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महामुनीनामपि गीरगोचरा - खिलस्वरूपास्तसमस्तदूषण। जयादिदेव त्वमसत्तमस्तम - प्रभाप्रभावाल्पितभानुवैभव॥ २-४९॥ गुणास्तवाङ्कोदधिपारवर्तिनो, मतिः पुनस्तच्छफरीव मामकी। अहो महाधाष्टर्यमियं यदीहते, जडाशया तत्क्रमणं कदाशया॥२-५०॥ मनोऽणुधर्तुंन गुणांस्तवाखिलान्न तद्धृतान्वक्तुमलं वचोऽपि मे। स्तुतेवरं मौनमतो न मन्यते, परं रसज्ञैव गुणामृतार्थिनी॥२-५१॥
हे त्रिकालज्ञ! जिनका स्वरूप महामुनि की वाणी से भी अगोचर है, सभी दूषणों का नाश करने वाले, निष्पाप प्रभा के प्रकाश द्वारा सूर्य के प्रकाश की प्रभा को क्षीण करने वाले हे आदिनाथ प्रभो! आप जयवंत रहें। हे प्रभो! आपके गुण संख्या रूपी समुद्र को भी पार कर जाते हैं। हमारी बुद्धि समुद्र में रहने वाली मछलियों के जैसी है; जिससे हमारी जड़ मति (बुद्धि) आपके गुणों का वर्णन करने हेतु शक्तिमान नहीं है।
हे नाथ! मेरा मन आपके समस्त गुणों का वर्णन करने में असमर्थ है, तथापि इस रस को जानने वाली जीभ गुण रूपी अमृत का पान करना चाहती है। इसी कारण मैं आपके गुणों की स्तुति करता हूँ। तीन भवनों में अत्युत्कृष्ट आपकी जो मैं स्तुति करता हूँ उसे मैं अपूर्ण ही मानता हूँ। फिर भी आपकी भक्ति मुझे स्तुति करने हेतु वाचाल बनाती है। पुनः कवि लिखता है :
अनङ्गरूपोऽप्यखिलाङ्गसुन्दरो, रवेरदभ्रांशुभरोऽपि तारकः।
अपि क्षमाभृन्न सकूटतां वह-स्यपारिजातोऽपि सुरद्गुमायसे ।। २-५३॥
हे नाथ! आप कामदेव जैसे रूपवान हैं । हे नाथ! आप सूर्य से अधिक तेजस्वी हैं । आप संसारसागर से तारने वाले हैं, क्षमा के भंडार हैं। आप कल्पवृक्ष नहीं हैं, फिर भी कल्पवृक्ष के समान हैं। हे नाथ! आपने धन सार्थवाह के भव में वन में विचरने वाले तपस्वी मुनि को घी बहोराया था, इसी के प्रभाव से ही आपने तीर्थंकर पद प्राप्त किया है। दस प्रकार के कल्पवृक्ष तो मन की विविध इच्छाओं को पूर्ण करते हैं, लेकिन आप तो उससे भी विशेष हैं और मनोवांछित को पूर्ण करने वाले हैं। दूसरे जन्म में आपने उत्तर कुरु में युगलिक रूप प्राप्त किया था। पुनः सौधर्म देवलोक में देवियाँ हमेशा आपको चलायमान करने हेतु करोड़ों कटाक्ष करती रहीं, फिर भी आपका धैर्यकवच टूटा नहीं। हे नाथ! महाबल राजा के जन्म में आपने ज्ञानरूपी बल से स्वयं के नाम को यथार्थ किया था। बहुत बड़े चार्वाक के वचनों को आपने ज्ञान-मुद्गर से चूर्ण कर दिया था। हे नाथ! आपने इशान देवलोक में ललितांगदेव के जन्म में वधू (देवी) के विरह में विलाप किया था। फिर दरिद्र पुत्री निर्नामिका को आपने तप के फल का दान दिया था। इससे सिद्ध हुआ कि सज्जनों की सम्पत्ति दूसरों के लाभ हेतु होती है। हे नाथ! वज्रजंघ राजा के जन्म में आपके पुत्र ने विषयुक्त धुंवा दिया था, उस कारण से आज भी आपका मन कामदेव से विश्वासरहित रहता है । हे प्रभो! बाद में आप युगलिक हुए थे। उसके बाद प्रथम देवलोक में देव होकर वैद्य हुए थे एवं मुनि के कुष्ठ रोग को दूर किया था, वह कला आज भी आपमें प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है। इसके पश्चात् हे प्रभो! अच्युत नाम के देवलोक में आप देव हो गये। हे नाथ! इसके बाद तीर्थंकर पर के निमित्त रूप चक्रवर्ती पद प्राप्त किया, लेकिन आपको प्रसन्नता नहीं हुई, क्योंकि अच्छे पुत्र में पिता के गुण आने चाहिये। आपके पिता वज्रसेन तीर्थंकर थे और आप वज्रनाभ चक्रवर्ती हुए, जिससे आपने चक्रवर्ती पद का त्याग करके संयम ग्रहण करके बीस स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया।
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[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
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