________________
को आनन्द देते हैं वैसे वृद्धि प्राप्त करने वाला सुमंगला का आनन्द उसके हृदय को उल्लासमय करने लगा। सुमंगला उसके बाद सोचती है कि इन स्वप्नों की विचारणा करने में स्त्री-जाति समर्थ नहीं है। उसके योग्य तो जगत के स्वामी ही हैं , कारण कि उत्तम रत्नों की परीक्षा करने में क्या मूर्ख अधिकारी बन सकता है? ऐसा सोच, शय्या का त्याग कर, अत्यन्त धीमे पैरों से अपने स्वामी के पास वह आई। रत्नप्रदीपरुचिसंयमितांधकारे,
मुक्तावचूलकमनीयवितानभाजि। सा तत्र दिव्यभवने भुवनाधिनाथं,
निद्रानिरुद्धनयनद्वयमालुलोके ॥७-७५ ॥ रत्न-दीपकों की प्रभा से अंधकार नष्ट हुआ है जिसमें से एवं मोतियों के गुच्छों से मनोहर हुए चंद्र वाले ऐसे उस दिव्य भवन में उस सुमंगला ने निद्राधीन श्री ऋषभदेव को देखा। एक क्षण में ही प्रभु जागृत हुए और उन्होंने आँखें खोली। उसे देख सुमंगला हर्षित हुई।
इस सातवें सर्ग में कवि ने सुमंगला के निद्राधीन बंद नेत्रों का वन के संकुचित कमलों की उपमा को धारण करने का, सुमंगला के आभूषणों का, सुमंगला द्वारा देखे हुए चौदह महास्वप्नों का, स्त्री जाति की अविचारशील बुद्धि है अत: स्वप्रफल का निर्देश स्वामी ही करने योग्य हैं ऐसे सुमंगला के विचारों का, धीरे कदमों से प्रभु के आवास में सुमंगला के आगमन आदि का वर्णन कवि ने अपनी विशिष्ट मौलिक कल्पना शक्ति द्वारा किया है।
सर्ग - ८ तत्पश्चात् प्रभु का प्रसन्न मुख देखने में लीन बनी सुमंगला ने पैदल चलने से उत्पन्न हुए श्रम को दूर किया। सुमंगला के मन की स्थिति का वर्णन करते हुए कवि लिखता है :
भर्तुः प्रमीलासुखभंगभीति - स्तामेकतो लंभयतिस्म धैर्यम्। स्वप्नार्थशुश्रूषणकौतुकं चान्यतस्त्वरां स्त्रीषु कुतः स्थिरत्वम्॥ ८-५॥
प्रभु के निद्रासुख के भंग होने का भय उसे एक ओर से धीरज रखवा रहा था तो दूसरी तरफ स्वप्नों के अर्थ को सुनने की इच्छा का कौतुक त्वरा करवा रहा था। स्त्रियों में स्थिर बुद्धि कहाँ होती है? स्वामी की निद्रा में विघ्न न हो इसलिये 'हे स्वामी! आपकी जय हो। आप आयुष्यमान हों!' इस प्रकार कोमल वाणी सुनकर कृपालु प्रभु भी शय्या छोड़कर बैठ गये। दूर रहने वाली फिर भी हृदय में वास करने वाली, रात्रि में जागृत रहने पर भी कमलिनी समान एवं मौनधारी होकर भी स्फुरायमान होने वाली (बोलने की इच्छा वाली) सुमंगला को देख उसे पास के सिंहासन पर बिठाकर प्रभु ने पूछा-हे देवि! आपका आगमन शुभ तो है न? सुवर्ण से भी अधिक देदीप्यमान शरीर निराबाध तो है न? आपकी सखियाँ कुशल तो हैं न? माणिक्य के आभूषण निर्दोष तो हैं न? आधी रात को निद्रा का त्याग कर मुझे मिलने क्यों आई हो? अथवा कोई संदेह का निराकरण करने हेतु यह प्रयास किया है? क्योंकि हृदय में रहा संदेहरूपी शल्य आदमी को मृत्यु तक की पीडा देता है। अगर आपको किसी पदार्थ की जरूरत हो तो निःसंकोच मुझे बतायें, क्योंकि स्वर्ग से पाताल तक कोई भी चीज मुझे दुर्लभ नहीं है।
प्रभु की अमृत समान वाणी सुनकर हर्षित सुमंगला कहने लगी, 'हे स्वामी ! तीनों जगत का रक्षण करने वाले, त्रिलोकवेत्ता एवं जन्म के साथ उत्पन्न हुए तीनों ज्ञान के तेज को धारण करने वाले [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
(३५) Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org