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________________ यहाँ आकर विवाह सम्बन्धी कार्य करेंगी। धवल मंगल गीत गायेंगी। तुंबुरु नारदादि आपकी स्तुति करने हेतु आयेंगे । इसलिये हे बुद्धिमान महात्मा! आपको जैसा उचित लगे वैसा करें।' तत्पश्चात् भोगावली कर्म का विपाक काल प्राप्त हुआ है । जान कर भगवान मौन रहे । उसको भगवान की संमति जान कर इन्द्र संतुष्ट हुए। पुनः कवि वर्णन करता है : जग्राह वीवाहमहाय मंक्षु, मुहूर्तमासनमथी महेंद्रः। अवत्सरायंत यदंतरस्था, लेखेषु हल्लेखिषु काललेशाः।। ३-३७॥ वैवाहिके कर्मणि विश्वभर्तु-र्यदादिदेश त्रिदशानृभुक्षाः। बुभुक्षिताह्वानसमानमेत - दमानि तैः प्रागपि तन्मनोभिः॥ ३-३८॥ इसके बाद इन्द्र ने जल्दी से विवाह की तैयारी की एवं नजदीक का महर्त स्वीकार किया। देवों को वह अल्प समय भी वर्ष समान लगने लगा। प्रभु के विवाह के प्रसंग में देवों को जो-जो आदेश कार्य के लिये दिये गये, इससे देवों को जैसे भूखे को भोजन हेतु बुलाने पर जितना आनन्द होता है इतना आनन्द हुआ। फिर इन्द्र ने इन्द्राणी को सुनंदा एवं सुमंगला को विभूषित करने की आज्ञा दी। अन्य देवों ने मणिमय मंडप बनाया। मंडप के स्तंभ पर सोने की पुतलियाँ शोभायमान थीं। मंडप पर सोने के कलशों ने सरोवर में उत्पन्न होने वाले कमलों की शोभा को प्राप्त की। इन्द्राणी की आज्ञा से श्रीदेवी हिमवंत पर्वत पर चंदन लेने गई। फिर दिशा कुमारियों ने नंदन वृक्षों के पुष्प गुच्छों को उपहार स्वरूप लाकर प्रभु को दिये। कश्मीर में बसने वाली सरस्वती ने प्रभु के विलेपन करने हेतु केसर लाकर दी। इसके बाद इन्द्राणी के आदेश से सुमंगला एवं सुनंदा को देवियों ने सुवर्णासन पर बिठाकर तैल का मर्दन कर उनको स्नान करवाया और सुगंधि द्रव्य से लेपन किया। इसके बाद देवियों ने उनको विविध वस्त्राभूषण से सुसज्जित किया। मातृ गृह में निर्दोष आसन पर बिठा कर उन दोनों कन्याओं के सौंदर्य को देवियाँ निर्निमेष नयनों से देखती रहीं एवं वर राजा (दूल्हे) का स्मरण कराने लगी। संस्कृत महाकाव्य में जो विविध गौरव पूर्ण प्रसंगों का महाकवि सविस्तार आलेखन करते हैं उनमें से एक प्रसंग विवाह का है। काव्य के नायक भगवान ऋषभदेव यौवन में प्रवेश करते हैं और विवाह योग्य आयु पर पहुँचते हैं, इस अवसर पर जैन कथानुसार इन्द्रादि देव आकर भगवान ऋषभदेव को विवाह हेतु विनती करते हैं और प्रभु की मूक संमति मिलने पर उसकी विविध तैयारियाँ करते हैं। इन्द्राणी भी सुमंगला एवं सुनंदा का सुंदर शृंगार कर देती है उक्त सभी प्रसंगों का वर्णन कवि ने इस तीसरे सर्ग में किया है। सर्ग - ४ नव वैमानिक के इन्द्र, बीस पाताल लोक के इन्द्र, बत्तीस व्यंतरवासी इन्द्र एवं सूर्य, चंद्र तथा सौधर्मेन्द्र ऐसे कुल चौसठ इन्द्र प्रभु के विवाह अवसर पर पृथ्वी पर आये। ___ अपने-अपने देवलोक में से निकले देवगण खुद के मित्र देवों को बुलाने लगे। उस समय स्वर्ग में कलकल की आवाज होने लगी। स्वर्ग मानो गोकुल बन गया हो। आगे वर्णन करते हुये कवि कहता है :(२६) [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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