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यज्जातिवैरं स्मरता तदास्यांभोजन्मनाऽभञ्जि जगत् समक्षम्। निशारुचिस्तत्किमपत्रपिष्णुः सोऽयं दिवाभूद्विधुरप्रकाशः॥ १-५० ।।
प्रभु के मुख रूपी कमल से चंद्रमा को जीत लिया गया इसलिये दिन में चन्द्रमा दिख नहीं रहा है। कमल एवं चन्द्रमा का जाति वैर है इसलिये मुख रूपी कमल को देख चन्द्रमा लज्जाशील होकर प्रकाश नहीं दे रहा है। भगवान के दोनों होठ मानों क्षीरसमुद्र की तरंगों में धुले हुए हैं। पुनः प्रभु जब बोलते हैं तब प्रभु के उज्ज्वल दाँत का तेज अधर पर गिरने से होठ ज्यादा सुशोभित बने हैं । प्रभु के मुख कमल की पहरेदार के समान जैसे रक्षा करता हो वैसे दाँत भी सुन्दर दो पंक्ति में शोभा देते हैं । प्रभु की कोमल जीभ भी वचनों के चातुर्य से लोगों को मृदुता देती है। जीभ खुद चपल है फिर भी सभासदों को धैर्यगुणों का अभ्यास कराती है।
कवि कल्पना करता है कि संसार के जीवों के लिये प्राण को धारण करने वाली नासिका होने से उसने उच्च स्थान को प्राप्त किया है जिससे वह प्रभु की दीक्षा के दिन से लेकर कर्म रूपी शत्रुओं को मारने के लिये वे नासिका का अग्रवीक्षण करेंगे। पुनः भगवान के दोनों गाल, पास में रहने वाले लोगों के लिये हाथ के प्रयास के बिना ही सुवर्णमय दर्पण के जैसा काम करते हैं। प्रभु के नेत्रों से लक्ष्मी को जीता गया है इस कारण से लक्ष्मी प्रभु की दासी बन गई है। काले मेघ समान प्रभु की आँख की भौंहे हैं। कलावान मयूर जैसे काले मेघ को देख कर आनन्दित हो जाते हैं वैसे प्रमदाएँ प्रभु की दो काली भौहों को देख आनन्दित होती हैं।
कवि ने यहाँ प्रभु के नयन एवं भौंहों के लिये उपमा देते हुए लिखा है कि जैसे पथिक अंग नाम के देश में घूम कर, पानी पी कर, लता (तरु) की छाया में विश्राम करके, स्थल मार्ग में गमन करे वैसे ही युवती-स्त्रियों की दृष्टि भगवान के समस्त शरीर के दर्शन करके आँख रूपी प्याऊ के पास सौंदर्य रूपी जल का पान करके, भ्रमर रूपी लता के पास कुछ समय विश्राम लेकर, ललाट के मार्ग से गमन करती है। भगवान का भाल (मस्तक) अष्टमी के चंद्र समान एवं मुख पूर्ण चंद्र समान शोभा दे रहा था। जगत में श्याम वर्ण निंदित माना जाता है, लेकिन प्रभु के पास श्याम वर्ण श्रेष्ठता को प्राप्त करता है। काले केशों का समूह प्रभु के मस्तक पर शोभा दे रहा था, इसलिये केश-कलाप में प्रभु ने श्यामवर्ण को स्थान दिया है । श्याम वर्ण को शरीर में सबसे ऊँचा स्थान मिला है और पीला वर्ण भगवान के संयुक्त अंग का आश्रय लेकर रहा हुआ है इसलिये पीले रंग को सर्व रंगों में श्रेष्ठ माना है।
जैसे घुड़सवार घोड़े को काबू में रखता है वैसे ही प्रभु युवावस्था प्राप्त करने पर भी उनका मन हमेशा काबू में ही रहता था। बलवान ऐसा कामदेव उनके शरीर में निःशंक होकर उनकी सेवा करता था। सुरेन्द्रों ने प्रभु के राज्याभिषेक की तैयारियाँ की उससे पूर्व ही दुष्टों की चेष्टा रूपी साँप को खाने हेतु गरुड़ समान प्रभु का प्रताप फैला हुआ था। मोक्ष-लक्ष्मी की इच्छा पर प्रभु ने अत्यन्त विशिष्ट दान दिया। प्रभु के दान से कल्पवृक्षों की अपेक्षा नहीं रही, यह जानकर कल्पवृक्ष मंदराचल पर्वत की गुफा में चले गये। इन्द्र की सभा में तुंबुरु एवं नारदादि द्वारा प्रभु की कीर्ति रूप अमृत को प्रकट किया गया, इससे देवताओं के पास रखा अमृत व्यर्थ हो गया, क्योंकि सभी देवता अमृत को ही ग्रहण करने लगे।
किन्नरगण वीणा बजाकर प्रभु के यश को गाने लगे। भगवान का यश सुनने हेतु एकत्रित देवों से विशाल नन्दनवन की भूमि भी छोटी हो गई। प्रभु की महिमा वर्णन करता कवि लिखता है :
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
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