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________________ आकाश मंडल में रह कर स्वर्ग को छोड़ कर आये हुए देवगण हर्ष के आँसुओं की धारा से मेघ के समान आचरण करने लगे एवं सुवर्ण की कांतिवाली उर्वशी आकाश मंडल में नृत्य करती हुई बिजली के समान लगने लगी। रंभा, घृताची, तिलोत्तमादि नर्तकियों ने भी नृत्य किया । यहाँ कवि ने इन नर्तकियों के देहलावण्य का अलंकार युक्त वर्णन किया है। कितने ही देवता हाथों में शस्त्रों को खुले रख कर प्रभु के आगे चल रहे थे, जिससे लोगों को ऐसा भ्रम हुआ कि यह विवाह यात्रा है या युद्ध यात्रा ? कितने ही देव हाथ में अष्ट मंगल को धारण कर प्रभु के आगे चले। प्रभु के आगे स्तुति- पाठक भी चल रहे थे। ये स्तुति- पाठक विकसित कमलों पर गुंजार करते भौरों जैसे बोल रहे थे । वे छंदोबद्ध काव्य को मधुर स्वर से गा रहे थे। इससे लोग हर्षित सूर्य ने भी प्रभु की विवाह यात्रा में किसी को कोई कष्ट न हो वैसा सोच कर खुद का प्रचंड ताप कम कर दिया था। तीनों जगत का रक्षण करने वाले प्रभु चल रहे थे तब वायु ने ऐसी प्रसन्नता व्यक्त की कि धूलि नहीं उड़ी और प्राणियों की आँखों में मिट्टी नहीं गई। वायु के कारण पसीने ने भी शरीर को गीला नहीं किया। प्रभु को देख कर सुमंगला एवं सुनंदा ने कैसा अनुभव किया ! उसका वर्णन करते हुए कवि लिखता है : विचित्रवाद्यध्वनिगर्जितोर्जितो, यथायथासीददसौ गुणैर्धनः । तथा तथानंदवने सुमंगला-सुनंदयोरब्दसखायितं हृदा ॥ ४-५९ ॥ विचित्र प्रकार के वाजिंत्रों की ध्वनि रूपी गर्जना से बलवान हुए एवं गुणों से दृढ़ हुए ऐसे मेघ समा प्रभु जैसे-जैसे नजदीक आते गये वैसे-वैसे आनन्द रूपी वन में सुमंगला एवं सुनंदा के हृदय ने मयूर के जैसा आचरण किया। प्रभु मंडप के अग्रद्वार पर पहुँचे उसका वर्णन करते हुए कवि लिखता है : कलागुरु: स्वस्य गतौ यथाशयं, समुह्यमानः पुरुहूतदंतिना । मुखं मुखश्रीमुखितेंदुमंडलः, स मंडपस्याप दुरापदर्शनः ॥ ४-६१ ॥ स्वयं की गति के प्रति कलागुरु के समान एवं इच्छा के अनुसार औरावत हाथी पर आरुढ़ दुर्लभ हैं दर्शन जिनके ऐसे एवं मुख की शोभा से लक्षणों द्वारा जीत लिया है चंद्र मंडल को जिन्होंने ऐसे प्रभु मंडप के अग्रभाग पर पहुँचे। उसके बाद इन्द्र ने सहयोग देकर प्रभु को औरावत हाथी पर से नीचे उतारा। प्रभु क्षण मात्र वहाँ खड़े रहे। मंडप के द्वार पर कदली-स्तंभ को देख कर प्रभु को देवलोक की रंभा के नृत्य से जो आनन्द हो उस से भी अधिक आनन्द हुआ। उस समय कितनी ही स्त्रियाँ मोतियों के थाल लेकर, कितनी ही दूर्वा एवं दही लेकर, कितनी ही शरावसंपुट, मुशल आदि विवाह योग्य सामग्री लेकर प्रभु के सन्मुख चली। कितनी ही देवांगनायें स्मित हास्य द्वारा मानों भगवान का स्पर्श किया हो ऐसा अनुभव करने लगीं। लवण एवं अग्नि से भरे शरावसंपुट को प्रभु के सन्मुख रखे, जिसे प्रभु ने सेके हुए पापड़ की तरह पग से तोड़ दिये । कोई स्त्री समर्थ प्रभु को भी लाल वस्त्र कंठ में डालकर खींचती - खींचती मंडप में ले गई, जैसे पाप रूपी प्रकृति कर्म रूपी अवसर प्राप्त होने पर आत्मा को अनिच्छा से संसार समुद्र में ले जाती है। हर्ष को धारण करने (२८) [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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