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________________ अर्थ :- जो अलंकृत समस्त शरीर से मनोज्ञ इन भगवान् का हस्त तल केवल अनलंकृत था (पक्ष में - पृथ्वी पर नहीं ठहरा था), वह उनकी सौन्दर्य रूपी देवी के वास के लिए मानता हूँ। देवियाँ पृथिवी पर बाहुल्य से प्रीति को प्राप्त नहीं करती हैं। (इस कारण लक्ष्मी प्रभु के हस्त तल में वास करती है, यह भाव है)। सुवर्णमुक्तामणिभासि वासवै-य॑वेशि तस्यापघनेषु येषु यत्। तदीयमुख्यधुतिभङ्गभीषणं, विभूषणं तैस्तदमानि दूषणम्॥ ३०॥ अर्थ :- इन्द्रों ने भगवान् के अङ्गों में जो देदीप्यमान सुवर्ण मोती आदि पहनाये। उन इन्द्रों ने उन भगवान् की मुख्य द्युति का भङ्ग करने से भीषण (उन) विभूषण को दूषण भाना। विशेष :- भगवान् के शरीर में जो आभूषण पहिनाए जाते थे, उनसे उनके शरीर की कान्ति आच्छादित होती थी, अतः भूषण दूषण माने गए। यथा भ्रमर्यः कमले विकस्वरे, यथा विहंग्यः फलिते महीरुहे। उपर्युपर्यात्तविभूषणे विभौ, तथा निपेतुस्त्रिदशाङ्गनादृशः॥ ३१॥ अर्थ :- देवाङ्गनाओं के नेत्र आभूषणों को ग्रहण करने वाले स्वामी पर उस प्रकार पड़े जैसे भ्रमरियाँ कमल पर, जैसे पक्षि-स्त्रियाँ फलयुक्त वृक्ष पर पड़ती है। हिरण्यमुक्तामणिभिर्निजश्रिय-श्चिराच्चितायाः फलिनत्वमाप्यत। अलंकृते नेतरि नाकिनां करैः, प्रसाधनाकर्मणि कौशलस्य च ॥३२॥ अर्थ :- स्वामी के अलंकृत होने पर सुवर्ण और मोतियों ने चिरकाल से संचित अपनी लक्ष्मी की सफलता को प्राप्त किया और देवों के हाथों से प्रसाधन के कर्म में कौशल की फलवत्ता को प्राप्त किया। अथानयत्तस्य पुरः पुरन्दरः, कृताचलेन्द्रभ्रममभ्रमूपतिम्। व्यसिस्मयद्यत्कटकान्मदाम्बुभिः क्षरद्भिराबद्धजवा यमी न कम्॥३३॥ अर्थ :- अनन्तर इन्द्र भगवान् के आगे, जिसने हिमालय का भ्रम उत्पन्न किया है, ऐसे ऐरावत को ले आया। जिसके कपोल से (पक्ष में - मध्यप्रदेश से) गिरते हुए मद जल से बढ़े हुए वेग वाली यमुना नदी ने किस पुरुष को विस्मय में नहीं डाला। विशेष :- हिमालय से गङ्गा निकलती है, यमुना नहीं, इस प्रकार यहाँ आश्चर्य है। अगुप्तसप्ताङ्गतया प्रतिष्ठित-स्तरोनिधि नविधिस्फुरत्करः। प्रगूढचारः सकलेभराजतां, दधौ य आत्मन्यपरापराजिताम्॥३४॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४] (५७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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