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________________ अमीषु नीरंध्रचरेषु कस्यचि-निरीक्ष्य युग्यं हरिमन्यवाहनम्। इभो न भीतोऽप्यशकत्पलायितुं, प्रकोपनः सोऽपि न तं च धर्षितुम्॥४-५॥ अलग-अलग देवों के अलग-अलग वाहन होते हैं। हाथी के वाहन वाले देवों के हाथी सिंह को देख कर डर के मारे भाग न सके, कारण कि तिलमात्र भी कोई खाली स्थान न था। अर्थात् उस मार्ग पर अपार भीड़ थी। ऋषभदेव के विवाह में जाने हेतु उत्साहित देवों की भुजाओं के बाजूबंद आदि आभूषणों के परस्पर टकराने से रत्न नीचे गिरने लगे, इससे ऐसा प्रतीत होता था कि पृथ्वी रत्नाकर बन गई है । देवों के आने-जाने से पृथ्वी एवं स्वर्ग के मध्य में जैसे पुल बन गया हो। इसके बाद सर्वप्रथम सौधर्मेन्द्र ने प्रभु के शरीर पर उत्तम जाति के सुगंधित तेल द्वारा मर्दन किया। प्रभु का स्वाभाविक सौंदर्य ही इतना था कि उनको कृत्रिम सौंदर्य की जरूरत नहीं थी। प्रभु के स्नान के समय में देवगण प्रभु के केश कलाप में से झरते जल बिंदुओं का पान करने लगे। इससे देवों को अमृत रस भी नीरस लगने लगा। इसके बाद इंद्र ने प्रभु के मस्तक पर हीरे का मुकुट स्थापित किया। इस मुकुट की कांति सूर्य की किरणों से अधिक शोभा देती थी। फिर प्रभु को तेजस्वी दिव्य कुंडल एवं सुवर्ण और मुक्तामणि से शोभायमान ऐसे देदीप्यमान आभूषण पहनाये। जैसे पक्षियों की दृष्टि फलवाले वृक्षों पर गिरती है वैसे ही अनेक अलंकारों से विभूषित प्रभु पर देव-देवांगनाओं की दृष्टि गिर रही थी। भगवान जब हिरण्य-मुक्तामणि आदि से अलंकृत हुए तब देवताओं के हाथों को दो प्रकार से सफलता प्राप्त हुई। एक तो चिरकाल से संचित खुद की लक्ष्मी का फल प्राप्त किया और दूसरा चिरकाल से प्राप्त किये प्रसाधन कार्य में कुशलता का फल प्राप्त किया। सुंदर वस्त्र एवं गोशीर्ष चंदन के लेप से सम्पूर्ण लिप्त भगवान ने श्वेत बादलों से घिरे हुए मेरुपर्वत के शिखर को पराजित किया। इसके बाद इन्द्र ने प्रभु के समक्ष मदजल झर रहा है, ऐसा समस्त हाथियों का राजा औरावत हाथी को मंगवाया। यह औरावत हाथी जंगम महल के समान शोभा दे रहा था। प्रभु सौधर्मेन्द्र के वचनों को प्रमाणित करते हुए उस हाथी पर चढ़े। चंद्रमा की किरणों का समूह चंद्र को छोड़ कर बारम्बार दोनों तरफ से प्रणाम करके पवित्र होकर भगवान के मुखचंद्र की सेवा करने लगा। वैर का त्याग कर एवं आपस में मैत्री कर देव और दानव प्रभु के पास आये । स्वकीय धैर्यगुण द्वारा विद्वानों में राग-वैराग्य के संशय को बढ़ाते हुए प्रभु अब प्रयाण करने लगे। उस समय कई देवांगनायें पीछे रहकर लूण उतार रही थीं। कितनी ही दृष्टांत युक्त धवल-मंगल गीत गा रही थीं। इन्द्र महाराजा पैदल चल रहे थे एवं जगत प्रभु औरावत हाथी पर थे। इसे देखकर अन्य देवों को आश्चर्य हुआ। किन्तु तत्काल ही समझ गये कि इन्द्र तो केवल स्वर्ग के स्वामी हैं, जबकि प्रभु तो तीनों लोकों के स्वामी हैं, अत: यह उचित ही है कि प्रभु को इन्द्र से ऊँचा स्थान मिलना ही चाहिये। खुद ने ऐसा विचार किया वह उनकी भूल ही है, वैसा समझ कर देवों ने प्रभु के पास क्षमा मांगी। देव-गन्धर्वादि के समूह से खुद के गुणों की यशोगाथा का पान करते हुए प्रभु ने संतुष्ट न होकर अपना मुख नीचा कर लिया, क्योंकि उनके गुण भंडार की वस्तु परहस्तगत हो गई हो ऐसा उनको लगा। अब कवि नर्तकियों का वर्णन करता हुआ लिखता है : मुदश्रुधारानिकरैर्घनायिते, धुसञ्चये कांचनरोचिरुर्वशी। प्रणीतनृत्या करणैरपप्रथ - तडिल्लताविभ्रममभ्रमंडले॥४-४७ ॥ [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] (२७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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