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________________ सुमंगला विकस्वर मुखकमल वाली है एवं शरद ऋतु में भी विकस्वर कमल होते हैं। सुमंगला औदार्यादिक आचरणों से मनोहर शरीर वाली है, शरद ऋतु में खेतों में चावल बहुत होते हैं। वह शब्दायित झांझर से मनोहर गमन वाली है, शरद ऋतु में हंस मनोहर आवाज करते हैं। वह नष्ट पापों वाली है, जबकि शरद ऋतु में कीचड़ नष्ट हो जाता है। सुमंगला पुण्य को प्रकाशित करने वाली है, जबकि शरद ऋतु पवित्र प्रकाश वाले काश पुष्पों वाली है। इस प्रकार सुमंगला देहधारी शरद ऋतु समान शोभा देती थी। फिर कवि हेमंत ऋतु के साथ तुलना करता हुआ लिखता है : . सत्पावकार्चिः प्रणिधानदत्ता - दरा कलाकेलिबलं दधाना। श्रियं विशालक्षणदा हिमाः, शिश्राय सत्यागतशीतलास्या॥ ४२ ॥ उत्तम पवित्रता एवं तेज के ध्यान में आदर दिया है जिसने ऐसी कलारूपी क्रीडा के बल को धारण करने वाली, विशाल उत्सव देने वाली, शीतल मुखचंद्र वाली सुमंगला है, जबकि हेमंत ऋतु में लोग ध्यान विशेष करते हैं, कामदेव के पराक्रम को धारण करते हैं, रात्रि बहुत बड़ी होती है एवं ठंडी भी ज्यादा होती है। इस प्रकार श्लेषालंकार द्वारा कवि ने यहाँ सुमंगला की हेमंत ऋतु के साथ तुलना की है। पुनः कवि शिशिर ऋतु के साथ सुमंगला की तुलना करता हुआ लिखता है : सत्रं विपत्रं रचयन्त्यदभ्रा - गम क्रमोपस्थितमारुतौघा। सा श्रीदकाष्ठामिनमानयन्ती, गोष्ठ्यां विजिग्ये शिशिरतुकीर्तिम्॥४३॥ लोगों का आवागमन जिसमें ज्यादा है ऐसी दानशाला का आपदा से रक्षण करने वाली, देवगण जिसके चरणों में आकर नमस्कार करते हैं एवं जो बातों में स्वामी को लक्ष्मी की पराकाष्ठा पर पहुँचाती है अर्थात् प्रशंसा करती है ऐसी सुमंगला है, जबकि शिशिर ऋतु लोगों का आपदा से रक्षण करती है, अनेक वृक्षों वाले वन को पत्र रहित करती है, अनुक्रम से पवन वेग को धारण करने वाली एवं सूर्य को उत्तर दिशा में ले जाने वाली ऐसी वह शिशिर ऋतु है। इस प्रकार सुमंगला शिशिर ऋतु की कीर्ति को जीतने लगी। अब कवि वसंत ऋतु के साथ उसकी तुलना करते हुए लिखता है : उल्लासयंती समन: समूहं, तेने सदालिप्रियतामुपेता। वसंतलक्ष्मीरिव दक्षिणाहि-कांते रुचिं सत्परपुष्टघोषा॥६-४४॥ उत्तमों के समूह को उल्लसित करने वाली, सखियों के प्रेम को प्राप्त करने वाली एवं साधुओं के उत्कृष्ट गुणों का गायन करने वाली ऐसी वह विचक्षण सुमंगला वसंत ऋतु की लक्ष्मी के समान अपने पति के प्रति अभिलाषा बढाने लगी। हमेशा भँवरों के स्नेह को प्राप्त हुई, मनोहर कोकिला के शब्दों वाली वैसे ही वसंत ऋतु दक्षिण दिशा के पवन के प्रति अभिलाषा विस्तृत करने लगी। सुमंगला की ग्रीष्म ऋतु के साथ तुलना करते हुए कवि लिखता है : संयोज्य दोषोच्छ्यमल्पतायां, शुचिप्रभां प्रत्यहमेधयन्ती। तारं तपः श्रीरिव सातिपट्वी, जाड्याधिकत्वं जगतो न सेहे॥ ४५ ॥ जैसे अत्यंत चतुर वह सुमंगला दोषों को अल्प करके हमेशा निर्मल प्रभा को बढ़ाती रही, वैसे ही ग्रीष्म ऋतु जगत की मूर्खता की अधिकता को नहीं सहने लगी। ग्रीष्म ऋतु अत्यन्त तीव्र रात्रि के विस्तार को अल्प करके सूर्य की कांति बढ़ाती हुई जल के अधिक रूप को नहीं सहने लगी। [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] (३३) www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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