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सुख से शय्या पर सोये । पूर्व जन्म में उपार्जित किये खुद के भोगावली कर्म को अवश्य भोगने योग्य जानकर मोक्ष की अभिलाषा होने पर भी प्रभु निरासक्त भाव से उन स्त्रियों के साथ उचित उपचारों से विषयों को भोगने लगे । नाट्य समय में आई हुई एवं विलास रूपी तरंगों वाली अप्सराओं से प्रभु क्षुभित हुए नहीं, कारण कि प्रभु इंद्रियों के स्वामी मन का भी शोषण करने में समर्थ थे। जिसके आगे रंभा भी कांति हीन हो गई थी एवं रति का रूप भी विगलित हो गया, ऐसी वह प्रभु की प्रथम स्त्री सुमंगला थी । वह कामदेव की अस्खलित प्रभा के समान शोभा देती थी। कवि रस का निरूपण करता हुआ कहता
:
पूर्वं रसं नीरसतां च पश्चा- द्विवृण्वतो वृद्धिमतो जलौघैः ।
जगज्जने तृप्यति तद्रिरैव-स्थानेऽभवन्निष्फलजन्मतेोः ॥ ३६॥
नेने खुद के जन्म को निष्फल माना वह योग्य ही है। कारण कि प्रथम रस को एवं पीछे से नीरसता को प्रकट करने वाला एवं जलसमूह से वृद्धि प्राप्त करता है, जबकि सुमंगला की वाणी जगत को तृप्ति देने वाली है।
इसके बाद कवि सुमंगला की महत्ता दिखाते हुए लिखता है :
यया स्वशीलेन ससौरभांग्या, श्रीखण्डमन्तर्गडुतामनायि । देवार्चने स्वं विनियोज्य जात- पुण्यं पुनर्भोगिभिराप योगम् ॥ ६-३७ ॥
खुद के शील से सुगंधित अंगों वाली इस सुमंगला ने चंदन को निरर्थक बना दिया। इससे वह चंदन खुद की आत्मा को देव पूजन में जोड़ कर पुण्यशाली हुआ एवं पुनः से भोगियों के योग को प्राप्त किया।
सुमंगला के शील का माहात्म्य बताते हुए कवि कहता :
शंकर का कंठ विष से, चंद्र हिरन से, गंगा का पानी शेवाल से एवं वस्त्र मेल से मलिन होता है, लेकिन सुमंगला का शील कभी भी मलिन नहीं होता है। वह सुमंगला शरीर से तो सुंदर वस्त्रों से निर्मित वास भवन में बसती है किन्तु गुणों से तो प्रभु के हृदय में बसती है। सुमंगला की वर्षाऋतु के साथ तुलना करता हुआ कवि लिखता है :
नागमप्रीणितसत्कदंबा, सारस्वतं सा रसमुद्गिरंती ।
रजोव्रजं मंजुलतोपनीतच्छाया प्रती प्रावृषमन्वकार्षीत् ॥ ६-४० ॥
सुमंगला शास्त्रज्ञान से सज्जनों को प्रसन्न करती है; जबकि मेघ आगमन से उत्तम कदंब जाति वृक्ष प्रफुल्लित होते हैं। सुमंगला सरस्वती समान वाणी को प्रकट करती है एवं खुद के पापों का नाश करती है । वर्षाऋतु सरस्वती नदी में जल बरसाती है एवं मिट्टी के समूह को नाश करती है। सुमंगला में बुद्धि रूपी छाया है, जबकि वर्षाऋतु में सुंदर लताओं की छाया है। इस प्रकार सुमंगला वर्षाऋतु का अनुकरण करती थी ।
कवि शरद ऋतु के समान सुमंगला का वर्णन करता है :
स्मेरास्वपद्मा स्फुटवृत्तशालि क्षेत्रानदद्धंसकचारुचर्या । पास्तपंका विलास पुण्य-प्रकाशकाशा शरदंगिनीव ।। ६-४१ ॥
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[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
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