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________________ सर्ग - १ कवि कालिदास की तरह 'जैनकुमारसम्भव' के कवि श्री जयशेखरसूरि भी अस्त्युत्तरस्यां' पद से स्वकीय महाकाव्य का आरम्भ करते हैं : अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीतापरमर्द्धिलोकैः। निवेशयामास पुरः प्रियायाः, स्वस्यावयस्यामिव यां धनेशः॥१॥ संपन्नकामा नयनाभिरामाः, सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः। यत्रोज्झितान्यप्रमदावलोका, अदृष्टशोकान्यविशन्त लोकाः॥२॥ इन्द्र द्वारा स्थापित हुई, इन्द्राणी तुल्य शोभा को धारण करने वाली जंबूद्वीप की उत्तर दिशा में स्थित अयोध्या नगरी है। समृद्धि युक्त नगरी में अत्यन्त ऋद्धिवान मनुष्य रहते हैं । वहाँ परस्पर मैत्री भाव से रहने वाले नगरजनों के समस्त मनोरथ फलित होते हैं। शोक तो इस नगरी से हमेशा के लिये पलायन कर चुका है। इस नगरी के सुवर्णमय गढ़ पर मोती लगे हुये हैं, उन मोतियों पर चंद्रमणि की किरणे प्रसरित हो रही हैं, इससे ऐसा लगता है कि पृथ्वी ने जैसे कर्णाभूषण धारण किये हों । महोत्सव के समय गंभीर ध्वनि से मृदंग बज रहे हैं। उस ध्वनि को सुन कर क्रीड़ा करते मयूर वर्षाकाल की मेघ गर्जना के बिना भी नृत्य करते हैं। वहाँ मंद एवं शीतल वायु चल रही है, इससे मंदिर के शिखर पर स्थित पताकायें नृत्य कर रही हैं। घर में दीपक तो मात्र मांगलिक रूप से ही प्रज्ज्वलित किये जाते हैं। श्री आदिनाथ प्रभु की असीम कृपा से नगरी में चोर आदि अनिष्टकारी उपद्रव नष्ट हो गये हैं। इस कोशलापुरी में दुकानों में बेचने हेतु रखे गये रत्नों को देख कर जो समुद्र रत्नाकर कहलाता था वह अब मकराकर (मगरमच्छों का घर) हो गया है, क्योंकि समुद्र के सभी प्रकार के रत्न कोशलापुरी में आ गये हों वैसा प्रतीत होता है। कवि उपमा देकर लिखता है : पूषेव पूर्वाचलमूर्धि घूक - कुलेन घोरं ध्वनतापि यत्र। नाखंडि पाखंडिजनेन पुण्य-भावः सतां चेतसि भासमानः॥१-१६॥ (जैसे पूर्वांचल में स्थित सूर्य को देख कर उल्लू चाहे जितनी आवाज करे तब भी सूर्य में कोई फेर-बदल नहीं होता वैसे ही इस नगरी के सज्जन लोगों के मन में आये पुण्य भावों का दुष्ट लोग खंडन नहीं कर सकते हैं।) राज्य-मार्ग पर विचरते लोगों की आभरण-भूपित भुजायें आपस में घर्षण से प्रकाश उत्पन्न करती है, वह प्रकाश मानो दिन में भी नक्षत्र आकाश में स्थित है वैसा लोगों में भ्रम उत्पन्न करते है। नगर की क्रीड़ा करने की बावड़ी भी नीलमणियों से बनी हुई है। इस नगरी में दानवीर कल्पवृक्ष की कलियों के समान हाथ द्वारा याचकों की दीनता का निवारण करते हैं । कल्पवृक्ष तो केवल कल्पित ही बन गये हैं। जैसे रत्नों की खाने पृथ्वी के उदर में स्थित है फिर भी उसका प्रकाश फैलता है वैसे ही निर्मल शीलवाली मरुदेवा माता के उदर में स्थित प्रभु ने सर्वजीवों के चित्त में प्रकाश फैलाया है। भगवान का उदय होने पर निरंतर दुःख से पूर्ण ऐसे नरक के जीव भी सुख का अनुभव करते हैं। अभिषेक के समय मेरुशिखर पर स्थापित किये गये सुवर्ण कांतिवाले ऋषभ कुमार को मानवरत्न मान कर इन्द्रादि देवों ने नमस्कार किया। किसी समय इन्द्र ऋषभ कुमार के पास इक्षु लेकर आये। उसे देख कर ऋषभ कुमार ने तुरन्त ही हाथ में इक्षु ग्रहण किया, इससे इन्द्र ने उनके वंश का नाम [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] (१९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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