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________________ हे नाथ! जब आप सर्वार्थ विमान में (मोक्ष के निकट में) रहते थे तब मोक्ष रूपी लक्ष्मी के मिलन में चाहने पर भी विलम्ब हुआ। भविष्य के स्वामी जानकर मोक्ष लक्ष्मी ने आपकी सेवा की। हे नाथ! आप यहाँ भरतक्षेत्र के प्राणियों का हित चाहते हुए भोग एवं मुक्ति देने के लिये, सर्वार्थ सिद्ध विमान को प्राप्त करने के बाद भी समीप में रही मुक्ति को छोड़ कर यहाँ आये, मोक्ष पथिक बने। हे लक्षणों के भंडार! आपने इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव, राजा आदि सबको अपना दास बनाया है। आपने दायें हाथ में वज्र, चक्र, शंख एवं खड्ग धारण किये हैं वह इन्द्र को पद देने हेतु ही हैं, अन्यथा आपको इसकी जरूरत नहीं है। हे नाथ! आपने ज्ञान से मोह रूपी राजा को मार दिया है। मोह राजा की मृत्यु हो जाने के बाद लोभादि नौकर तो कहाँ से रह सकते हैं? जैसे मेघ के जल से दावानल समाप्त हो जाता है तब फिर उसकी चिनगारी कहाँ से स्थिरता को धारण करेगी? जिस कामदेव का बाण हमेशा दानवों एवं देवों को पीडा देते है वैसा काम भी आपके ध्यान रूपी अग्नि में काष्ठ समान होगा। हे नाथ! आपसे अधिक अन्य कोई जगत में देव नहीं है। इस संसार में आप ही पूज्य हैं । आपका नाम छोड़ कर अन्य कोई अक्षर जाप उत्कृष्ट नहीं है। आपकी सेवा के अतिरिक्त कोई उत्कृष्ट पुण्य का समूह नहीं है । वैसे आपके मिलन से अन्य कोई उत्कृष्ट मिलन नहीं है। इस प्रकार स्तुति करते हुए बुद्धिमानों में अग्रसर इन्द्र श्री ऋषभ स्वामी की अमृत समान दृष्टि द्वारा पोषित हुए। इस दूसरे सर्ग में कवि ने 73 श्लोक की रचना की है एवं सर्ग-रचना करने में वंशस्थ छंद का चयन किया है और सर्ग के अंत में मालिनी एवं पृथ्वी छंदों का प्रयोग किया है। श्री ऋषभदेव प्रभु का गुणसंकीर्तन तुंबुरु एवं नारद के मुख से सुनकर इन्द्रादि देव भगवान के विवाह प्रसंग पर आ पहुँचते हैं। सर्ग - ३ इन्द्र फिर से जीवों का हित करने वाली वाणी बोलते हैं : 'हे नाथ! आप सभी भावों को जानते हो फिर भी आपके प्रति मेरा एक निवेदन है । जैसे वर्षा ऋतु में बादल उत्पन्न होते है किन्तु वे पवन (तेज हवा) चलने पर भी बिखरते नहीं हैं वैसे ही मेरे वचन पवन जैसे हैं और आप बादल के समान हो । मैं कहूँ इसलिये उसका कोई आप पर प्रभाव नहीं है, कारण कि आप तो बादल समान हो। हे नाथ! आपकी कृपा तो जगत में सभी के लिये समान है, पर मैं तो इसे मेरे लिये अधिक मानता हूँ। जैसे चंद्रमा की कला सब को आनन्द देने वाली है पर स्वार्थी चकोर ऐसा मानता है कि खुद के लिये ही चंद्र का उदय हुआ है। आपकी 72 कलायें जगत के लिये उपकारी हैं, इसमें कोई संशय नहीं है कारण कि वह सब आपसे उत्पन्न हुई हैं। आपका आगम रूपी महासागर उपयोग होने पर भी कभी कम नहीं होता है । आपके पास अविनश्वर धर्मरूपी चिंतामणि रत्न है।' पुनः इन्द्र महाराज कहते हैं कि 'हे प्रभो! आपने बाल्यावस्था को कृतार्थ कर दिया है तो अब विवाह करके तरुणों को भी कृतार्थ करें।' प्रभु ने कोई भी उत्तर नहीं दिया तब इन्द्र ने फिर से विनती की-'हे नाथ! मैं आपका अधिपति होने पर भी अगर मुझे कोई उत्तर नहीं मिले तो जैसे किसी दानेश्वरी के पास जाने पर भी उसे दान नहीं मिले तब उसके जैसी स्थिति होगी। हे नाथ! सुमंगला सहजन्मा है। पवित्र सुमंगला को आप अपनी बनावें। आप विवाह करेंगे तो उस अवसर पर इन्द्राणी आदि देवांगनायें [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] (२५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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