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अर्थ :- विशुद्ध वस्त्र के छल से गङ्गा की तरंगें महास्वामी, नन्दि चण्ड आदि प्रमुख गणों से सुशोभित, वृष लाञ्छन, ईश्वर भगवान् के सर्वाङ्ग सङ्गम को पाकर अत्यधिक सुशोभित हुईं।
कचान् विभोर्वासयितुं सुगन्धयः, प्रयेतिरे ये जलकेतकादयः।
अमीषु ते प्रत्युत सौरभश्रियं, न्यधुर्नमोघा महतां हि सङ्गतिः॥२१॥ अर्थ :- जल केतकी आदि जिन सुगन्धियों ने स्वामी के केशों को सुवासित करने का प्रयत्न किया। उन केशों ने जल केतकी आदि में विशेष रूप से सुगन्ध की लक्ष्मी को निक्षिप्त कर दिया। निश्चित रूप से बड़े लोगों की सङ्गति निष्फल नहीं होती है।
पिनद्धकोटीरकुटीरहीरक-प्रभास्य मौलेरुपरि प्रसृत्वरि।
प्रतापमेदस्विमदां विवस्वतो-ऽभिषेणयन्तीव करावलीं बभौ ॥२२॥ अर्थ :- बद्धमुकुट रूप स्थान में हीरों की प्रभा भगवान् के मस्तक के ऊपर फैलती हुई, प्रताप से स्थूल मद वाले सूर्य की किरणों को मानों सेना सम्मुख आ रही हो, इस प्रकार सुशोभित हो रही थी।
सनिष्कलङ्कानुचरः प्रभार्णवं, विगाह्य नावेव दृशा तदाननम्।
शिरःपदं पुण्यजनोचितं जनो, ददर्श दूरान्मुकुटं त्रिकूट।॥ २३॥ अर्थ :- निष्कलङ्क अनुचरों के साथ (पक्ष में-सुवर्ण सहित लङ्का के प्रति गमन करने वाले) प्रभा के समुद्र उन भगवान् के मुख को नाव के समान दृष्टि से पार कर लोगों ने त्रिकूट के समान मस्तक पर जिसका स्थान है तथा जो पावत्र लोगों के योग्य है (पक्ष में-राक्षसों के योग्य है) ऐसे मुकुट को दूर से देखा। विशेष :- जैसे नाविक लङ्का के समीप त्रिकूट पर्वत को देखता है, उसी प्रकार भगवान् के शिर पर मुकुट देखा । यहाँ पर मुकुट और त्रिकूट में साम्य है । मुकुट शब्द नपुंसक लिङ्ग में भी है।
ललाटपट्टेश्स्य पृथौ ललाटिका-निविष्टमुक्तामिषतोऽक्षराणि किम्।
पतिवरे पाठयितुं रतिश्रुति, लिलेख लेखप्रभुपण्डितः स्वयम्॥ २४॥ अर्थ :- इन्द्रपण्डित (अथवा लिखने में समर्थ पण्डित) ने विस्तीर्ण ललाटपट्ट पर ललाटाभरण पर स्थापित मोतियों के मिष से स्वयं पति को वरण करने वाली सुमङ्गला और सुनन्दा को रतिशास्त्र पढ़ाने के लिए अक्षर लिखाए।
उदित्वरं कुण्डलकैतवादवि-द्वयं विदित्वा परितस्तदाननम्।
क्षतेक्षिते श्रीरिह वज्रिणामपी-त्यजन्यजन्यं विबुधैः फलं जगे॥२५॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
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