SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणों की श्रेणियों से अनुपम ऐसी दूसरी सुनंदा नाम की पत्नी भी प्रभु को हर्ष देती थी। सुमंगला एवं सुनंदा भी आपस में मैत्री से रहती थी। प्रभु भी उन दोनों पर समान भाव रखते थे। छहों ऋतुओं ने प्रभु की सेवा की। प्रभु यथेच्छ रूप से विहार करते एवं पुण्य रूपी सूर्य से उदित धैर्य रूपी कांति वाले दिवसों को बिताने लगे। इस प्रकार कुमार-अवस्था की क्रीडायें करते-करते छः लाख पूर्व एक लव (क्षण) के समान ही व्यतीत हो गये। इधर प्रभु की प्रथम पत्नी सुमंगला ने अविनश्वर ऐसा गर्भ धारण किया। इस ७० स'। म काव ने प्रारम्भ के इक्कीस श्लोकों में रात्रि का एवं प्रभु समक्ष कामदेव के पराजित रूप का वर्णन करने के बाद सुमंगला की समानता इन्द्रियों के विषय (शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्शादि) के साथ की है। छहों ऋतुयें प्रभु के अनुकूल आचरण करती थी। प्रभु का क्रीडा करते-करते छः लाख पूर्व का समय बीत गया और सुमंगला गर्भ धारण करती है आदि प्रसंगों का कवि ने खुद की मौलिक शक्ति से आलेख किया है। सर्ग - ७ श्री आदिनाथ प्रभु की सुमंगला नाम की पत्नी रात्रि के समय खुद के वास भवन में गई। जिस वास भवन में जलते दीपकों के प्रकाश से अंधकार दूर हुआ। श्याम वर्ण वाले निर्मल चंदरवा में बंधी मोतियों की मालायें आकाश में रहे लाखों तारों के सदृश शोभा देती थीं। रत्नमय स्तम्भों में सुवर्ण की पुतलियाँ शोभा दे रही थीं। लता के गुच्छों से उत्पन्न हुआ एवं जालियों के मार्ग से आया हुआ वायु रूपी चोर मोती जानकर स्त्रियों के स्वेदबिंदु को हर लेता था। वास भवन के चारों तरफ सर्व ऋतुमय बगीचों को देख कर नंदनवन की भी लोग तारीफ नहीं करते थे। उस वास भवन में श्वेत चद्दर वाले झुले वाली शय्या पर दायीं तरफ सुमंगला सो रही थी। अंधकार रूपी शत्रु के भय को नष्ट करने हेतु जाग रहे सिपाहियों के समान मनोहर दीपक सुन्दर लग रहे थे। सुमंगला की इंद्रियाँ अपना-अपना व्यापार पूर्ण होने से राज कर्मचारियों के समान रात्रि को निश्चल होकर निवृत्ति को प्राप्त हुईं। सुमंगला की निद्रा के भंग के भय से आभूषण भी मौन हो गये। लावण्यरूपी उत्तम मधु वाला ऐसा उसका मुख वायु के बिना निष्क्रिय कमल के जैसे अप्सराओं के नेत्र रूपी भँवरों से पान किया जाने लगा। सुमंगला की निद्रावस्था का वर्णन करते हुए कवि लिखता है : आप्तनिद्रासुखा सौख्यदायीति स्वप्नदर्शनम्। अन्वभूत् पुण्यभूमी सोत्सवांतरमिवोत्सवे ॥ ७-२३॥ निद्राधीन ऐसी वह पुण्यशाली सुमंगला एक उत्सव में दूसरे उत्सव के समान निम्न सुखदायक स्वप्न दर्शन का अनुभव करने लगी। हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, फूलों की माला, चंद्र, सूरज, ध्वज, कुंभ, पद्मसरोवर, क्षीर समुद्र, देवविमान, रत्न राशि एवं अग्नि शिखा ऐसे चौदह स्वप्नों को सुमंगला ने देखा। ये चौदह स्वप्न उस समुमंगला के मुखद्वार से प्रवेश कर उसकी कुक्षिरूपी घर में स्थिर गृहपति रूप को धारण करने लगे। गुण-समूह के स्थान समान सुमंगला जाग्रत हुई। फिर वह सुमंगला पहले नहीं प्राप्त किये ऐसे चौदह स्वप्नों के सम्बन्ध में निद्रारहित लोचन वाली होकर मन में चिन्तन करने लगी। हर्ष से कदंब वृक्ष की मंजरी के समान रोमांचित हुई। जैसे वृद्धि प्राप्त करते बड़ के अंकुर पृथ्वी (३४) Jain Education International [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy