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________________ वृक्ष से शाखायें एवं शाखाओं से वृक्ष शोभा देते हैं, इसी प्रकार पुरुष से स्त्री एवं स्त्री से पुरुष शोभा देते हैं । हे प्रभु! इन दोनों कन्याओं के मुग्धता के हेतु वाले अन्याय को भी आपको सहना उचित है, कारण कि अधिक रेत को लाने वाली नदी के प्रति भी समुद्र क्रोध नहीं करता है । इसी प्रकार प्रभु को समयोचित्त वचन निवेदन करे हर्पित होकर इन्द्र जब मौन रहे तब कुलीन स्त्रियों के आचार को जानने वाली इन्द्राणी भी प्रभु की नव विवाहित पलियों को शिक्षा देने लगी। कवि कहते हैं : श्रोत्रयोर्गरुगिरां श्रुतिरास्ये, सूनृतं हृदि पुन: पतिभक्तिः। दानमर्थिषु करे रमणीनामेष भूषणविधिर्विधिदत्तः॥ ५-७१॥ कानों से गुरु वचनों का श्रवण, मुख से सत्यवचन, हृदय से पति की भक्ति एवं हाथ से याचकों को प्रति दान इस प्रकार के आभूषणों की विधि ब्रह्मा ने स्त्रियों को दी है। पुनः दिन में पति के खाने के बाद जो स्त्री भोजन करती है, रात्रि को उसके सोने के बाद सोती है, सुबह उससे पूर्व ही बिस्तर का त्याग करती है वही उत्तम शरीर वाली स्त्री पति की देहधारी लक्ष्मी है। कुलीन स्त्री दूषित होने के बाद भी, अवगणना पाने के बाद भी एवं घायल होने के बाद भी पति के प्रति प्रेम को त्यागती नहीं है क्योंकि धारा रूपी दंड श्रेणी से आहत मालती बरसात से ही संतुष्ट होती है। इसलिये हे सुमंगला एवं सुनंदा! आप भी स्त्री के आभूषण रूप गुणों को उपार्जन करने हेतु प्रयास करें, जिससे स्त्री वृन्द गुणों की परम्परा में आपके प्रति गुरुबुद्धि को धारण करे। इस प्रकार बुद्धिमानों में उत्तम वर-वधू को भक्ति के आवेश से शुद्ध बुद्धि रूपी भेंट देकर, शुद्ध हृदय वाले इन्द्र एवं इन्द्राणी उनके चरणों में नमन कर, खुद के अपराध का त्याग करते हुए, कई समय (काल) के विरह से अति व्याकुल सभावाले देवलोक में तुरन्त गये एवं अन्य देव भी अपने-अपने देवलोक में गये। इस सर्ग की रचना कवि ने 85 श्लोकों में की है। उसमें कवि ने वर-कन्या के हस्तमेलाप, करमोचन आदि विधि, प्रभु को इन्द्र विविध उत्तम वस्तुएँ देते हैं उसका, वर-कन्या कंसार भोजन करते हैं उसका, प्रभु के समक्ष इन्द्र नृत्य करते हैं उसका, प्रभु को देखने आई नगर की स्त्रियों का और इन्द्र एवं इन्द्राणी द्वारा अनुक्रम से प्रभु, सुमंगला एवं सुनंदा को दी गई हितशिक्षा आदि प्रसंगों का सुंदर वर्णन किया है। सर्ग - ६ अब परिवार सहित सभी मनुष्य एवं देवगण अपने-अपने खुद के स्थानों पर गये। इसके बाद नव विवाहित स्वामी को एकांत में देखने हेतु चंद्र की पत्नी रूपी रात्रि आई। यहाँ कवि ने 21 श्लोकों में रात्रि का वर्णन किया है। अब श्री युगादीश प्रभु निद्रासुख को चाहने लगे। कवि लिखता है : तदैव देवैः कृतमग्र्यवर्णं, समं वधूभ्यां मणिहर्म्यमीशः। ततो गुरुद्नंधि विवेश शास्त्रं , मतिस्मृतिभ्यामिव तत्त्वकामः॥६-२३॥ जैसे तत्त्व की इच्छा वाला मनुष्य मति एवं स्मृति से शास्त्र में प्रवेश कर सके वैसे ही प्रभु ने उन दोनों स्त्रियों के साथ देवों द्वारा तत्काल निर्मित, उत्तम रंग वाले एवं अगरु की सुगंध वाले प्रासाद में प्रवेश किया। विवाह एवं दीक्षा की विधि को जानने वाले प्रभु दोनों स्त्रियों के साथ निद्रा को प्रिय बनाकर [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] (३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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