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स एव देवः स गुरुः स तीर्थः,
स मङ्गलं सैष सखा स तातः। स प्राणितं स प्रभुरित्युपासा
मासे जनैस्तद्गतसर्वकृत्यैः॥१-७३॥ चौसठ इन्द्रादि प्रभु के चरणकमलों की सेवा करते हैं इससे ही वे देवाधिदेव हैं। लोगों के आचार-- व्यवहार, विद्या, शिल्प, विज्ञानादि को बताने वाले हैं, इसलिये वही गुरु हैं, वही जंगम तीर्थ हैं । सर्व पापों को छेद करने वाले होने के कारण वही मंगल हैं, वही मित्र है। भव्य जीवों के अंतरंग शत्रु के रक्षक होने से वे ही पिता हैं, वे ही प्राणियों के जीवन हैं । ये भगवान ही सब कुछ हैं, ऐसा जानकर लोग प्रभु की उपासना करने लगे।
योगीश्वर ऐसे उन प्रभु ने स्वयं की माता के उदर रूपी गुफा में रह कर नई तरह की परकाय प्रवेश विद्या का अभ्यास किया है, कारण कि बालक एवं तरुण के रूप में प्रभु ने सबके हृदय में प्रवेश कर लिया था। प्रभु का हृदय में ध्यान धरने वाली देवांगनाओं का कामदेव सम्बन्धी ताप का नाश हुआ, प्रभु की वाणी सुन कर्णों में अन्य की प्रशंसा के वचनों के प्रति अरुचि हुई और प्रभु को देखने पर अन्य विषयों की गति में आँखों का आलसी रूप प्रकट हुआ। फिर भी इस प्रभु के प्रति देवांगनायें अत्यन्त स्नेह धारण करने लगीं। युवावस्था में प्रभु का विशेष प्रकार का शरीर-सौन्दर्य कामदेव की भ्रांति को प्रकट करता था। इस प्रकार प्रभु विविध प्रकार की क्रीड़ाओं और विविध रसों के माध्यम से काल निर्गमन करने लगे।
सर्ग - २ दूसरे सर्ग का आरम्भ कवि निम्न श्लोक से करता है :
तदा हरेः संसदि रूपसम्पदं, प्रभोः प्रभाजीवनयौवनोदिताम्।
अगायतां तुम्बुरुनारदौ रदो-च्छलन्मयूखच्छलदर्शिताशयौ ॥१॥ इस अवसर पर तुंबुरु एवं नारद द्वारा इन्द्र की सभा में श्री ऋषभदेव प्रभु की रूप सम्पत्ति का गुणगान किया गया। इन्द्र की सभा में आये हुए प्रभु के चरित्र-रूपी अमृत को पीते हुए किसी देव ने कहा कि 'कामधेनु का दूध आज निंदित हुआ।' दूसरे देव ने कहा कि 'कल्पवृक्ष के फल व्यर्थ गये।' किसी अन्य ने कहा 'समुद्रमंथन से जो अमृत प्रकट हुआ वह भी बेकार गया।' प्रभु के गुणों को सुनने से ही लोगों के कान सुशोभित होने लगे, जिससे उनको कर्णाभूषण पहनने की जरूरत नहीं रही। पुनः कवि कल्पना करता है :
ध्रुवं दृशोश्च श्रवसोश्च संगतं, प्रवाहवान्तरमस्ति देहिनाम्। श्रुतिं गतो गीतरसो दृशोदमून्, मुदश्रुदम्भाद् द्युसदां किमन्यथा ॥२-७॥
तुंबुरु एवं नारद के मुख से प्रभु ऋषभदेव के यश रूपी अमृत का समूह देवों के कर्ण रूपी कुएँ में से हृदय रूपी सरोवर में नहीं समा सका। वह यश का समूह हर्षाश्रु के बहाने से दृष्टि रूपी मार्गों से बाहर निकला।
ऋषभदेव प्रभु का कथामत पीते हुए देवों के कानों को अत्यधिक सुख प्राप्त हुआ, परन्तु प्रभु
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