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________________ ऐसे आपसे कुछ भी अनजाना नहीं है फिर भी आप स्नेह से पूछ रहे हो ऐसा लगता है । हे प्रभु! आपकी कृपा से केवल स्त्री मात्र होकर भी मैंने बड़प्पन प्राप्त किया है, कारण कि सूत का तार भी मोतियों के समूह का संग प्राप्त कर, राजा के हृदय पर क्रीडा करता है । हे स्वामी! आप मेरे नाथ हो जिससे वायु देवता मेरे गृहांगण को साफ करते हैं, देवांगनायें मेरे कुंभों को पानी से भर देती हैं, सूर्य भोजन बनाते हैं और दासियाँ भी मेरे प्रतिकूल कुछ भी नहीं करती। मैं जिस हेतु से यहाँ आई हूँ वह आपको बताती हूँ, उसे आप सावधान होकर सुनें। कवि वर्णन करता है : क्रियां समग्रामवसाय सायं - तनीमनीषद्धृतिरत्र रात्रौ। अशिश्रियं श्रीजितदिव्यशिल्पं, तल्पं स्ववासौकसि विश्वनाथ॥ ७-३२॥ हे जगत के स्वामी ! सर्व संध्याविधि पूर्ण कर इस रात्रि को मैं अत्यन्त समाधियुक्त होकर अपने वास भवन में शय्या पर सो रही थी तब अनुक्रम से हाथी, वृषभादि चौदह स्वप्न देखे । इसलिये हे विश्व पूज्य ! इन सभी उत्तम स्वप्नों के समूह को देखने से कृतार्थ हुई मैं निद्रा त्याग कर तत्त्वार्थ के विचार की इच्छा से आपके समीप आई हूँ। स्वप्नदर्शन के समय वायु आदिक के कोप से मेरे शरीर में कोई भी विकार नहीं था। आपके नाम रूपी औषध की प्राप्ति से शरीर में कोई रोग भी नहीं था। इस प्रकार हे स्वामी! मन एवं शरीर के क्लेश से रहित जो स्वप्न मैंने देखे हैं उन स्वप्नों का अर्थ कह कर मुझे प्रसन्न करें। सूक्ष्म भावों के विचार में मेरी बुद्धि दौड़ सके वैसी नहीं है। इसलिये हे सर्वज्ञ प्रभु! इन विषय में आप ही प्रमाण रूप हैं। इस प्रकार सुमंगला के मधुर वचनों को सुन कर प्रीति वाले तीनों जग के स्वामी श्री ऋषभदेव प्रभु कोमलता एवं मधुरता से जैसे अमृत समुद्र में से उत्पन्न हुई हो वैसी वाणी बोले-हे विचक्षण सुमंगला! उत्तम फल देने में समर्थ ऐसे स्वप्नों को तेरे मुख से सुनकर मेरा हृदय हर्षित हुआ है । हृदय रूपी क्यारियों में तुम्हारे वचन रूपी अमृत का सिंचन करने से पुष्ट हुए ऐसे आनन्द रूपी आम्रवृक्ष के रक्षण रूपी बाड़ करने हेतु मेरा शरीर रोमांचित हुआ है ! फिर महाबुद्धिमान प्रभु ने मन के तरंगों का त्याग कर क्षण भर समाधि धारण की। अब तीनों लोक के नायक ऐसे श्री ऋषभदेव प्रभु का बुद्धिमानों में मुख्य ऐसा मनरूपी छड़ीदार सभी स्वप्नों को बुद्धिरूपी हाथी से खींचकर विचार रूपी मनोहर सभा में ले गया। अब ज्ञान रूपी अंजन से मनोहर ऐसे प्रभु के चित्त ने गंभीर विचार रूपी सरोवर को तैर कर उन स्वप्नों के फलों के युक्ति रूपी मोती प्रभु को दिये। स्वप्र-विचार से एवं हर्षोल्लास से प्रभु का शरीर रोमांचित हो गया। प्रभु के नेत्रों एवं शरीर को उल्लास युक्त देखकर सुमंगला ने ये स्वप्न महान फल देने वाले हैं ऐसा अनुमान किया, फिर भी प्रभु के मुख से ही स्वप्र फल सुनने की सुमंगला को इच्छा हुई। इस आठवें सर्ग में स्वामी के मुख से स्वप्न फल जानने की इच्छा से सुमंगला प्रभु के पास आती है का, प्रभु अर्द्ध रात्रि को उसको आई देख कुशलता पूछते हैं उस प्रसंग का, सुमंगला प्रभु के गौरव का वर्णन करती है, स्वप्न दर्शन की बात करती है उसका एवं प्रभु ने स्वप्रों का माहात्म्य समझाया उसका वर्णन कवि ने किया है। सर्ग - ९ इस अवसर पर प्रभु के मुखरूपी चंद्र से उल्लासमान एवं वचन रूपी अमृत रस के स्वाद में आदर युक्त है कर्ण जिसके ऐसी उस सुमंगला को प्रभु ने कहा-'हे देवी! शीतल भोजन से एवं अनाच्छादित [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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