योग्य) ऐसे जगत् का उपकार करने वाले तालाब ने मानों धनी के भवन के समान उस सुमङ्गला के नेत्रों के उत्सव का विस्तार किया ।
क्वचिद्वायुवशोद्धूत-वीचीनीचीकृताचलम् ।
उद्वृत्तपृष्ठैः पाठीनैः, कृतद्वीपभ्रमं क्वचित् ॥ ४४॥ पीयमानोदकं क्वापि, सतृषैरिव वारिदैः ।
रत्नाकरं कुरङ्गाक्षी, वीक्षमाणा विसिष्मिये ॥ ४५ ॥ युग्मम् ॥
अर्थ :कहीं पर वायु के वश उछलती हुई तरङ्गों से जिसने पर्वतों को नीचा कर दिया है, कहीं पर जिन्होंने पृष्ठ विभागों को उखाड़ दिया है ऐसी मछलियों के द्वारा द्वीप का भ्रम कर दिया है, कहीं पर मानों प्यासे मेघों से जिसका जल पिया जा रहा है, समुद्र को देखती हुईं मृगनयनी आश्चर्यान्वित हुई ।
ऐसे
सूर्यबिम्बादिवोद्भूतं, जन्मस्थानमिवार्चिषाम् ।
चरिष्णुमिव रत्नाद्रि, भारादिव दिवश्चयुतम् ॥ ४६॥ दीव्यद्देवानं रत्न- भित्तिरुग्भिः क्षिपत्तमः ।
अभूदभ्रङ्कषं तस्या, विमानं नयनातिथिः ॥ ४७ ॥ युग्मम् ॥
अर्थ :मानों सूर्य बिम्ब से ही निकला हो, मानों तेजों का जन्म स्थान हो, मानों जाने का इच्छुक रत्नाचल हो, भार से मानों स्वर्ग से च्युत हुआ हो, जिसमें देवाङ्गनायें
(१०६)
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य,
सर्ग-७]
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुशोभित हो रही हैं, रत्नों की दीवारों की किरणों से जो अन्धकार को नष्ट कर रहा था ऐसा आकाश को छूने वाला विमान उसके नेत्रों का अतिथि हुआ।
रक्ताश्मरिष्टवैडूर्य-स्फटिकानां गभस्तिभिः। लम्भयन्तं नभश्चित्र-फलकस्य सनाभिताम्॥४८॥ ..र्धिना दुहितुर्दत्त - मिव कन्दुककेलये।
रत्नराशिं दवीयांस-मपुण्यानां ददर्श सा॥ ४९॥ युग्मम्॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने पद्मरागमणि, कृष्णरत्न, नीलमणि ओर श्वेतमणियों की किरणों से आकाश को चित्रफलक की सादृश्यता को प्राप्त कराते हुए, समुद्र के द्वारा पुत्री लक्ष्मी की कन्दुक क्रीडा के लिए मानों दी गई जिनका पुण्य नहीं रह गया है ऐसी रत्नराणि को अत्यन्त दूर देखा।
आधारधाररोचिष्णु, जिष्णुंचामीकरत्विषाम्। अजिह्यविलसज्वाला-जिह्वमाहुतिलोलुपम् ॥ ५० ॥ श्मश्रुणेव नु धूमेन, श्यामं मखभुजां मुखम्।
ददर्श श्वसनोद्भूत-रोचिषं सा विरोचनम् ॥५१॥ युग्मम्॥ अर्थ :- सुमङ्गला ने आधार के छिड़काव से देदीप्यमान सुवर्ण की कान्ति को जीतने वाली, सरल फैलती हुई ज्वाला जिसकी जीभ है तथा जो हवन के योग्य द्रव्य के ग्रहण करने की लंपट है, दाढ़ी मूछ के समान धुयें से श्यामवर्ण, देवों की मुख स्वरूप, पवन से उत्पन्न जिसकी कान्ति है, ऐसी अग्नि को देखा।
प्रविश्य वदनद्वारा, तस्याः स्वप्ना अमी समे।
कूटस्थकौटुम्बिकता, भेजिरे कुक्षिमन्दिरे॥५२॥ अर्थ :- गज से लेकर अग्नि पर्यन्त समस्त स्वप्न उस सुमङ्गला की कुक्षि रूप मन्दिर में मुख के द्वारा प्रविष्ट होकर स्थिर गृहपति का सेवन कर रहे थे।
ततो गुणवजागारं, जजागार सुमङ्गला।
साक्षात्तद्वीक्षणात्कर्तु-कामेव नयनोत्सवम्॥५३॥ अर्थ :- अनन्तर गुणों के समूह की घर, साक्षात् उन स्वप्नों के देखने से नयनोत्सव करने की इच्छुक सी सुमङ्गला जाग गर्द ।
स्वप्नार्थास्तानपश्यन्ती, पुरः सा चिखिदे क्षणम्। प्राप्ता मत्कुक्षिमेवामी, इति द्राग् मुमुदे पुनः॥ ५४॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग७]
(१०७)
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- सुमङ्गला आगे उन-उन स्वप्नों के अर्थ को न जानती हुई क्षण भर के लिए खिन्न हुई। पुनः शीघ्र ही ये स्वप्नों के अर्थ मेरी कुक्षि को ही प्राप्त हुए हैं, इस कारण प्रसन्न हुई।
निर्नष्टनेत्रनिद्रा सा, स्वप्नानन्तरचिन्तयत्।
मुनिरप्राप्तपूर्वाणि, पूर्वाणीव चतुर्दश॥ ५५॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने जिसकी नेत्र की निद्रा नष्ट हो गयी थी, जैसे मुनि जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुए थे, ऐसे चौदह पूर्वो का जैसे विचार करते हैं, उसी प्रकार स्वप्नों के विषय में विचार किया।
स्मृतिप्रत्ययमानीते, मत्या स्वप्नकदम्बके।
कदम्बकोरकाकार-पुलका साऽभवन्मुदा॥५६॥ अर्थ :- बुद्धि से स्वप्न समूह के स्मृतिगोचर आने पर वह सुमङ्गला कदम्ब के पुष्प क मुकुल के आकार के जिसके पुलक हैं ऐसी हो गयी।
नैयग्रोधोंऽकुर इव, प्रवर्धिष्णुः पुटं भुवः।
आनन्दो हृदयं तस्याः, सोल्लासं निरवीवृतत्॥ ५७॥ अर्थ :- वृद्धि को प्राप्त आनन्द वाली उस सुमङ्गला के हृदय ने उस प्रकार उल्लास उत्पन्न किया, जिस प्रकार वट का अङ्कर वृद्धि को प्राप्त होता हुआ भूमि के समूह के उल्लास को निर्वृत्त करता है।
यन्निभालनभूः प्रीति-मैंने मम तनुं तनुम्।
तत्फलावाप्तिजन्मा तु, मातु क्वेत्याममर्श सा॥५८॥ अर्थ :- वह सुमङ्गला, जिन स्वप्नों के दर्शन से उत्पन्न प्रीति ने मेरे शरीर को दुर्बल माना, उन स्वप्नों के फल की प्राप्ति से उत्पन्न वह प्रीति कहाँ समाये, इस प्रकार सोचा करती थी।
तया स्वपक्षणोन्नीत-प्रीतिसन्तर्पितात्मया।
उन्निद्रा नित्यमस्वप्न-वध्वोऽप्यबहुमेनिरे ॥ ५९॥ अर्थ :- स्वप्न के उत्सव से प्राप्त प्रीति से जिसकी आत्मा संतृप्त है ऐसी सुमङ्गला ने तथा जिनके स्वप्न नहीं है ऐसे देवों की वधुओं (देवाङ्गनाओं) ने भी निरन्तर जागते रहने को आदर नहीं दिया।
चेतस्तुरङ्गं तच्चारु-विचाराध्वनि धावितम्।
सा निष्प्रत्यूहमित्यूह-वल्गया विदधे स्थिरम्॥६०॥ (१०८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७]
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- सुमङ्गला ने स्वप्नों के मनोज्ञ विचार रूप मार्ग में दौड़ते हुए चित्त रूपी अश्व को इस प्रकार विचार रूपी लगाम से विघ्नरहित जैसे हो उस प्रकार निश्चल कर दिया।
नाना न केवलं वामा, वामाबुद्धिगुणेष्वपि।
ऊहे स्फुरन्ति सदृष्टि-लालसे नालसेक्षणाः॥६१॥ अर्थ :- स्त्रियाँ केवल नाम से ही वामा - प्रतिकूल नहीं होती है, अपितु बुद्धि के गुणों में भी वामा होती हैं। जिनकी दृष्टि अलसाई है, ऐसी स्त्रियाँ प्रशस्य लोचन के मार्ग रूप विचार में समर्थ नहीं होती हैं।
कटीरस्तनभारेण, यासां मन्दः पदक्रमः।
तासां विचारसामर्थ्य , स्त्रीणां संगच्छते कथम्॥६२॥ अर्थ :- जिन स्त्रियों का कटीतट और स्तन के भार से चरण विन्यास (पद-विन्यास) मन्द है, उन स्त्रियों का विचार सामर्थ्य कैसे घटित होता है?
स्थूलस्तनस्थलं दृष्ट्वा, हृदयं हरिणीदृशाम्।
त्रस्यता यानहंसेन, भारती नीयतेऽन्यतः॥ ६३॥ अर्थ :- स्त्रियों के स्थूल स्तनस्थल को देखकर डरने वाले वाहन रूप हंस के द्वारा सरस्वती अन्यत्र ले जायी जाती है। विशेष :- राजहंसों की स्थल पर प्रायः स्थिति नहीं होती है।
हारेऽनुस्तनवल्मीकं , महाभोगिनि वीक्षिते।
आसीदति कुलायेच्छुः, स्त्रीणां धीविष्करी कथम् ॥६४॥ अर्थ :- नीड़ की इच्छुक (कुल की निरूपद्रता के इच्छुक) बुद्धि रूपी पक्षिणी स्त्रियों के स्तन रूप कोटर को (देखकर) पश्चात् उसमें महासर्प को देखकर (या महाविस्तार रूप हार को देखकर) कैसे समीपवर्तिनी होती है?
मन्ये मोहमयः सर्गः, स्त्रीषु धात्रा समर्थितः।
यान्ति यत्तदभिष्वङ्गा-न्मूढतां तात्त्विका अपि॥६५॥ अर्थ :- मैं तो यह मानता हूँ कि विधाता ने स्त्रियों में मोहमयी सृष्टि की जो कि उनकी आसक्ति से विद्वान् भी मूढ़ता को प्राप्त हो जाते हैं।
जातौ नः किल मुख्याश्रीः, सापि गोपालवल्लभा।
जातं जलात्कलाधार-द्विष्टं शिश्राय पुष्करम्॥६६॥ अर्थ :- हमारे उत्पन्न होने पर जो लक्ष्मी मुख्य है, वह भी पशुपाल (कृष्ण) की
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७]
(१०९)
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
वल्लभा (पत्नी) है, पानी से (अथवा मूर्ख से) उत्पन्न हुए चन्द्र (अथवा विचक्षण) द्वेषी कमल का उसने आश्रय ले लिया।
बभार भारती ख्याति, स्त्रीजातो विदुषी का।
स्वभावभङ्गे न श्रेय, इति साऽभूदभर्तृका॥६७॥ अर्थ :- जिस सरस्वती ने स्त्री जाति में विदुषी है, इस प्रकार की ख्याति को धारण किया, अपनी सहज प्रकृति के त्याग में कल्याण नहीं है, इस कारण वह पतिरहित हो गयी।
तजगद्गुरुरेवैत-द्विचारं कर्तुमर्हति।
जात्यरत्नपरीक्षायां, बालाः किमधिकारिणः॥६८॥ अर्थ :- अतः जगद्गुरु ही इन स्वप्नों का विचार करने के योग्य है। नवीन रत्नों की परीक्षा करने में क्या बालक अधिकारी हो सकते हैं? अपितु नहीं हो सकते हैं।
अथालसलसद्बाहु-लता तल्पं मुमोच सा।
सौषुप्तिकैरिव प्रीय-माणा क्वणितभूषणैः॥ ६९॥ अर्थ :- अनन्तर आलस्य से, जिसकी बाहुलता सुशोभित हो रही थी, शब्द करते हुए आभूषणों से मानों भली प्रकार से सोने वालों से पूछती हुई तथा उनके द्वारा प्रीति को पाती हुई उसने शय्या छोड़ी।
अकुर्वती स्वहर्षस्य, सखीरपि विभागिनीः।
साऽचलचलनन्यासै-हंसन्ती हंसवल्लभाः॥ ७०॥ अर्थ :- सखी को भी अपने हर्ष की विभागिनी न करती हुई पुनः चरणनिक्षेप से हंसियों पर हँसती हुई वह चल पड़ी।
इच्छन्त्या विजनं याने, तस्या नामवतां प्रिये।
नूपुरे रूपरेखाया, आरावैः स्तावकैः पदोः॥७१॥ अर्थ :- गमन में एकान्त चाहने वाली उस सुमङ्गला को, शब्दों से दोनों चरणों की रूपरेखा की स्तुति करने वाले दो नूपुर अभीष्ट नहीं हुए।
___ अकाले मञ्जुसिञ्जाना, मेखला मे खलायितम्।
अधुनैव विधात्री कि-मिति सा दध्युषी क्षणम्॥७२॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने असमय में मधुर शब्द करने वाली मेखला ने मेरे प्रति दुष्ट .. आचरण किया है, अब क्या करेगी? इस प्रकार ध्यान किया।
मौनं भेजे करस्पर्श-संकेताद्वलयावलिः।
विदुषीव तदाकूतं, तरसा तत्प्रकोष्ठयोः॥ ७३॥ (११०)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७]
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- वेगपूर्वक सुमङ्गला के अभिप्राय को मानों जानती हुई उसके दोनों कलाइयों के कंगन समूह ने हाथ के स्पर्श के संकेत से मौन का सेवन किया।
दुर्निमित्तात् व गन्तासी-त्यालापादालिजन्मनः।
भीता मन्दपदन्यासं, साऽभ्यासं भर्तुरासदत्॥ ७४॥ अर्थ :- सखियों से उत्पन्न हुए दुनिमित्त से, 'कहाँ जाओगी', इस कथन से भयभीत हुई वह सुमङ्गला मन्द कदम रखती हुई पति के समीप पहुँची।
रत्नप्रदीपरुचिसंयमितान्धकारे, मुक्तावचूलकमनीयवितानभाजि। सा तत्र दिव्यभवने भुवनाधिनाथं,
निद्रानिरुद्धनयनद्वयमालुलोके ॥७५॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने रत्नों के दीपक की कान्ति से जिसमें अन्धकार का निराकरण हो गया है, मोतियों के चोरीनुमा गुच्छों से चँदोवों से युक्त उस दिव्य भवन में भुवनों के स्वामी को जिनके नेत्रद्वय नींद से मुँदे हुए थे, देखा।
पल्यङ्के विशदविकीर्णपुष्पतारे, व्योम्नीव प्रथिमगुणैकधाम्नि लीनः। उत्फुल्लेक्षणकुमुदां मुदा जिनेन्दु
श्चक्राणः सपदि कुमुद्वतीमिवैताम्॥ अर्थ :- निर्मल फैले हुए चम्पक, कमलादि पुष्पों से मनोज्ञ (पक्ष में-विशद फैलाए गए फूलों के समान जिसमें तारागण हैं), विस्तारगुण के एक गृह पलङ्ग पर आकाश के समान सुप्त जिन चन्द्र ने जिसके नेत्र रूप कुमुद विकसित हो रहे थे ऐसी सुमङ्गला को तत्क्षण कुमुदिनी के समान किया।
तोयार्द्राया इव परिचयान्मुक्तशोषं स्वतन्वाः, पौष्पं तल्पं प्रति परिमलेनोत्तमर्णीभवन्तम्। दृग्भ्यां व्रीडाव्यपगमऋजुस्फारिताभ्यां प्रसुप्तं,
दृष्ट्वा नाथं लवणिमसुधाम्भोनिधिं पिप्रिये सा॥७७॥ अर्थ :- जल से भीगे वस्त्र के समान अपने शरीर के परिचय से जिसने मुरझाना छोड़ दिया हे ऐसे फूलों की शय्या को प्रति परिमल से गन्ध का दान करते हुए लज्जा के अभाव से सरल तथा विस्तारित दोनों नेत्रों से सौन्दर्य रूप अमृत के समुद्र नाथ को सोता हुआ देखकर प्रसन्न हुई।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग७]
(१११)
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविर्धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लेलिनीसामुमान्। वाणीदत्तवरश्चिरं विजयन यं निर्मिते,
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये ऽभवत् सप्तमः॥७॥ अर्थ :- कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लकुमारचरितादि महाकवित्व के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में सप्तम सर्ग समाप्त हुआ। इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित
जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का सप्तम सर्ग समाप्त हुआ।
000
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७]
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
८. अष्टमः सर्गः
अथ प्रसन्नप्रभुवक्त्रवीक्षा-पीयूषपानोत्सवलीनचेताः।
विश्रम्य मृद्वी क्षणमङ्मिचार-जन्मक्लमच्छेदमसौ विवेद ॥१॥ अथ :- अनन्तर प्रसन्न प्रभु को देखने रूप अमृतपान के उत्सव में जिसका चित्त लीन है ऐसी सुकोमला उस सुमङ्गला ने क्षण भर विश्राम कर चरण संचरण से उत्पन्न श्रम के अन्त को जाना (प्राप्त किया)।
ये श्वासवाता वदनादमान्त, इवोद्भवन्ति स्म रयेण तस्याः।
ते स्वास्थ्यमापत्सत वह्निदिश्य-वायोर्विरामे जलधेरिवापः॥२॥ अर्थ :- सुमङ्गला के मुख से जो श्वास वायुये वेग से मानों न समाती हुई निकलती हैं, वे आग्नेय कोण की वायु के विराम लेने पर समुद्र के जल के समान स्वास्थ्य प्राप्त कर लेती हैं।
या कृत्रिमा मौक्तिकमण्डनश्री-रदीयत स्वेदलवैस्तदङ्गे।
तत्र स्थितौ सा सहसा विलीना, किं कृत्रिमं खेलति नेतुरग्रे॥३॥ अर्थ :- सुमङ्गला के शरीर में पसीने के कणों से जो कृत्रिम मुक्तामयी अलंकरण लक्ष्मी दी गई थी, श्री युगादीश की दृष्टि में वह यकायक विलीन हो गई। स्वामी के आगे क्या कृत्रिम खेलता है? अर्थात् नहीं।
शूथं विहारेण यदन्तरीय-दुकूलमासीत् पथि विप्रकीर्णम्।
सांयात्रिकेणेव धनं नियम्य, नीवीं तया तद् दृढयाम्बभूवे॥४॥ अर्थ :- जिस सुमङ्गला का परिधान रूप रेशमी वस्त्र मार्ग में चलने से शिथिल तथा बिखरा हुआ था. वह सुमङ्गला के द्वारा मेखला को बाँधकर धन बाँधकर मिलकर यात्रा करने ले पात्री के समान दृढ किया गया।
मा. प्रमीलासुखभङ्गभीति-स्तामेकतो लम्भयांतस्म धैर्यम्। सार्थशुश्रूषणकौतुकं चा-न्यतस्त्वरां स्त्रीषु कुतः स्थिरत्वम्॥५॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८]
।११३)
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- श्री ऋषभदेव के निद्रा सुख के भङ्ग से उत्पन्न भय एक ओर सुमङ्गला को धैर्य बँधाता था, दूसरी ओर स्वप्न के अर्थ को सुनने का कौतुक को उत्पन्न करता था। स्त्रियों में स्थिरता कहाँ?
क्षोभो भवन् मा स्म सुषुप्तितृप्ते, नाथेऽत्र तारस्वरया ममोक्तया।
मेधाविनी तज्जय जीव नन्दे-त्युदीरयामास मृदुं गिरं सा॥ ६॥ अर्थ :- सुषुप्ति से तृप्त इन नाथ के होने पर ऊँचे स्वर वाली मेरी उक्ति से क्षोभ न हो जाय, इस कारण बुद्धिमती उसने तुम्हारी जय हो, तुम जियो, आनन्दित रहो, इस प्रकार मृदु वाणी बोली।
चित्रं वधूवक्त्रविधूत्थवल्गु-वाक्कौमुदीभिः सरसी रराज।
श्रीसङ्गमैकप्रतिभूप्रबोध - लीलोल्लसल्लोचननीरजन्मा॥ ७॥ अर्थ :- लक्ष्मी के मिलन के मात्र जामिन के समान प्रबोध की लीला से सुशोभित नेत्रजल से उत्पन्न वधू सुमङ्गला के मुख रूप चन्द्र से उत्पन्न चाँदनियों से वे भगवान् रस से व्याप्त (महासर) आश्चर्य से सुशोभित हुए।
निविष्टवानिष्टकृपः स पूर्व-कायेन शय्यां सहसा विहाय।
क्षणं, धृतोष्मामिदमङ्गसङ्ग-भङ्गानुतापादिव देवदेवः॥ ८॥ अर्थ :- जिसके लिए करुणा इष्ट है, ऐसे भगवान् अग्र शरीर से अपने अङ्ग के सङ्ग : के भङ्ग के पश्चाताप से क्षण भर के लिए मानों संताप धारण किया हो, इस प्रकार शय्या को सहसा छोड़कर बैठ गए।
पुरः स्थितामप्युषितां हृदन्त-र्निशिप्रबुद्धामपि पद्मिनी ताम्।
अप्यात्तमौनां स्फुरदोष्ठदृष्ट-जिजल्पिषामैक्षत लोकनाथः॥९॥ अर्थ :- श्री युगादीश ने आगे स्थित भी हृदय के मध्य वास करने वाली, रात्रि में जागी हुई, मौन धारण करने पर भी फड़कते हुए ओष्ठ से जिसकी कहने की इच्छा दिखाई दे रही थी ऐसी पद्मिनी स्त्री (कमलिनी) सुमङ्गला को देखा।
सुमङ्गलां मङ्गलकोटिहेतु-र्नेतुर्निदेशस्त्रिदशेशमान्यः।
निवेशयामास निवेशयोग्ये, भद्रासने भद्रमुखीमदूरे॥ १०॥ अर्थ :- (दधि, दूर्वा, अक्षत, चन्दनादि) मङ्गलों की कोटि के हेतु इन्द्र के द्वारा मान्य श्री ऋषभदेव के आदेश ने कल्याणमुखी को समीप में बैठने के योग्य भद्रासन पर बैठाया।
(११४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८]
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- अनन्तर दिशा रूप स्त्रियों के अङ्गों पर श्वेत विलेपन की रचना को सेवित करते हुए दाँतों की किरण समूह से पूर्णिमा की यशः कीर्ति को जय के लिए प्रयुक्त करते हुए जिनेन्द्र ने स्त्री (सुमङ्गला ) से कहा ।
दिगङ्गनाङ्गेषु सिताङ्गराग-भङ्गीं भजद्भिर्दशनांशुजालैः । ज्यौत्स्त्रीयशोजापयता जिनेन, तया रजन्या जगदेऽथ जाया ॥ ११ ॥
अर्थ
हे देवि ! बिना यान के गमन करने में जिसके पैर योग्य नहीं है, ऐसा तुम्हारा आना क्या ठीक है? हे कुशाङ्गि ! अग्नि से निकले हुए सुवर्ण पर जिसका प्रकाश हँसता है, ऐसा तुम्हारा शरीर बाधारहित तो है ?
--
अयानचर्यानुचितक्रमायाः, कच्चित्तव स्वागतमस्ति देवि ।
तनूरबाधा तव तन्वि तापो - त्तीर्णस्य हेम्नो हसितप्रकाशा ॥ १२ ॥
अर्थ
हे देवि! तुम्हारी वह छाया के समान पास से अपृथक् न होने वाली सखीजन सदा सुखी हैं? अथवा शरीर पर सुवर्ण में पुण्योत्कर्ष को प्राप्त माणिक्यभूषा क्या दोषरहित है ?
छायेव पार्श्वादपृथग्बभूवान्, सुखी सदास्ते स सखीजनस्ते । प्राप्ता सुवर्णे परभागमङ्गे, माणिक्यभूषा किमुतापदोषा ॥ १३ ॥
अर्थ :
अर्थ महानिशा में भी हे मुक्तनिद्रे ! तुम मुझे देखने के लिए क्यों उपस्थित हुई हो, जिससे आधा क्षण बीत जाने पर भी मानों चिरकाल बाद दिखाई दी हो, इस प्रकार चित्त दौड़ रहा है।
--
महानिशायामपि मुक्तनिद्रे, दिदृक्षया मां किमुपस्थितासि ।'
क्षणार्धमुक्तेऽपि चिराय दृष्ट-इव प्रिये धावति येन चेतः ॥ १४ ॥
अर्थ :- अथवा हे देवि ! मेरे स्वप्न में उपलब्ध होने पर तुम काम से दुखी हुई रमण करने के लिए आयी हो । प्रायः विपरीत आचरण वाला वीर कामदेव ही अबलाओं पर प्रबलता को प्राप्त होता है ।
स्वप्नोपलब्धे मयि मारदूना, रिरंसया वा किमुपागतासि ।
प्रायोऽबलासु प्रबलत्वमेति, कन्दर्पवीरो विपरीतवृत्तिः ॥ १५ ॥
प्रिये प्रयासं विचिकित्सितं वा, मीमांसितुं किञ्चिदमुं व्यधास्त्वम् ।
संदेहशल्यं हि हृदोऽनपोढ-मामृत्यु मर्त्यस्य महार्तिदायि ॥ १६ ॥ अथवा हे प्रिये ! तुमने किसी सन्दिग्ध विचार की मीमांसा करने के लिए इस
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ८ ]
(११५)
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रयास को किया है। निश्चित रूप से हृदय की सन्देह रूपी शल्य अनाकृष्ट होती हुई मनुष्य के लिए मृत्यु पर्यन्त महादुःखदायी होती है ।
अर्थ
हे डरे हुए मृग के समान नेत्र वाली ! यदि तुम्हें कोई वस्तु खोजनी हो तो निःशंक होकर कहो । प्रायः सुर और असुरों को झुका देने वाले मेरे लिए स्वर्ग तक, नाग गृह तक कोई वस्तु कठिनाई से प्राप्त करने योग्य नहीं है ।
-:
चेद्वस्तु संत्रस्तमृगाक्षि मृग्यं, तवास्ति किञ्चिद्वद तद्विशङ्कम् । आनाकमानागगृहं दुरापं, प्रायो न मे नम्रसुरासुरस्य ॥ १७ ॥
विश्वप्रभोर्वाचममूं सखण्ड - पीयूषपांङ्क्तेयरसां निपीय ।
श्री
प्राप्ता प्रमोदं वचनाध्वपारं, प्रारब्ध वक्तुं वनितेश्वरी सा ॥ १८ ॥ अर्थ :वाग्गोचरातीत (वाणी के विषय से अतीत) प्रमोद प्राप्त कर विश्व के प्रभु ऋषभदेव की खण्ड सहित पीयूष पंक्ति में उत्पन्न रस वाली उस वाणी को अत्यधिक तृष्णा से पीकर (सुनकर ) स्त्रियों में प्रधान उस सुमङ्गला ने कहना प्रारम्भ किया । पातुस्त्रिलोकं विदुषस्त्रिकालं, त्रिज्ञानतेजो दधतः सहोत्थम् । स्वामिन्न तेऽवैमि किमप्यलक्ष्यं, प्रश्नस्त्वयं स्नेहलतैकहेतुः ॥ १९ ॥
अर्थ :- हे स्वामिन्! तीनों लोगों की रक्षा करने वाले, तीनों कालों को जानने वाले, एक साथ उत्पन्न मति, श्रुत और अवधि नामक तीन ज्ञान को धारण करने वाले आपके लिए मैं कोई वस्तु अलक्ष्य नहीं मानती हूँ। यह प्रश्न तो स्नेहलता का एकमात्र हेतु है ।
निध्यायतस्ते जगदेकबुद्ध्या, मय्यस्ति कोऽपि प्रणयप्रकर्षः ।
भृशायते चूतलताविलासे, साधारणः सर्ववने वसन्तः ॥ २० ॥ अर्थ :हे स्वामिन्! यद्यपि आप जगत् को एक बुद्धि से देखते हैं, फिर भी मेरे प्रति कोई अपूर्व प्रेम का प्रकर्ष है । वसन्त सब वनों के लिए साधारण है, परन्तु आम्रलता के विलास में अधिक होता है ।
-:
अर्थ
• हे नाथ इन्द्र भी जिसकी स्तुति करते हुए इन्द्रत्व के गर्व को धारण नही करते हैं। ऐसे आपके सामने मैं बोलने में समर्थ हूँ । ओह ! स्त्रियों में मोह महाप्राण
वाला है ।
(११६)
न नाकनाथा अपि यं नुवन्तो, वहन्ति गर्वं विबुधेशतायाः ।
वक्तुं पुरस्तस्य तव क्षमेऽह - महो महासुर्महिलासु मोहः ॥ २१॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ८ ]
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्त्रीमात्रमेषास्मि तव प्रसादा-देवादिदेवाधिगता गुरुत्वम्।
राज्ञो हृदि क्रीडति किं न मुक्ता-कलापसंसर्गमुपेत्य तन्तुः॥२२॥ अर्थ :- हे आदिदेव! ये मैं स्त्रीमात्र (साधारण स्त्री) हूँ। आपकी कृपा से ही महत्त्व को प्राप्त हुई हूँ । तन्तु मोतियों के समूह के संसर्ग को पाकर राजा के हृदय में क्या क्रीडा नहीं करता है? अपितु करता है।
मां मानवी दानववैरिवध्वो, याचन्ति यत्प्राञ्जलयोऽङ्गदास्यम्।
सोऽयं प्रभावो भवतो न धेयं, भस्मापि भाले किमु मन्त्रपूतम्॥२३॥ अर्थ :- देवाङ्गनायें हाथ जोड़कर मनुष्य जाति की होने पर भी जो मेरे शरीर की दासता की याचना करती हैं, वह आपका प्रभाव है । राख भी यदि मन्त्र से पवित्र हो तो क्या मस्तक पर धारण करने योग्य नहीं है? अपितु अवश्य है।
त्वत्सङ्गमात् सङ्गमितेन दिव्य-पुष्पैर्मदङ्गेन विदूरितानि।
वैराग्यरङ्गादिव पार्थिवानि, वनेषु पुष्पाण्युपयान्ति वासम्॥२४॥ अर्थ :- हे नाथ! आपके मिलन से मिले हुए मेरे अङ्ग से दूर किए गए पार्थिव पुष्प मानों वैराग्य के रङ्ग से वन में वास प्राप्त करते हैं। __ 'अङ्गेषु मे देववधूपनीत-दिव्याङ्गरागेषु निराश्रयेण।
नाथानुतापादिव चन्दनेन, भुजङ्गभोग्या स्वतनुर्वितेने ॥२५॥ अर्थ :- हे नाथ! मेरे देव वधुओं के द्वारा लाए दिव्य अङ्गराग से युक्त अङ्गों पर निराश्रय चन्दन ने अपने शरीर को मानों पश्चाताप से ही सर्पवेष्टित कर दिया।
स्वर्भूषणैरेव मदङ्गशोभा, सम्भावयन्तीष्वमराङ्गनासु।
रोषादिवान्तर्दहनं प्रविश्य, द्रवीभवत्येव भुवः सुवर्णम् ॥२६॥ अर्थ :- हे नाथ! देवाङ्गनाओं के सुवर्णभूषणों से मेरे अङ्ग की शोभा करने पर पृथिवी का स्वर्ण अग्नि में प्रवेश कर मानों रोष से ही पिघलता है।
पयः प्रभो नित्यममर्त्यधेनोः, श्रीकोशतो दिव्यदुकूलमाला।
पुष्पं फलं चामरभूरुहेभ्यः, सदैव देवैरुपनीयते मे ॥ २७॥ अर्थ :- हे प्रभो ! देवों के द्वारा नित्य कामधेनु से दूध, लक्ष्मी के कोश से दिव्य रोशनी माला और कल्पवृक्षों से पुष्प तथा फल मेरे लिए लाए जाते हैं।
भोगेषु मानव्यपि मानवीनां, स्वामिन्न बध्नामि कदाचिदास्थाम्। अहं त्वदीयेत्यनिशं सुरीभिः, स्वर्भोगभङ्गीष्वभिकीकृताङ्गी ॥२८॥
(११७)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८]
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- हे नाथ! मैं मानवीय भोगों में कदाचित् आस्था नहीं रखती हूँ। मैं तुम्हारी हूँ अत: देवाङ्गनाओं के द्वारा स्वर्गीय भोगों के प्रकारों में कामुकीकृत शरीरा वर्तती हूँ। . अन्यैरनीषल्लभमेति वस्तु, यदा यदासेचनकं मनो मे।
तदा तदाकृष्टमिवैत्यदूरा-दपि प्रमोदं दिशति त्वयीशे॥२९॥ अर्थ :- हे नाथ! जब मेरा मन जिस आनन्दकारी अन्य के लिए थोड़े सुख से अप्राप्त वस्तु के प्रति जाता है, तब दूर से मानों आकृष्ट हो, इस प्रकार आकर मुझे प्रसन्नता प्रदान करती है।
प्रमार्टि गेहाग्रमृभुर्नभस्वान्, पिपर्ति कुम्भान् सुरसिन्धुरद्भिः।
भक्ष्यस्य चोपस्कुरुतेंऽशुमाली, दास्योपि नेशे त्वयि दुर्विधा मे॥३०॥ अर्थ :- हे नाथ! आपके स्वामी रहने पर मेरी दासता भी बुरी नहीं है । वायु मेरे घर के आगे सफाई करता है। आकाशगङ्गा पानी से कुम्भों को भरती है और सूर्य भक्ष्य वस्तुओं को पकाता है।
त्रातस्त्वयि त्राणपरे त्रिधापि, दुःखं न मश्नाति मुदं मदीयाम्।
यं हेतुमायासिषमत्र माया-मुक्तं ब्रुवे तच्छृणु सावधानः ॥ ३१॥ अर्थ :- हे रक्षक! आपके रक्षक होने पर आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दु:ख, अथवा दैव, मानुष और तिर्यक् कृत दुःख से मेरा हर्ष नहीं टूटता है । जिस कारण मैं यहाँ पर आया हूँ। तो मैं माया से रहित होकर कहता हूँ, सावधान होकर आप सुनिए।
क्रियां समग्रामवसाय सायं-तनीमनीषद्धृतिरत्र रात्रौ।
अशिश्रियं श्रीजितदिव्यशिल्पं, तल्पं स्ववासौकसि विश्वनाथ ॥३२॥ अर्थ :- हे विश्वनाथ! बहुत से, धैर्य से युक्त मैंने सन्ध्या सम्बन्धी समस्त क्रियाओं को जानकर यहाँ रात्रि में अपने निवास भवन में जिसने शोभा से दिव्य शिल्प को जीत लिया है, ऐसी शय्या का आश्रय लिया।
त्वन्नाममन्त्राहितदेहरक्षा, निद्रां स्वकालप्रभवामवाप्य।
स्वप्नानिभोक्षप्रमुखानदर्श, चतुर्दशादर्शमुख क्रमेण ॥ ३३॥ अर्थ :- हे दर्पण के समान मुख वाले ! मैंने आपके नाम मात्र से अपनी देह की रक्षा करती हुई अपने काल पर उत्पन्न निद्रा को क्रम से पाकर हाथी, बैल प्रमुख चौदह स्वप्न देखे।
(११८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८]
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
ततोऽत्यभीष्टामपि सर्वसार-स्वप्नौघसंदर्शनया कृतार्थाम्।
विसृज्य निद्रां चतुराञ्चित त्वां, तत्त्वार्थमीमांसिषयागतास्मि॥३४॥ अर्थ :- हे विद्वत्पूजित! अनन्तर मैं अत्यन्त अभीष्ट होने पर भी समस्त सार रूप स्वप्नों के देखने से कृतार्थ हुई निद्रा को छोड़कर तत्त्वार्थ पर विचार करने की इच्छा से तुम्हारे समीप आयी हूँ।
वस्त्वाकृषन्ती भवतः प्रसाद-संदंशकेनापि दविष्ठमिष्टम्।
न कोऽपि दुष्प्रापपदार्थलोभ-जन्माऽभजन् मां भगवंस्तदाधिः॥३५॥ अर्थ :- हे भगवान् किसी पाने में अशक्य पदार्थ के लोभ से जन्य मानसिक दुःख ने उस अवसर पर आपकी कृपा रूप संदंश (सँडासी) से अत्यन्त दूर अभीष्ट वस्तु को आकर्षित करने वाली मेरा सेवन नहीं किया।
आकूतमक्षिभ्रुवचेष्टयैव, हार्दै विबुध्याखिलकर्मकारी।
न स्वैरचारीति परिच्छदोऽपि, मनो दुनोति स्म तदा मदीयम्॥३६॥ अर्थ :- हे नाथ! तब आँख और भौंह की चेष्टाओं से ही हृदय के अभिप्राय को जानकर समस्त कार्य करने वाला परिवार भी इच्छानुसार आचरण करता है, अत: मेरा मन दुःखी नहीं है। म अपि द्वितीयाद्वितये विभज्य, चित्तं च वित्तं च समं समीचा।
त्वया न सापल्यभवोऽभिभूति-लवोऽपि मेऽदत्त तदानुतापम्॥३७॥ अर्थ :- हे नाथ! तुमने दोनों पत्नियों में भी चित्त और धन का समान विभाग कर भली प्रकार आचरण के द्वारा उस समय सपत्नी से उत्पन्न तिरस्कार के लेशमात्र भी विषाद को नहीं दिया।
आसीन मे वर्मणिमारुतादि-प्रकोपतः कोऽपि तदा विकारः।
त्वयि प्रसन्ने न हि लब्धबाधा, मिथः पुमर्था इव धातवोऽपि ॥३८॥ अर्थ :- हे नाथ! उस अवसर पर मेरे शरीर में वायु आदि के प्रकोप से कोई विकार नहीं था। तुम्हारे प्रसन्न होने पर धातुयें भी पुमर्थ के समान परस्पर में बाधायें नहीं प्राप्त करती है।
गदा वपुः कुम्भगदाभिघाता, नासंस्तदा त्वन्निगदागदाप्त्या।
अजातशत्रु पतिमाश्रिताया-स्त्वां मे कुतः सम्भव एव भीतेः॥३९॥ अर्थ :- हे नाथ! शरीर रूपी कुम्भ पर गदा के अभिघात के सदृश रोग मुझे उस समय
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८]
(११९)
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुम्हारे नाम रूपी औषधि की प्राप्ति से नहीं थे। शत्रुओं से रहित तुम जैसे पति का आश्रय लेकर मुझे भय की उत्पत्ति कहाँ से हो सकती है?
एवं सुखास्वादरसोर्जितायां, मनस्तनुक्लेशविवर्जितायाम्।
स्वप्नैर्बभूवे मयि यैस्तदर्थ-मीमांसया मांसलय प्रमोदम्॥ ४०॥ अर्थ :- इस प्रकार सुख के आस्वाद के रस से बलिष्ठ, मन और शरीर के क्लेश से रहित मुझे जो स्वप्न हुए उनके अर्थ का विचार कर मेरे प्रमोद की वृद्धि कीजिए।
सूक्ष्मेषु भावेषु विचारणायां, मेधा न मे धावति बालिशायाः।
त्वमेव सर्वज्ञ ततः प्रमाणं, रात्रौ गृहालोक इव प्रदीपः॥४१॥ अर्थ :- हे नाथ! मूर्ख मेरी बुद्धि सूक्ष्म भावों का विचार करने की ओर नहीं दौड़ती है। अतः हे सर्वज्ञ ! रात्रि में जिस प्रकार दीपक घर का आलोक होता है, उसी प्रकार तुम ही प्रमाण हो।
यद्दीपगौरद्युतिभास्कराणां, प्रकाशभासामपि दुळपोहम्।
हाई तमस्तक्षणतः क्षिणोति, वाग्ब्रह्मतेजस्तव तन्वपीश ॥४२॥ अर्ध :- क्योंकि दीपक, चन्द्रमा और सूर्य जैसे प्रकट तेज वालों का भी हृदय सम्बन्धी अन्धकार दुःख से दूर होने योग्य है। हे ईश! उस हृदय के अन्धकार को वचन ज्ञान सम्बन्धी तेज सूक्ष्म होते हुए भी क्षण भर में क्षय कर देता है।
यत्र क्रचिद्वस्तुनि संशयानाः, स्मरन्ति यस्य त्रिदशेशितारः।।
तत्रान्तिकस्थे त्वयि शास्त्रदृश्वा, मानार्ह नाहंत्यपरोऽनुयोक्तुम्॥४३॥ अर्थ :-- हे नाथ! इन्द्र जिस किसी वस्तु में संशय हो जाने पर आपका स्मरण करते हैं, हे भान के योग्य ! उम्प वस्तु के विषय में आपके निकटवर्ती होने पर दूसरा शास्त्रदृष्टा उनके योगः ही होता है।
दूर्मवातीनि तमांसि हत्वा, गोभिर्बभूवान् भुवि कर्मसाक्षी।
इदं हृदन्तर्मम दीप्रदेह, संदेहरक्षः स्फुरदेव रक्ष॥ ४४॥ अर्थ :- हे दीप्यमान शरीर ! वचनों से (अथवा किरणों से) तुम इस सन्देह रूपी राक्षस से, जो कि मेरे हृदय के मध्य स्फुरायमान हो रहा है (फैल रहा है), रक्षा करो। दर्शन क्रया ( अथवा ज्ञान क्रिया) का घात करने वाले पापों को (अथवा अन्धकारों को) नष्ट कर पृथिवी पर (तुम) कर्मों के साक्षी (सूर्य) हुए।
अतीन्द्रियज्ञाननिधेस्तवेश, क्लेशाय नायं घटते विचारः। भक्तुं महाशैलतटीं घटीय-द्वजं किमायस्य तृणं तृणेढि ॥ ४५ ॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८]
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- हे ईश! यह विचार अतीन्द्रिय ज्ञान के निधि आपके क्लेश के कान नहीं होता है। महान् पर्वत के तट को भेदन करने के लिए घट के समान आचरण करता हुआ वज्र क्या प्रयत्नपूर्वक तृण को काटता है? अपितु प्रयत्न के बिना ही काटता है।
उद्भूतकौतूहलया रयेणा-जागर्यथास्तन्मयि मास्म कुप्यः। ___ कालातिपातं हि सहेत नेतर्न कौतुकावेशवशस्त्वरीव॥ ४६॥ अर्थ :- हे नाथ! वेगपूर्वक मेरे द्वारा जिसके कौतूहल उत्पन्न हुआ, उसके द्वारा तुम जाग्रत कर दिए गए हो, अत: मेरे ऊपर कुपित मत होइए। हे स्वामिन् ! कौतुक के आवेश के वश पुरुष उत्सुक के समान काल के विलम्ब को सहन नहीं करता है।
श्रुत्वा प्रियालापमिति प्रियायाः, प्रीतिं जगन्वान जगदेकदेवः।
वाचं मृदुस्वादुतया सुधाब्धि-गर्भादिवाप्तप्रभवामुवाच॥ ४७॥ अर्थ :- प्रिया की इस प्रकार प्रिय बातचीत को सुनकर प्रीति को प्राप्त हुए संसार के एकमात्र देव श्री ऋषभदेव ने मृदु और स्वाद युक्त. अमृत समुद्र के मध्य से ही मानों जिसकी उत्पत्ति हुई हो ऐसी वाणी में कहा।
प्रिये किमेतजगदे मदेकात्मया त्वया हन्त तटस्थयेव।।
त्वदुक्तिपानोत्सव एव निद्रा-भङ्गस्य मे दस्यति वैमनस्यम्॥४८॥ अर्थ :- हे प्रिये! मेरे साथ जिसकी एक आत्मा है ऐसी तुमने तटस्था के समान ये क्या कहा? आपकी उक्तियों के पान करने का उत्सव ही मेरे निद्राभङ्ग की मनोव्यथा को दूर करता है।
निद्रा तमोमय्यपि किं विगेया, सुस्वप्नदानात् परमोपकी।
जाये जगजीवनदातुरब्दा-गमस्य को निन्दति पङ्किलत्वम्॥४९॥ अर्थ :- हे प्रिये! तमोमयी होने पर भी सुन्दर स्वप्नों के दान से परम उपकार करने वाली निद्रा क्या निन्द्य है? अपितु नहीं है । संसार को जीवन दान देने वाले वर्षाकाल के कोचड़पने की कौन निन्दा करता है? अपितु कोई नहीं।
भद्रङ्करी निर्भरसेवनेन, निद्राह्वया काचन देवतेयम्।
दूरस्थितं वस्तु निरस्तनेत्रा-नप्यङ्गिनो ग्राहयते यदीहा ॥५०॥ अर्थ :- हे प्रिये! यह निद्रा नाम की कोई देवी अत्यधिक सेवन करने से सुखकर है. जिस निद्रा की इच्छा, जिन्होंने नेत्रों के व्यापार को छोड़ दिया है ऐसे प्राणियों को दूरस्थित भी वस्तु को दिला देती है। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८]
(१२१)
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रोतांसि संगोप्य जडानि चेतः, सचेतनं साक्षिरहो विधाय।
संदर्शयन्ती तव सारभावा-निद्रा धुरं छेकधियां दधाति ॥५१॥ अर्थ :- हे प्रिये ! अज्ञान रूप इन्द्रियों को छिपाकर एकान्त में सचेतन मन को साक्षि बनाकर तुम्हारे सारभावों को दिखलाती हुई निद्रा चतुरबुद्धि वाले लोगों के भार को धारण करती है।
एकात्मनोनौ परिमुञ्चती मां, सुस्वप्नसर्वस्वमदत्त तुभ्यम्।
निद्रा ननु स्त्रीप्रकृतिः करोति, को वा स्वजातौ न हि पक्षपातम्॥५२॥ अर्थ :- जिन दोनों का एक स्वरूप है ऐसे हम दोनों में से मुझे छोड़कर निश्चित रूप से स्त्री स्वभाव वाली निद्रा ने तुम्हें सुस्वप्नों के सर्वस्व को दिया। अथवा निश्चित रूप से अपनी जाति के प्रति पक्षपात कौन नहीं करता है? अपितु सभी करते हैं।
दुर्घोषलालाश्रुतिदन्तघर्षा-दिकं विकर्माप्यत निद्रया यैः।
स्वप्नव्रजे श्रोत्रपथातिथौ ते, ते खेदतः स्वं खलु निन्दितारः॥५३॥ अर्थ :- जिन पुरुषों ने नींद से बुरी आवाज, लार गिरना, दाँत घिसना रूप विकर्म प्राप्त किए वे तुम्हारे स्वप्न समूह के कर्णपथ के अतिथि होने पर निश्चित रूप से अपनी निन्दा करेंगे।
आदौ विरामे च फलानि कल्प-वल्लेरिव स्वादुविपाकभाजः।
नेमाननेमानपि नीरजाक्षि, स्वप्नान् दृशः कर्मकरोत्यपुण्या॥५४॥ अर्थ :- हे कमललोचने ! पुण्यरहिता स्त्री आदि में और अन्त में कल्पलता के फल के समान स्वाद युक्त फलों का भोग कराने वाले इन चौदह स्वप्नों को अर्द्धरहित भी नहीं देखती है।
निशम्य सम्यक् फलदानशौण्डान्, स्वप्नानिमांस्ते वदनादिदानीम्।।
दक्षे ममोल्लासमियर्ति वक्षः, किं स्थानदानाय मुदाभराणाम्॥ ५५॥ अर्थ :- हे विचक्षणे! मेरा हृदय इस समय तुम्हारे मुख से सम्यक् फलों को प्रदान करने में समर्थ इन स्वप्नों के विषय में सुनकर प्रसन्नता के समूहों को स्थान प्रदान करने के लिए विस्तार को प्राप्त होता है।
आनन्दमाकन्दतरौ हृदाल-वाले त्वदुक्तामृतसेकपुष्टे।
रक्षावृतिं सूत्रयितुं किमङ्ग-ममाङ्गमुत्कण्टकतां दधाति ॥५६॥ अर्थ :- हे सुमङ्गला! मेरे हृदय रूप थावले में हर्ष रूप आम्र वृक्ष में आपकी
(१२२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८]
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
उक्तियों रूप अमृत के सिञ्चन से पुष्ट रक्षा के लिए कण्टक की वाड़ लगाने के लिए मेरा अङ्ग क्या रोमाञ्चों के उदय को (अथवा ऊर्ध्वकण्टकता को) धारण करता है?
श्रुत्योः सुधापारणकं त्वदुक्तया, मत्वा मनोहत्य समीपवासात्।
पिण्डोललोले इव चक्षुषी मे, प्रसृत्य तत्संनिधिमाश्रयेते॥५७॥ अर्थ :- हे प्रिये! तुम्हारे वचनों से दोनों कानों की मनस्तृप्ति पर्यन्त अमृत भोजन जानकर मेरे समीप वास से भुक्तशेष के प्रति मानों लोलुप से दोनों नेत्र कर्ण की समीपता का आश्रय लेते हैं।
एकस्वरूपैरपि मत्प्रमोद-तरोः प्ररोहाय नवाम्बुदत्वम्।
स्वगैरमीभिः कुतुकं खलाशा-वल्लीविनाशाय दवत्वमीये॥५८॥ अर्थ :- एक स्वरूप वाले भी इन स्वप्नों से आश्चर्य है। मेरे हर्ष रूप वृक्ष के अङ्कर के लिए नवीन मेघ का सादृश्य दुष्टों की आशा रूप लताओं के विनाश के लिए दावानलपने को प्राप्त हुआ है।
नैषां फलोक्तावविचार्य युक्त-माचार्यकं कर्तुमहो ममापि।
महामतीनामपि मोहनाय, छद्मस्थतेयं प्रबलप्रमीला॥ ५९॥ अर्थ :- आश्चर्य की बात है। इन स्वप्नों की फलोक्तियों का बिना विचार किए मेरा भी आचार्य कर्म करना युक्त नहीं है । यह छद्मस्थता रूपी सबल निद्रा महाबुद्धिशालियों के भी मोह के लिए है।
यावद्घनाभं घनघातिकर्म-चतुष्कमात्मार्यमणं स्तृणाति।
तावत् तमश्छन्नतया विचारे, स्फुरन्न चेतोऽञ्चति जांघिकत्वम्॥६०॥ अर्थ :- हे प्रिये ! मेघ के समान घात करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय
और अन्तराय रूप चार कर्म आत्मा रूपी सूर्य को जब तक आच्छादित करते हैं, तब तक चित्त अज्ञान से आच्छादित होने से शीघ्रता को प्राप्त नहीं होता है।
आकेवलार्चिः कलनं विशङ्ख, वयं न संदेहभिदां विदध्मः।
को वा विना काञ्चनसिद्धिमुर्वीमाधातुमुलॊमनृणां यतेत॥६१॥ अर्थ :- हे प्रिये ! हम केवल ज्ञान के लाभ होने पर शङ्कारहित होकर संशयभेद न करें। अथवा कौन व्यक्ति सुवर्ण की सिद्धि के बिना भारी पृथ्वी को ऋणरहित करने का यत्न करेगा?
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-6]
(१२३)
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :
अत: हे प्रिये कुछ समय प्रतीक्षा करो । अत्यन्त शीघ्रता इष्टसिद्धि की विघ्न करने वाली है । ऐसा कहते हुए उन प्राज्ञों के स्वामी ने मन के व्यापार को त्याग कर
समाधि धारण की।
·--
तस्मान्मनागागमयस्व काल-मतित्वरा विघ्नकरीष्टसिद्धेः ।
इत्युक्तवांस्त्यक्तमनस्तरङ्गः, क्षणं समाधत्त स मेधिरेशः ॥ ६२ ॥
अर्थ :- दोनों नेत्रों को बन्द कर, वाणी को रोककर, समस्त कायचेष्टाओं को रोककर उन भगवान् ने रात्रि में जिसमें कमल संकुचित हो गए हैं, हंस नाद नहीं कर रहे हैं तथा तरङ्गे सुशोभित हो रही हैं, ऐसे सरोवर का अनुसरण किया ।
निमील्य नेत्रे विनियम्य वाचं, निरुध्य नेताखिलकायचेष्टाः । निशिप्रसुप्ताब्जमनादिहंसं, सरोऽन्वहार्षीदलसत्तरङ्गम् ॥ ६३ ॥
·
स्वप्नानशेषानवधृत्य बुद्धि-बाह्वा मनोवेत्रधरः पुरोगः । महाधियामूहसभामभीष्टां निनाय लोकत्रयनायकस्य ॥ ६४ ॥
अर्थ :- महाबुद्धिशालियों का अग्रगामी मन रूप प्रतीहार समस्त स्वप्नों को बुद्धि रूपी बाहु से पकड़कर तीनों लोकों के स्वामी की अभीष्ट प्रिय विचार सभा में ले गया ।
(१२४)
,
अर्थ : ज्ञान रूप अञ्जन से विकसित दृष्टि से जिसने पाप नष्ट कर दिये हैं, उसके भाव रूप विचार समुद्र का ( पक्ष में- गम्भीरता के आधार रूप विचार समुद्र का ) अवगाहन कर स्पष्ट रूप से बुद्धिप्रधान ( मात्स्यिक) चित्त से उन स्वप्नों के फल रूप मोती श्री ऋषभस्वामी को समर्पित किए।
अस्ताघताधारविचारवार्धिं, ज्ञानाञ्जनोद्भिन्नदृशावगाह्य ।
चित्तेन नेतुः स्फुट धीवरेण, समर्पितास्तत्फलयुक्तिमुक्ताः ॥ ६५ ॥
तद्भूर्हर्षामृतरसभरः किं शिरासारणीभिः, स्वान्तानूपाद्युगपदसृपत्क्षेत्रदेशे ऽखिलेऽस्य । लोकत्रातुः कथमितरथा लोमबर्हिः प्ररोहैः, सद्यस्तत्रोल्लसितमसितच्छायसूक्ष्माग्रभागैः ॥ ६६ ॥
अर्थ :उन स्वप्नों से उत्पन्न हर्ष रूपी अमृत के रस का समूह इन लोकरक्षक भगवान् के चित्त रूपी सजल प्रदेश से शिरा रूपी प्रणालियों से समस्त शरीर के प्रदेश में एक साथ फैला, नहीं तो उस क्षेत्र प्रदेश में तत्काल कैसे कृष्ण कान्ति वाले तथा सूक्ष्माग्र भाग से युक्त लोभ रूप घास के अङ्कुरों से एक साथ फैलता ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग -८]
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
दृग्युग्ममुल्लसितमुच्छ्वसितां तनुं च, चञ्चन्मतिद्रढिमधाम सुमङ्गला सा । दृष्ट्वाद्भुतं वरयितुर्वचनं विनापि, स्वप्नान्महाफलतयान्वमिमीत सर्वान् ॥ ६७॥
:
अर्थ : विस्तार को प्राप्त होती हुई बुद्धि की दृढ़ता की धाम उस सुमङ्गला ने श्री ऋषभदेव के वचन बिना भी नेत्र युगल को विकसित देखकर और शरीर को तरोताजा देखकर समस्त स्वप्नों को महाफल वाला अनुमान किया ।
हाञ्चक्रे सा स्वामिनो मौनमुद्रा-भेदं तृष्णालुर्वाक्सुधायास्तथापि ।
धत्ते नोत्कण्ठां गर्जिते केकिनी किं, मेघस्योन्नत्या ज्ञातवर्षागमापि ॥ ६८ ॥
अर्थ
वाणी रूप अमृत को पीने की इच्छुक उस सुमङ्गला ने फिर भी स्वामी की मौनमुद्रा के भेदन की इच्छा की। मेघ की उन्नति से जिसे वर्षा का आगमन ज्ञात है, ऐसी मयूरी गर्जना होने पर क्या उत्कण्ठा धारण नहीं करती है ? अपितु धारण करती है । सूरि : श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि
-:
धम्मिल्यादिमहाकवित्वकलनाकल्लेलिनीसानुमान् । वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्येऽष्टमोऽयं गतः ॥ ८ ॥
अर्थ :कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लकुमारचरितादि महाकवित्व के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील रहें। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में अष्टम सर्ग समाप्त हुआ ।
इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित जैनकुमारसम्भवमहाकाव्य का अष्टम सर्ग समाप्त हुआ ।
जैन कुमारसम्भव महाकाव्य,
सर्ग - ८ ]
(१२५)
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
९. नवमः सर्गः
तदा तदास्येन्दुसमुल्लसद्वचः-सुधारसस्वादनसादरश्रुतिः।
गिरा गभीरस्फुटवर्णया जग-त्रयस्य भ; जगदे सुमङ्गला॥१॥ अर्थ :- उस अवसर पर तीनों लोकों के स्वामी श्री ऋषभदेव ने भगवान् के मुखचन्द्र से निकलते हुए अमृत रस से आस्वादन में जिसके दोनों कान आदर सहित हैं ऐसी सुमङ्गला से गम्भीर और स्पष्ट वर्ण युक्त वाणी में कहा।
जुडजडिना जडभक्ष्यभोजना-दनावृतस्थानशयेन जन्तुना।
विलोक्यते यो विकलप्रचारवद्-विचारणं स्वप्नभरो न सोऽर्हति ॥२॥ अर्थ :- हे सुमङ्गला! जड़ से युक्त शीतल आहार भोजन से अनावृत स्थान में सोने वाला प्राणी जो स्वप्नसमूह देखता है, वह विह्वल व्यक्ति के गमन के समान विचार के योग्य नहीं होता है।
निभालयत्यालयगोऽपि यं प्रिये-ऽनुभूतदृष्टश्रुतचिन्तितार्थतः।
नरो निशि स्वप्नमबद्धमानसो, न सोऽपि पंक्तिं फलिनस्य पश्यति॥३॥ अर्थ :- हे प्रिये अबद्ध मन वाला मनुष्य घर में स्थित होता हुआ भी अनुभव किए हुए, देखे हुए, सुने हुए तथा विचार किए हुए पदार्थों से रात्रि में जो स्वप्न देखता है, वह भी जिसका फल है, उसकी पंक्ति को नहीं देखता है।
नरस्य निद्रावधिवीक्षणोत्सवं, तनोति यस्तस्य फलं किमुच्यते।
विमुच्यते सोऽपि विचारतः पृथग्गतः प्रथां यो मलमूत्रबाधया॥ ४॥ अर्थ :- जो स्वप्न मनुष्य की नींद की अवधि तक दर्शनोत्सव करता है, उसका फल क्या कहा जाता है? कुछ भी नहीं। जो स्वप्न मल, मूत्र की बाधा से विस्तार को प्राप्त हुआ, वह भी विचार करने पर अलग किया जाता है अर्थात् ऐसे स्वप्नों का कोई फल नहीं है।
मनाक् समुत्पाद्य दृशोर्निमीलनं, सुखं निषण्णे शयितेऽथवा नरे। प्रवक्ति यत्स्वप्नमिषेण देवता, वितायते तस्य विचारणा बुधैः॥५॥
(१२६)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९] ,
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- हे प्रिये! मनुष्य के सुखपूर्वक बैठने अथवा सोने पर नेत्रों के कुछ बन्द होने पर स्वप्न के बहाने से देवी जो कहती है, विद्वान् लोग उसके विषय में विचार करते हैं।
अधर्मधर्माधिकतानिबन्धनं, यमीक्षते स्वप्नमपुष्कलं जनः।
वदन्ति वैभातिकमेघगर्जिव-न मोघतादोषपदं तमुत्तमाः॥ ६॥ अर्थ :- हे प्रिये ! लोग थोड़ी अधर्म और धर्म की अधिकता जिसमें कारण है ऐसे जिस स्वप्न को देखते हैं, उसे उत्तम पुरुष प्रभातकालीन मेघ की गर्जना के समान निष्फलता रूपी दोष का स्थान नहीं कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे प्रात:कालीन मेघ की गर्जना निष्फल नहीं होती है, उसी प्रकार वह स्वप्न भी सफल ही होता है।
त्वमादृतद्विनिविरीसभाञ्जनं, सभाजनं सिञ्चसि मे वचोऽमृतैः।
सभाजनं यत्तव तन्वते सुरा, विभासि तत्पुण्यविलासभाजनम्॥७॥ अर्थ :- हे प्रिये ! तुम वचन रूप अमृतों से मेरे आदर को प्राप्त शत्रुओं की निविड़ प्रभा के अञ्जन (क्षेपण) को सभा के लोगों पर सींचती हो । देव तुम्हारा जो सत्कार करते हैं उससे पुष्य के विलास की पात्र तुम सुशोभित होती हो।
कुलं कलङ्केन न जातु पङ्किलं, न दुष्कृतस्याभिमुखी च शेमुषी। गिरः शरच्चन्द्रकरानुकारिका, गतं सतन्द्रीकृतहंसवल्लभम् ॥ ८॥ निरर्गलं मङ्गलमङ्गसौष्ठवं, वदावदीभूतविचक्षणा गुणाः। इदं समग्रं सुकृतैः पुराकृतै - (वं कृतज्ञे तव ढौकनीकृतम्॥९॥
युग्मम् अर्थ :- हे कृतज्ञे ! निश्चित रूप से तुम्हारे पहले किए हुए पुण्यों से यह सब भेंट किया गया है। यह तुम्हारा कुल कलङ्क से कभी कलुष नहीं है और तुम्हारी बद्धि पाप के अभिमुख नहीं होती है। तुम्हारी वाणियाँ शरत् कालीन चन्द्रमा की किरणों का अनुसरण करती हैं। तुम्हारी चाल हंसप्रियाओं को आलस्य युक्त बनाती हुई है। तुम्हारे शरीर का सौष्ठव बन्धनरहित मङ्गल है। तुम्हारे गुण वाचालीभूत कवीश्वर हैं।।
न कोऽधिकोत्साहमना धनार्जने, जनेषुको वा न हि भोगलोलुपः।
कुतः पुनः प्राक्तनपुण्यसम्पदं, विना लता वृष्टिमिवेष्टसिद्धयः॥१०॥ अर्थ :- हे प्रिये ! लोगों में कौन धनोपार्जन में अधिक उत्साह से युक्त मन वाला नहीं होता है । अथवा कौन भोगलोलुप नहीं होता है । पुन: पूर्वजन्म की पुण्य सम्पदा के बिना वर्षा के बिना लताओं के समान इष्ट सिद्धियाँ कहाँ से हो सकती हैं?
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
(१२७)
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
न जापलक्षैरपि यन्निरीक्षणं, क्षणं समश्येत विचक्षणैरपि।
सुराङ्गनाः सुन्दरि तास्तव क्रम-द्वयस्य दास्यं स्पृहयन्ति पुण्यतः॥११॥ अर्थ :- विद्वानों के द्वारा भी जिनका निरीक्षण लाखा जापों से क्षण भर के लिए भी प्राप्त नहीं होता है , हे सुन्दरि! वे देवाङ्गनायें तुम्हारे चरणयुगल की पुण्य से दासता चाहती हैं।
नकापथे कण्टककोटिसंकटे, पदेषु कासाञ्चन पादुका अपि।
मणिक्षमाचारभवः क्रमक्लमः,शमं सुरीभिः सुकृतैस्तवाप्यते॥१२॥ अर्थ :- हे प्रिये ! किन्हीं स्त्रियों की कंटकों की कोटि से व्याप्त कुमार्ग में चरणों में । पादुका भी नहीं होती है। देवाङ्गनायें तुम्हारे मणिमय फर्श पर चलने से उत्पन्न पैरों की थकान को पुण्यों से शान्त करती हैं।
बहुत्वतः काश्चन शायिनां वने, कृशे कुशश्रस्तरकेऽपि शेरते।
द्युतल्पतूलीष्वपि न प्रिये रतिः, सुमच्छदप्रच्छदमन्तरेण ते॥१३॥ अर्थ :- हे प्रिये कोई स्त्रियाँ वन में सोने वालों की बहुलता के कारण थोड़े से कुशों की शय्या पर भी शयन करती हैं । हे प्रिये ! तुम्हें स्वर्ग की शय्या के रुई भरे गद्दे पर भी पुष्पों के वस्त्र की चादर के बिना सुख नहीं प्राप्त होता है।।
कदन्नमप्यात्ममनोविकल्पनैर्महारसीकृत्य लिहन्ति काश्चन।
चटुक्रियां कारयसि धुसत्प्रियाः, फलाशने त्वं सुरभूरुहामपि॥१४॥ अर्थ :- कोई स्त्रियाँ बुरे अन्न को भी अपने मनोविकल्पों से महारस बनाकर आस्वादन करती हैं। तुम देवाङ्गनाओं से कल्पवृक्षों के भी फल खाने में चाटुकारी कराती हो।
विनाश्रयं सन्ततदुःखिता ध्रुवं, स्तुवन्ति काश्चित् सुगृहाः पतत्रिणीः।
विमानमानच्छिदि धाम्नि लीलया, त्वमिद्धपुण्ये पुनरप्सरायसे ॥१५॥ अर्थ :- हे प्रिये ! कोई स्त्रियाँ आश्रय रूप घर के बिना निरन्तर दुःखी होती हुईं निश्चित रूप से जिनका सुन्दर घर है, ऐसी पक्षिणी की स्तुति करती है। हे समृद्ध पुण्य वाली! तुम विमान के मान का छेदन करने वाले घर में लीला से अप्सरा के समान आचरण करती हो।
अखण्डयन्त्या स्वसदःस्थितिं सदा, गतागतं ते सदने वितन्वती।
ऋतीयते किं सुकृताञ्चिते शची, तुलां त्वया स्थानमधर्मकं श्रिता॥१६॥ अर्थ :- हे पुण्ययुक्ता ! देवलोक का आश्रय कर तुम्हारे गृह में सदा गमनागमन करती
(१२८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
हुई इन्द्राणी, अपने स्थान की स्थिति को खाण्डत न करती हुई तुम्हारे सादृश्य को क्या प्राप्त करती है? अपितु नहीं करती है।
प्ररूढदोषाकरनानि निर्भर, कलङ्किनीन्दौ महिषीत्वमीयुषीम्।
तमः समुत्पन्नरुचिं कृतीनरो, न रोहिणीमप्युपमित्सति त्वया ॥१७॥ अर्थ :- हे प्रिये ! विचक्षण मनुष्य तुमसे, अन्धकारों में (अथवा पापों में) जिसकी रुचि उत्पन्न हो गई है, जिसका दोषों की खान (अथवा रात्रि को करने वाला) नाम पड़ गया है, ऐसे चन्द्रमा की पट्टरानीपने को प्राप्त हुई रोहिणी की भी तुलना करने की इच्छा नहीं करता है।
कृतः प्रकर्ष समतामपि त्वया, न सङ्गता श्रीरपि रूपवैभवैः।
स्वकं शकुन्त्याः सदृशं नभोगता-गुणं तृणं जल्पति खेचराङ्गना॥१८॥ अर्थ :- हे प्रिये ! प्रकर्ष कहाँ से, लक्ष्मी भी रूप और वैभवों से तुम्हारे साथ समता को प्राप्त नहीं हुई। विद्याधराङ्गना अपने पक्षी के सदृश आकाश में विचरण करने रूप गुण को तृण के समान तुच्छ कहती है।
निजैििजह्वप्रियतादिदूषणै-ह्रियेव मुञ्चन्ति न जातु या बिलम्। __अनाविलं ते चरितं विषानना, न नागकन्या अनिशं स्पृशन्ति ताः॥१९॥ अर्थ :- हे प्रिये ! जो अपने द्विजिह्वों (सर्प अथवा दुष्ट) की अभीष्टतादि दोषों के कारण मानों लज्जित सी कभी भी बिलों को नहीं छोड़ती हैं वे विषमुखी नागकन्यायें निरन्तर निर्मल तुम्हारे चरित्र का स्पर्श नहीं करती हैं।
नवोदयं सङ्गतया रयात्त्वया, ततोऽतिशिश्ये त्रिजगद्वधूजनः।
तमोबलालब्धभवः परः प्रभा-भरः स्वधर्मेस्तरणेरिव त्विषा॥२०॥ अर्थ :- हे प्रिये ! उस कारण तीनों लोकों (स्वर्ग, मर्त्य और पाताल लोक) की स्त्रियाँ अपने पुण्यों से नवीन उदय को प्राप्त तुमसे अतिक्रान्त हैं। जैसे अपनी किरणों से नवोदय को प्राप्त सूर्य की कान्ति अन्धकार के बल से उत्पन्न अन्य प्रभा समूह से अतिशयता को प्राप्त है।
त्वयेक्षितः स्वप्नगुणो गुणोज्वलो, न जायते जात्यमणिर्यथा वृथा।
पुनः प्रकल्प्या कथमल्पबुद्धिभि-विचारणा तस्य विचक्षणोचिता॥२१॥ अर्थ :- हे प्रिये! तुमसे देखा गया गुणों से उज्वल स्वप्न समूह व्यर्थ नहीं होता है । जैसे - जात्यमणि व्यर्थ नहीं होता है । पुनः अल्पबुद्धि वालों के द्वारा विद्वानों के योग्य उस स्वप्न की विचारण कैसे कल्पित होती है? [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग ९]
(१२९)
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
मृगाक्षि वल्लीव घनाघनोदका - द्भवत्यतः स्वप्नभरान्नवा रमा । प्रयाति गर्भानुगुणात्प्रथां पुनः, पुरोदिता सा सरसीकृताश्रयात् ॥ २२ ॥ अर्थ :हे मृगनयनी ! अत: घने पाप को नष्ट करने से गर्भ के सदृश स्वप्नों के समूह से नवीन लक्ष्मी होती है । जैसे गर्भ के अनुरूप घने मेघ के जल से जिसने छोटे तालाब का आश्रय लिया है ऐसी लता विस्तार को प्राप्त होती है।
अनेन सर्वस्वजनाकुले कुले - नवा नवासं विदधत्यहो गदाः । पुरातना अप्युपयान्ति ते शमं, रसायनेनेव विदोषधीभुवा ॥ २३ ॥
अर्थ :- हे प्रिये ! आश्चर्य की बात है रसायन के समान दोषों से रहित बुद्धि के द्वारा इस स्वप्न समूह से समस्त अपने लोगों से व्याप्त कुल में नए रोग स्थान नहीं बनाते हैं और जो पुराने हैं वे भी शान्ति को प्राप्त हो जाते हैं ।
(जिस प्रकार बुद्धि और औषधि से उत्पन्न रसायन से समस्त अपने लोगों से व्याप्त कुल में नए रोग स्थान नहीं बनाते हैं और जो पुराने हैं, वे भी शान्ति को प्राप्त हो जाते हैं ।)
दिनोदयेनेव हते सुसंहते ऽमुना घनारिष्टतमित्रमण्डले । कुले विलासं कमलावदुत्पले, करोति पुण्यप्रभवा शिवावली ॥ २४ ॥ अर्थ :- स्वप्न के समूह के भली प्रकार मिल जाने पर घने पाप रूपी अन्धकार समूह के हत हो जाने पर पुण्य से उत्पन्न मङ्गलों की श्रेणी दिन का उदय होने पर मेघ और रत्न के समान काले अन्धकार समूह में हत लक्ष्मी जिस प्रकार कमल पर निवास करती है, उसी प्रकार वास करती है ।
अबालभाविश्रुतसौख्यदायिनीं, वृथा विभूतिर्विभुता च यां विना ।
अयं हि तां वर्धयितुं निशान्तरुक्, धृतिं मतिं ब्राह्ममुहूर्तवत्प्रभुः ॥ २५ ॥
अर्थ :लक्ष्मी और प्रभुत्व प्रौढ़ा प्रभा से विख्यात तथा सौख्यदायिनी (पण्डितों में होने वाले शास्त्रसुख को देने वाली ) जिस धृति और बुद्धि के बिना निष्फल होता है । अत्यन्त शान्त जिससे रोग है (जो रात्रि के अवसान में रुचिकर लगती है ) ऐसा यह स्वप्न समूह ब्राह्ममुहूर्त के समान निश्चित रूप से उस धैर्य और बुद्धि को बढ़ाने में समर्थ होता है ।
जनानुरागं जनयन्नयं नवं, ध्रुवोदयप्राभवदानलग्नकः ।
यदन्यदप्यत्र मनोहरं तद-प्यनेन जानीहि पुरः स्फुरत् प्रिये ॥ २६ ॥
(१३०)
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९ ]
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- हे प्रिये ! नए जनानुराग को उत्पन्न करता हुआ यह स्वप्न समूह निश्चित उदय रूप स्वामित्व के दान में प्रतिभू (जमानत करने वाला) है। जो अन्य भी तीनों लोकों में मनोहर वस्तु है, वह भी इस स्वप्नसमूह के आगे देदीप्यमान जानो।
यदिष्यते हन्त शुभानिमित्ततः, पुरापि तद्वस्तु समस्तमस्ति मे। भवनशीतांशुमहोमहोज्ज्वले, दिनेन दीपः परभागमृच्छति ॥ २७॥ असावसामान्यगुणैकभूरिति, त्वया विशालाक्षि वृथा न चिन्त्यताम्।
फलं यदग्र्यं तदथ ब्रबीमि ते, मितेः परां कोटिमियतु संमदः॥ २८॥ अर्थ :- हे प्रिये! शुभ निमित्त से जो वस्तु चाही जाती है, वह सब पहले से ही मेरी है। सर्य के तेज से देदीप्यमान दिन में दीप गुणोत्कर्ष को प्राप्त नहीं होता है। हे विशाल नेत्रों वाली! यह स्वप्न का समूह असामान्य गुणों का एक स्थान है। अतः तुम व्यर्थ चिन्ता मत करो। जो प्रशस्य फल है, उसके विषय में कहता हूँ। तुम्हारा हर्ष गणना की उत्कृष्ट कोटि को प्राप्त हो।
चतुर्दशस्वप्ननिभालनद्रुम-स्तनोत्यसौ मातुरुभे शुभेफले।
इहैकमर्हजननं महत्फलं, तनु द्वितीयं ननु चक्रिणो जनुः॥२९॥ अर्थ :- यह चौदह स्वप्न के देखने रूप वृक्ष माता को दो शुभ फल प्रदान करता है। इनमें से एक अर्हन्त भगवान् के जन्म रूप महान् फल है। दूसरा थोड़ा निश्चित रूप से चक्रवर्ती का जन्म है।
प्रदुष्टभावारिभयच्छिदं स्फुटी-कृता निशीथे सुकृतैः पुराकृतैः।
तदर्घवीक्षा विशिनष्टि केशवो-द्भवं भवोत्तारमरागवागिव॥३०॥ अर्थ :- भव्य जीवों के पहले किए गए पुण्यों से स्पष्ट की गई वीतराग वाणी के समान उनकी महत्ता का दर्शन अत्यधिक दुष्ट क्रोध, मान, माया, लोभादि भाव शत्रुओं के भय को छेद करने वाले एवं संसार को पार करने वाले वासुदेव की उत्पत्ति को कहता है।
बलं सुतं यच्छति तच्चतुष्टयी, लतेव जातिः कुसुमं समुज्वलम्।
तदेकतां वीक्ष्य तदेकतानया, स्त्रियाङ्गभूर्माण्डलिकः प्रकल्प्यताम्॥३१॥ अर्थ :- उन स्वप्नों की चतुष्टयी मालती लता जिस प्रकार पुष्प को देती है उसी प्रकार समुज्वल बलदेव पुत्र को देती है। उन स्वप्नों में सावधानी से स्त्री के द्वारा उन स्वप्नों की एकता (एक स्वप्न) को देखकर माण्डलिक पुत्र के विषय में विचार करो।
तदीदृशस्वप्नविलोकनात्त्वया - ऽधिगंस्यते चक्रधरस्तनूरुहः।
विशन्ति विद्याः किल यं चतुर्दश, श्रयन्ति रत्नान्यपि संख्यया तया॥३२॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
(१३१
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- हे प्रिये ! अतः ऐसे स्वप्न के देखने से तुम निश्चित रूप से चक्रधर पुत्र प्रास करोंगी। चतुर्दश विद्या जिस पुत्र में प्रवेश करती हैं, उस चतुर्दश संख्या से रत्न भी सेवन किए जाते हैं।
त्वया यदादौ हरिहस्तिसोदरः, पुरः स्थितस्तन्वि करी निरीक्षितः।
मनुष्यलोकेऽपि ततः श्रियं पुरा, दधाति शातक्रतवीं तवाङ्गजः॥३३॥ अर्थ :- हे दुर्बल शरीर वाली! तुमने जो आदि में ऐरावत का बान्धव हाथी सामने देखा उससे तुम्हारा पुत्र मनुष्य लोक में भी इन्द्र की लक्ष्मी को आगे धारण करेगा।
दिगन्तदेशांस्तरसा जिगीषया, ऽभिषेणयिष्यन्तमवेत्य तेऽङ्गजम्।
प्रहीयते स्म प्रथमं दिशां गजैः, प्रिये किमैरावत एष सन्धये ॥३४॥ अर्थ :- हे प्रिये ! तुम्हारे पुत्र को वेगपूर्वक दिशाओं के छोर के देशों को जीतने की इच्छा से जाते हुए जानकर दिग्गजों के द्वारा यह ऐरावत प्रथम संधि के लिए क्या भेजा गया था? विशेष :- आठ दिग्गज होते है-1. ऐरावत 2. पुण्डरीक 3. वामन 4. कुमुद 5. अञ्जन 6. पुष्पदन्त 7. सार्वभौम और 8. सुप्रतीक।
यदक्षतश्रीवृषभो निरीक्षितः,क्षितौ चतुर्भिश्चरणैः प्रतिष्ठितः।
महारथाग्रेसरतां गतस्तत-स्तवाङ्गभूर्वीरधुरां धरिष्यति ॥ ३५॥ अर्थ :- जो पृथ्वी पर चार चरणों से प्रतिष्ठित अक्षत लक्ष्मी वृषभ देखा है, हे प्रिये ! उससे तुम्हारा पुत्र महारथ के अग्रगामित्व को प्राप्त हुआ वीर पुरुषों की धुरा को धारण करेगा।
सुपर्वलोकाद्यदिवा तवाङ्गजे, प्रवेशमात नि भूतले नवम्।
अहो महोक्षः किमसौ पुरोऽस्फुर-नदन्नदभ्रं शकुनप्रदित्सया॥३६॥ अर्थ :- हे प्रिये ! आश्चर्य है, महावृषभ देवों के लोक से तुम्हारे पुत्र को पृथ्वी पर नए प्रवेश करने पर महान् शब्द करता हुआ शकुन प्रदान करने की इच्छा से क्या सामने प्रकट हुआ?
जिनेषु सर्वेषु मयैव लक्ष्मणा, जनेन तातस्तव लक्षयिष्यते।
अयं चटूक्तयेत्यथवा तवात्मजा-त्प्रसादमासादयितुं किमापतत्॥३७॥ अर्थ :- अथवा यह वृषभ लोगों के द्वारा समस्त जिनों में मेरे ही लाञ्छन से तुम्हारे पिता को लक्षित करेगा, इस चाटुकारी की उक्ति से हे प्रिये ! तुम्हारा पुत्र उसकी कृपा प्राप्त करने के लिए ही क्या आया?
(१३२)
तित कमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विपद्विषो वीक्षणतोऽवनीगता-ङ्गिनो मृगीकृत्य महाबलानपि।
न नेतृतामाप्स्यति न त्वदङ्गजः, प्रघोषतोन्तर्ध्वनयन्महीभृतः॥ ३८॥ अर्थ :- हे प्रिये ! राजा के प्रघोष से चमत्कार करते हुए (प्रकृष्ट घोष से पर्वतों में अन्तर्ध्वनि करते हुए) पृथ्वी पर गए हुए (वन में स्थित) महाबलशाली भी प्राणियों को मृग बनाए हुए सिंह के देखने से तुम्हारा पुत्र प्रभुता को प्राप्त नहीं करेगा? अपितु करेगा
ही।
नयाप्तसप्ताङ्गकराज्यरङ्गभूः, क नायकस्त्वं प्रखरायुधो नृणाम्। प्रभुः पशूनां नयनैपुणं विना, वसन् वनेऽहं नखरायुधः क्व च॥ ३९॥ तथापि मा कोपमुपागमः कृतोपमः कृतीशैयुधि विक्रमान्मया। सुतं तवेत्यर्थयितुं समागतः, किमर्थिकल्पदुममेष केसरी॥ ४०॥
युग्मम् अर्थ :- हे प्रिये! यह सिंह याचकों के लिए कल्पवृक्ष स्वरूप तुम्हारे पुत्र से, नीति से जिसने सात अङ्गों वाले राज्य की रङ्ग भूमि प्राप्त की है और जिसके प्रखर आयुध हैं ऐसे मनुष्यों के नायक तुम कहाँ तथा तीक्ष्ण नाखून जिसका आयुध है तथा जो नीति की निपुणता के बिना वन में रह रहा है, ऐसा पशुओं का प्रभु मैं कहाँ? तुम कृतज्ञ लोगों के द्वारा युद्ध में पराक्रम के कारण मेरे साथ जिसकी उपमा की गई है, ऐसे होगे, फिर भी कोप को मत प्राप्त हो, मानों यह प्रार्थना करने के लिए आया है।
यदिन्दिरा सुन्दरि वीक्षिता ततः, स्त्रियो नदीनप्रभवा अवाप्स्यति।
कलाभृदिष्टाः कमलंगताः परः-शतास्तथैवोपमिताः सुतस्तव॥४१॥ E - अर्थ :- हे सुन्दरि ! जो तुमने लक्ष्मी को देखा है, उससे तुम्हारा पुत्र हजार से अधिक
लक्ष्मी से उपमान को प्राप्त, जिनकी उत्पत्ति हीन नहीं है (समुद्र से जिसकी उत्पत्ति हुई है), कलावन्तों की इष्ट (चन्द्रमा की इष्ट), सुख को अत्यधिक रूप से प्राप्त (कमल में स्थित) स्त्रियों को प्राप्त करेगा।
बलाधिकत्वाच्चलिते हरेर्हृदि, प्रसह्य भग्ने युधि राजमण्डले। अनेन पद्भयां कृशिते कुशेशये, चमूरजोभिः स्थगिते पयोनिधौ॥४२॥ सुतस्तवैवास्ति गतिर्ममाधुना, तवेति वा जल्पितुमाययावसौ। स्वजातिधौरेयमनुप्रविश्य य - त्प्रभुप्रसादाय यतेत धीरधीः॥४३॥
युग्मम् अर्थ :- हे प्रिये ! अथवा तुम्हारे पुत्र की बल में अधिकता होने से वासुदेव के हृदय में
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
(१३३)
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
चलने पर, (तुम्हारे पुत्र से) बलपूर्वक, राजसमूह (चन्द्रमण्डल के) युद्ध में भग्न हो जाने पर (तुम्हारे पुत्र के) दोनों पैरों से कमलों के ग्लानि को प्राप्त होने पर यह तुम्हारा ही पुत्र अब मेरी गति है, यह कहने के लिए वह लक्ष्मी आयी है; क्योंकि धीरबुद्धि वालों को अपनी जाति के श्रेष्ठ लोगों में प्रविष्ट होकर स्वामी की कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
स्वसौरभाकर्षितषट्पदाध्वगा, स्त्रगालुलोके यदि कौसुमी त्वया।
ततः सुतस्ते निजकीर्तिसौरभावलीढविश्वत्रितयो भविष्यति ॥ ४४॥ अर्थ :- अपने सौरभ से जिसने भ्रमर रूप पथिकों को आकर्षित किया है ऐसी पुष्पमाला को यदि तुमने देखा है तो तुम्हारा पुत्र अपनी कीर्ति के सौरभ से तीनों लोकों को व्याप्त करने वाला होगा।
अयं विवादे ननु दानविद्यया, विजेष्यते नश्चिरशिक्षितानपि। ___इयं भियतीव सुरद्रुमिर्भवद्, भुवो ददे दण्डपदेऽथवा किमु॥ ४५ ॥ अर्थ :- यह तुम्हारा पुत्र निश्चित रूप से चिरशिक्षित भी हम लोगों को दान विद्या से जीत लेगा मानों इस भय से ही कल्पवृक्षों ने यह माला तुम्हारे पुत्र के दण्डस्थान में दी।
भवान् ममादेशवशो भवेद्गृही, गृहीतदीक्षस्य च नास्मि ते प्रभुः।
वदन्निदं वानुगभृङ्ग निःस्वनैः, स्मरोऽस्य रोपं व्यसृजत् स्रजश्छलात्॥ ४६॥ अर्थ :- पृष्ठस्थ भौंरों के शब्द से आप गृही होते हुए मेरे आदेश के वश होंगे और दीक्षा लेने पर तुम्हारा स्वामी नहीं हूँ मानों यह कहते हुए कामदेव ने माला के बहाने बाण छोड़ा।
यदिन्दुरापीयत पार्वणस्त्वया, ततः सुवृत्तो रजनीघनच्छविः।
सदा ददानः कुमुदे श्रियं कला-कलापवांस्ते तनयो भविष्यति॥४७॥ अर्थ :- हे प्रिये ! रात्रि में जिसकी बहुत कान्ति है ऐसे कुमुदों को शोभा प्रदान करते हुए, कलाओं के समूह से युक्त जो पूर्णिमा के चन्द्रमा को पी लिया अतः सुचरित्र, हरिद्रा के समान छवि वाला, पृथ्वी के हर्ष के लिए सदा शोभा प्रदान करने वाला, गीत, वाद्य, नृत्य, गणित, पठित, लिखित आदि कलाओं के समूह वाला तुम्हारा पुत्र होगा।
त्वदाननस्पर्धि सरोजमोजसा, निमीलयिष्यामि तथाधिकश्रिये। तव श्रयिष्यामि सितातपत्रता-ममुक्तमुक्तामिषतारतारकः॥ ४८॥ परं रुजन् राजकमाजिभाजिनं, न राजशब्दं मम मार्टमर्हसि। इतीव विज्ञापयितुं रहो रयादुपस्थितोऽयं तनयं तवाथवा॥४९॥
युग्मम (१३४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९.
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
हे स्वामिन्! मैं तुम्हारे मुख की स्पर्द्धा करने वाले कमल को तेज से संकोच को प्राप्त कराऊँगा तथा तुम्हारी अधिक शोभा के लिए श्वेत छत्र का आश्रय लूँगा, मोतियों के बहाने से चञ्चल तारे जिसने नहीं छोड़े हैं ऐसे तुम अत्यधिक संग्राम का सेवन करने वाले राजाओं के समूह को नष्ट करते हुए मेरे राज (चन्द्र) शब्द को मिटाने योग्य नहीं हो, यह चन्द्र तुम्हारे पुत्र से मानों यह निवेदन करने के लिए वेगपूर्वक उपस्थित हुआ है 1
-:
दिशन् विकाशं गुणसद्मपद्मिनी-मुखारविन्देषु सदा सुगन्धिषु । निरुद्धदोषोदयमात्मजस्तव, प्रपत्स्यते धाम रवेरवेक्षणात् ॥ ५० ॥
अर्थ :- हे प्रिये ! सूर्य के देखने से तुम्हारा पुत्र सदा सुगन्धित गुणों की खान स्वरूप पद्मिनी स्त्रियों के मुखारविन्दों पर विकाश को दिखलाते हुए तेज को प्राप्त करेगा (सूर्य के पक्ष में गुणाः का अर्थ तन्तु तथा पद्मिनी का अर्थ कमलिनी है) ।
उदेष्यतस्त्वत्तनयस्य तेजसा, दिवाकरो दीप्तिदरिद्रतां गतः । मृगाक्षि मन्येऽबलयापि तत् त्वया, सुदर्शनः स्वप्नपरम्परास्वयम्॥५१॥
अर्थ :- हे मृगनयनी ! मैं तो यह मानता हूँ कि उदित होने वाले तुम्हारे पुत्र के तेज से सूर्य दीप्ति की दरिद्रता को प्राप्त हुआ है, अत: तुम अबला के द्वारा भी यह स्वप्न की परम्पराओं में सुदर्शन हुआ।
मया नभः स्थालदशेन्धनेन ते, विधातुरारात्रिककर्म भावि तत् । ममोर्ध्वगत्वं च महश्च मृष्यतां भवद्भुवं वक्तुमिदं सवा ययौ ॥ ५२ ॥
अर्थ :अथवा वह सूर्य आपके पुत्र से मुझ ब्राह्मण द्वारा आकाश रूपी पात्र में दीपक द्वारा तुम्हारा रात्रि सम्बन्धी कार्य होगा, अतः मेरे उच्चगमनपने को और तेज को सहन करो, यह कहने के लिए आया है।
ध्वजावलोकाद्दयिते तवाङ्जो, रजोभिरस्पृष्टवपुः कुसङ्गजैः ।
गमी गुणाढ्यः शिरसोऽवतंसतां, कुले विशाले विपुलक्षणस्पृशि ॥ ५३ ॥
अर्थ हे दयिते ! ध्वज के देखने से तुम्हारा बुरे सङ्ग से उत्पन्न पापों से (पृथ्वी के सङ्ग से उत्पन्न धूलियों से ) अस्पृष्ट शरीर वाला तथा विनय से (तन्तुओं से ) समृद्ध पुत्र विशाल विपुल क्षणों का स्पर्श करने वाले (अवा विपुल उत्सवों का स्पर्श करने वाले) कुल में मस्तक के मुकुटमणित्व को प्राप्त होगा ।
परिस्फुरन्तं दिवि केतुसंज्ञया, निरीक्ष्य मां ते पृतनाग्रवर्तिनम् । विपक्षवर्गः स्वयमेव भक्ष्यते, युधेऽमुना तद्भव जातु नातुरः ॥ ५४॥
:
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ९ ]
(१३५)
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- हे प्रिये ! अथवा मनोज्ञ क्षुद्रघंटियों के शब्दों से तुम्हारी सेनाओं के अग्रभाग में स्थित आकाश में केतु इस संज्ञा का परिस्फुरण करते हुए उसे देखकर विपक्ष वर्ग स्वयं नष्ट हो जाएगा, ऐसा कहते हुए ध्वज क्या इनके प्रिय मित्र जैसा हो गया। तो युद्ध में विपक्ष वर्ग के साथ में कभी भी खिन्न मत होना। आप युवा होकर समस्त बालसुलभ चञ्चलता को मेरे ऊपर रखकर गम्भीरता के गुण को धारण करें, ऐसा कहते ध्वज क्या इनका प्रिय मित्र जैसा हो गया?
बिभर्तु गांभीर्यगुणं युवा भवा-निधाय सर्वे मयि बालचापलम् । इति प्रजल्पन् कलकिंकिणीकणै-रमुं किमागात्प्रियमित्रवत् स वा ॥ ५५ ॥
न्यभालि कुम्भः करभोरु यत्त्वया, ततः सुवृत्तः सुमनश्चयाञ्चितः । गतः सुतस्ते कमलैकपात्रता - मभङ्गमाङ्गल्यदशां श्रयिष्यति ॥ ५६ ॥
अर्थ :हाथी की सूंड के समान जंघाओं वाली ! जो तुमने कलश देखा, उससे तुम्हारा सदाचारी (गोल), साधुओं के पुष्पसमूह से पूजित लक्ष्मी के (कमल के) एकमात्र स्थान को प्राप्त हुआ पुत्र कलश के समान नष्ट नहीं होने वाले माङ्गलिक भावों की दशा का आश्रय लेगा ।
सुमङ्गलाङ्गीभवितुं तवर्द्धये, विसोढवान् कारुपदाहतीरहम् ।
विवेश वह्नावनुभूय भूयसी-श्चिराय दण्डान्वितचक्रचालनाः ॥ ५७ ॥ कृतज्ञ मद्दत्तजलैः प्रतीष्यतां, ततस्त्वया चक्रिपदाभिषेचनम् । इतीहितं ज्ञापयितुं किमाययौ, घटः स्फुटत्वं तनयस्य तेऽथवा ॥ ५८ ॥ अर्थ :- हे प्रिये ! अतः घड़ा तुम्हारे पुत्र को, 'मैंने तुम्हारी पुष्टि के लिए सुन्दर मङ्गल अङ्ग होने के लिए कुम्भकार के चरण प्रहारों को सहा । बहु चिरकाल तक दण्ड से युक्त चक्र के चालन का अनुभव कर अग्नि में प्रवेश किया, उस कारण हे चतुर मेरे द्वारा दिए गए जलों से चक्रि पद का अभिषेक तुम स्वीकार करो', यह बतलाने के लिए क्या प्रकट हुआ है ?
अर्थ
हे कमललोचने ! तुमने जो सरोवर देखा उससे हर्ष सहित मित्रों से आश्रित (पक्षियों से आश्रित) प्रफुल्ल लक्ष्मी से युक्त (विकसित कमलों से युक्त) तथा साधुओं की श्रेणी से युक्त (मनोज्ञ श्रेणि से युक्त) तुम्हारा पुत्र बहुत से आगम से उत्पन्न (वर्षा ऋतु से उत्पन्न) रस (पानी, अथवा शृङ्गारादि रस) को धारण करेगा ।
सरः सरोजाक्षि यदैक्षि तेन ते, सुतः सतोषैः सवयोभिराश्रितः ।
प्रफुल्लपद्मोपगतो घनागमौ रसं रसं धास्यति साधुपालियुक् ॥ ५९ ॥
-
(१३६)
-:
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ९ ]
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
मयैव जातानि मयैव वर्धिता-न्यवाङ्मुखीभूय ममावतस्थिरे। इमानि पद्मानि रमानिवासतामवाप्य माद्यन्मधुपैश्च सङ्गतिम्॥ ६०॥ प्रशाधि विश्वाधिप किं करोम्यहं, त्वमीशिषे मूढजनानुशासने।
इदं वस्तत्त्वधियः कृते स्वयं, जडस्तडागः किमुपास्त ते सुतम्॥६१॥ अर्थ :- हे प्रिये ! स्वयं जड सरोवर ये कमल मुझसे ही उत्पन्न हुए, मुझसे ही वृद्धि को प्राप्त हुए लक्ष्मी के निवास और मदमत्त होते हुए भ्रमरों की सङ्गति को पाकर मेरे सामने नीचे की ओर सिर किए हुए खड़े हुए हैं । हे चक्रवर्तिन् ! शिक्षा दो, मैं क्या करूँ, तुम मूढ़ जनों को शिक्षा देने में समर्थ हो, इस बात को बोलते हुए परमार्थबुद्धि के लिए क्या तुम्हारे पुत्र की सेवा करता है?
निभालनानीरनिधेरधीश्वरः, सरस्वतीनां रसपूर्तिसंस्पृशाम्।
अलब्धमध्योऽर्थिभिराश्रितो घनैः, सुतस्तवात्येष्यति न स्वधारणाम्॥६२॥ अर्थ :- हे प्रिये ! समुद्र के देखने से (जल की पूर्ति का स्पर्श करने वाली) श्रृङ्गारादि रसों की पूर्ति का स्पर्श करने वाली, सरस्वती का (सरस्वती नदी का) स्वामी, गम्भीर तथा बहुत से याचकों से आश्रित (घनेमेघ से आश्रित) तुम्हारा पुत्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेगा।
प्रचेतसापि स्फुटपाशपाणिना, कृपाणिना मध्यशयेन जिष्णुना। नराजनीतेः किल कूलमुद्रुजो, न्यवारि मात्स्यः समयो भवन्मयि॥६३॥ धरातलं धन्यमिदं त्वयि प्रभौ, न यत्रयव्यत्ययदोषमाप्स्यति।
इति स्ववीचिध्वनितैरिव स्तुवन्, किमाविरासीत्पुरतोऽस्य वारिधिः॥६४॥ अर्थ :- हे प्रिये ! समुद्र, इस तुम्हारे पुत्र के सामने स्पष्ट रूप से पाश जिसके हाथ में है ऐसे वरुण से भी, खड्गयुक्त मध्यवर्ती नारायण ने निश्चित रूप से राजनीति के तट को तोड़ने वाले मत्स्य न्याय का मेरे विद्यमान रहते हुए निवारण नहीं किया, यह पृथ्वी तल धन्य है जो कि तुम जैसे प्रभु के रहते हुए न्याय की विपरीतता के दोष को नहीं प्राप्त करेगा, इस प्रकार अपनी तरङ्गों की ध्वनि से मानों स्तुति करता हुआ क्या प्रकट हुआ था?
प्रिये विमानेन गतेन गोचरं, समीयुषा भोगसमं समुच्छ्रयम्।
उदारवृन्दारकवल्लभश्रिया, भवद्भुवा भाव्यमदभ्रवेदिना॥६५॥ अर्थ :- हं प्रिये! तुमने जो विमान के दृष्टिगोचर होने के विषय में पूछा (उसका फल यह है कि) भोग के सदृश (पक्ष में-विस्तार के सदृश) वृद्धि को प्राप्त करने की इच्छा
जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
(१३७)
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
से दातारों में देवों सदृश जिसकी प्रिय शोभा है (प्रौढ़ देवों की लक्ष्मी जिनकी है) तथा जो बहुत ज्ञानी है इस प्रकार का तुम्हारा पुत्र होना चाहिए।
पुराश्रितं मां परिहृत्य यन्महीं, पुनासि पङ्केरुहतापदैः पदैः । किमत्र हेतुमयि दोषसंभवो, विरागता वा चिरसंस्तवोद्भवा ॥ ६६ ॥ नवीनपुण्यानुपलम्भतोऽथ चे-द्विरक्तिरञ्चिष्यसि तत्कथं शिवम् । प्रसीद मामेथवोपयुज्यते, चटूक्तिरस्नेहरसे न सेतुवत् ॥ ६७॥ यदि त्वयात्यज्यत हन्त ताविषो, विषोपमः सोऽस्तु न तन्ममापि किम् । किमित्यमुष्यानुपदीनमागतं, सुधाशिधामानुनयाय तन्वि वा ॥ ६८ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।
अर्थ :हे दुर्बल शरीर वाली ! अथवा स्वर्गविमान, 'हे स्वामिन्! तुम पुराश्रित मुझे छोड़कर जो कमलों को सन्ताप देते हैं, ऐसे चरणों से पृथ्वी को पवित्र करते हो, यहाँ पर मेरे विषय में दोषों की उत्पत्ति का क्या हेतु है ? अथवा चिरकालीन परिचय से उत्पन्न वैराग्य है । यदि नवीन पुण्य की अप्राप्ति से विरक्ति है तो मोक्ष कैसे जाओगे? प्रसन्न होओ। मेरे समीप आओ । अथवा जिसमें स्नेहरस नहीं है ऐसे पुरुष में चाटुवचन सेतु के समान उपयोग नहीं आते हैं । यदि तुमने स्वर्ग त्याग दिया तो वह मेरे लिए भी विषतुल्य न हो ? अपितु विषतुल्य है, इस प्रकार तुम्हारे पुत्र को मनाने के लिए पीछे पीछे आया है ।
1
विलोकिते रत्नगणे स ते सुतः, स्थितौ दधानः किल काञ्चनौचितिम् । उदंशुमत्रासमुपास्य विग्रहं, महीमहेन्द्रैर्महितो भविष्यति ॥ ६९ ॥
अर्थ :- हे प्रिये ! निश्चित रूप से मर्यादा में कोई अपूर्व योग्यता को धारण करता हुआ तुम्हारा पुत्र रत्नों के समूह के देखने से जिससे किरणें निकल रही हैं ऐसे भयरहित शरीर (युद्ध) की सेवा कर पृथ्वी के राजाओं के द्वारा पूजित होगा ।
न रोहणे कर्कशतागुरौ गिरौ, न सागरे वाऽनुपकारिवारिणि । अहं गतो निर्मलधामयोग्यतां, शुचौ समीहे तव धानि तु स्थितिम् ॥ ७० ॥ परार्थवैयर्थ्यमलीमसं जनुः, पुनीहि मे सन्ततदानवारिणा । तवेति वा प्रार्थयितुं स गर्भगः, सुखं सिषेवे किमु रत्नराशिना ॥ ७१ ॥
:
अर्थ हे प्रिये ! अथवा तुम्हारे उस पुत्र का रत्नराशि ने, 'मैं कठिनता के कारण भारी अथवा उपकारहित जल में निर्मल स्थान की योग्यता को प्राप्त नहीं हुआ । पुनः पवित्र आपके तेज में स्थिति चाहता हूँ । हे स्वामिन्! परोपकार की निरर्थकता से मलिन मेरा जन्म निरन्तर दान जल से पवित्र करो', यह प्रार्थना करने के लिए क्या सुख पूर्वक सेवन किया।
(१३८).
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्फुरन्महा: प्राज्यरसोपभोगतो, गतो न जाड्यं द्युतिहेतुहेतिभृत् । ... तव ज्वलद्वह्निविलोकनात्सुतो, द्विषः पतङ्गानिव धक्ष्यति क्षणात्॥७२॥ अर्थ :- प्रभूत पृथ्वी (प्रकृष्ट घृत) के उपभोग से जिसके तेज प्रकट हो रहा है, जो जड़ता को प्राप्त नहीं है, कान्ति के जो हेतुओं (या शास्त्रों) को धारण करता है, ऐसा तुम्हारा पुत्र जलती हुई अग्नि के देखने से शत्रुओं को पतङ्गों के समान क्षण भर में भस्म कर देगा।
प्रभोन मां कोऽप्युपलक्षयिष्यति, क्षितौ चिराद्गोचरमागतोऽस्मि यत्।।
मनुष्व मूर्तिं मम तैजसीमिमां, महानसि स्थापय तन्महानसे॥७३॥ . जने जिघत्सौ यदतीव जीवनं, मयैव तद्भक्ष्यमुपस्करिष्यते।
इति स्वरूपं किममुष्य भाषितुं, भुवि प्रवेक्ष्यन्ननलोऽस्फुरत्पुरः॥७४॥ अर्थ :- अग्नि तुम्हारे पुत्र के, 'हे प्रभो! पृथ्वी पर मुझे कोई भी नहीं देखेगा। क्योंकि बहुत काल से दिखाई पड़ी हूँ। मेरी इस तेज सी मूर्ति को जानिए । तुम महान् हो तो मुझे पाकस्थान पर स्थापित करो। भूखे लोगों का जो भक्ष्य होगा, उसका मैं ही संस्कार करूँगी', यह कहने के लिए पृथ्वी पर प्रविष्ट होने की इच्छा से आगे स्फुरित हुई।
सुदुर्वचं शास्त्रविदामिदं मया, फलं स्वसंवित्तिबलादलापि ते। - दुरासदं यद्व्यवसायसोष्मणां, सुखं तदाकर्षणमान्त्रिकोऽश्नुते ॥ ७५॥ अर्थ :- शास्त्र को जानने वालों के द्वारा कहने में अशक्य व्यवसाय से गर्वयुक्त लोगों के लिए जो वस्तु दुष्प्राप्य है वह आकर्षण मन्त्र को जानने वाला सुखपूर्वक प्राप्त कर लेता है, इस स्वप्नफल को मैंने तुमसे स्वसंवेदन के बल से कहा है।
व्यलीकतादूषणमुत्तमे न मे, मुखप्रियत्वेन गिरोऽधिरोप्यताम्।
सवर्णनाम्ना हि समर्पिता रिरी-भवेत्स्वरूपाधिगमेऽधिकार्तये॥७६॥ अर्थ :- हे उत्तमे! तुम मेरी वाणी को मुख के लिए प्रिय होने से असत्यता रूप दोष पर स्थापित न करो। पीतल निश्चित रूप से सुवर्ण के नाम से समर्पित किए जाने पर स्वरूप का ज्ञान होने पर अधिक पीड़ा के लिए होता है।
इदं वदन्तं भगवन्तमन्तरालयं नभःस्था ऋभवो भवन्मुदः।
सुमैरसिञ्चन् जय संशयक्षया-मयागदंकारवरेति वादिनः॥ ७७॥ अर्थ :- हे संशय रूपी क्षय के लिए श्रेष्ठ वैद्य! तुम्हारी जय हो, यह अहंकार हृदय में आनन्दित होने वाले आकाश में स्थित देवों ने भगवान् के ऊपर पुष्पवृष्टि की।
श्रुत्वेदं दयितवचः प्रमोदपूर्त्या, दधे सा समुदितकण्टकं वपुः स्वम्।
पद्मिन्या निजमुखमित्रपद्ममातु-य॑क्कर्तुं किमिह सकण्टकत्वदोषम्॥७८॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
(१३९)
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- सुमङ्गला ने अपने मुख के मित्र कमल की माँ कमलिनी के कंटकसहित होने के दोष का निराकरण करने के लिए इस प्रिय (श्री ऋषभदेव) के वचन सुनकर प्रमोद से पूर्ण अपने शरीर में रोमाञ्चोदय को धारण किया।
तामेकतोऽमृतमयीमभितश्चकार, स्वप्नार्थसम्यगपलब्धिभवः प्रमोदः। चक्रेऽन्यतश्च दवदाहमयीं विषादः,
प्राणेशितुर्वचनपानविरामजन्मा॥ ७९॥ अर्थ :- स्वप्नों के अर्थ की भली प्रकार प्राप्ति से उत्पन्न हर्ष ने उस सुमङ्गला को चारों ओर से एक ओर अमृतमयी बना दिया दूसरी ओर प्राणनाथ के वचन पान के विराम से उत्पन्न विषाद ने दावाग्निमय कर दिया।
नहि बहिरकरिष्यद्वक्षसोऽस्याः स्तनाख्यं, यदि तरुणिमशिल्पी मण्डपद्वन्द्वमुच्चैः। तदिह कथममास्यल्लास्यलीलां दधानं,
प्रभुवचनसुताप्तिस्फीतमानन्दयुग्मम् ॥ ८०॥ अर्थ :- यौवनरूप शिल्पी सुमङ्गला के स्तन रूप मण्डपद्वय को अत्यधिक रूप से यदि वक्षःस्थल के बाहर नहीं करता तो वक्षःस्थल में ताण्डवनृत्य की लीला को धारण करने वाला तथा प्रभु के वचनों के अनुसार पुत्र की प्राप्ति से वृद्धि को प्राप्त हुआ आनन्दयुगल कैसे समाता?
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविधम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लेलिनीसानुमान्। वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये गतस्तत्त्वभाक्॥८१॥ अर्थ :- कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लकुमारचरितादि महाकवित्व के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील रहें। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में पदार्थ की संख्या वाला अर्थात् नवम सर्ग समाप्त हुआ। इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित
जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का नवम सर्ग समाप्त हुआ।
000 [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
(१४०)
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०. दशमः सर्गः
साथ नाथवदनारविन्दतो, वाङ्मरन्दमुपजीव्य निर्भरम् । उज्जगार मृदुमञ्जुलां गिरं, गौरवादिति सदालिवल्लभा ॥ १ ॥
अर्थ :- अनन्तर सदा सखियों की अभीष्टा (भ्रमरी के समान सुमङ्गला ने) श्री ऋषभ स्वामी के मुख कमल से वाणी रूपी मकरन्द को अत्यधिक पीकर गौरव से सुकुमार और मनोज्ञ वाणी में कहा ।
लब्धवर्णजनकर्णकर्णिका, वाञ्छितार्थफलसिद्धिवर्णिका ।
दीधितिर्धृतजडिनि पावकी, वाग् विभो जयति कापि तावकी ॥ २ ॥
अर्थ :- हे स्वामिन् कोई (अपूर्व) आपकी विद्वज्जनों की कर्णाभरण, वाञ्छित अर्थ के फल की सिद्धि का वर्णन करने वाली, घृत के समान जड, अग्नि सम्बन्धी कान्ति वाली वाणी जयशील होती है ।
रूपमीशसमकं दिदृक्षते, तावकं यदि सहस्रलोचनः ।
ईहते युगपदञ्चनं च ते चेत् सहस्रकर एव नापरः ॥ ३ ॥
,
अर्थ हे ईश ! आपका रूप यदि समकाल में देखना चाहता है तो वह इन्द्र ही है, दूसरा नहीं । और यदि आपकी एक साथ पूजा करना चाहता है तो इन्द्र ही चाहता है, दूसरा नहीं ।
यो बिभर्ति रसनासहस्त्रकं, द्व्याहतत्वमधिरोप्य सोऽप्यलम् । देव वक्तुमखिलान ते गुणान्, मादृशः किमबलाजनः पुनः ॥ ४ ॥
अर्थ :- हे देव ! जो द्विगुणत्व का अधिरोपण कर हजार जीभ ( अर्थात् दो हजार जीभ) धारण करता है, वह शेषनाग आपके समस्त गुणों का कथन करने में समर्थ नहीं है, मुझ जैसी स्त्रीजन की तो बात ही क्या?
धीधनोचित भवद्गुणस्तवान्, वारकेऽपि निजजाड्यचिन्तने । उच्यते किमपि नाथ यन्मया, भक्तितन्मयतयावधार्यताम् ॥ ५ ॥
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - १० ]
(१४१)
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :हे नाथ! मैंने अपनी मूर्खता के चिन्तन में विद्वज्जनों के योग्य आपके गुणों के स्तवों को निवारकों के होने पर भी कुछ कहा है तो भक्ति की तन्मयता के कारण उसे जानिए।
स्वादुतां मृदुलतामुदारतां, सर्वभावपटुतामकूटताम् । शंसितुं तव गिरः समं विधिः, किं व्यधान्न रसनागणं मम ॥ ६ ॥ अर्थ :- हे नाथ! विधाता ने आपकी वाणी की स्वादुता, मृदुलता, उदारता, , सर्व भावपटुता तथा सत्यता को एक साथ कहने के लिए मेरी रसना समूह को क्यों नहीं बनाया? किन्तु ते हृदि गंभीरतागुणं, शिक्षितुं वसति दुग्धसागरः । ईदृगुक्तिपयसां यदूर्मयो, विस्फुरन्ति बहिराननाध्वना ॥ ७ ॥
अर्थ हे नाथ! क्षीरसागर आपके हृदय में गम्भीरता गुण की शिक्षा लेने के लिए निवास करता है, जो कि इस प्रकार उक्ति रूपी दुग्ध की कल्लोलें आपके मुख मार्ग से बाहर फैलती हैं।
-:
स्वस्थमेव सुखयन्त्यहो जनं, दुःखितेष्वपि सुखं ददानया । बिभ्यतीव भवतो जिता गिरा, किं सुधा न वसुधामियर्ति सा ॥ ८ ॥
अर्थ हे नाथ! आश्चर्य है, दुखी व्यक्तियों को भी सुख देने वाली आपकी वाणी से पराजित हुई स्वस्थ व्यक्ति को सुख प्रदान करने वाली यह सुधा पृथ्वी पर क्यों नहीं आती है?
वैधवं ननु विधिर्न्यधात्सुधा- सारमत्र सकलं भवगिरि । पूर्णिमोपचितदेहमन्यथा, तं कथं व्यथयति क्षयामयः ॥ ९ ॥
अर्थ
:
हे नाथ! विधाता ने चन्द्रमा सम्बन्धी अमृत के सार को इस आपकी वाणी में रख दिया, अन्यथा क्षयरोग पूर्णिमा में पुष्ट देह चन्द्र को कैसे व्यथित करता है ?
(१४२)
बद्धधारममृतं भवद्वचो, निर्व्यपायमभिपीय साम्प्रतम् । प्रीतिभाजिनि जनेऽत्र नीरसा, शर्करापि खलु कर्करायते ॥ १० ॥
अर्थ :हे नाथ! शर्करा भी जिसकी धारा बँधी है ऐसे अमृत को बिना किसी विघ्न के पीकर प्रीति का सेवन करने वाले मेरे जैसे लक्षण वाले व्यक्ति के प्रति नीरस होकर इस समय निश्चित रूप से कड़े रूप में आचरण करती है।
प्राक्कषायकलुषं ततो घनं, घोलनार्पितरसं विनाशि यत् । तद्रिपूकृतघनागमं समं, नाम्नमीशवचसामनीदृशाम् ॥ ११ ॥
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग- १० ]
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- जो आम्रफल पहले कषाय से कलुष है, अत्यधिक रूप से घोलने से जिसने रस को भेंट किया है तथा जो विनाशशील हैं, जिसने वर्षा ऋतु को शत्रु बनाया है वह आम्र, जो ऐसे नहीं हैं अर्थात् आम्रफल के सदृश नहीं हैं, ऐसे ईश के वचनों के समान नहीं है।
द्राक्षया किल यदानुशिक्ष्यते, स्वं फलं मधुरतां भवद्रिः।
तत्तदा दुतमितो वियोज्यते, वेधसा ध्रुवममन्दमेधसा॥१२॥ अर्थ :- हे नाथ! निश्चित रूप से दाख आत्मीय फल आपकी वाणी से जब माधुर्य सीखता है तब वह फल (दाख) शीघ्र ही बहुत प्रज्ञा वाले ब्रह्मा से निश्चित रूप से पृथक् किया जाता है।
वारिवाहवदलं तव श्रवः-पल्वलप्रमभिवर्षतः सतः।
निश्यधीश शममाम मामकं, संशयान्धतमसं तदद्भुतम्॥१३॥ अर्थ :- हे अधीश! आपकी मेघ के समान अत्यधिक रूप से कर्ण पल्लव को भरती हुई सी वर्षा करने वाली वाणी ने रात्रि में मेरे संशय रूपी गहन अन्धकार को शान्त कर दिया, यह आश्चर्य है।
निर्गतं यदि तवाननाद्वचः, क्षीणमेव तदशेषसंशयैः। ..
कोशतोऽसिरुदितो भटस्य चे-नष्टमेव तदसत्त्वदस्युभिः॥१४॥ अर्थ :- हे नाथ! यदि आपके मुख से वाणी निकली तो समस्त सन्देह नष्ट ही हो जाते हैं । यदि म्यान से सुभट की तलवार निकलती है तो निर्बल चोर भाग ही जाते हैं।
तावकेऽपि वचने श्रुतिं गते, यस्य मानसमुदीर्णसंशयम्।
मुष्टिधामनि मणौ सुधाभुजां, तस्य हन्त न दरिद्रता गता॥१५॥ अर्थ :-- हे नाथ! आपके वचन कर्ण में जाने पर जिसका मन संशय से रहित हो जाता है उस पुरुष की मुट्ठी में चिन्तामणि रहते हुए क्या दरिद्रता नहीं गई? अर्थात् निश्चित रूप से उसकी दरिद्रता चली जाती है।
यत्त्वयौच्यत तथैव तन्महे, तन्महेश निजहृद्यसंशयम्।
कम्पते किल कदापि मन्दरो, मन्दरोष न पुनर्वचस्तव॥ १६॥ अर्थ :- हे महेश! जो तुमने कहा है, वह वैसा ही है, इसमें संशय नहीं है। हम अपने हृदय में विस्तार करते हैं । निश्चित रूप से हे मन्दरोष! सुमेरु कदाचित् कम्पायमान हो सकता है, किन्तु आपका वचन कम्पित नहीं होता है।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
(१४३)
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
शैलसागरवनीभिरस्खल-त्पक्ष्ममात्रमिलनानियन्त्रितम्।
ज्ञानमेकमनलीकसङ्गतं, नेत्रयुग्ममतिशय्य वर्तते ॥ १७॥ अर्थ :- हे नाथ! सत्य से युक्त, पर्वत, समुद्र तथा महावनों से स्खलन को न प्राप्त करता हुआ एक ज्ञान पलकों से मिलने से नियंत्रित नेत्रयुगल को जीतता हुआ विद्यमान है।
पात्रतैलदशिकादिभिर्चल-निःसहायमधिकायितस्य ते।
अश्नुते नखलु कज्जलध्वज-श्चिन्मयस्य महसः शतांशताम्॥१८॥ अर्थ :- हे नाथ! पात्र, तैल, बत्ती आदि से जलता हुआ दीप निश्चित रूप से तुम्हारे ज्ञान रूप साहाय्य रहित आधिक्य को प्राप्त तेज की शतांशता को नहीं प्राप्त करता है।
सर्वतो विकिरतोऽपि कौमुदी, यस्य शाम्यति न कालिमा हृदः।
स स्पृशत्यपि न ते तमस्विनी-वल्लभः स्वपरभासि चिन्महः॥१९॥ अर्थ :- सब ओर से चांदनी को बिखेरते हुए भी जिस चन्द्रमा की हृदय कालिमा शमन को प्राप्त नहीं होती है। वह चन्द्रमा आपके स्व और पर को प्रकाशित करने वाले ज्ञान तेज का स्पर्श भी नहीं करता है।
जाड्यहेतुनि हिमर्तुसंकटे, याति याऽतिकृशतां रवेः प्रभा।
तां गिरस्तव सदैव दिद्युतो, लजते बत सपत्नयन कः॥ २०॥ अर्थ :- हे नाथ! जो सूर्य की प्रभा जड़ता की हेतु हिम ऋतु के आ जाने पर अत्यन्त कृशता को प्राप्त होती है, उसे सदैव प्रकाशित करते हुए आपकी वाणी से तुलना करने वाला कौन लजित नहीं होता है?
बिभ्रता मतिमतीन्द्रियां त्वया, वस्तुतत्त्वमिह यनिरौच्यत।
नेतरेतदपरेण जन्तुना, दुर्वचं प्रतनुबुद्धितन्तुना ॥ २१॥ अर्थ :- हे स्वामिन् ! तुमने इस संसार में इन्द्रियातीते बुद्धि को धारण करते हुए जिस वस्तु तत्त्व का कथन किया, यह वस्तु तत्त्व दूसरे क्षीणबुद्धि तन्तु वाले जन्तु के द्वारा कथन किया जाना कठिन है।
अस्तु वास्तवफलस्य वास्तु ते, वाग्लता त्वरितमेवमूचुषी।
वासवेश्म निजमाश्रयेति सा, शासनं सपदि पत्युरासदत्॥२२॥ अर्थ :- हे स्वामिन् ! आपकी वाणी रूप लता सम्यक् फल का स्थान हो ऐसा कहती हुई उस सुमङ्गला ने अपने निवास महल का आश्रय करो, इस प्रकार श्री ऋषभदेव के आदेश को पाया। (१४४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
दत्तदक्षिणभुजा निजासने, गर्भगे धरणिपाकशासने।
सोदतिष्ठदतनुस्तनावनी-भृत्तटीललितहारनिर्झरा ॥ २३॥ अर्थ :- स्थूल स्तन रूप दो पर्वत को धारण करने वाले तटों पर विलास हार जिसके झरने हैं ऐसी सुमङ्गला पृथ्वी के इन्द्र (चक्रवर्ती) के गर्भस्थ होने पर अपने आसन पर दायाँ हाथ रखकर उठी।
फुल्लमल्लिकमिदं वनं किमु, स्मेरकैरवगणं सरोऽथवा। एवमूहविवशा निशामयं-त्यभ्रमक्रमविकीर्णतारकम् ॥ २४॥ बिभ्यती स्खलनतः शनैः शनैः, प्राञ्जलेऽपि पथि मुञ्चती पदौ। अल्पकेऽपि भवनान्तरे गते, स्तानवेन भवनान्तरीयिता॥ २५॥ कौतुकाय दिविषत्पुरधिभिः, स्वं तिरोहितवतीभिरग्रतः। शोध्यमानसरणिः शिरस्यथा-धीयमानधवलातपत्रिका॥ २६॥ रत्नभित्तिरुचिराशिभासिते-नाध्वना ध्वनितनूपुरक्रमा। वायुनावसरवेदिनेव सा, दम्यमानगमनश्रमाऽचलत् ॥ २७॥
(चतुर्भिः कलापकम्) अर्थ :- अनन्तर यह वन क्या विकसित विचकिल के पुष्पों वाला है अथवा जिसमें कुमुदों के समूह विकसित हैं, ऐसा तालाब है? इस प्रकार विचार करने को विवश होती हुई, एक साथ जिसमें तारागण फैले हुए हैं ऐसे आकाश को देखती हुई, लड़खड़ाने से डरती हुई, सरल भी मार्ग में धीरे-धीरे दोनों चरण रखती हुई, थोड़ा भी भवन के मध्य में चलने पर गति के लाघव से अन्य भवन में विचरण करती हुई, पुनः अपने आपको छिपाती हुई, देवाङ्गनाओं के कौतुक के लिए आगे मार्ग को देखती हुई, सिर पर श्वेत छत्र रखे हुए, जिसके दोनों पैरों में नुपूर शब्द कर रहे हैं मानों अवसर को जानने वाली वायु के द्वारा जिसका गमन का श्रम निकल रहा है ऐसी वह सुमङ्गला रत्नों की भित्तियों की कान्ति के समूह से भासित मार्ग से चली।
कान्तमन्दिरमुपेत्य साचिरा-शंसितार्थपरिपूरिताशया।
सारसम्मदमहाबलेरिता, स्वं निकेतनमियाय नौरिव ॥ २८॥ अर्थ :- वह सुमङ्गला स्वामी के मन्दिर को पाकर थोड़े से ही समय में कथित स्वप्नार्थ लक्षण से परिपूर्ण अभिप्राय वाली होकर प्रधान हर्ष रूप महान् बल से प्रेरित (नौका के अर्थ में-जिसका मध्य द्रव्य से भरा हुआ है) नाव के समान अपने घर गई।
तत्र चित्रमणिदीपदीधिति-ध्वस्यमानतिमिरे ददर्श सा।
पानशौण्डमिव लुप्तचेतनं, सुप्तमन्तरखिलं सखीजनम्॥ २९॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
(१४५)
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- उस सुमङ्गला ने चित्र मणियों के दीपों की किरणों से ध्वस्त होते हुए अन्धकार वाले उस घर में सुरापान से मत्त हुई.सी लुप्त चेतना वाली मध्य में सोती हुई समस्त सखीजनों को देखा।
सोऽध्वगत्वचपलाङ्गसङ्गतो-न्मेषिघोषमणिमेखलादिभिः। . निद्रयाऽजगरितोऽपि जागरं, द्रागनीयत तया विना गिरम्॥३०॥ अर्थ :- सुमङ्गला के द्वारा नींद से जाग जाने पर भी अजगर के समान आचरण करने वाली सखीजन मार्ग में जाने से चञ्चल शरीर में मिलित जिनका प्रकट घोष है ऐसी मणिमय मेखलाओं आदि से वाणी के बिना ही शीघ्र जागरण को प्राप्त हुईं।
तां ससम्भ्रमसमुत्थितास्ततः, सन्निपत्य परिवठ्रालयः।
उच्छ्वसजलरुहाननां प्रगे, पद्मिनीमिव मधुव्रतालयः॥ ३१॥ अर्थ :- अनन्तर सखियों ने हड़बड़ी में उठकर समुदाय बनाकर विकास को प्राप्त होते हुए कमल सदृश मुख वाली उस सुमङ्गला को उसी प्रकार घेर लिया जैसे भौंरों की पंक्तियाँ प्रातःकाल कमलिनी को घेर लेती हैं।
ऊचिरे त्रिचतुराः पुरस्सरी-भूय भक्तिचतुरा रयेण ताः।
तां प्रणम्य वदनेन्दुमण्डला-भ्यासकुड्मलितपाणिपङ्कजाः॥३२॥ अर्थ :- तीन चार भक्ति में चतुर मुख रूप चन्द्र मण्डल के समीप जिनके कर कमल संकुचित हो गए हैं ऐसी सखियों ने आगे होकर सुमङ्गल को प्रणाम कर वेग से कहा।
- एवमाजनुरसंस्तुतो भवे-द्यः स एव शयितो विमुच्यते। ... उच्यते किमथवा तव प्रभु- परस्य परिभाषणोचितः॥ ३३॥ अर्थ :- हे स्वामिनि! जो व्यक्ति जन्म से लेकर अपरिचित होता है, वही इस प्रकार सुप्त होकर छूटता है अथवा तुम्हारा क्या कहना। स्वामी अन्य के परिभाषण के योग्य नहीं होता है।
युक्तमेव यदि वा विनिर्मितं, सर्वविद्दयितया त्वया सखि।
यत्तमोगुणजिता विमुच्य नो, रुच्यसद्म विकसद्मना गता ॥ ३४॥ अर्थ :- हे सखि! अथवा सर्वा पत्नी तुमने ठीक ही किया जो कि तमोगुण से पराजित हमें छुड़ाकर तुम प्रफुल्ल हृदय वाली होकर पति के घर गयी। .
त्वामविद्मन वयं विनिर्यतीं, जातसिद्धिमिव ही प्रमद्वराः। मन्तुमेतमनपेतचेतना, दध्महे स्वहृदि शल्यवत्पुरा ॥ ३५॥
(१४६)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- हे स्वामिनि! खेद है कि हम प्रमाद करने वालियों ने जिसे सिद्धि उत्पन्न हो गई है ऐसी तुम्हें निकलते हुए नहीं जाना । इस अपराध को चेतना रहित हम अपने हृदय में शल्य के समान धारण करेंगी।
विश्ववन्द्यवधुपारिपार्श्विको-ऽस्त्येव ते सततमप्सरोजनः।
वेधसा हि वयमेव वञ्चिता, यत्कृता भवदुपासनाद्वहिः॥ ३६॥ अर्थ :- त्रिभुवन-वन्द्य-दयिते! अप्सरायें निरन्तर तुम्हारे समीपस्थ हैं ही। निश्चित रूप से ब्रह्म के द्वारा हम ही ठगे गए हैं। जो कि हम लोग आपकी उपासना से विमुख किए गए हैं।
कार्यमेतदजनिष्ट किं तवा-कस्मिकं विमलशीलशालिनि।
यत्पुरा व्रजसि चाटुकोटिभि-र्भर्तुवेश्म तदगाः स्वयं यतः॥३७॥ अर्थ :- हे निर्मल शील से सुशोभित! यह कार्य तुम्हारा क्या आकस्मिक उत्पन्न हुआ जो कि पहले करोड़ों चाटुकारियों पूर्वक पति के घर जाती थीं और अब स्वयं गई।
तद्भविष्यति फलोदये स्फुटं, गूढचारिणि चिरादपि स्वयम्।
किन्तु नः प्रकृतिचञ्चलं मनः-काललालनमियन्न सासहि॥३८॥ अर्थ :- हे प्रच्छन्नगमने! वह कार्य बहुत समय बाद स्वयं फल का उदय होने पर । प्रकट हो जाएगा, किन्तु हमारा स्वभाव से चञ्चल मन इतने काल के विलम्ब को सहन नहीं करता है।
सिञ्च नस्त्वमखिलाः स्वकार्यवाक्-शीकरैः समयभङ्गतापिताः।
सर्वदैक हृदयं सखीगणं, मा पृथग्गणनयाऽवजीगणः॥ ३९॥ अर्थ :- तुम समय के भङ्ग से सन्तप्त हुई हम समस्त सखी समूह को कार्यवचनरूप जलकणों से सींचो । निरन्तर एक हृदय सखी समूह को पृथक् गिनकर तिरस्कार मत करो।
सा सखीभिरिति भाषिता रमे-वोरुपद्ममणुपद्मवेष्टितम्।
अध्यशेत शयनं समन्ततः, सन्निविष्टवरविष्टरावलिः॥ ४०॥ अर्थ :- छोटे-छोटे कमलों से वेष्टित लक्ष्मी जिस प्रकार वृहत् कमल का आश्रय लेती है, उसी प्रकार उस सुमङ्गला ने सखियों के द्वारा ऐसा कहे जाने पर चारों ओर श्रेष्ठ सिंहासनों की श्रेणियों से युक्त शय्या का आश्रय लिया।
एकमूलकमलद्वयाभयो-स्तत्यदोरुपरि पेतुरुत्सुकाः । हेमहंसललनागरुच्छ्यिो , लालनाय शतशः सखीकरा: ॥४१॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
(१४७)
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- सुवर्ण की हंसियों के पंखों के समान जिनकी शोभा है ऐसे सैंकड़ों सखियों के हाथ उत्सुक होते हुए रक्षा करने के लिए जिनकी जड़ एक है ऐसे दो कमलों की आभा वाले उस सुमङ्गला के दोनों चरणों के ऊपर पड़े।
पाणिपूरपरिमईमर्दना-हे तुमप्यपगतश्रमत्वतः।
सालिपालिमरुणन्न तन्मनो-रङ्गभङ्गभयतोऽतिवत्सला॥४२॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने उन सखियों के मन के आनन्द के भङ्ग होने के भय से अत्यन्त स्नेहवती होकर थकान के दूर होने से सखी समूह को पीड़ा के हेतु हस्त समूह के परिमर्द को नहीं रोका।
स्वप्रवीक्षणमुखामुषाभरे, भर्तृवेश्मगतिहेतुदां कथाम्।
तासु सासनमतासु विस्तृत-श्रोत्रपात्रपरमामृतं व्यधात्॥ ४३॥ अर्थ :- सुमङ्गला ने सखियों के आसन पर चले जाने पर रात्रि के मध्य भाग में स्वप्नों का दिखाई देना जिनमें प्रमुख है ऐसी स्वामी के घर में गमन के हेतु को प्रदान करने वाली कथा को विस्तृत श्रोत्र रूपी पात्र के लिए परम अमृत कर दिया। . तोषविस्मयभवः सखीमुखा-दुद्ययौ कलकलः स कश्चन।
अन्तरालयकुलायशायिभि-र्येन जागरितमण्डजैरपि॥ ४४॥ अर्थ :- हर्ष और विस्मय से उत्पन्न सखियों के मुख से वह कोई कोलाहल उत्पन्न हुआ जिसने घर के मध्य घोंसले में शयन करने वाले पक्षियों को भी जागृत कर दिया।
स्वप्नमेकमपि सालसेक्षणा, किं विचारयितुमीश्वरीदृशम्।।
उल्लसत्तमसि यन्मनोगृहे, सञ्चरन्त्यपि बिभेति भारती॥ ४५॥ अर्थ :- वह अलस नयनों वाली ऐसे स्वप्नों में से एक के भी विषय में विचार करने में समर्थ है, अपितु नहीं है। जिसमें अज्ञान रूप अन्धकार उठ रहा है ऐसे जिसके मनोगृह में सरस्वती संचरण करती हुई भी डरती है।
वर्णयेम तव देवि कौशलं, यत्प्रकृत्यकृतिनीरुपेक्ष्य नः।
देवदेववदनादनाकुलं, स्वप्नसूनृतफलं व्यबुध्यथाः॥ ४६॥ अर्थ :- हे देवि! हमें तुम्हारे कौशल का वर्णन करना चाहिए; क्योंकि तुमने स्वभाव से मूर्ख हम लोगों की उपेक्षा कर श्री ऋषभदेव के मुख से आकुलता रहित होकर स्वप्नों का सत्य फल ज्ञात किया है।
नाथवक्त्रविधुवाक्करोंभित-स्त्वत्प्रमोदजलधिः सदैधताम्।
एवमालपितमालिभिर्वचः,शुश्रुवे श्रुतिमहोत्सवस्तया॥४७॥ (१४८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :-- हे स्वामिनि ! तुम्हारा प्रमोद रूपी समुद्र, जो कि स्वामी के मुख रूप चन्द्रमा की किरणों से पूरित है, निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो। सखियों के इस प्रकार कहे गए, दोनों कानों के लिए महोत्सव रूप वचन उस सुमङ्गला के द्वारा सुने गए।
वाग्मिषादथ सुमङ्गला गला-यातहन्नदजसंमदामृता।
आदिशद्दशनदीधितिस्फुटी-भूतमुज्ज्वलमुखी सखीगणम्॥४८॥ अर्थ :- अनन्तर वाणी के बहाने से गले में आगत हृदय रूपी नद से उत्पन्न हर्ष रूपी अमृत वाली उज्ज्वलमुखी सुमङ्गला ने दाँतों की किरणों से प्रकटीभूत सखीगणों को आदेश दिया।
रामणीयकगुणैकवास्तुनो, वस्तुनः सुकरमर्जनं जने।
भाविविप्लवनिवारणं पुन-स्तस्य दुष्करमुशन्ति सूरयः॥ ४९॥ अर्थ :- रमणीयता रूप गुण का एक स्थान वस्तु का अर्जन व्यक्ति में सुलभ है पुनः उस वस्तु के भावी विनाश के निवारण को विद्वान् लोग दुष्कर कहते हैं।
अर्जिते न खलु नाशशङ्कया, क्लिश्यमानमनसस्तथा सुखम्।
जायते हृदि यथा व्यथाभरो, नाशितेऽलसतया सुवस्तुनि ॥५०॥ अर्थ :- सुन्दर वस्तु के अर्जन करने में निश्चित रूप से नाश की शङ्का से दुःखी मन वाले पुरुष के वैसा सुख नहीं होता है जैसा आलस्य के कारण सुन्दर वस्तु का नाश होने पर व्यथा का समूह उत्पन्न होता है।
दृष्टनष्टविभवेन वर्ण्यते, भाग्यवानिति सदैव दुर्विधः।
जन्मतो विगतलोचनं जनं, प्राप्तलुप्तनयनः पनायति ॥५१॥ अर्थ :- देखते-देखते जिसका वैभव नष्ट हो गया है ऐसा पुरुष सदैव दरिद्र को भाग्यवान् कहता है । प्राप्त हुए जिसके नेत्र नष्ट हो गए हैं ऐसा पुरुष जन्मान्ध व्यक्ति की स्तुति करता है।
हारिमा तदिदमद्य निद्रया, स्वप्नवस्तु मम सम्मदास्पदम्।
तत्प्रमादमवधूय रक्षितुं, यामिकीभवत यूथमालयः॥ ५२॥ अर्थ :- अत: हर्ष की स्थान इस मेरी स्वप्न की वस्तु को निद्रा से आज हरण मत करो। हे सखियों! उस स्वप्न की वस्तु को प्रमाद छोड़कर रक्षा करने के लिए तुम सब आरक्षिकी हो जाओ :
स्वप्नवस्तु दयतेऽप्यगोचरं, दत्तमप्यहह हन्ति तामसी।
संनिरुध्य नयनान्यचेतसां, चेष्टते जगति सा यदृच्छया॥ ५३॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
(१४९)
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- वह तमोमयी रात्रि चित्तरहित व्यक्तियों के नेत्रों को रोककर संसार में चेष्टा करती है । जो रात्रि अगोचर भी स्वप्न की वस्तु को स्वेच्छा से देती है। खेद है, दी हुई भी वस्तु को नष्ट कर देती है।
वासरे सरसिजस्य जाग्रतो, गर्भमन्दिरमुपेयुषीं श्रियम्।
शर्वरीसमयलब्धविक्रमा, लुम्पतीयमनिमित्तवैरिणी॥ ५४॥ अर्थ :- यह निद्रा बिना निमित्त के ही वैरिणी है, जो रात्रि के समय लब्धपराक्रमा होती हुई दिन के समय जागते हुए कमल के गर्भमन्दिर को प्राप्त होकर उसकी लक्ष्मी का हरण करती है।
यद्यसौ भुवनवञ्चनोत्सुका, स्वप्नराशिमपहृत्य तादृशम्।
दास्यते किमपि गर्हितं तदा, पत्तने वसति लुण्टितास्मि हा॥५५॥ अर्थ :- यदि वह निद्रा भुवन को ठगने के लिए उत्सुक स्वप्नराशि का अपहरण कर वैसा कोई गर्हित स्वप्न दिलाएगी तो हा पत्तन में लूट ली गयी हूँ।
सर्वसारबहुलोहनिर्मितै - युष्मदानननिषङ्गनिर्गतैः।
वाक्शरैः प्रसरमेत्य धर्मतो, धर्षितेयमिह मासदत्पदम्॥५६॥ अर्थ :- धर्म से (पुण्य से) सर्वोत्कृष्ट सार की जिसमें बहुलता है ऐसे विचार से निर्मित (पक्ष में सर्वसारमय बहुत लोह से निर्मित) आपके मुख रूप तूणीर से निर्गत वाणी रूपी बाणों से विस्तार को प्राप्त कर इस निद्रा ने मुझमें स्थान प्राप्त किया।
तत्तदुत्तमकथातरङ्गिणी - भङ्गिमज्जनकसज्जचेतसा।
नैशिकोऽपि समयो मयोच्यतां, वासरः स्वरसनष्टनिद्रया॥५७॥ अर्थ :- अतः स्वभाव से जिसकी निद्रा नष्ट हो गई है एवं उन-उन उत्तम कथा रूपी नदियों की कल्लोलों में स्नान करने में जिसका चित्त लगा हुआ है ऐसे मेरे द्वारा रात्रि सम्बन्धी भी समय को दिन कहा जाना चाहिए।
स्वप्रभङ्गभयकम्पमानसां, मां विबोध्य सरसोक्तियुक्तिभिः।
जाग्रतोऽस्ति नहि भीरितिश्रुति- यिषीष्ट चरितार्थतां हलाः॥५८॥ अर्थ :- स्वप्न के भङ्ग होने से जिसका मन कम्पित है ऐसे मुझे सरस उक्ति रूपी युक्तियों से जगाकर, जागते हुए को भय नहीं है, इस श्रुति को चरितार्थ कराओ।
एवमूचुषि विभोः परिग्रहे, विग्रहे घनरुचिः सखीगणः। धर्मधामगुणगीर्णवाक्शरा-सारमारभत मारभङ्गिवित्॥ ५९॥
(१५०)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
स्वामी की स्त्री को इस प्रकार कहने पर शरीर पर जिनकी कान्ति अधिक है ( पक्ष में- युद्ध के प्रति जिसकी अभिलाषा बहुत है) तथा जो कामदेव की भङ्गियों को जानता है ऐसे सखी समुदाय ने धर्म के धाम स्वरूप जो विनयादिक गुण (अथवा प्रत्यञ्चा) हैं उनसे निसृत वाणी रूपी बाणों की वेगवान् वृष्टि आरम्भ की। प्रागपि प्रचुरकेलिकौतुकी, सोऽदसीयवचसाऽभृशायत ।
नीरनाडियुजि किं न वाक्पता-वेति वृष्टिघनतां घनाघनः ॥ ६० ॥ अर्थ :- पहले से ही प्रचुर क्रीडा रूप कौतुक से युक्त वह सखी समूह सुमङ्गला के वचनों से प्रगल्भ हुआ । जलनाडि से युक्त बृहस्पति के होने पर मेघ क्या वृष्टि की घनता को प्राप्त नहीं होता है ? अपितु होता ही है ।
:
।
सुश्रुताक्षरपथानुसारिणी, ज्ञातसम्मतकृताङ्गिकक्रिया । आत्मकर्मकलनापटुर्जगौ, कापि नृत्यनिरता स्वमार्हतम् ॥ ६१ ॥
अर्थ :अच्छी तरह से सुने हुए अक्षरों के मार्ग का अनुगमन करने वाली पहले जानकर मानी गई अङ्ग सम्बन्धी क्रिया जिसने की है तथा जो अपने नृत्य रूप कर्म के करने में समर्थ है ऐसी किसी सखी ने नृत्य में निरत रहकर अपने आर्हत (जिनेन्द्र (देव) का गुणगान किया ।
विशेष :जैसा गीत और वाद्य होता है, वैसा नृत्य भी होता है। पहले गीत तथा वाद्य के स्वरूप को जाना, पश्चात् उसके अनुमान से अङ्ग सम्बन्धी क्रिया की, यह भाव है । जो अर्हन्त के मार्ग का अनुसरण करती है, वह उनके सिद्धान्त से अक्षर पक्ष-मोक्षमार्ग 'का अनुसरण करती है। सम्यग्ज्ञान से जानी गई, सम्यग्दर्शन से मानी गई तथा सम्यक्चारित्र से की गई जिसकी द्वादशाङ्ग सम्बन्धिनी क्रिया है ।
सद्गुणप्रकृतिराप चापलं, कापि कापिलमताश्रयादिव । रङ्गयोग्यकरणौघलीलया, साक्षितामुपगते तदात्मनि ॥ ६२ ॥
अर्थ :- अच्छा गुण जिसका स्वभाव है ऐसी किसी सखी ने उसकी आत्मा के साक्षीपने को प्राप्त होने पर मानों कपिल मत (सांख्य मत) का आश्रय कर लिया हो इस प्रकार रङ्गभूमि में हस्त संचालन आदि क्रियाओं के समूह की लीला से चञ्चलता प्राप्त की ।
विशेष :सांख्य मत में सत्व, रज और तमो लक्षण तीन गुण माने गए हैं। इन तीनों गुणों की साम्यावस्था प्रकृति या प्रधान कहलाती है । वही सब व्यापार विस्तारित करती है । आत्मा तो साक्षीमात्र है। उनके मत में आत्मा अकर्ता, अभोक्ता तथा निर्गुण है ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - १० ]
(१५१)
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
सद्गुणा का अर्थ सांख्य पक्ष में विद्यमान सत्व, रज और तमोगुण है । प्रकृति का अर्थ प्रधान है। प्रकृति से महत्तत्व, उससे अहंकार तथा उससे षोडश गण, षोडश गणों से पञ्चभूत इस प्रकार सृष्टि होती है। उस समय आत्मा अकर्ता होने से साक्षिमात्र रहता है। जैसे राजसभा में राजा के बैठकर देखते समय कोई नर्तकी नृत्य करती है, इस प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए।
तां विधाय शुचिरागसम्भवन्मूर्छनाभिरुपनीतमूर्च्छनाम्।
सौगतं ध्वनिगतं तदुद्भवा-भावदूषणमलुप्त काचन॥ ६३॥ अर्थ :- पवित्र राग से उत्पन्न मूर्च्छनाओं से उत्पन्न मूर्छा वाली कर किसी स्त्री ने सुगत प्रणीत शब्दगत ध्वनि से उत्पन्न अभावरूप दोष का लोप कर दिया। विशेष :- बौद्ध में सुगत देव हैं। विश्व क्षणक्षयिक है । क्षणक्षयिक होने के कारण से अमुक से अमुक वस्तु उत्पन्न होती है, यह नहीं कहना चाहिए। बौद्धों के यहाँ कहा गया है... यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैव सः।
न देशकालयोाप्तिभावानामिह विद्यते॥ अर्थात् जो जहाँ है, वह वहीं है, जो जब है, वह तभी है, इस संसार में पदार्थों की देशकाल में व्याप्ति नहीं है।
यदि राग से उत्पन्न मूर्च्छनाओं से सुमङ्गला के मूर्छा हुई तो राग के क्षणक्षयत्व नहीं है। यदि राग क्षयी है तो मूर्च्छना कैसे उत्पन्न होती है। अतः शब्द का ध्वनि से उत्पन्न होने का अभाव है।
तत्त्वषोडशकतोऽधिकं स्वकं, गीततत्त्वमुपनीतनिर्वृति।
व्यञ्जतीह विधिनाच्युते न का-प्यक्षपादमतमन्यथाकृत॥ ६४॥ . अर्थ :- षोडश तत्त्वों से अधिक अस्खलित विधि से समाधि को पास लाकर गीत को प्रकट करती हुई किसी स्त्री ने अक्षपाद के मत को अन्यथा कर दिया। विशेष :- नैयायिक मत में प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह स्थान रूप षोडश तत्त्व हैं। उनके यहाँ सृष्टि तथा संहारकर्ता महेश्वर देव हैं। अच्युत अर्थात् कृष्ण की विधि से समाधि को प्राप्त करने से षोडश से अधिक अर्थात् 17 तत्त्व हो जाते हैं।
विश्रुतस्वरगुणश्रुतेः परं, या प्रपञ्चमखिलं मृषादिशत्।
मूर्च्छनासमयसंकुचदृशां, सा न किं परमहंसतां गता॥६५॥ (१५२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- मूर्च्छना के समय जिनकी दृष्टि संकुचित हो गयी थी, विख्यात स्वरों के गुणों के सुनने से जिस स्त्री ने समस्त प्रपञ्च को असत्य कहा था, वह क्या सज्जनों के प्रकृष्ट उत्सव को प्राप्त नहीं हुई? अपितु प्राप्त हुई। अथवा मीमांसक के भेद पर महंसता को प्राप्त नहीं हुई? अपितु प्राप्त हुई। विशेष :- मीमांसकों के मत में वेद ही तत्त्व रूप हैं । उनके मत में देव भी मन्त्रमय माने गये हैं । गीत के श्रोता उसकी लय में लीन होने के कारण उन्होंने गीत ही सुना यह भावार्थ है । इस प्रकार वेद के अतिरिक्त भी तत्त्व की सिद्धि हुई। ___ आत्मनः परभवप्रसाधना - भासुरामिषनिषेधिनैपुणा।
गी:पतेर्मतमतीन्द्रियार्थवित्तत्र काचिदुचितं व्यधाद् वृथा॥६६॥ अर्थ :- अपने दूसरे से होने वाले प्रसाधन से जो देदीप्यमान है तथा दम्भ का निषेधकारक जिसका चातुर्य है एवं जो अतीन्द्रिय पदार्थ को जानती है ऐसी किसी स्त्री ने बृहस्पति के मत को सुमङ्गला के आगे ठीक ही व्यर्थ किया। विशेष :- चार्वाक मत में इन्द्रियार्थ माने गए हैं। उनके मत में खाओ, पियो और मौज उड़ाओ की शिक्षा दी गई है। वे शरीर को समुदयमात्र मानते हैं । जितना लोक इन्द्रियों से दिखाई देता हे, उतना ही है। परभव नहीं है।
तां प्रवीणहृदयोपवीणयं-त्येकतानमनसं पुरः परा।।
निर्ममे खरवं स्ववल्लकी-दण्डमेव मृदुभास्वरस्वरा॥ ६७॥ अर्थ :- आगे एकाग्रचित्त सुमङ्गला के विषय में वीणा से गाती हुई मृदु और देदीप्यमान स्वर वाली प्रवीण हृदया अन्य स्त्री ने अपनी वीणा के दण्ड से ही कठोर शब्द किया।
अन्यया ऋषभदेवसद्गुण-ग्रामगानपरया रयागता।
लभ्यतेस्म लघु तामुपासितुं, किं न किन्नरवधूः स्वशिष्यताम्॥६८॥ अर्थ :- श्री ऋषभ देव के सद्गुणों के समूह को गाने में तत्पर अन्य स्त्री ने शीघ्र ही उनकी सेवा के लिए वेगपूर्वक आई हुई किन्नर स्त्री को क्या अपनी शिष्यता प्राप्त नहीं कराई? अपितु प्राप्त कराई। विशेष :- श्री ऋषभदेव के सद्गुण ये थे 1. कुलीन 2. शीलवन्त 3. वयस्थ 4. शौचवत 5. संततव्यय 6. प्रीतिवंत 7. सुराग 8. सावयववंत 9. प्रियंवद 10. कीर्तिवंत 11. त्यागी 12. विवेकी 13. शृङ्गारवन्त 14. अभिमानी 15. श्लाध्यवन्त 16. समुज्ज्वलवेष 17. सकलकलाकुशल 18. सत्यवंत 19. प्रिय 20. अवदान 21. सुगंधप्रिय 22. सुवृत्तमंत्र 23. क्लेशसह 24. प्रदग्धपथ्य 25. पण्डित 26. उत्तमसत्त्व 27. धर्मित्व 28. महोत्साही जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०] .
(१५३)
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
29. गुणग्राही 30. सुपात्रग्राही 31. क्षमी 32. परिभावुक । ये 32 लौकिक नायक के गुण कहे जाते हैं।
आङ्गिकाभिनयविज्ञयाऽन्यया, शस्तहस्तकविहस्तहस्तया।
एतदीयहदिपूरितं मरु-लोलपल्लवलताकुतूहलम्॥ ६९॥ अर्थ :- आङ्गिक अभिनय को जानने वाली प्रशस्त (६४) हस्तकों में व्याकुल दोनों हाथ वाली अन्य स्त्री ने सुमङ्गला के हृदय में वायु से चञ्चल पल्लवों वाली लता के कुतूहल को भर दिया।
अप्युरःस्तननितम्बभारिणी, काचिदुल्लसदपूर्वलाघवा।
लास्यकर्मणि विनिर्मितभ्रमि-निर्ममे विधृतकौतुकं न कम्॥७०॥ अर्थ :- वक्षःस्थल, स्तन और नितम्ब के भार वाली, नाट्यकर्म में जिसका अपूर्व लाघव प्रकट है तथा जो घूम रही है ऐसी किसी स्त्री ने किसे कौतुकधारी नहीं बनाया, अपितु सबको बनाया।
शृण्वती धवलबन्धबन्धुरं, स्वामिवृत्तमुपगीतमन्यया।
स्माह कुण्डनवकाधिकं सुधा-स्थानमास्यमिदमीयमेव सा॥७१॥ अर्थ :- धवल रचना से सुन्दर गाए गए स्वामी के चारित्र को श्रवण करती हुई उस सुमङ्गला ने इसके इस मुख को नव कुण्डों से भी अधिक अमृत का स्थान कहा था।
साधितस्वरगुणा ऋजूभव - देहदण्डतततुम्बकस्तनी। .. कापि नाथगुणगानलालसा, व्यर्थतां ननु निनाय वल्लकीम्॥७२॥ अर्थ :- नाथ के गुणों का गान करने की अभिलाषिणी, जिसने स्वर के गुणों को साधा है (पक्ष में-जिसकी तन्त्री साधितस्वर है), सरल होते हुए देहदण्ड में जिसके तूंबे के आकार के दोनों स्तन विस्तीर्ण हैं ऐसी किसी स्त्री ने निश्चित रूप से वीणा की व्यर्थता को ला दिया। विशेष :- कोई स्त्री श्री ऋषभदेव के वंश, विद्या, विनय, विजय, विवेक, विचार, सदाचार तथा विस्तार प्रभृति ८६ गुणों के गान में तत्पर थी। उसने स्वर के गुणों की साधना की थी। सात स्वर होते हैं, तीन ग्राम होते हैं, २१ मूर्च्छनायें होती हैं तथा ४९ ताने होती हैं, ये गीत का लक्षण है । गीत के विषय में नियम है कि आदि में नकार, मध्य में यकार और अन्त में हकार नहीं रखना चाहिए। ये तीनों गीत के वैरी हैं। कहा गया है
नामाक्षरो यदुद्गाने भवेत्तत्र न संशयः।
हकारो वा घकारो वा रेफो वापि कुलक्षयः॥ (१५४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुण ये कहे गए हैं - १. सुस्वर २. सुताल ३. सुपद ४. शुद्ध ५. ललित ६. सुबद्ध ७. सुप्रमेय ८. सुराङ्गना ९. रम्य १०. सम ११. सदर्थ १२. हृष्ट १३. सुकाव्य १४. सुयमक १५. सुरक्त १६. सम्पूर्ण १७. सालंकार १८. सुभाषाभव्य १९. सुसंधिकव्युत्पन्न २०. गंभीर २१. स्फुट २२. सुप्रभ २३ सुग्रह २४. अग्राम्य २५. कुंचितकम्पित २६. समायात २७. ओज २८. प्रसन्नस्थित २९. सुखस्थायक ३०. द्रुत ३१. मध्य ३२. विलम्बित ३३. द्रुतविलम्बित ३४. गुरुत्व ३५. प्राञ्जलत्व ३६. उक्तप्रमाण।
एकया किलकुलाङ्गनागुण-श्रेणिवर्णनकृता व्यधायि सा । कोशमाशु मम तात्त्विकं कदा - ऽऽदत्तसेयमिति संशयास्पदम् ॥ ७३ ॥ अर्थ :- कुलीन अङ्गनाओं की गुणश्रेणि का वर्णन करने वाली एक स्त्री ने इस मेरी सखी ने तात्त्विक कोश शीघ्र कब ग्रहण किया, इस प्रकार संशय का स्थान किया था। विशेष नायिकाओं के, कुलाङ्गनाओं के ये ३२ गुण होते हैं - १. सुरूपा २. सुभगा ३. सुवेषा ४. सुरतप्रवीणा ५. सुनेत्रा ६. सुखाश्रया ७. विभोगिनी ८. विचक्षणा ९. प्रियभाषिणी १०. प्रसन्नमुखी ११. पीनस्तनी १२. चारुलोचना १३. रसिका १४. लज्जान्विता १५. लक्षण युक्ता १६. पठितज्ञा १७. गीतज्ञा १८ . वाद्यज्ञा १९. नृत्यज्ञा २०. सुप्रमाणशरीरा २१. सुगंधप्रिया २२. नीतिमानिनी २३. चतुरा २४. मधुरा २५. स्नेहवती २६. विषमर्षती २७. गूढमन्त्रा २८ . सत्यवती २९. कलावती ३०. प्रज्ञावती ३१ गुणान्विता ३२. शीलवती । स्वेशसौहृदमवेत्य तन्मुख- स्यागतैः शरणमन्तरिक्षतः । भास्करोदयभयादिवोडुभिः, काप्यरंस्त शुचिरत्नकन्दुकैः ॥ ७४ ॥
अर्थ :सुमङ्गला के मुख की चन्द्रमा से मित्रता जानकर कोई स्त्री पवित्र (पद्मराग, स्फटिक, वैडूर्य, चन्द्रकान्त प्रभृति) रत्नों की गेंदों से सूर्य के उदय के भय से अन्तरिक्ष से शरण में आए हुए मानों नक्षत्र हों, इस प्रकार मन बहलाने लगी ।
·
नकारे नष्ट सर्वस्वं यकारे घातमेव च। हकारे हरति लक्ष्मीं तस्माद्गीतं न धारयेत् ॥
-
को बली जगति कः शुचापदं, याचितो वदति किं मितम्पचः । कीदृशं भटमनः सुरेषु को, भैरवस्तव धवश्च कीदृशः ॥ ७५ ॥ प्रश्नसन्ततिमिमां वितन्वतीं, काञ्चनग्लपितकाञ्चनच्छविः । नाभिभूत इति सैकमुत्तरं, लीलयैव ददति व्यसिस्मयत् ॥ ७६ ॥
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - १० ]
युग्मम्
(१५५)
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
संसार में कौन बलवान् है ? कौन शोक का स्थान है ? कृपण व्यक्ति याचना करने पर क्या कहता है, सुभट का मन कैसा होता है, देवों में कौन भैरव है, तुम्हारा पति कैसा है, ऐसी प्रश्न परम्परा को करने वाली सखी को सुवर्ण की कान्ति को फीकी कर देने वाली उस सुमङ्गला ने 'नाभिभूत' यह एक उत्तर मानों लीलापूर्वक देते हुए विस्मित कर दिया ।
विशेष
-:
-:
प्रश्न
उत्तर
प्रश्न
उत्तर
प्रश्न
उत्तर
प्रश्न
उत्तर
प्रश्न
उत्तर
प्रश्न
उत्तर
(१५६)
-
संसार में कौन बलवान् है ?
ना अर्थात् पुरुष बलवान् है ।
कौन शोक का स्थान है ?
अर्थ :
पराभूत ।
कृपण व्यक्ति याचना करने पर क्या कहता है ?
न ।
सुभट का मन कैसा होता है ? अभि-अर्थात् भयरहित ।
देवों में भैरव कौन है ?
उत्तरोत्तरकुतूहलैरिमां चान्तचेतसमुवाच काचन । दृश्यतां सहृदयेऽरुणोदयो, जात एव दिशि जम्भवैरिणः ॥ ७७ ॥
अर्थ :उत्तरोत्तर कुतूहलों से व्याप्त मन वाली इस सुमङ्गला से किसी सखी ने कहा - हे सहृदये ! इन्द्र की दिशा (पूर्व दिशा) में सूर्योदय उत्पन्न होते ही देखो ।
भूत ।
तुम्हारा पति कैसा है ? नाभि से उत्पन्न ।
शंख एष तव सौख्यरात्रिको, द्वारि संनदति दीयतां श्रुतिः । आर्यकार्यफलवर्धनस्वनो-पज्ञपुण्यपटलैरिवोज्ज्वलः ॥ ७८ ॥
अर्थ :हे स्वामिनि ! रात्रि सुख से व्यतीत हुई मानों यह पूछने वाला, श्रेष्ठ कार्यों के फल की वृद्धि करने वाले शब्द के होने से मानों पुण्य समूह के समान उज्ज्वल यह शंख तुम्हारे द्वार पर शब्द कर रहा है, कान लगाइए ।
जाग्रदेव तव शान्तदिग्मुखो, वक्ति यन्मृदुरवः प्रियं द्विकः ।
किं ततः सुचरिताद् द्विजन्मना - मग्रभोजनिकतामयं गमी ॥ ७९ ॥
हे स्वामिनि ! जागने पर ही सुकोमल शब्द करने वाला दिशाओं के अग्रभाग
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग -१० ]
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
को शान्त करने वाला काक जो प्रिय बोल रहा है, उस सुचरित से यह ब्राह्मणों के आगे भोजनिकता को प्राप्त होगा ।
सुदति नदति सोऽयं पक्षिणां चण्डदीधित्युदयसमयनश्यन्नेत्रमोहः समूहः । रजनिरजनि दूरेऽस्मादृशां स्वैरचारप्रमथनमथ नृत्यत्पक्षतीनामितीव ॥ ८० ॥
अर्थ :हे सुन्दर दाँतों वाली ! सूर्य के उदय समय जिसके नेत्रों का मोह नष्ट हो गया है तथा जिनके पंख समूह नृत्य कर रहे हैं, 'हम जैसों के स्वेच्छाचार का अन्त रात्रि के दूर होने पर हो गया', मानों इसलिए यह पक्षियों का समूह शब्द कर रहा है ।
-:
दिनवदनविनिद्रीभूतराजीवराजी,
परमपरिमल श्रीतस्करोऽयं
समीरः । किञ्चिदाधूयवल्ली
सरिदपहृतशैत्यः
भ्रमति भुवि किमेष्यच्छूरभीत्याऽव्यवस्थम् ॥ ८१ ॥
अर्थ
लताओं को किञ्चित् कँपाकर प्रभातकाल में खिली हुए कमल पंक्ति के उत्कृष्ट पराग की लक्ष्मी का चौर, नदी से शीतलता का अपहरण करने वाला यह वायु पृथिवी पर क्या आने वाले सूर्य के भय से मर्यादा रहित होकर भ्रमण कर रहा है?
लक्ष्मीं तथाम्बरमथात्मपरिच्छदं च, मुञ्चन्तमागमितयो गमिवास्तकामम् । दृष्ट्वे शमल्परुचिमुज्झति कामिनीव, तं यामिनी प्रसरमम्बुरुहाक्षि पश्य ॥ ८२ ॥
अर्थ :- हे कमललोचने! देखो ! स्वामी उस चन्द्रमा को अल्पकान्ति अथवा अल्पेच्छ देखकर लक्ष्मी, आकाश एवं अपने परिवार को छोड़ते हुए अस्ताभिलाष (अथवा निरस्तकाम) अभ्यस्ताध्यात्म के समान रात्रि कामिनी के समान विस्तार को छोड़ रही है । अवशमनशद्धीतः शीतद्युतिः स निरम्बरः, खरतरकरे ध्वस्यद्ध्वान्ते रवावुदयोन्मुखे । विरलविरलास्तञ्जायन्ते नभोऽध्वनि तारकाः, परिवृढदृढीकाराभावे बले हि कियद्बलम् ॥ ८३ ॥
अर्थ
तीक्ष्ण किरण, नष्टान्धकार सूर्य के उदयोन्मुख हो जाने पर वह चन्द्रमा भयभीत होकर निर्वस्त्र होकर मानों अवश हो गया हो, इस प्रकार अदृश्य हो गया ।
(१५७)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - १० ]
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
आकाशमार्ग में तारागण अत्यधिक विरल होकर अस्त हो गए। ठीक ही है नायक के । दृढीकार के अभाव में सेना में बल कितना होता है।
गम्भीराम्भःस्थितमथजपन्मुद्रितास्यं निशायामन्तर्गुञ्जन्मधुकरमिषानूनमाकृ ष्टिमन्त्रम्। प्रातर्जातस्फुरणमरुणस्योदये चन्द्रबिम्बा
दाकृष्याब्जं सपदि कमलां स्वाङ्कतल्पीचकार॥८४॥ अर्थ :- गम्भीर जल में स्थित निश्चित रूप से रात्रि के मध्य में गुंजन करते हुए भौरे के बहाने से जिसका मुख ढक गया है ऐसा होने पर आकर्षण मन्त्र का जाप करते हुए प्रातः जिसे मन्त्र की सिद्धि हुई है ऐसे कमल ने लक्ष्मी को चन्द्रबिम्ब से खींचकर शीघ्र ही अपनी गोद रूप शय्या पर रख दिया।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि, र्धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान्। वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये दिशासङ्ख्यभाग्॥१॥ कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लकुमारचरितादि महाकवित्व से युक्त नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील रहें । उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में यह दिशाओं की संख्या वाला अर्थात् दसवाँ सर्ग समाप्त हुआ। इति श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ति श्री जयशेखरसूरि विरचित
जैनकमारसम्भव महाकाव्य का दशम सर्ग समाप्त हुआ।
100
(१५८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- अनन्तर दिशा रूप स्त्रियों के मुखों को प्रसन्न करता हुआ अन्धकार रूप शत्रु का निराकरण करने का इच्छुक, पर्वतों के शिखर पर चरण रखे हुए ग्रहों का स्वामी (सूर्य) उदय को प्राप्त हुआ।
अर्थ
११. एकादशः सर्गः
निराकरिष्णुस्तिमिरारिपक्षं, महीभृतां मौलिषु दत्तपादः । अथ ग्रहाणामधिभूरुदीये, प्रसादयन् दिग्ललनाननानि ॥ १ ॥
तमिस्त्रबाधाम्बुजबोधधिष्ण-मोषाम्बुशोषाध्वविशोधनाद्याः ।
अर्थक्रिया भूरितरा अवेक्ष्य-वेधा व्यधादस्य करान् सहस्रम् ॥ २ ॥
अन्धकार की पीड़ा, कमलों का विकास, नक्षत्रों का लोप, जल का सूखना, मार्गशोधन आदि प्रचुर पदार्थों की क्रियाओं को देखकर ब्रह्मा ने इस सूर्य की हजार किरणें बना दी ।
-:
प्रातः प्रयाणाभिमुखं तमिस्त्रं, कोकास्यमालिन्यसरोजमोहौ । आलम्ब्य सार्थं न हि मार्गमेको, गच्छेदितिच्छेदितवन्न नीतिम् ॥ ३ ॥ अर्थ : - प्रातः गमन के सम्मुख चक्रवाकों के मुखों की मलिनता और कमलों के मोह रूप दो पथिकों का सहारा लेकर अन्धकार एक मार्ग से नहीं जाता है, इस नीति का छेदन नहीं किया ।
तमो ममोन्मादमवेक्ष्य नश्यदेतैरमित्रं स्वगुहास्वधारि । इति कुधेव द्युपतिर्गिरीणां मूर्खो जघानायतकेतुदण्डैः ॥ ४॥
"
अर्थ :- अन्धकार मेरे उन्माद को देखकर भाग गया, इन पर्वतों ने मेरे शत्रु अन्धकार को अपनी गुफाओं में धारण कर लिया मानों इस कारण क्रोधित होते हुए से सूर्य ने पर्वतों के मस्तक पर विस्तीर्ण किरणदण्डों से प्रहार किया ।
क्षाराम्बुपानादनिवृत्ततृष्णः, पूर्वोदधेरेष किमौर्ववह्निः ।
नदीसर: स्वादुजलानि पातुमुदेति कैश्चिज्जगदे तदेति ॥ ५ ॥
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ११ ]
(१५९)
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- उस अवसर पर कुछ पुरुषों ने यह पूर्वसमुद्र से क्या वडवानल खारे जल के पाने से तृषा शान्त न होने पर नदी और तालाब के स्वाद युक्त जल को पीने के लिए उदित हुआ है, यह कहा।
इन्दोः सुधास्त्रःविकरोत्सवज्ञा-विज्ञातभाव्यर्ककरोपतापा।
व्याजानिशाजागरगौरवस्य, शिश्ये सुखं कैरविणी सरस्सु॥६॥ अर्थ :- चन्द्रमा की आकृति को बर्षाने वाली किरणों के उत्सव को जानने वाली तथा आगामी सूर्य की किरणों के ताप को जानने वाली कुमुदिनी रात्रि में जागरण के गौरव के बहाने से सरोवरों में सुखपूर्वक सोयी।
बद्धाञ्जलिः कोशमिषाद्गतेना, जातश्रियं पङ्कजिनीं दिनाप्त्या।
जहास यत्तद्व्यसने निशायां, कुमुद्वती तत् क्षमयाम्बभूव ॥७॥ अर्थ :- दिन की प्राप्ति होने से जिसको शोभा प्राप्त हो गई है, ऐसी कमलिनी के प्रति कोश के बहाने से जिसने अञ्जलि बाँधी है, ऐसी कुमुदिनी ने, रात्रि में जो कि कमलिनी के कष्ट में होने पर हँसी की थी, उसे क्षमा कराया।
देहेन सेहे नलिनं यदिन्दु-पादोपघातं निशि तं ववाम।
पराभवं सूरकराभिषङ्गे, प्रगे हृदो निर्यदलिच्छलेन॥ ८॥ अर्थ :- कमल ने रात्रि में जो चन्द्रमा की किरणों के प्रहार को शरीर से सहन किया। (वह) प्रातःकाल में सूर्य की किरणों का संसर्ग होने पर हृदय से निकलते हुए भौंरों के बहाने से उस पराभव को प्रकट करता था।
भित्त्वा तमःशैवलजालमंशु-मालिद्विपे स्फारकरे प्रविष्टे।
आलीनपूर्वोऽपससार सद्यो, वियत्तडागादुडुनीडजौघः॥ ९॥ अर्थ :- अन्धकार रूप शैवाल के समूह को भेदकर प्रौढ़ किरणों वाले (महाशुंडादण्ड वाले) सूर्य रूप हाथी के प्रविष्ट होने पर नक्षत्र रूप पक्षि समूह पूर्व में निविष्ट होकर तत्काल आकाश रूप सरोवर से हट गया।
किञ्चित् समासाद्य महः पतङ्ग-पक्षः क्षपायां यदलोपि दीपैः।
तां वैरशुद्धिं व्यधिताभिभूय, दीपान् प्रगे कोऽप्युदितः पतङ्ग॥१०॥ अर्थ :- दीपों से रात्रि में कुछ तेज प्राप्त कर शलभ पक्ष (पक्ष में-सूर्य पक्ष) ने जो लोप किया, प्रभात में किसी सूर्य (शलभ) ने उदित होकर दीपकों का तिरस्कार कर (उस) वैर की शुद्धि की।
(१६०)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
गते रवौ संववृधेऽन्धकारो, गतेऽन्धकारे च रविर्दिदीपे।
तथापि भानुः प्रथितस्तमोभिदहो यशो भाग्यवशोपलभ्यम्॥११॥ अर्थ :- सूर्य के चले जाने पर अन्धकार वृद्धि को प्राप्त हुआ और अन्धकार के चले जाने पर सूर्य देदीप्यमान हुआ। फिर भी सूर्य अन्धकार का भेदन करने वाले के रूप में प्रसिद्ध हुआ। आश्चर्य है, यश भाग्यवश प्राप्य होता है।
कृतो रटद्भिः कटुलोकको-च्चाटोनिशाटैस्तमसो बलाद्यैः।
सूरे तमो निघ्नति मौनिनस्ते, निलीय तस्थुर्दरिणो दरीषु॥१२॥ अर्थ :- जिन उल्लूआं ने अन्धकार के बल से कटु शब्द करते हुए लोगों के कानों में उचाट उत्पन्न की वे उल्लू सूर्य के द्वारा अन्धकार का विनाश होने पर भययुक्त होकर मौन होते हुए गुफाओं में छिपकर बैठ गए।
कोकप्रमोदं कमलप्रबोधं, स्वेनैव तन्वंस्तरणिः करेण।
नीतिं व्यलंघिष्ट न पोष्यवर्गेष्वनन्यहस्ताधिकृतिस्वरूपाम्॥ १३॥ अर्थ :- सूर्य ने चक्रवाकों के हर्ष को तथा कमलों के विकास को अपनी किरणों (अथवा हाथों) से करते हुए पोष्य वर्गों में अन्य की हस्ताधिकृति न होने रूप स्वरूप वाली नीति का उल्लंघन नहीं किया।
इलातले बालरवेर्मयूखै-रुन्मेषिकाश्मीरवनायमाने।
सुमङ्गला कौङ्कुममङ्गरागं, निर्वेष्टुकामेव मुमोच तल्पम् ॥ १४॥ अर्थ :- पृथिवी तल पर बालसूर्य की किरणों से खिले हुए काश्मीर के वन के समान सुमङ्गला ने कुङ्कुम के अङ्गराग का उपभोग करने की इच्छा से मानों शय्या छोड़ी।
जलेन विश्वग्विततैस्तदंशु-जालैरभेदं भजता प्रपूर्णाम्।
करे मृगाङ्कोपलवारिधानी, कृत्वा सखी काप्यभवत्पुरोऽस्याः॥१५॥ अर्थ :- कोई सखी हाथ में चारों ओर से फैलाए हुए चन्द्रकान्तमणि निर्मित प्रस्तर के किरण समूहों से अभेद को प्राप्त करने वाले जल से पूर्ण चन्द्रकान्तमणि निर्मित कमण्डलु को बनाकर सुमङ्गला के आगे हो गयी।
सुमङ्गलाया मृदुपाणिदेशे, सा मुञ्चती निर्मलनीरधाराः।
उल्लासयन्ती गुरुभक्तिवल्ली, कादम्बिनीवालिजनेन मेने ॥ १६॥ अर्थ :- सखी वर्ग के द्वारा सुमङ्गला के कोमल हाथ में निर्मल जल की धारा छोड़ती हुई, गुरुभक्ति रूपी लता को बढ़ाती हुई वह स्त्री मेघसमूह के समान मानी जा रही थी।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
(१६१)
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
पानी ने दम्भ को छोड़ी हुई रानी सुमङ्गला के मुखचन्द्र का सम्पर्क किया उस कारण पानी कर्मशील विद्वानों के द्वारा संसार में कृतामृत नाम वाली जीवनता को प्राप्त
हो गया ।
यदम्भसा दम्भसमुज्झिताया, राज्ञ्या मुखेन्दोर्विहितोऽनुषङ्गः । कृतामृताख्यं कृतकर्मभिस्त - ज्जगत्सु तज्जीवनतां जगाम ॥ १७ ॥
:
मुखं परिक्षालनलग्नवारि लवं चलच्चञ्चलनेत्रभृङ्गम् । प्रातः प्रबुद्धं परितः प्रसक्ता वश्यायमस्या जलजं जिगाय ॥ १८ ॥ अर्थ :- सुमङ्गला के, परिक्षालन से जिसमें जल कण लगे हुए हैं तथा चलते हुए चञ्चल नेत्र रूपी भौरों से जो युक्त है ऐसे मुख ने प्रातः काल विकसित, चारों ओर, जिसके ओस लगी है ऐसे कमल को जीत लिया।
निशावशाद्भूषणजालमस्या, विसंस्थलं सुष्ठ निवेशयन्ती ।
काप्युज्झितं लक्षणवीक्षणस्य, क्षणे करं दक्षिणमन्वनैषीत् ॥ १९ ॥ अर्थ :रात्रि के वश सुमङ्गला के चंचल भूषणसमूह को भली प्रकार धारण करती हुई किसी सखी ने इसके लक्षण देखने के समय छोड़े गए दायें हाथ को मनाया।
यं दर्पणो भस्मभरोपरागं, प्रगेऽन्वभूत् कष्टधिया प्रदिष्ठः ।
तदा तदास्यप्रतिमामुपास्य, सखीकरस्थः प्रशशंस तं सः ॥ २० ॥
अर्थ :- दर्पण ने प्रात:काल कष्टबुद्धि से जिस भस्म समूह के लालरंग को सुकुमारतर अनुभव किया था, उस अवसर पर दर्पण ने सखी के हाथ में स्थित, सुमङ्गला के मुख के प्रतिबिम्ब की सेवा कर उस भस्मसमूह के लाल रंग की प्रशंसा की ।
(१६२)
समाहिता
संनिहितालिपालि-प्रणीतगीतध्वनिदत्तकर्णा ।
उपस्थितं सा सहसा पुरस्ता - दक्षा ऋभुक्षाणमथालुलोके ॥ २१ ॥
अर्थ :- समाधियुक्त समीपस्थ सखियों की श्रेणी के द्वारा की गई ध्वनि पर जिसने कान लगाए थे ऐसी उस चतुर सुमङ्गला ने इन्द्र को शीघ्र ही आगे उपस्थित देखा ।
युगादिभर्तुर्दयितेति तीर्थं तां मन्यमानः शतमन्युरूचे ।
नत्वाञ्जलेर्योजनया द्विनाल - नालीककोशभ्रममादधानः ॥ २२॥
अर्थ :अञ्जलि की योजना से दो नाल वाले कोश की भ्रांति को धारण करते हुए इन्द्र ने युग के आदि स्वामी की पत्नी सुनन्दा को तीर्थ मानते हुए नमस्कार कर
कहा ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ११]
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिच्छदाप्यायक सौम्यदृष्टे, मृगेक्षणालक्षणकोशसृष्टे । जयैकपत्नीश्वरि विश्वनाथ, श्रीमञ्जुहृत्पञ्जरसारिकेत्वम् ॥ २३ ॥
अर्थ :हे परिवारजनों पर मनोहर शान्त दृष्टि रखने वाली ! हे मृगनयनी स्त्रियों के लक्षण रूप भण्डार की सृष्टि ! हे एकपलीश्वरि ! हे आदिनाथ की लक्ष्मी के मनोहर हृदय रूप पिंजड़े की मैना ! तुम जयशील हो ।
जाता महीधादिति या शिला सा, त्वां स्पर्धमानास्तु जडा मृडानी । अम्भोधिलब्धप्रभवेति मत्सी, न श्रीरपि श्रीलवमश्नुते ते ॥ २४ ॥
अर्थ :- वह पार्वती तुमसे स्पर्द्धा करती हुई जड़ होवे जो पर्वत से उत्पन्न हुई है, अतः शिला है । लक्ष्मी भी तुम्हारे अंश को भी प्राप्त नहीं करती है । वह समुद्र से उत्पन्न है अतः मछली के तुल्य है ।
केनापि नोढा स्थविराङ्गजेति, या निम्नगाख्यामपि कर्मणाप्ता ।
पपात पत्यौ पयसां पिपर्ति, कथं सरस्वत्यपि सा तुलां ते ॥ २५ ॥ अर्थ :जो बूढ़े ब्रह्मा की पुत्री है, अतः उसे किसी ने विवाहा नहीं है, जो कर्म से (सरस्वती) नदी नाम को प्राप्त करती हुई समुद्र में गिर गयी। वह सरस्वती भी तुम्हारी समता को कैसे प्राप्त करती है ?
या स्वर्वधूः काचन काञ्चनाङ्गी, तुलां त्वयारोढुमियेष मूढा । असारतां किं विबुधैर्विचार्य, रम्भेति तस्या अभिधाव्यधायि ॥ २६ ॥
अर्थ :जिसे सुवर्ण शरीरा किसी देवाङ्गना ने मूढ़ होकर तुम्हारी समता को प्राप्त करने की इच्छा की, विद्वानों ने (अथवा देवों ने) असारता विचार कर उसका क्या रम्भा यह नाम रख दिया।
विशेष :- रम्भा का अर्थ कदली होता है, कदली मध्य में साररहित होती है ।
कलाकुलाचारसुरूपताद्यं, यं तावकं गौरि गुणं गृणीमः ।
मञ्जामहाब्धाविव तत्र मग्ना, वाग् न स्वमुद्धर्तुमधीश्वरी नः ॥ २७ ॥
अर्थ :- हे गौरी! हम तुम्हारे कला, कुलाचार तथा सुरूपतादि गुणों के विषय में कहते हैं। उन गुणों में मग्न हमारी वाणी अपने को निकालने में समर्थ नहीं है । जिस प्रकार बकरी महासमुद्र में डूबने पर अपने आपको निकालने में समर्थ नहीं होती है।
सीमासि सीमन्तिनि भाग्यवत्सु, यल्लोकभर्तुर्हृदयङ्गमासि । यच्चेदृशं स्वप्नसमूहमूह - क्षमं श्रुताधेयधियामपश्यः ॥ २८ ॥
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग- ११ ]
(१६३)
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
हे सीमन्तिनि ! तुम भाग्यवानों में सीमा हो, जो कि युगादीश्वर की हृदयङ्गमा हो । और बहुश्रुतों को विचार करने योग्य इस प्रकार के स्वप्नसमूह को तुमने देखा है। अतः परं किं तव भाग्यमीडे, यद्विश्वनेत्रा निशि लम्भितासि । स्वप्नार्थनिश्चायिकया स्ववाचा, रहः सुधापानसुखानि देवि ॥ २९ ॥
-:
अर्थ :- हे देवि ! तुम्हारे इससे भी अधिक क्या भाग्य की प्रशंसा करें, जो कि जगन्नाथ ने रात्रि में स्वप्न के अर्थ का निश्चय कराने वाली अपनी वाणी से एकान्त में अमृत के पान के समान सुख को प्राप्त कराया है।
अर्थ :अर्थिनी तुम्हें गोरसपान ( सरस्वती रसपान ) कराते हुए श्री ऋषभस्वामी ने रात्रि को भी चित्त में धारण नहीं किया। क्योंकि अर्हन्त भगवान् की आज्ञा, (रूप उपदेश ) " क्षुधा से आतुर व्यक्तियों को भोज कराने में दोष नहीं है", यह है । विशेष :• यहाँ तत्त्वोपदेश रूप भोजन जानना चाहिए, अशन, पान नहीं। गोरस शब्द से सरस्वती रस जानना चाहिए ।
+
न पाययन् गोरसमर्थिनीं त्वां धत्ते स्म चित्ते रजनीमपीशः । क्षुधातुरं भोजयतां न दोषा, दोषापि यस्मादियमर्हदाज्ञा ॥ ३० ॥
कदाचिदुद्गच्छति पश्चिमायां, सूरः सुमेरुः परिवर्तते वा । सीमानमत्येति कदापि वार्धिः, शैत्यं समास्कन्दति वाश्रयाशः ॥ ३१ ॥ सर्वसहत्वं वसुधाऽवधूय श्वभ्रातिथित्वं भजते कदाचित् । रम्भोरु दम्भोरगगारुडं ते, वचो विपर्यस्यति न प्रियस्य ॥ ३२ ॥ अर्थ : हे कल्याणि ! कदाचित् सूर्य पश्चिम दिशा में निकले, कभी सुमेरु अपने स्थान से चलायमान हो, कभी समुद्र मर्यादा का उल्लंघन करे, कभी अग्नि शीतल हो जाए, कदाचित् पृथ्वी सब कुछ सहन करने को छोड़कर पाताल के अतिथिपने का सेवन करे, फिर भी हे कदली के समान जंघाओं वाली ! तुम्हारे प्रिय श्री युगादीश का माया रूप सूर्य के लिए गारुडमंत्र के समान वचन विपरीत रूप में परिणमित नहीं होता है ।
---
(१६४)
यथातथामस्य मनुष्ववाचं, वाचंयमानामपि माननीयाम् ।
पूर्णेऽवधौ प्राप्स्यसि देवि सुनुं, स्वं विद्धि नूनं सुकृतैरनूनम् ॥ ३३ ॥
अर्थ :- हे देवि ! तुम भगवान् की सत्य, व्यक्तियों की मान्य वाणी को जानो । हे देवि ! तुम अवधि पूर्ण होने पर पुत्र प्राप्त करोगी । तुम निश्चित रूप से अपने को पुण्यों से सम्पूर्ण जानो ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ११ ]
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
दाता कुलीनः सुवचा रुचाढ्यो, रत्नं पुमानेव न चाश्मभेदः । - तद्रत्नगर्भा भवतीं निरीक्ष्य, तयाख्ययापनपतेतरां भूः॥ ३४॥ अर्थ :- हे देवि! दाता, कुलीन, अच्छे वचन वाला तथा कान्ति से समृद्ध पुरुष ही रत्न है, पाषाण विशेष रत्न नहीं है। अतः आपको रत्नगर्भा देखकर पृथिवी रत्नगर्भा इस नाम से लज्जित होती है।
सुवर्णगोत्रं वरमाश्रितासि, गर्भं सुपर्वागममुद्वहन्ती।
श्रियं गता सौमनसीमसीमां, न हीयसे नन्दनभूमिकायाः॥३५॥ अर्थ :- हे देवि! सुन्दर जिसमें वर्ण है ऐसा जिसका नाम है, इस प्रकार के वर का तुमने आश्रय लिया है (नन्दनवन भूमि के पक्ष में वर-श्रेष्ठ, सुवर्णगोत्रं-मेरु) जिसका देवों से आगमन हुआ है, ऐसे गर्भ को धारण किए हुए हो (पक्ष में-जिसमें देवों का आगम है ऐसे गर्भ को धारण कए हुए हो) तथा असीम सुन्दर मन की शोभा को प्राप्त (पक्ष में-फूलों की शोभा को प्राप्त) तुम नन्दन वन की भूमिका से कम नहीं हो।
रिपुद्विपक्षेपिबलं गभीरा, न भूरिमायैः परिशीलनीया। - गर्भ महानादममुं दधाना, परैरधृष्यासि गिरेर्गुहेव ॥ ३६॥
अर्थ :- हे देवि! गुफा के समान गम्भीर, अत्यधिक माया बहुलों की (अथवा शृगालों की) अनाश्रयणीय तुम महान् कीर्तिशाली (पक्ष में-सिंह) शत्रुरूप हाथियों का तिरस्कार करने वाला जिसका बल है ऐसे इस गर्भ को धारण करती हुई पर्वत की गुफा के समान अन्यों के द्वारा जानने योग्य नहीं हो। - जित्वा गृहव्योममणी स्वभासा, ध्रुवं तव प्रोल्लसिता सुतेन।
तत्तेन मध्ये वसताभ्रगेह-द्वयीव धत्से नवमेव तेजः॥ ३७॥ अर्थ :- हे देवि! आपका पुत्र अपनी कान्ति से दीपक और सूर्य को जीतकर निश्चित
रूप से अत्यधिक सुशोभित होगा। अतः उसके उदर में निवास करने पर आकाश और ... गृह के समान नवीन ही तेज को धारण कर रही हो। अथवा आकाशगृह के समान तेज को धारण कर रही हो।
सूते त्वया पूर्वदिशात्र भास्व-त्युल्लासिनेत्राम्बुजराजि यत्र।
दृष्टामृताघ्राणसुखं वपुर्मे , सरस्यते तद्दिनमर्थयेऽहम् ॥ ३८॥ अर्थ :- मैं उस दिन को चाहता हूँ, जिसमें पूर्व दिशा के सदृश तुमसे देदीप्यमान विकसित नेत्रसमूह रूप कमल अमृत से तृप्ति रूप सुख को व इस पुत्र के होने पर, मेरा शरीर सरोवर के समान आचरण करे। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
६६५)
www.jainelibrary:org -
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- देवाङ्गनायें स्वर्ग जाकर संभोग के अवसर पर पीड़ित होकर प्रिय के द्वारा आलिङ्गन किए जाने पर भी वैसा सुख नहीं जानेंगी, जैसा तुम्हारे पुत्र का आलिङ्गन कर प्रसन्नता प्राप्त कर तथा पृथिवी को क्रीडा के लिए पाकर सुख का अनुभव करेंगी। अस्मिन् मयैकासनसन्निविष्टे, मत्तो महत्त्वादिगुणैरनूने । चिह्नरिलास्पर्शनिमेषमुख्यै- रस्यैव मां लक्षयितामरौघः ॥ ४० ॥
अर्थ :हे देवि ! मेरी अपेक्षा महत्त्वादि गुणों से सम्पूर्ण इस तुम्हारे पुत्र के मेरे साथ एक आसन पर बैठने पर देवसमूह इस पुत्र के ही पृथिवीतलस्पर्शादि चिह्नों से मुझे
लक्षित करेगा ।
प्राप्ता भुवं खेलयितुं तनूजं, तवोपगुह्याप्तमुदस्त्रिदश्यः । तथा रतिं न स्वरितारतार्त-प्रियोपगूढा अपि बोधितारः ॥ ३९॥
अर्थ
इस तुम्हारे पुत्र के तलवार पर हाथ रख हाथी पर चढ़कर युद्ध के लिए प्रयाण करने पर कुछ भागते हुए शत्रु राजा शरीर की उच्चता तथा अन्य शरीर की गुरुता निन्दा करेंगे।
की
-:
अर्थ
-:
अस्मिन्नसिव्यग्रकरे करीन्द्रा - रूढे रणाय प्रयतेऽरिभूपाः । पलायमाना वपुषो विगास्यन्त्युच्चत्वमेके गुरुतां तथान्ये ॥ ४१ ॥
हे देवि ! बाण के अन्तिम भाग में अक्षरों के देखने से जिनका गर्व नष्ट हो गया है ऐसे देव भी संग्राम न करने पर भी इस तुम्हारे पुत्र का नाट्य करके दासपने को प्राप्त
होंगे ।
अस्येषु पुंखक्षरवीक्षणेन, क्षरन्मदाः संख्यमतन्वतोऽपि । यास्यन्ति दास्यं समुपास्य लास्यं, दूरे मनुष्या दनुजारयोऽपि ॥ ४२ ॥
अस्मिन् दधाने भरताभिधानमुपेष्यतो भूमिरियं च गीश्च ।
विद्वद्भुवि स्वात्मनि भारतीति, ख्यातौ मुदं सत्प्रभुलाभजन्माम्॥४३॥
(१६६)
अर्थ :- इस तुम्हारे पुत्र के भरत नाम धारण करने पर यह भूमि और सरस्वती विद्वज्जनों के स्थान में 'भारती' इस ख्याति के होने पर सुस्वामि की प्राप्ति से समुत्पन्न मोद को प्राप्त करेगी ।
उदच्यमाना अपि यान्ति निष्ठां, सूत्रेषु जैनेष्विव येषु नार्थाः ।
तेषां नवानां निपुणे निधीनां, स्वाधीनता वर्त्स्यति ते तनूजे ॥ ४४ ॥
अर्थ :- जिन निधियों में से निकाले जाने पर भी पदार्थ जिनेन्द्र भगवान् के आगम के
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ११ ]
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
समान क्षय को प्राप्त नहीं होते हैं । हे निपुणे! उन नव निधियों की स्वाधीनता तुम्हारे पुत्र में होगी। विशेष :- निधियों का आधुनिक दृष्टि से अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ये निधियाँ शिल्प शालायें थीं । काल नाम की निधि में ग्रन्थ मुद्रण या ग्रन्थ लेखन का कार्य होता था। साथ ही वाद्य भी इसी शिल्पशाला द्वारा उत्पन्न किए जाते थे। महाकालनिधि शिल्पशाला में विभिन्न प्रकार के आयुध तैयार किए जाते थे। नैसर्ग्य निधि में शय्या, आसन एवं भवनों के उपकरण तैयार किए जाते थे। भवन बनाने का कार्य भी इसी शिल्पशाला द्वारा सम्पन्न होता था। विभिन्न प्रकार के धान्यों और रसों की उत्पत्ति पाण्डु की निधि-उद्योग, व्यवसाय द्वारा सम्पन्न होती थी। पद्मनिधि नामक व्यवसाय केन्द्र से रेशमी एवं सूती वस्त्र तैयार होते थे। दिव्याभरण एवं धातु सम्बन्धी कार्य पिङ्गल नामक व्यवसाय केन्द्र में सम्पन्न किए जाते थे। माणव नामक उद्योग-गृह से शस्त्रों की प्राप्ति होती थी। प्रदक्षिणावर्त नामक उद्योगशाला में सुवर्ण तैयार किया जाता था। शंख नामक उद्योगशाला में स्वर्ण की सफाई कर उसे शुद्ध रूप में उपस्थित किया जाता था। सर्वरत्न नामक उद्योग शाला नील, पद्मराग, मरकतमणि, माणिक्य आदि विभिन्न प्रकार की मणियों की खान से निकालकर उन्हें सुसंस्कृत रूप में उपस्थित करने का कार्य करती थी।
न मानवीष्वेव समाप्तकामः, प्रभामयीं मूर्तिमुपेतयासौ।
समाः सहस्त्रं सुरशैवलिन्या, समं समेष्यत्युपभोगभङ्गीः॥ ४५ ॥ अर्थ :- हे देवि! तुम्हारा पुत्र मानवीयों में असम्पूर्ण अभिलाष होकर कान्तिमयी आकृति को प्राप्त देवनदी (गङ्गा) के साथ एक हजार वर्ष विलासादि सुख के प्रकारों को प्राप्त करेगा।
सत्धर्मिकान् भोजयतोऽस्य भक्त्या, भक्तैर्विचित्रैःशरदां समुद्रान्।
भक्तेश्च भुक्तेश्च रसातिरेकं, वक्तुं भविष्यत्यबुधा बुधाली॥ ४६॥ अर्थ :- तुम्हारे इस पुत्र के द्वारा सुश्रावकों को भक्ति से विचित्र अन्नों से वर्षों के समुद्र (कोटाकोटी) तक खिल जाने पर भक्ति और भुक्ति के रसाधिक्य को कहने में विद्वत् श्रेणी अजानकार होगी।
निवेशिते मूर्ध्यमुना विहार-निभे मणिस्वर्णमये किरीटे।
न सुभ्र भर्ता किमुदारशोभां, भूभृद्वरोऽष्टापदनामधेयः॥ ४७॥ अर्थ :- हे सुन्दर भौंह वाली! इस तुम्हारे पुत्र के द्वारा प्रासाद के सदृश मणि तथा
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
(१६७)
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुवर्ण से निर्मित मुकुट के मस्तक पर रखने पर अष्टापद नामवाला पर्वतश्रेष्ठ (राजा उदारशोभा को क्या नहीं धरेगा? अपितु धरेगा ही। __ तथैष योगानुभवेन पूर्व-भवे स्वहस्तेऽकृत मोक्षतत्त्वम्।
स्वरूपवीक्षामदकर्मबन्धात्-त्रातुं यथाऽऽसत्स्यति तद्रयेण॥४८॥ अर्थ :-- इस तुम्हारे पुत्र ने पूर्वजन्म में योग की सामर्थ्य से अपने हाथ मोक्षतत्त्व उर प्रकार किया कि वह मोक्षतत्त्व वेगपूर्वक स्वरूपदर्शन से मद कर्म के बन्ध से रक्ष करने में आसन्न होगा।
एवं पुमर्थप्रथने समर्थः, प्रभानिधिः:स्व्यनिरासनिष्ठः।
पाल्यो महोास्तव पद्मराग, इव प्रयत्नान्न न गर्भगोऽयम्॥४९॥ अर्थ :- हे देवि! इस प्रकार पुरुषार्थ के विस्तारण में समर्थ प्रभा निधि, दारिद्रय के निराकरण में तत्पर यह गर्भस्थ पुत्र महापृथिवी के पद्मराग के समान महोद्यम से (क्या पालनीय नहीं है? अपितु पालनीय ही है।
गीर्वाणलोकेऽस्मि यथा गरीयां-स्तथा नृलोके भविता सुतस्ते।
वयस्थ एवात्र सदृग्वयस्य-सम्पर्कसौख्यानि गमी ममात्मा॥५०॥ . अर्थ :- जिस प्रकार मैं देवलोक में श्रेष्ठ हूँ, उसी प्रकार तुम्हारा पुत्र मनुष्य लोक में श्रेष्ठ होगा पुत्र के यौवन प्राप्त करते ही मेरी आत्मा समान मित्र के सम्पर्क के सौख्यों को प्राप्त होगी।
इत्युक्तिभिर्वृष्टसिताम्बुमेघ-घाममोघां मघवा विधाय।
तिरोदधे व्योमनि विद्युदर्चिः-स्तोमं स्वभासा परितो वितत्य ॥५१॥ अर्थ :- आकाश में अपनी कान्ति से चारों ओर विद्युत के तेज समूह का विस्तार कर इन्द्र इस प्रकार की उक्तियों से जिसने मधर वर्षा की है ऐसे मेघ की प्रशंसा को सफल कर अदृश्य हो गया।
तस्मिन्नथालोकपथाद्विभिन्ने, हन्नेत्रराजीवविकाशहतौ।
सा पद्मिनीवानघचक्रबन्धौ, क्षणात्तमः श्याममुखी बभूव ॥ ५२॥ अर्थ :- अनन्तर हृदय और नेत्रकमल के विकाश के हेतु, निष्पापों के समूह में बन्ध सदृश (पक्ष में-निर्दोष सूर्य के) इन्द्र के आलोक पथ से पृथक् होने पर वह सुमङ्गला कमलिनी के समान क्षण भर में विषाद से श्याम मुख वाली हो गई।
अवोचदालीरुपजानुपाली-भूय स्थिता गद्गदया गिरा सा। अतृप्त एवात्र जने रसस्य, हला बलारिय॑रमत् किमुक्तेः॥५३॥
(१६८)
- [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- सुमङ्गला ने गद्गद् वाणी से समीप की श्रेणि में स्थित सखियों से कहा । हे सखियों! इन्द्र इस व्यक्ति के रस से तृप्त हए बिना ही उक्ति से विराम को क्यों प्राप्त हो
गया।
दौःस्थ्यं किमस्यापि कथाप्रथासु,न्यासोचिता वा किमु नास्मि तासाम्।
वाणीरसे मामसमाप्तकामां, विहाय यत्सैष ययौ विहायः॥ ५४॥ अर्थ :- इन्द्र की भी कथा प्रथाओं में क्या दारिद्रय है अथवा उन कथा परम्पराओं को मैं धारण करने के योग्य नहीं हूँ जो कि यह इन्द्र वाणी रस में असम्पूर्ण अभिलाषा वाली मुझे छोड़कर आकाश में चले गए।
यस्यामृतेनाशनकर्म तस्य, वचः सुधासारति युक्तमेतत् ।
पातुः पुनस्तत्र निपीयमाने, चित्रं पिपासा महिमानमेति ॥ ५५॥ अर्थ :- जिस इन्द्र का अमृत से आहार है, उसके वचन अमृत की वर्षा के समान होते हैं, यह बात ठीक ही है। पुनः आश्चर्य है कि उन वचनों का पान करने पर पीने वाले की प्यास महत्त्व को प्राप्त होती है।
न मार्जितावत्कवलेन लेह्या, न क्षीरवच्चाञ्जलिना निपेया।
अहो सतां वाग् जगतोऽपि भुक्त-पीतातिरिक्तां विदधाति तुष्टिम् ॥५६॥ अर्थ :- आश्चर्य है, सज्जनों की वाणी भोजन के समान ग्रास से आस्वाद नहीं है और दूध के समान अञ्जलि से पीने योग्य नहीं है। सज्जनों की वाणी संसार की भोजन और (क्षीर) पान से भी अधिक तुष्टि करती है।
न चन्दनं चन्द्रमरीचयो वा, न वाप्यपाचीपवनो वनी वा।
सितानुविद्धं न पयः सुधा वा, यथा प्रमोदाय सतां वचांसि॥५७॥ अर्थ :- न तो चन्दन, न चन्द्रमा की किरणें, न दक्षिण दिशा का पवन, न महद्वनं अथवा शर्करा मिश्रित दूध अथवा अमृत उस प्रकार प्रमोद के लिए होते हैं। जैसे सत्पुरुषों के वचन प्रमोद के लिए होते हैं।
अङ्गष्ठयन्त्रार्दनया ददानौ, रसं रसज्ञा सुधियां रसज्ञे। __सुधा प्रकृत्या किरती परेष्ट-स्तनेक्षुयष्टी न न धिक्करोति ॥५८॥ अर्थ :- रसज्ञ पुरुष. में स्वभाव से अमृत का विस्तार करती हुई विद्वानों की जीभ, अंगूठा और यन्त्र की पीड़ना से रस को प्रदान करने वाले बहु प्रसूता गो के स्तन और इक्षुयष्टि इन दोनों को नहीं धिक्कारती है, ऐसा नहीं है।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
(१६९)
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवेदि नेदीयसि देवराजे, श्रोत्रोत्सवं तन्वति वाग्विलासैः।
दिनो न गच्छन्नपि हन्त सख्यः, कालः किमेवं कुतुकैः प्रयाति ॥५९॥ अर्थ :- हे सखियों! देवराज इन्द्र अत्यधिक समीप में होने पर वाणी के विलासों से श्रोत्रोत्सव करने पर मैंने दिन को जाते हुए भी नहीं जाना।
विज्ञापयाञ्चक्रुरथालयस्तां, विमुग्धचित्ते गतचिन्तयालम्।
स्नातुं च भोक्तुं च यतस्व पश्य, खमध्यमास्कन्दति चण्डरोचिः॥६०॥ अर्थ :- अनन्तर सखियों ने उससे निवेदन किया। हे विमुग्धचित्ते ! बीती हुई बात की चिन्ता मत करो। सूर्य अपने मध्य में आक्रान्त हो रहा है। तुम स्नान और भोजन का उपक्रम करो।
अहो अहः प्राप्यकृतप्रयत्नः, शनैः शनैरुच्चपदोपलब्धौ।
करे खरीभूय नयस्य तत्त्वं, व्यनक्ति सूरेष्वपरेषु सूरः॥ ६१॥ अर्थ :- आश्चर्य है! सूर्य दिन को पाकर धीरे-धीरे उच्चपद की प्राप्ति में कृतप्रयत्न होकर किरणों के प्रति कठोर होकर दूसरे भटों के प्रति ज्ञेय के तत्त्व को प्रकट करता है।
लोकं ललाटन्तपरश्मिदण्डै - रुत्सार्यभानुर्विजनीकृतेषु।
सरस्ववक्रान्वियदन्तरस्थः, क्रोडे करान्न्यस्यति पद्मिनीनाम्॥६२॥ अर्थ :- ललाट को तपाने वाली किरण रूप दण्डों से लोक को दूर कर सूर्य निर्जन किए गए सरोवरों में कमलिनियों की गोद में आकाश के मध्य में स्थित होता हुआ सीधी किरणों को व्यापारित करता है। __पद्मं श्रियः सद्म बभूव भानोः, करैरधूमायत सूर्यकान्तः।
भर्तुः प्रसादे सदृशेऽपि सम्प-त्फलोपलब्धिः खलु दैववश्या॥६३॥ अर्थ :- सूर्य की किरणों से कमल लक्ष्मी का निवासगृह हो गया। सूर्य की किरणों से सूर्यकान्त मणि धूम के समान आचरण करने लगा। स्वामी की कृपा तुल्य होने पर भी सम्पत्तियों की फलोपलब्धि भाग्य के आधीन होती है।
यः कोऽपि दधे निशि राजशब्दं, दिगन्तदेशानियता ययौ सः।
दधासि कस्योपरि तिग्मभावं, पान्थैः श्रमाते रविरेवमूचे॥६४॥ अर्थ :- श्रम से आकुल पथिकों से सूर्य ने, 'जो कोई रात्रि में राजा इस शब्द को धारण करता है वह इतने दिशाओं के छोर को जाता है, तो किसके ऊपर तीव्रपना धारण कर रहे हो', ऐसा कहा।
(१७०).
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
तोयाशया धावित एष पान्थ-व्रातो विमुह्यन् मृगतृष्णिकाभिः।
अप्राप्य तोयं क्षरदश्रुपूरै-रुत्थापयत्यम्बु किलोषरेऽपि॥६५॥ अर्थ :- मृगतृष्णाओं से मोहित करता हुआ यह पथिकों का समूह जल की इच्छा से दौड़ता हुआ जल को न पाकर गिरते हुए आँसुओं के समूह से निश्चित रूप से ऊपर स्थान पर भी जल को प्रकट करता है।
अमी निमीलन्नयना विमुक्त-बाह्यभ्रमा मौनजुषः शकुन्ताः।
श्रयन्ति सान्द्रद्रुमपर्णशाला, अभ्यस्तयोगा इव नीरजाक्षि॥६६॥ अर्थ :- हे कमलनयनी! ये नेत्र बन्द कर बाह्य भ्रम से विमुक्त, मौनयुक्त पक्षी घने वृक्षों की पर्णशाला का आश्रय ले रहे हैं, मानो (इहोंने) योग का अभ्यास किया हुआ हो।
उदीयमानोऽकृत लोककर्म-साक्षीत्यभिख्यामयमाहितार्थाम्।
भास्वानिदानीं तु कृतान्ततात, इति त्विषा त्रासितसर्वसत्त्वः॥६७॥ अर्थ :- इस सब प्राणियों को डराने वाले सूर्य ने उदीयमान होकर 'लोक के कर्म का साक्षी है', इस नाम को सत्यार्थ कर दिया। पुन: इस समय यमराज का भी पिता है इस प्रसिद्धि को सत्यार्थ कर दिया।
इतीरयित्वा विरतास तास, तारुण्यमारूढमहर्निरीक्ष्य। ,
सुमङ्गलाथ स्वयशोनियुक्त-धीमज्जना मज्जनसद्म भेजे॥ ६८॥ अर्थ :- दिन में यौवन को आरुढ़ देखकर सखियों के ऐसा कहकर विरत हो जाने पर आत्मीय यश से विद्वज्जनों को व्यापारित करने वाली सुमङ्गला ने स्नानगृह का सेवन किया।
तद्वक्षोजश्रीप्रौढिमालोक्य हैमैः, कुम्भैर्मंदाक्षेणेव नीचीभवद्भिः।
अम्भः सम्भारभ्राजिभिः स्नानपीठ-न्यस्तां सख्यस्ता मजयामासुराशु॥६९॥ अर्थ :- सखियों द्वारा स्नान के पीढ़े पर रखे हुए जलसमूह से सुशोभित उसके स्तनों की प्रौढ़ता को देखकर मानों (लजा से) आँखें बन्द कर नीचे होते हुए सुवर्ण के कुम्भों ने शीघ्र स्नान कराया।
जगद्भर्तुर्वाचा प्रथममथ जम्भारिवचसा, रसाधिक्यात्तृप्तिं समधिगमितामप्यनुपमाम्। स्वरायातैर्भक्ष्यैः शुचिभुवि निवेश्यासनवरे,
बलादालीपाली चटुघटनयाऽभोजयदिमाम्॥७०॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
(१७१)
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ :- सखियों के समूह ने पवित्र भूमि पर श्रेष्ठ आसन पर, श्री ऋषभदेव स्वामी की वाणी के अनन्तर इन्द्र की वाणी से रस के आधिक्य से अनुपम तृप्ति को प्राप्त होने पर भी इसे बलात् बैठाकर स्वर्ग से आए हुए भोज्य पदार्थों से चाटुकारी पूर्ण वचनों की रचना के साथ खिलाया।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि, र्धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लेलिनीसानुभाक्। वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गों जैनकुमारसम्भवमहाकाव्येयमेकादशः॥ १॥ अर्थ :- कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिलकुमारचरितादि महाकवित्व से युक्त नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील रहें । उनके द्वारा स्वयंनिर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में यह एकादश सर्ग समाप्त हुआ। इती श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्त्ति श्री जयशेखरसूरि विरचित
जैनकुमार सम्भव महाकाव्य का एकादश सर्ग समाप्त हुआ।
000
(१७२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
| जैनकुमारसंभव महाकाव्य में आगत सूक्तियाँ
CM » 3
;
2 AM
विशेषलाभं स्पृहयन्नमूलं स्वं संकटेऽप्युज्झति धीरबुद्धिः॥ १ । १८ धत्तां स एव प्रभुतामुदी दुह्य यस्मिन्न मिथोऽरयोऽपि॥ १।३९ न जन्तुरेकान्तसुखी क्वचिद्भवे ॥ २ । ८० यदुद्भवो यः स तदाभचेष्टितः॥२।९ बलात् किमामन्त्रयते बलाहकः, स यद् बलाकापटलैः परीयते ॥ २ । १४ नयं न भिन्ते विबुधेशिता यतः॥२।१६ तदन्यदर्था हि सतां क्रियाखिला ॥ २ । ५९ त्रपा हि तातोनतया सुसूनुषु ॥२।६३ रिरंसया को न दधाति मन्दताम् ।। २ । ६४ इयतु मेघंकरमारुतत्वमुदेष्यतः कालबलाद् घनस्य ॥ ३। ३ हृद्यो न कस्येन्दुकलाकलापः स्वात्मार्थमभ्यूहति तं चकोरः॥३।३ अश्मापि विस्मापयते जनं किं, न स्वर्णसंवर्मित सर्वकायः॥३।४ क्व नो भविष्यन्त्युपकारशीला: शैलात्सरला इव निर्झरिण्यः॥ ३।६ स्याद्यत्र शक्तेरनवकाशनाशः, श्रीयेत शूरैरपि तत्र साम ॥ ३ । १५ अतात्त्विके कर्मणि धीरचित्ताः प्रायेण नोत्फुल्लमुखी भवन्ति ।। ३ । ३५ को विश्वसेत्तापकरप्रसूतेः॥ ३।७४ न मोघा महतां हि सङ्गतिः॥५। २१ न कोऽथवा स्वेवसरे प्रभूयते ॥ ४।६९ समाधिनिर्धांतधियां न तादृशां स्वभावभेदे विषया प्रभुष्णवः॥४।७२
पानेन तृप्तिरिह चौरिकया न काचित् ॥ ४।७७ २१. न हि सुखकरः सीमसन्धौ निवासः॥ ४॥ ७९
जैनी सेवां यो निर्भरं निर्मिमीते, भोगाद्योगाद्वा तस्य वश्यैव सिद्धिः॥४।८० २३. सात्विको हि भगवान्निजभावं स्वेषु संक्रमयतेऽत्र न चित्रम् ॥५।५ २४. . क्षणफलः क्व नु वामः ।। ५। ८ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य]
(१७३)
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
देहिनां हि सहजं दुरपोहम् ॥५।८ वेद चरितं महतां कः॥५।९ यः समः सकलजन्तुषु योग्यः, स हि प्रदक्षिणयितुं न हि नेतुः॥५। १२ रागमेधयति रागिषु सर्वम् ॥ ५ । १६ युवतीजनवृत्तेः पुंस्यवस्थितिः।। ५ । २९ प्राभवेऽपि नृषु योषिदधीनं भोजनं तदिति को न जगाद ।। ५।३० विश्वरक्षणपरस्य पुरोऽस्याऽचेतनेष्वपि चिरं नहि बन्धः॥ ५। ३१ यः परोऽपि विभुमाश्रयतेऽसौ तस्य पुण्यमनसः खलु पाल्यः॥५।५९ ये द्विषत्सु सहना इह गेहे नर्दिनः प्रणयिनी प्रति चंडाः। ते भवन्तु पुरुषाश्चरितार्थाः श्मश्रुणैव न तु पौरुषभंग्याः॥५।६० अन्तरेण पुरुषं नहि नारी तां विना न पुरुषोऽपि विभाति। पादपेन रुचिमञ्चति शाखा, शाखयैव सकलः किल सोऽपि॥५। ६१ कारिकासु सिकताधिकतायाः किं प्रकुप्यति नदीषु नदीशः॥५। ६५ मान्य एव शुचिरन्तरिहेभ्यस्त्रैणकंठरसिकोऽपि हि हारः॥५। ६६ श्रोत्रयोर्गुरुगिरां श्रुतिरास्ये, सूनृतं हृदि पुनः पतिभक्तिः। दानमर्थिषु करे रमणीनामेष भूषणविधिर्विधिदत्तः॥ ५। ७१ सुभ्रवा सहजसिद्धमपास्यं चापलं प्रसवसद्म विपत्तेः। येन कूलकठिनाश्मनिपाताद्वीचयोंऽबुधिभुवोऽपि विशीर्णाः॥५।७२ भोजिते प्रियतमेऽहनि भुङ्क्ते या च तत्र शयिते निशि शेते। प्रातरुज्झति ततः शयनं प्राक्, सैव तस्य सुतनुः सतनुः श्रीः॥ ५। ७५ उग्रदुर्ग्रहमभंगमयत्न प्राप्यमाभरणमस्ति न शीलम्।। चेत्तदा वहति काञ्चनरत्नैर्वीवधं मृदुपलैमहिला किम् ॥ ५। ७८. मज्जितो ऽपि घनकज्जलपङ्के शुभ्र एव परिशीलितशीलः। स्वर्धनी सलिलधौतशरीरोऽप्युच्यते शुचिरुचिर्न कुशीलः।। ५। ७९ कष्टकर्म नहि निष्फलमेतच्चेतनावदुदितं न वचो यत्। शीलशैलशिखरादवपातः, पातकापयशसोर्वनितानाम् ॥ ५.८० या प्रभूष्णुरपि भर्तरि दासी-भावमावहति सा खलु कान्ता। कोपपङ्ककलुषा नृषु शेषा, योषितः क्षतजशोषजलूकाः॥५। ८१ रोषिताऽवगणिता निहताऽपि प्रेमनेतरि न मुञ्चति कुल्या। मेघ एव परितुष्यति धारा-दंडधोरणिहताऽपि सुजातिः॥ ५। ८२
(१७४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य]
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६.
४७.
४८.
५४.
पद.
कालेन विना क्व शक्तिः ॥ ६।५ अहो कलत्रं हृदयानुयायि कलानिधीनामपि भाग्यलभ्यम् ॥ ६ । ९ सारं कलत्रं क्व कलङ्किनो वा॥ ६।२० विगृह्णते स्वस्य परस्य मत्वा ये स्थाम तानाश्रयते जयश्रीः॥ ६ । २७ शान्तं सतां वर्द्धयितुं विरोध, लोला कथं सौमनसीविलोला।। ६ । ३१ श्रीमान् परस्फातिसहः क्व हन्त॥ ६ । ३५ स्याद्दोषोऽप्यवसरे गुणः॥७। १७ जात्यरत्नपरीक्षायां, बालाः किमी कातित ।।७।६८ किं कृत्रिमं खेलति नेतुरग्रे ॥ ८।३ स्त्रीषु कुतः स्थिरत्वम् । ८ । ५ प्रायोऽबलासु प्रबलत्वमेति, कन्दर्पवीरो विपरीतवृत्तिः॥ ८। १५ सन्देहशल्यं हि हृदोऽनपोढ़मामृत्यु मर्त्यस्य महार्तिदायि॥८।१६ भृशायते चूतलताविलासे साधारणः सर्ववने वसन्तः॥ ८। २० अहो महासुर्महिलासु मोहः॥ ८।२१ राज्ञो हदि क्रीडति किं न मुक्ता कलापसंसर्गमुपेत्य तन्तुः॥ ८॥ २२ न धेये, भस्मापि भाले किमु मन्त्रपूतम् ॥ ८। २३ भक्तुं महाशैलतटी घटीयद्वज्रं किमायस्य तृणं तृणेढि ॥ ८। ४५ कालातिपातं हि सहेत नेतर्न कौतुकावेशवशस्त्वरीव ॥ ८॥ ४६ जाये जगज्जीवनदातुरब्दागमस्य को निन्दति पङ्किलत्वम् ॥ ८॥ ४९ श्रोतांसि संगोप्य जडानि चेतः सचेतनं साक्षिरहो विधाय। सन्दर्शयन्ती तव सारभावान्निद्रा धुरं छेकधियां दधाति ॥ ८।५१ को वा स्वजातौ न हि पक्षपातम् ॥ ८।५२ को वा विना काञ्चनसिद्धिमुर्वीमाधातुमुर्तीमनृणां यतेत ॥ ८।६१ मतित्वरा विघ्नकरीष्टसिद्धेः ॥ ८ । ६२ धत्ते नोत्कण्ठां गर्जिते केकिनी किं मेघस्योन्नत्या ज्ञातवर्षागमाऽपि॥८।६८ न कोऽधिकोत्साहमना धनार्जने, जनेषु को वा नहि भोगलोलुपः। कुतः पुनः प्राक्तनपुण्यसम्पदं विना लता वृष्टिमिवेष्टसिद्धयः॥९। १० स्वजातिधौरेयमनुप्रविश्य यत्प्रभुप्रसादाय यतेत धीरधीः॥ ९ । ४३ सुवर्णनाम्ना हि समर्पिता रिरीभवेत्स्वरूपाधिगमे ऽधिकार्तये ॥९७६ कोशतोऽसिरुदितो भटस्य चेन्नष्टमेव तदसत्त्वदस्युभिः॥ १० । १४
:
१
२३.
६४.
द५.
६६.
६७.
६८.
७१.
७२.
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य]
(१७५)
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४.
७३. प्रभुः नापरस्य परिभाषणोचितः। १० । ३३
रामणीयगुणैकवास्तुनो, वस्तुनः सुकरमर्जनं जने । भाविविप्लवनिवारणं पुनस्तस्य दुष्करमुशन्ति सूरयः॥ १० । ४९ अर्जिते न खलु नाशशङ्कया क्लिश्यमानमनसस्तथा सुखम् । जायते हृदि यथा व्यथाभरो, नाशितेऽलसतया सुवस्तुनि ॥ १० १५० दृष्टनष्टविभवेन वर्ण्यते भाग्यवानिति सदैव दुर्विधः। जन्मतो विगतलोचनं जनं, प्राप्तलुसनयनः पनायति ॥ १० । ५१ जाग्रतोऽस्ति न हि भीः॥१०।५८ लास्यकर्मणि विनिर्मितभ्रमि - र्निर्ममे विधृतकौतुकं न कम् ।। १० । ७० परिवृढदृढीकाराभावे बलेहि कियबलम् ॥ १०। ८३ .. अहो यशो भाग्यवशोपलभ्यम् ॥ ११ । ११ दाता कुलीनः सुवचा रुचाढ्यो रत्नं पुमानेव न चाश्मभेदः॥ ११ । ३४ न मार्जितावत्कवलेन लेह्या न क्षीरवच्चाञ्जलिना निपेया। अहो सतां वाक् जगतोऽपि भुक्तपीतातिरिक्तां विदधाति तुष्टिम् ॥ ११ । ५६ न चन्दनं चन्द्रमरीचयो वा न वाप्यपाचीपवनो वनी वा।
सितानुविद्धं न पयः सुधा वा यथा प्रमोदाय सतां वचांसि ॥ ११ । ५७ ७४. भर्तुः प्रसादे सदृशेऽपि सम्पत्फलोपलब्धिः खलु दैववश्या ॥ ११ । ६३
७८.
८२.
८३.
(१७६)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य]
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
( जैन कुमार सम्भव काव्य के पद्यों का अकारानुक्रम)
आदि-पद
सर्ग-श्लोक सं.
आदि-पद
सर्ग-श्लोक सं.
१०-६८
५-८५
अकाले अकुर्वती अखण्डदं अखण्डयन्त्या अगुप्त अङ्गष्ठ अङ्गेषु अतः परं अतीन्द्रियज्ञान० अत्रेर्द्विजाअथ प्रथमअथ प्रभाहास० अथ प्रभो
७-७२ ७-७० ७-३८ ९-१६
४-३४ ११-५८
८-२५ ११-२९ ८-४५
६-१७
३-४३
३-१
अथ प्रसन्न अथ प्रसादा० अथालय० अथालस
अन्यया अन्ये अपीन्द्राः अन्यै० अपि द्वितीया अपि प्रवृत्ता० अप्यतुच्छतया अप्युर:० अप्सरोभिः अप्राप्य अबाल० अभर्म० अमी अमी धृताः अमीषु अमुक्त० अम्लान० अयं विवादे अयान० अर्चालिषु अर्जिते अद्रं च पूर्ण अलम्भि अलेपि अवश० अवाप्य अवारि० अविश्रमे अवीवृधयां अवेत्य अवेदि अवोचदाली अव्यक्तमुक्तं
८-२९ ८-३७ ४-७२ ७-२८ १०-७० ५-५४ १-७५ ९-२५
४-५४ ६.१-६६ . २-६८ - ४-५
६-३ ७-४२ -९-४५
८-१२
४-५१ १०-५० १-६० ३-४९ ६-१८ १०-८३
२-६६ -६-२२
२-२४ ..२-२७
६-१२ ११-५९ ११-५३ ..१-२७
७-६९
४-१ ४-३ ४-६२
६-१ २-६२ ४-१९ ६-२० १-५३ ३-२२
अथात्र
अथानयत्तस्य अथावतीर्ये अथाश्रयं अथेयिवान अदः कचश्चोतन अदान्मदान्ध्यं अदान्मृदु० अद्यापि अधर्म० अधौत० अनङ्गरूपो अनेन अन्त:ससारेण अन्तरेण
-३९
३
"-२३ १-४१
mm 300
[जैन कुमारसम्भव-पद्यानुक्रम]
(१७७)
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
आदि-पद अंशदेश० अश्रौघदं० असति असावसामान्य असौ अस्तन्यस्तपायीति अस्तागताधार० अस्ति अस्तु अस्त्युत्तरस्यां अस्मिन् अस्येषु अहो अहः आकूतमीक्ष० आकेवलार्चिः आङ्गिकाभिनय० आत्मनः आत्मोचिता० आदौ विराते आद्यापि आधाराधार० आनन्द० आनर्चु० आप्तनिद्रा० आमोक्ष० आलम्बित आशाम्बरः आसतामपं. आसीन्न मे ईस्वाकु० ईहाञ्चक्रे उग्र० उत्तराधर० उत्तरोत्तर० उदच्यमाना
सर्ग-श्लोक सं. | आदि-पद
सर्ग-श्लोक सं. ५-५१ उदग्र०
६-५८ १-२६ उदार०
४-२६ ४-४१ उदार० ९-२८ उदित्वरं
४-२५ उदीयमानो
११-६७ १-२५ उदेष्यतः
९-५१ ८-६५ उद्धृत० ५-७४ उपाचरद्
६-५० १०-२२ उपात्तपाणि
४-१० १-१ उपित्सव० ११-४०, ११-४३ उपर्युरः
१-४५ ११-४२ उपास्य
२-६१ ११-६१ उपाहरन्
३-५२ ८-३६
३-६१ ८-६१ उल्लासयन्ती
६-४४ १०-६९ अचिरे
१०-३२ १०-६६ ऊढवद्विभु०
५-३२ ६-४८ ऋतूचितं
६-५१ ८-५४ एकमूल०
१०-४१ ६-३३ एकया०
१०-७३ ७-५० एकस्वरूपै०
८-५८ ८-५६ एकात्मनोनों
८-५२ एणदृग्०
५-११ ७-२३ एकं पुमर्थ०
११-४९ १-६८ एवं विवाहे
३-३४ ३-५७ एवं सुखा०
८-४० १-२४ एवं स्नात०
३-८१ एवमदुभुत
५-४८ ८-३८ एवमाजनु०
१०-३३ एवमूचुषि०
१०-५९ ८-६८ ओष्ठद्वयं
१-५१ ५-७८ कचान्०
४-२१ ५-४ कज्जलं १०-७७ कटीतटी०
. १-४३ ११-४४ कटीस्तन०
[जैन कुमारसम्भव-पद्यानुक्रम]
१-६७
७-२०
२-४२
(१७८)
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्ग-श्लोक सं.
सर्ग-श्लोक सं.
२-८ ९-१४
४-३५ ४-५७ ७-४४
११-३१
आदि-पद क्रमोन्नत० वचित्खगानां क्वचिद्वायु० क्वचिनिषिक्ता० क्रियां क्रोडीकृतः क्षाराम्बु०
६-५२ २-४७
४-५६ ८-३२
३-२८
१-३७ ६-६५ ३-५६
क्षिपन्
११-५ ७-३६
आदि-पद कथामृतं कदन्न० कदाचिदुद्गच्छति कदापि कनीनिका० कन्ये करे करेणुः करैः करोषि कला० कलाकुलाचार० कलागुरुः कश्मीरवासा कष्टकर्म० कान्त कापि नार्धयमित कार्यमेतज्जनिष्ट कालीयमाली० किञ्चित् किन्तु ते हृदि किं योगिनीयं किं शङ्कशे
११-२७
७-२५ ११-११
८-३९ १०-८४
६-३८ ११-५०
२-३ २-५०
३-५५ ५-८० १०-२८
५-३९ १०-३७
६-५ ११-१० १०-७
६-८ ३-२१
४-६५
क्षोभो० गण्डशैल गते रवौ गदावपुः गम्भीराम्भः गरेण गीर्वाण गुणाद्यमा गुणास्तवाङ्को गृहाण गेयसार० घनत्वमापद्य० घनागम० चकोराणां चतुर्दशस्वप्र० चन्द्राश्मचञ्चत् चापलेऽपि चापल्य० चित्रं चेतस्तुरङ्गं चेद्वस्तु० छत्रमत्रुटित० छायेव जगज्जनो जगत्त्रयी जगद्भर्तु
४-६७ ६-४० ७-३४
कुतः प्रकर्ष
९-१८
९-२९
१-३
५-७३
3
or
१-३८
८-७ ७-६० ८-१७
कुमुद्वती० कुलं कलङ्केन कृतो कृतज्ञ० कृपापयः कृष्णाभ्र० कोकप्रमोदं कोऽपि को बली कौतुकाय कौतुकी कौमारकेलि.
९-८ ११-१२ ९-५८ ४-५८ १-५८ ११-१३
५-१२ १०-७५ १०-२६
७-९ ६-७४
८-१३
३-४६ ४-२७
११-७०
जगद्वरे
४-७०
[जैन कुमारस.. व-पद्यानुक्रम]
(१७९)
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
२-१
९-२६ ४-१३
का
४-१६
२
oro...
१०-७९
३-९
.
११-६९
१
५-१५
९
आदि-पद जगे न जग्राह जडाशया० जनानुराग० जनिर्जिनस्या० जलानियां जलेन जाग्रदेव जाड्यहेतु० जाता० जातौ नः जाने न किं जित्वा जिनेशितु० जिनेषु जुडज्जडिम्रा जैनी सेवां तज्जगद्गुरु० - ततो गुणवजार ततोऽत्य० तत्करे तत्तदुत्तम० तत्तादृगाहार० तत्यजुर्न तत्र चित्रमणि तत्र तो तत्त्वषोडश० तथा कथा: तथापि या तथा प्रसन्नत्व० तथैव तदा तदास्येन्दु० तदा निद्रा तदान्य० तदाभियोग्या
mr.
सर्ग-श्लोक सं. आदि-पद
सर्ग-श्लोक सं. ६-३१ तदा हरे: ३-३७ तदा हृदालोडन० तदीदृश०
९-३२ तदीय०
३-१० तदीय०
४-७३ तदेव देवैः ११-१५ तदेव भूयात्
२-६७ तद्गेहि० तद्भविष्यति
१०-३८ तद्भहर्षा०
८-६६ तयुवामपि
५-८३ तद्वक्षोज०
तनूस्तदीया० ३-४२ तनूस्तदीयाद्
३-६८ तनोषि
३-१५ तपोधनेभ्यः
२-५५ ४तमस्सु
६-१६ ७-६८ तमिस्त्र०
११-२ ७-५३ तमित्रपक्षेपि
१-६ तया स्वप्न०
७-५९ तयोः कपोले
३-६६ १०-५७ तयोरहंपूर्वि०
६-४९ ६-७२ तयोः सपत्न्योरपि
६-४७ तरुक्षरत्सून०
२-३९ १०-२९ तरो० ५-५३ तलं करस्यास्य
४-२९ १०-६४ तव हृदि
२-७२ तस्मान्मनाग० .
८-६२ ९-४० तस्मिन्नथा०
११-५२ तस्याननेन्दा०
१-३९ तस्याः सुषुप्सया
७-१७ तां प्रवीणहृदयो
१०-६७ ७-१९ तां विधाय
१०.३ ४-६० तां ससंभ्रम०
१०-३१ ३-४१ तामेकतो
९-७९ - [जैन कुमारसम्भव-पद्यानुक्रम
HEREFRETREFERENTFSERIES
८-३४
.
११-४
३-५०
४-५५ ११-४८
(१८०)
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिशन्
सर्ग-श्लोक सं.
२-२६ २-२० ४-१२ ९-५० ७-१५ ५-२३ ७-४७ ८-५३
७-७४
a
१-२८
in
८-४४
त्रिरात्र०
w
in
२-१२
आदि-पद
सर्ग-श्लोक सं. आदि-पद तारुण्येन
४-७९ दिवस्पते० तावकेऽपि
१०-१५ दिवाकर० तितांसति
दिवो० तिलोत्तमा
४-५० तूर्णि०
५-४१ दीपाः तृणातुरेणेव
३-६२
दीपिका० तोया या०
७-७७ दीव्यद्देवाङ्गनं तोयाशया०
११-६५ दुर्घोषलाला० तोषविस्मय०
दुर्निमित्तात् त्रातस्त्वयि
८-३१ दूरात् समाहूय त्रिभुवन
३-७९
दृक्कर्म०
६-२५ दृग्युग्म० त्रिलोक
दृशो० त्वं परां
५-६७ दृष्ट नष्ट० त्वत्तः
३-३३ त्वत्सङ्गमात्
८-२४
दृष्ट्वायान्तं त्वदागमा०
३-७ देवदेव० त्वदाननस्य
९-४८ देहेन त्वन्नाम०
८-३३ दोषोन्नति त्वयादृत०
दौःस्थ्यं त्वया यदादौ
९-३३ धुम्नं त्वयेक्षितः
द्राक्षया त्वयैव
द्वारेण त्वामविद्म
द्वितीयकल्पे दक्षिणं
७-१३ द्विष्टोऽपि दत्तदक्षिण
१०-२३ धत्तां० दत्तैर्नमद्भिः
धम्मिल्ल० दत्तोदक०
१-१४ धरातलं ददर्श
२-३० धामेद० दह्यमानाः
७-५ धावता दाता
११-३४ धोधनोचित० दिङ्गगना०
धीराङ्गना० दिगन्त०
९-३४
धूमराशि० दिनवदन०
१०-८१ ध्रुवं दनोदये
९-२४ । ध्वजावलोका जैन कुमारसम्भव-पद्यानुक्रम]
९-२१
८-६७ २-४५ १०-५१ ३-११ ४-७६ ५-७० ११-८
६-५७ ११-५४
१-६४ १०-१२ ३-६९ २-५९ १-६१ १-७२ ३-६४ ९-६४ ६-१३
५-२ १०-५ १-४२
१०-३५
।
२-७, २-६५
९-८३
(१८१)
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्ग-श्लोक सं.
सर्ग-श्लोक सं.
७-३९
२-४
९-१२
९-३ ८-६३
९-१० ६-६८ ३-८० ११-५७ २-१५
२-२२
आदि-पद निनिन्दु० निभालता निभालयन्त्या निमील्य नेत्रे निमेष० निरर्गलं निराकरिष्णु० निरीक्ष्यतां निर्गतं निर्नष्ट निर्निमेष० निर्वात निवासभूमी० निर्विष्ट कौमुदी निविशते निविश्य
९-९ ११-१
२-६३ १०-१४
९-११
७-५५
३-१७ ६-२७
१-४ ४-६३ ८-२१ ११-३० ११-४५ ११-५६
५-४५ ७-२२ २-३३ ७-३५
.१-४७
निविष्ट०
आदि-पद ध्वजो० न कापथे न कोऽधिको नक्तं नखजित० न चन्दनं न चिक्लिशे न जापल:० न तस्य न तस्य नदद्भिरर्हद् न दिव्यया न नाकनाथा० न पाययन् न मानवीष्वेव न मार्जिता नयस्य नयाप्त० नरस्य न रोहणे नवापि नवीनपुण्या नवोदयं न स्त्री० न हि बहि० नाथवक्त्र० नाम्रा न केवले नायक० नारीणां नासौ निजैर्द्विजिह्व० निद्रा तमो निद्राविभृत० निधीनक्षय्य० निध्यायतस्ते (१८२)
९-३९
९-४ ९-७०
४-२ ९-६७
९-२०
६-१९
९-८० १०-४७
७-६१ ५-२७ १-७७ ६-३० ९-१९ ८-४९ ७-२१
निवेश्य यं निशम्य सम्यक् निशानिशा० निशावशाद् नृत्यतो नेत्रपद्म० नेत्रमण्डल० नैयग्रोधो० नैषां न्यभालि० न्यस्तानि न्यस्यन् न्यास्थ० पद्धैर्घनो पंक्ति० पणायितुं पतन्ति ये पथि
६-५५
८-८ १-२१ ८-५५
६-२ ११-१९ ५-३४ ५-७६ ५-५५ ७-५७ ८-५९ ९-५६ ३-७१ ७-३७
६-४ ६-६४ ५-३८ १-११ २-३६ २-२७
। । 9 3 ora
। ।
991
७-३०
८-२०
[जैन कुमारसम्भव-पद्यानुक्रम]
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
आदि-पद पद्मं न चन्द्रं पद्मं श्रियः पद्माकरमयीं पद्मानि पद्मिनी० पयः प्रभो
सर्ग-श्लोक सं.
४-७४ ९-६३ २-३४ ७-२४ ८-३० ४-५३
२-२ ४-४०
परं रुजन्
१-१०
परान्तरिक्षे परार्थ
परार्थदृष्टिं परिच्छदा परिस्फुरन्तं पल्यङ्के पश्चादमुष्या पाणिपीडन० पाणिपूर० पाणिमोचन पाणेस्तलं पातुस्त्रिलोकं पात्रतैल०
सर्ग-श्लोक सं.
आदि-पद ६-३५ प्रगृह्य ११-६३ प्रचेतसापि ७-३१ प्रतिक्षिपं १-५७ प्रथमं सा ५-१७ प्रदुष्ट० ८-२७ प्रबुद्ध० २-७१ प्रभुः ९-४९
प्रभुः प्रतस्थे ६-४६ प्रभुप्रताप ९-७१ प्रभूत० १-३४ प्रभो न यां ११-२३ प्रभोर्विवाहाय ९-५४ प्रभौ प्रसुप्ते ७-७६ प्रमाष्टि
प्ररुढदोषाकर० ५-७ प्रविश्य १०-४२ সুস্বo ५-२० प्रशाधि १-४८ प्रसादयन्त्या० ८-१९ प्रसिद्धा एकः १०-१८ प्रहितं ३-७६ प्रागपि ४-२२ प्रागपि ७-४५ प्राणं जग० ८-९ प्रातः प्रयाणा०
प्राप्तकाल० प्राप्ता
प्रिये ६-५९ प्रिये ६-३६ प्रिये किमेत०
फलानि १-१६ फुल्ल० ४-४९ बद्धधार०
२-९ बद्धवान् ४-२८ । बद्धाञ्जलिः
FEEFEREFERENEFFFFFFFFEEEEEEEEE
२-२५ ९-७३
४-७ ६-७० ८-३० ९-१७
७-५२ १०-७६ ९-६१ ६-६३ ४-५२ ७-३३
५-४६ १०-६० १-५४ ११-३ ५-६८ ११-३९ ८-१६
पारे
६
पिनद्ध० पीयमानोदकं पुरः स्थिता पुरस्सरीभूय० पुरा परारोह पुराश्रितं मां पुष्ट्यर्थः पूर्व रसं पूर्वमप्सरसां पूषेव पूर्वाञ्चल प्रकाश० प्रकृत्य प्रकोष्ठकन्दं
९-६५
८-४८
४-४३
१०-२४ १०-१०
५-१०
[जैन कुमारसम्भव-पद्यानुक्रम]
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
आदि-पद बभार बलं सुतं बलाधिक० बहुत्वतः बाल्य० निभर्तुः बिभ्यती बिभ्रता बुद्धिशुद्धामिति बुद्धवा ब्रह्मादत्र भक्ष्यमादतु० भद्रङ्करी०
३-५८
सर्ग-श्लोक सं. ३-६७, ७-६७
९-३१ ९-४२ ९-१३
५-६ ९-५५ १०-२५ १०-२१ ५-८४ १-६२ ३-१८ ५-२९ ८-५० ८-५
भर्तुः
३-४ ९-४६
४-९
भवद्वये भवन्तु भवान्ममादेश० भवेत् भवे द्वितीये भाग्यैः भारेण मे भित्वा भूषां भृङ्गैः भृशं भोगादमीयः भोगाहिकर्म० भोजिते भ्रान्त्वा मज्जनात् मज्जितोऽपि मणिमय० मत्वा मदश्रुधारा० मधु० (१८४)
आदि-पद
सर्ग-श्लोक सं. मध्येऽनिशं
१-२० मनाक्
९-५ मनाग
६-६६ मनोऽणु०
२-५१ मनोभुवा०
३-३९ मनोरमे मन्तुमन्तमपि
५-६६ मन्त्रपूत०
२-१३ मन्दार०
..-७० मन्दाकिनी० मन्ये मोहमयः
७-६५ मया नभः
९-५२ मयैव
९-६० महातनुः
४-६ महानिशा०
८-१४ महाबल०
२-५८ महामुनीना०
२-४९ महेशितुः
४-२० मां मानवीं
८-२३ मा स्म
३-७२ मा स्म
५-७७ मिथो
४-८ मुक्तिरिच्छति
५-६२ मुखन्यस्ता०
७-४१ मुखं
११-१८ मुञ्च
५-४७ मुहूर्त
४-१४ मृगाक्षि० मेरौ नमेरु०
१-७० मौग्ध्यहेतु०
५-६५ मौनं भेजे
७-७३ यः कोऽपि
११-६४ यः खेलनाद् यः परोऽपि यं दर्पणो
११-२० [जैन कुमारसम्भव-पद्यानुक्रम]
२-५६ ७-२६ १-२९ ११-९ ३-५९ ७-३२ ६-६७ ३-७३ ६-२६ ५-७५ १-५९ ५-४३ ५-७९ ४-६९ ३-१३ ४-४७ ३-१२
९-२२
१-३०
५-१९
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्ग-श्लोक सं.
१-१२ १-५० ६-३४ ६-११
५-१८ १०-१६
८-४३
आदि-पद यच्चाक्रिक० यच्छ्रीपथे यज्जातिवैरं यज्वाल यत्कोक० यत्तदा यत्त्वयौ० यत्र क्वचिद् यत्र ज्वलत्० यत्र त्रिलोकी० यत्र नीलोत्पलो यत्रादृत० यत्रोदरस्थे यथा तथा यथा भ्रमर्यः यथाचिषौ यदक्षत यदम्भसा यदि त्वया यदिन्दिरा० यदिन्दुरा० यदिष्यते यद्दीप० यदीयगारुत्म० यदुच्च० यदुच्चशृङ्गा० यद्वेश्म० यदौषधि० यद्यसौ यन्ननर्त यनिमीलन० यन्मणि० यन्मरीचिः यन्महः यया दृशा
११-४७
७-३ ३-४७ १-१९ ११-३३
४-३१ १-१५ ९-३५ ११-१७ ९-६८ ९-४१ ९-४७ ९-२७
आदि-पद यया स्वशीलेन यशोऽमृतं यशोऽमृतौघः यस्य यस्यामृते याः पुरो या कृत्रिमा या प्रभूष्णु० या योषिदेनं यावद् या वारिधारा या स्वर्वधूः युक्तमेव युक्तं जनानां युगादि० यूनोऽपि ये तयोरशुभ० ये द्विषत्सु येन त्रिलोकी० ये सेवका यो गर्भगोऽपि योगीश्वरो यो बिभर्ति यो श्वासवाता० योषितां यौवतेन रक्ताश्म० रत्नप्रदीप० रत्नभित्ति० रत्नौकसां रसालसालं रामणीयक० रिपु० रुचाञ्जन० रूपमीश०
सर्ग-श्लोक सं.
६-३७ १-७१
२-६ ५-६९ ११-५५
५-२२ .. ८-३
५-८१ ६-२९ ८-६० ६-६० ११-२६ १०-३४
१-९ ११-२२ १-६५ ३-७८ ५-६० १-४९ ३-१४ १-१८ १-७४ १०-४
८-२ ५-६३
।
८-४२
५-४४
२-३७ २-४० २-३२
१-८ २-३५ १०-५५
५-३३ ७-५८
७-७ ५-२५ ५-५०
७-४८
७-७५ १०-२७ .. १-७
१-३३ १०-४९ ११-३६
२-१८ १०-३
[जैन कुमारसम्भव-पद्यानुक्रम]
(१८५)
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
२-११
१०-८२
४-३९
आदि-पद रूपसिद्धि० लक्ष्मी लतागुल्मो लताभयाग लब्धवर्ण० ललाटपट्टे लसद्विशेषा० लावण्य० लोकं ललाटन्तप० लोके सितांशो० लोकोपकाराय वच्मि वज्रिणा वध्वो० वयस्य वरस्य वर्णयेम वर्णेषु वल्भनावसर० वल्ली वस्त्वाकृषन्ती वाग्मिषा० वामनामनि वारिवाह० वार्धिना वासरे वासवोऽथ विचित्रवाद्य० विज्ञापयांचक्रु० वितन्वतां वितेनुषी० विधोरुदीतस्य विनाश्रयं विनिर्यतां विनील०
सर्ग-श्लोक सं. आदि-पद
सर्ग-श्लोक सं. ५-५६ विभुं विभोव्यता०
६-५६ ७-१० वियुक्तवैरा २-१९ विलोक्य यं
१-२३ १०-२ विलग्नदेश
४-४८ ४-२४ विलोकिते
९-६९ १-३२ विलोचनै०
२-२३ ४-७७ विवाहदीक्षा०
६-२४ ११-६२ विवाहहर्म्य
२-२१ ६-२२ विश्रुतस्वर०
१०-६५ ६-६२ विश्वप्रभो
८-१८ ५-५८ विश्ववन्द्य०
१०-३६ ५-१ विश्व०
५-५२ ३-५३ विश्वा०
३-४५ ३-२४ विसृज्य
७-१६ ४-४२ विहाय
४-३८ १०-४६ वीक्ष्य
७-११ १-६३ वृषध्वजेशा
४-३६ ५-२८ वैडूर्य
३-४३ ६-५४ वैधवं
१०-९ ८-३५ वैवाहिके
३-३८ १०-४८ व्यक्त
१-५२ ५-३ व्यलीकता०
९-७६ १०-१३ व्यालम्बि०
७-८ ७-४९ व्यूढेऽस्य
१-४६ १०-५४ व्रजैः
२-१४ ५-३१ शंख एव
:०-७८ ४-५९ शची०
३-७५ ११-६० शचीमुखाः ३-११ शठौ
३-१६ १-५६ शतमख० . ६-२१ शरद्घनः ९-१५ शरन्निशो०
२-३८ ४-४ शिरःस्फुर०
१-५६ २-२९ । शिर:स्वमिन्दि०
२-४८ [जैन कुमारसम्भव-पद्यानुक्रम]
४-७५
४-३७
(१८६)
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्ग-श्लोक सं.
४-२३ ४-७१
४-४५
आदि-पद शिरांसि शिरो० शीतेन शृण्वती० शैत्यं शैलसागर शैशवावधि० श्मश्रुणेव श्यामक० श्रीदेवता० श्रीसर्व०
३-५१
श्रुतश्रियं
श्रुत्योः श्रुत्वा
श्रुत्वेदें
सर्ग-श्लोक सं. | आदि-पद
२-१६ सनिष्कलङ्का २-३१ स पस्पृशे ६-७१ समग्रवाग १०-७१ समानय
समाहिता १०-१७ सम्पन्नकामा ४-४८ सरः ७-५१ सर्वसहत्वं ५-१९ सर्वतो
सर्वसार० ३-३० स वज्रजंघो
२-५ ससीमसर्वार्थ ८-५७ सांराविणं ८-४७ साथ० ९-७८ साधारण १-५५ साधितस्वर० ७-१२ साराङ्गरागैः ५-७१ सा सखी
सिञ्च० ८-५१ सिन्धुरोधक्षम
सीमासिक ८-४ सुचारु० १-७३ सुतस्तवैवा०
सुदति० ६-४५ सुदुर्वचं ३-६३ सुधानिधानं २-४४ सुपर्व०
सुपर्वगन्धर्व ६-४२ सुपर्वसु ६-४३ सुभ्रवां
सुमङ्गला० १०-६२ सुमङ्गला० ७-२९ सुमङ्गलाया २-५७
सुरद्रुमाद्या० १-४४ । सुवर्ण
४-६४ ११-२१
१-२ ९-५९ ११-३२ १०-१९ १०-५६ २-६० २-६४ ६-१५ १०-१
३-३ १०-७२ .
३-६५ १०-४० १०-३९
७-२७ ११-२८
३-४८ ९-४३ १०-८० ९-७५ ६-१४
श्रेयस्करा० श्वेतोत्तर० श्रोत्रयो० श्रोतांसि० श्रोतांसि श्लक्ष्ण०
६-२८
५-२४
श्लथे०
३-४४
९-३६
११-४६
स एव देवः संदर्शित० संयोज्य सगोत्रयो स तत्र सत्धार्मिकान् सत्यावकार्चिः सत्रं विपत्रं सदम्भ० सदगण० सद्यो भिन्ने० गधर्म० सनाभिता०
४-४६.. १-२२
५-७२
२-६९
८-१०
९-५७ ११-१६ २-५२ ४-३०
(१८७)
[जैन कुमारसम्भव-पद्यानुक्रम]
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्ग-श्लोक सं.
सर्ग-श्लोक सं.
३-४०
११-३५
२-१३
आदि-पद सुवर्ण० सुवस्त्र० सुश्रुताक्षर० सूक्ष्मेषु सूते सूरिश्री:जयशेखरः
४-१७ १०-६१
८-४१
११-३८ (प्रत्येक सर्ग का अन्तिम श्लोक)
७-४६ १०-३०
१-६९ ७-४३ ८-२६
५-९ ९-४४ १०-८
५-१५
८-२२
७-४०
७-६३
आदि-पद स्वयं प्रभू० स्वयं प्रमाणे स्वयं समस्तान् स्वरंगणे स्वर्गायनैः स्वर्णस्फाति० स्वर्भूषणैः स्वर्वधूः स्वसौरभा० स्वस्थमेव स्वादुनां स्वामिनः स्वेश हरिद्रयेयं हरौ हर्षादिवाधः हल्लीसके हस्तिनो हस्ते हारि मा तदिद० हारेऽनु० हिरण्य० हृत्वा हृदि ध्याते हेमकान्ति० हेनि
सूर्यबिम्बा० सोऽध्वगत्व० सोऽभितः स्त्रीमात्र० स्त्रैणेन स्थूलस्तन० स्पष्ट० स्फुरन्महा० स्मृतिप्रत्यय० स्मेरास्य० स्रोतांसि स्वं भोग० स्वप्रभङ्ग स्वप्रमेकमपि० स्वप्रवस्तु० स्वप्रवीक्षण स्वप्नानशेषान् स्वप्रार्था० स्वप्रोपलब्धे०
५-६४
९-७२ ७-५६ ६-४१
७-१८
५-३७ १०-७४
६-७ ४-४४
१-५ १-१३ ५-४९ ३-७४ १०-५२
७-६४ ४-३२ ३-१७ १-७६
३-३५
१०-५८ १०-४५ १०-५३ १०-४३ ८-६४ ७-५४
८-१५
५-१४
(१८८)
[जैन कुमारसम्भव-पद्यानुक्रम]
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________ प्रकाशक प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर 13-ए, मेल मालवीय नगर, जयपुर-302017 फोन - 0141-2524827,2524828 ईमेल - prabharti@datainfosys.net श्री आर्य-जय-कल्याण केन्द्र ट्रस्ट श्री गौतम-नीति-गुणसागरसूरि जैन मेघ संस्कृति भवन, 103, मेघरत्न एपार्टमेंट देरासर लेन, घाटकोपर (पूर्व) मुंबई-400077 दूरभाष:5021788