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अर्थ :स्वामी का शरीर पटवास से तैल का नृत्य जिसमें सुखा दिया गया है, ऐसा होकर विशेष रूप से सुशोभित हुआ । इन भगवान् के होने पर बाह्य शरीर में स्थित भी तेल की क्रिया क्या सूर्य की विरोधिनी नहीं होती है ? अपितु होती ही है । विशेष :भगवान् के शरीर पर जो मुख्य तेज था वह तैल लगान से आवृत्त हो गया था। चूर्णों से तैल के सुखा दिए जाने पर वह (तेज) प्रकट रूप से ज्ञात हो गया। जलानि यां स्नानविधौ प्रपेदिरे, पवित्रतां तद्विशदाङ्गसंगतः । तयैव तैरादरसंगृहीतयाधुनापि विश्वं पवितुं प्रभूयते ॥ १६ ॥
जल स्नान की विधि में उन भगवान् के निर्मल अङ्ग के संसर्ग से पवित्रता को प्राप्त हुए। आदर से संगृहीत उसी पवित्रता से वे जल आज भी जगत् को पवित्र करने में समर्थ होते हैं ।
अर्थ
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सुवस्त्रशान्तोदकलेपभासुरः, समन्ततः सङ्गतदिव्यचन्दनः । घनात्ययोद्वान्तजलं मरुद्विरे:, सिताभ्रलिप्तं कटकं व्यजैष्ट सः ॥ १७ ॥
अर्थ :- अच्छे वस्त्र से शान्त हुए जल के लेप से देदीप्यमान, चारों ओर दिव्य चन्दन से युक्त उन भगवान् ने मेघ की समाप्ति होने पर ( शरत्काल में) जिसका जल सूख गया है, ऐसे मेरु पर्वत के श्वेत बादलों से लिप्त शिखर को जीत लिया ।
अमुं पृथिव्यामुदितं सुरद्रुमं, निरीक्ष्यहृन्मूर्ध्नि सुमाञ्चितं सुराः । जगत्प्रियं पुत्रफलोदयं वयः, क्रमादवोचन्नचिरेण भाविनम् ॥ १८ ॥
अर्थ :- देवों ने हृदय और मस्तक पर मंदार, हरिचन्दन, पारिजातादि पुष्पों से पूजित, विश्व के अभीष्ट भगवान् ऋषभदेव को, पृथिवी पर उदित कल्पवृक्ष को देखकर अवस्था के क्रम से (छह लाख पूर्व के अनन्तर ) शीघ्र ही भावी पुत्रफल रूप उदय वाले उनसे कहा ।
अदः कचश्चोतनवारिविपुषो, निपीय यैश्चातकितं तदामरैः । ततः परं तेषु गतं सुधावधि, स्वधिक्क्रियामेव ययौ रसान्तरम् ॥ १९॥ अर्थ :तब जिन देवों ने इन भगवान् के केशों से चूते हुए जल की बिन्दुओं को पीकर पपीहे के समान आचरण किया, उसके बाद अमरों में अमृत से लेकर अन्य रसों ने अपनी निन्दा को ही पाया ।
(५४)
महेशितुः सद्गुणशालिनो वृषध्वजस्य मौलिस्थितितोऽधिकं बभुः ।
अमुष्य सर्वाङ्गमुपेत्य सङ्गमं विशुद्धवस्त्रच्छलगाङवीचयः ॥ २०॥
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[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४ ]
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