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________________ ने उन दोनों कन्याओं के हाथ से भोजन किया। पश्चात् इन्द्र ने लौकिक विधिपूर्वक प्रभु एवं वधुओं के गठबंधन छोड़ दिये। विवाहित प्रभु के मुखचंद्र को देखने से पुष्ट हुए हर्षरूपी समुद्र की तरंगे, देवों के हृदय रूपी किनारे से टकराकर आकाश में व्याप्त हो जाए ऐसा शोर करने लगीं। प्रभु की विवाह विधि सिद्ध हुई और खुद की इच्छायें पूर्ण हुईं जानकर इन्द्र हर्ष से नाचने लगा। अभी इन प्रभु का वरण करने के लिये वैराग्य की सखी को नहीं भेजें, इस तरह से मुक्ति वधू को रोकने के लिये ही हो, वैसे नाचते हुए इन्द्र के दोनों हाथ ऊँचे उछल रहे थे। स्त्रियों द्वारा मंगल गीत गाये गये। अप्सरायें नृत्य कर रही थीं। इसके बाद प्रभु घर की तरफ चले । प्रभु को वधुओं सहित आते हुए सुन कर स्त्रियाँ निज के काम को छोड़कर प्रभु को देखने हेतु दौड़ कर गईं। कवि ने यहाँ 10 श्लोकों में प्रभु के रूप के पीछे दीवानी बनी स्त्रियों का वर्णन किया है। कितनी ही स्त्रियाँ अर्ध वस्त्र को पहन कर ही दौड़ी एवं वस्त्र गिर जाने पर भी वह नहीं शरमाई, कारण कि लोगों की दृष्टि तो प्रभु को देखने में ही लगी थी। कोई स्त्री यौवन गर्विष्ठ पुरुष के कटाक्ष रूपी भालों से घायल होकर भी सुभट के समान उस समय वहाँ आगे चली आई। जल्दी से मूढ दृष्टि वाली कोई स्त्री खुद के रोते बच्चे को छोड़ कर कमर में बिल्ली को रख कर दौड़ी आई। कोई स्त्री नाखूनों के अग्र भागों में काजल को, आँखों में मेहंदी, पैरों में कंठी एवं कंठ में पायल को धारण कर, स्नान के बाद खुले बालों वाली एवं विपरीत वस्त्रों को धारण करके आ गई। स्त्रियों के समुदाय में अन्य कितनी ही स्त्रियाँ निर्निमेष नयन वाली हुईं। नाखूनों से पृथ्वी का स्पर्श भी नहीं कर रही थीं, उन्हें देख लोग कहने लगे कि प्रभु के ध्यान में यह जैसे जल्दी से देवी हो गई है। भगवान को देखने की इच्छुक कितनी ही स्त्रियाँ ईर्ष्या से इस प्रकार बोलने लगीं 'प्रभु तो पहले भी रमणीय ही थे, उसमें इन देवों ने क्या अधिक शोभा की है कि वे ही प्रभु को घेरे हुए खड़े हैं?' कितनी ही नाटी स्त्रियाँ उनके आगे खड़ी ऊँची स्त्रियों के कारण प्रभु के दर्शन नहीं कर सकती थी, अत: वे चाटु वचन बोलती हुई आगे जाकर कहने लगी, 'हे सखी! मार्ग को छोड़।' पूर्व कथनानुसार अद्भुत रस से पूर्ण नारियों के नेत्रों एवं नील-कमलों द्वारा पूजित देहधारक प्रभु के दर्शन करने से सुवर्ण प्राप्ति से जितना आनन्द हो उससे भी अधिक आनन्द हुआ। इसके बाद जगत-प्रभु अपने आवास-द्वार में गये। उत्कट बलवान इन्द्र ने प्रभु को औरावत हाथी पर से उतारा एवं दोनों वधुओं को भी नीचे उतारा। नेत्र मंडल में से झरते पानी की धारा की मनोहारिता के भाव को धारण करने वाला इन्द्र अब कृतार्थ हो कर देवलोक में जाने की इच्छा से प्रभु को नमस्कार कर कहने लगा : 'हे नाथ! मैं प्रभु भक्ति से कुछ कहता हूँ। इन दोनों विचक्षण कुल-कन्याओं को आपसे जो आदर और स्नेह मिला है, उस स्नेह को कदाचित कम मत करियेगा क्योंकि ये दोनों माता-पिता का स्नेह त्याग करके आपके पास आई हैं।' कवि लिखता है : अंतरेण पुरुषं न हि नारी, तां विना न पुरुषोऽपि विभाति। पादपेन रुचिमंचति शाखा, शाखयैव सकलः किल सोऽपि॥५-६१॥ __ (३०) [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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