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इक्ष्वाकुवंश रखा। विकल्प रूपी तरंगें जिनके शांत हो गयी हैं, जिनके चपलतारहित नेत्र हैं एवं बाल्यावस्था में भी जो योगियों की मर्यादा का पालन करने वाले हैं, ऐसे ऋषभ कुमार को देख कर कामदेव सोचने लगा कि इस बालक को मैं वश में कर सकूं वैसा नहीं है ।
देवता बाल ऋषभ को गोद में लेकर खिला रहे थे । स्नेह से मोहित हुये नाभिराजा पुत्र को बुलाते तब ऋषभकुमार मंद-मंद पैरों से पिता के पास जा कर 'हे तात!' ऐसा कहते थे। बादलों से घिरे सूर्य तारों से भी अधिक प्रकाशमान होता है, वैसे ही मिट्टी में खेलने से मिट्टी से सने भगवान स्नान किये लोगों से भी अधिक सुन्दर लगने लगे। प्रभु की भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य नहीं है जिनका ऐसे देव भगवंत के लिये स्वयं की भक्ति से पोषण प्राप्त करते हैं एवं शीघ्र कवि रूप प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं। प्रभु के कर्ण सुभाषितों को सुनने की इच्छा वाले हैं वैसा जानकर देवता स्तुति करते हैं। हंस, मयूर, चक्रवाक, तोते आदि पक्षियों के विविध रूप धारण करके ऋषभ कुमार के साथ क्रीड़ा करते हैं ।
तत्पश्चात् कवि ऋषभदेव की सात वर्ष की आयु की महत्ता एवं देहकांति का वर्णन कवित्वमय शैली से करता है । मेरु पर्वत के साथ तुलना करता हुआ कवि कहता है कि प्रभु सात वर्ष के हुए एवं मेरु पर्वत भी भरत, हेमवंत, हरिवर्ष, महाविदेह क्षेत्र, रम्यक्, औरवत, हेरण्य सात क्षेत्र से युक्त है। फिर मेरुपर्वत चारों तरफ से नंदन वन से घिरा हुआ है। ऐसा लगता है कि नन्दनवन की गोद में मेरुपर्वत स्थित है वैसे ही ऋषभ कुमार भी मरुदेवा माता के गोदी में बैठे हैं। ऋषभ कुमार सुवर्ण कांति वाला है एवं मेरु पर्वत भी सुवर्ण कांति वाला है। इस प्रकार अनुक्रम से ऋषभ कुमार ने चपलता युक्त बाल्यावस्था त्याग कर युवावस्था को धारण किया ।
प्रभु के देह सौंदर्य का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि ऋषभ कुमार का मुख चंद्र समान एवं चरण युगल कमल समान शोभा देते हैं। चंद्रमणि से निर्मित मुकुट को पहन कर दिक्पाल प्रभु को नमस्कार करने आते हैं। प्रभु को नमस्कार करते समय अपने मुकुट प्रभु के चरणों के पास रखे जिससे प्रभु की अंगुलियाँ अधिक शोभा देने लगीं। फिर प्रभु के नाभिरूप कुंए के पास जाकर प्रजा ने नेत्ररूपी अंजलि से प्रभारूपी जल पीकर अपनी सभी इच्छायें पूर्ण की। (श्रीवत्स) कामदेव ने भगवान के विशाल हृदय में कपट बुद्धि से प्रवेश करने हेतु इच्छा की, लेकिन तत्त्वज्ञान रूपी सुभटों ने (रक्षकों) ने प्रवेश नहीं करने दिया।
याचकों का समूह दान के अवसर पर भगवान के हाथ को कल्पवृक्ष के पत्र जैसा मानते हैं एवं अंगुलियों को कामधेनु एवं नाखुनों को चिंतामणि रत्न के समान मानते हैं। प्रभु के पास सभी याचकों की इच्छा - पूर्ति हो जाती है ।
कवि ने यहाँ कल्पवृक्ष के पत्ते, कामधेनु के आँचल एवं चिंतामणि रत्त्र तीनों का इच्छापूर्ति के अपार्थिव माध्यमों का समन्वय एक हाथ के भीतर ही अपनी मौलिक कल्पना शक्ति से कर लिया है। देखें :
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पाणेस्तलं कल्पपुलाकि पत्रं तस्यांगुलीः कामदुघास्तनांश्च । चिन्तामणींस्तस्य नखानमंस्त दानावदानावसरेऽर्थिसार्थ: ।। १-४८॥
फिर कवि उत्प्रेक्षा करता हुआ लिखता है :
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[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
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