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अर्थ देवों ने उन भगवान् के
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मुख को चारों ओर कुण्डल के बहाने से उदयनशील दो सूर्य जानकर उत्पात से जन्य फल को लोक में कहा, इस कारण क्या इस लोक में सूर्यद्वय के दिखलाई देने पर इन्द्रों की भी लक्ष्मी क्षय को प्राप्त हो गई?
विशेष
सूर्यद्वय और चन्द्रद्वय के दिखाई देने पर राजाओं के उत्पात होता है । उदारमुक्तास्पदमुल्लसद्गुणा, समुज्ज्वला ज्योतिरुपेयुषी परम् ।
तदा तदीये हृदि वासमासदद्, व्रतेऽक्षरश्रीरिव हारवल्ली ॥ २६ ॥ अर्थ :उस अवसर पर उदारमोतियों के स्थान रूप गुण जिसके सुशोभित हो रहे हैं, ऐसी निर्मल परंज्योति को प्राप्त हारलता ने उनके हृदय में मोक्षलक्ष्मी के समान निवास को प्राप्त किया । अर्थात् व्रत और दीक्षा के होने पर जिस प्रकार मोक्ष लक्ष्मी निवास को प्राप्त करती है, उसी प्रकार हारलता ने उनके हृदय में निवास को प्राप्त किया ।
विशेष
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मुक्ति लक्ष्मी में ऊर्ध्वगमन और मुक्ति स्थान की प्राप्ति होती है। ऐसे जीव में ज्ञानदर्शनादिक सुशोभित होते हैं और ब्रह्म के समान तेज की प्राप्ति होती है तथा उसकी मोक्ष लक्ष्मी समुज्ज्वल होती है ।
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जगत्त्रयीरक्षणदीक्षितौ क्षितौ भुजौ तदीयाविति केन नेष्यते । अवाप हेमाऽपटुसंज्ञमप्यहो, यदङ्गदत्वं तदुपासनाफलम् ॥ २७ ॥
अर्थ :- किस पुरुष के द्वारा पृथिवी पर उन भगवान् की दोनों भुजायें तीनों लोकों की रक्षा में दीक्षित नहीं मानी जाती है, अपितु सभी के द्वारा मानी जाती है। क्योंकि सुवर्ण ने अपटुसंज्ञक होने पर भी आश्चर्य है उन दोनों भुजाओं की उपासना के फलस्वरूप बाहुरक्षत्व (पक्ष में- देहदाहकत्व) को प्राप्त किया।
(५६)
प्रकोष्ठकन्दं कटकेनवेष्टितं, विधायमन्येऽस्य ररक्ष वासवः ।
स पञ्चशाखोऽमरभूरुहो यदु-द्भवस्त्रिलोकीमदरिद्रितुं क्षमः ॥ २८ ॥
अर्थ :मैं तो यह मानता हूँ कि इन्द्र ने कलाई रूप जड़ को कड़े से वेष्टित कर इसकी रक्षा की। जिससे उत्पन्न पञ्च अङ्गुलियों रूप शाखा वाला वह कल्पवृक्ष तीनों लोगों को अदरिद्र बनाने में समर्थ हुआ ।
विशेष जिस कन्द में इस प्रकार का कल्पवृक्ष होता है, वह कैसे रक्षित नहीं होगा अर्थात् अवश्य रक्षित होगा ।
तलं करस्यास्य परं परिष्कृता खिलाङ्गसाधोर्यदभूदभूषितम् । अवैमि देव्या वसनाय तच्छ्रियो, रतिं न भूम्ना भुवि यन्ति देवताः ॥
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[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ४ ]
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