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________________ वाला इन्द्र आग्रह के साथ अखंडित पराक्रम वाले प्रभु को जल्दी से मातृ गृह में जहाँ दोनों कन्यायें शुरु से ही बैठी थीं वहाँ लाकर उनके सन्मुख बिठाया। दोनों कन्याओं के मुख वरी का वेश (शादी का जोड़ा) से ढका हुआ था। वे दोनों स्वामी के ध्यान में मग्न थीं। फिर वे कन्यायें मंद स्वर से परस्पर इस प्रकार कहने लगीं कि, 'सरोवर समान प्रभु के पास से लावण्य रूपी पानी पीने हेतु हमारे दोनों के नेत्र प्रकट रूप से समर्थ नहीं हैं। चोरी छिपे देखने पर कभी भी तृप्ति नहीं होती है। जैसे विद्यार्थी की चपलता अध्यापक के सामने विलय हो जाती है वैसे ही उन दोनों की जो दुस्त्यज लज्जा थी वह स्वामी के सामने विलीन हो गई। इस प्रकार महाकाव्य के चौथे सर्ग में कवि ने प्रभु के विवाह अवसर पर देवों का आगमन, देवों द्वारा की गई विविध चेष्टायें, इन्द्र द्वारा प्रभु का देह शृंगार, औरावत हाथी, प्रभु की विवाह यात्रा, देवांगनाओं का परस्पर आलाप, विवाह की लौकिक विधि आदि प्रसंगों का वर्णन कुल 80 श्लोकों में किया है। सर्ग - ५ इसके बाद सभी अंगों का आलिंगन (सेवा) करने पर भी हृदय को जानने हेतु कौतुकी के समान इन्द्र ने करुणासागर ऋषभ कुमार का उन दोनों कन्याओं के साथ हस्तमिलाप करवा दिया। प्रभु के हाथ पर उनके हाथ रहने से तुरन्त ही दोनों कन्याओं के शरीर में सात्विक भाव प्रकट हुए। कवि वर्णन करता है : बाल्ययौवनवयोविदंतर्वर्तिनं जगदिनं परितस्ते। रेजतुर्गतघनेऽहनि पूर्वपश्चिमे इव करोपगृहीते ॥ ५-६॥ हाथों से ग्रहण की गई ऐसी उन दोनों कन्याओं, बादल रहित दिवस में सूर्य के आसपास जैसे पूर्व और पश्चिम दिशायें शोभा देती हैं वैसे ही बाल्य एवं यौवन रूपी आकाश में स्थित प्रभु के आसपास शोभा देती थीं। इसके बाद इन्द्र ने प्रभु एवं वधुओं की स्नेह-ग्रंथि कभी भी शिथिल न हो ऐसा सोचकर वस्त्रों का गठबंधन बाँधा। फिर इन्द्राणी दोनों कन्याओं को एवं इन्द्र अद्भुत रूप वाले वर को उठा कर, हरे एवं ऊँचे बांसों से जुड़े हुए हैं सुवर्ण कलश जिस में ऐसी वेदिका (मंडप) में ले गये। फिर पुरोहित बनकर स्वविद्या से अग्नि को प्रकट किया। जैसे देवताओं का प्रिय सूर्य मेरु पर्वत को प्रदक्षिणा करता है वैसे प्रभु एवं दोनों वधुओं ने अग्नि के चारों तरफ प्रदक्षिणा की। हस्तमोचन विधि में इन्द्र ने साढ़े बारह करोड़ सुवर्ण की वर्षा की, कारण कि इन्द्र के हाथ में सौ करोड़ स्वर्ण-मुद्रा रहती है । उत्तम जाति के मोतियों, सूक्ष्म, श्वेत एवं कोमल वस्त्रों, रत्नों का सिंहासन, अविच्छिन्न शोभा वाला छत्र, निर्मल चामरों, ऊँची एवं विशाल शय्या एवं दूसरी भी मनपंसद प्रशंसा लायक वस्तुयें थी वे सब इन्द्र ने प्रभु को दी। तीन भुवन के स्वामी जो याचक न हो तो उन्हें देने वाला इन्द्र याचक की कैसे संभावना करे? इस प्रकार प्रभु ने बहुत काल से शून्य हुई विवाह विधि प्राणियों के हितार्थ प्रारम्भ करके बताई। कंसार खाते समय वधुओं के मुख में कौर दे रहे थे तब प्रभु चंद्र कमल के विरोध का नाश करते हों वैसा दिखाई दे रहा था। कारण कि, दोनों वधुओं के मुख चंद्र समान थे एवं प्रभु के हाथ कमल समान शोभा देते थे। उन दोनों का योग होने से उनका जैसे विरोध नष्ट हो गया हो। फिर प्रभु [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] (२९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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