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________________ को प्रत्यक्ष नहीं देखा उससे आँखों को जरूर पीडा हुई। प्रभु के गुणगान सुनने से प्रभावित होकर देवगण दूसरी समस्त क्रियाओं को छोड़कर स्थिर हो गये, इससे देव चित्रवत् दिखाई देने लगे। इन्द्र महाराज सभासदों को विसर्जित कर प्रभु का विवाह समय जान कर मनुष्य लोक में आने हेतु उत्तर वैक्रिय रूप धारण करके चले। स्वामी-भक्ति वाले दूसरे देवों ने इन्द्र को विनति की कि 'आप स्वयं नहीं जाएँ, हमको ही आदेश दें। हम सभी कार्य करके आयेंगे।' परन्तु प्रभु के दर्शन की अभिलाषा वाले इन्द्र खुद ही गये। बादल बगुलों को निमंत्रण देते नहीं है, लेकिन बादल को देख बगुले वहाँ जाते हैं वैसे ही इन्द्र चलने लगे। यह देख उनके पीछे प्रभु-भक्ति की इच्छा वाले दूसरे देव भी चलने लगे। 'प्रभु के पास पहुंचने में मुझे विलम्ब होगा ऐसी आशंका से इन्द्र ने रुचकादि पर्वतों के शिखर पर जाते-जाते वहीं रहे हुए जिन-मन्दिरों को मन से ही नमस्कार किया। अंजनाचल पर अंधकार था, अतः इन्द्र ने हजार नेत्र धारण किये, जिससे नेत्रों की प्रभा से सर्वत्र प्रकाश फैल गया। सूर्य का प्रखर किरण रूपी दंड आकाश में शोभा दे रहा था। वही किरण-दंड सौधर्मेन्द्र को आकाश से उतरने हेतु हाथ का आधार रूप हुआ। प्रभु के विवाह मंडप में मणि-दीपक का कार्य करने हेतु सूर्य-चंद्र भी उनके साथ चले। चलते हुए इन्द्र के आनन्द की कोई सीमा नहीं थी। इन्द्र ऊपर मुख करके आकाश में रहने वाले नक्षत्रों को और नीचा मुख करके समुद्र में रहे हुए तरह-तरह के मोती-मणि को देखने लगे। पर्वतों पर से गिरते हुए जल-प्रपात से उत्पन्न होने वाले क्षीर-समुद्र के जल बिंदुओं से इन्द्र की थकान दूर होती थी। इसके बाद इन्द्र वेग से मार्ग को पार कर जंबूद्वीप क्षेत्र में पहुँचे। प्रभा मंडल से युक्त चंद्रमा शोभा देता है। जिनेश्वर का जन्म जिस प्रदेश में हुआ था उस प्रदेश को देखते ही इन्द्राणी को देखने से जो आनन्द होता है उससे अधिक आनन्द इन्द्र को हुआ। अब इन्द्र ने दूर से लम्बे शिखरों वाले, मेघ की श्रेणियों से स्थूल होते पर्वत के मध्य भागों के छोर (कोण) को देखा जिसमें ऊँचे एवं लम्बे रस्सी के जैसे आचरण करते पानी के झरने हैं। ऐसे पर्वतों में हाथी समान अष्टापद पर्वत को देखा। अरिहंत प्रभु की चौबीस प्रतिमायें मेरे मस्तक को आश्रय कर मुकुट रूप होंगे। इस प्रकार के हर्ष एवं रोमांच को अष्टापद पर्वत वांसों के समूह के बहाने धारण करता था। जिनेश्वर प्रभु की जन्मभूमि के समीपस्थ रहे हुए पर्वत को हर्ष से दृष्टिगोचर करके वह इन्द्र पर्वतों के शिखर का स्वकृत नाश से उत्पन्न पापों से खुद को मुक्त करने लगा। इसके पश्चात् इन्द्र प्रभु की जन्मभूमि की ओर चला । वहाँ जन्मभूमि को देख लम्बे समय से प्रभु दर्शन की इच्छा वाले इन्द्र के हृदय रूपी सरोवर ने निर्मलता प्राप्त की। जैसे शरद ऋतु की चाँदनी की लहरों से व्याकुल सरोवर शांति को प्राप्त करता है। पूर्वाचल दिशा में रहने वाले सूर्य के समान तेजस्वी, सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान, सर्व जीवों के प्रति अमृत तुल्य दृष्टि वाले, मित्र बने देवों के साथ बैठे हुए, छत्र को धारण करने वाले, आभूषणों से शोभित देवांगनाओं द्वारा चामरों से वींजायमान तथा पंडितों द्वारा चरण-कमल की वंदना करते हुए ऐसे जगत प्रभु को इन्द्र ने वन में देखा। कीकियों के बहाने भौंहों को छूने वाले हजार नेत्रधारक इन्द्र जैसे कमलों की माला धारण करते हों वैसे ही वे त्रिलोकनाथ को पूजने हेतु वेग से आये एवं प्रवृद्ध भावनाओं से प्रभु की स्तुति करने लगे। जैसे भ्रमर कमल पर जाता है वैसे इन्द्र भी प्रभु पर आसक्त बनकर, प्रभु के पास जाकर, प्रभु के चरण कमल में नमस्कार कर, भक्ति रस के निर्झर से निर्मल स्तोत्र-वचनों से स्तुति करने लगा। [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] Jain Education International For Private & Personal Use Only (२३) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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