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अर्थ :जो ऐरावत प्रकट सात अङ्ग होने से राज्य के सप्ताङ्ग रूप भाव से प्रतिष्ठित होकर वेग की निधि होकर मदजल के कारण सूँड फटकारता हुआ (दान के वितरण में) हस्तसंचालन करता हुआ, गूढ़ गति वाला (गूढ़ गुप्तचरों वाला) अपने में दूसरों के द्वारा अनर्जित समस्त हाथियों के राजत्व को धारण करता था ।
विशेष
सूँड, पूँछ, जनेन्द्रिय तथा चार पैर ये हाथी के सात अङ्ग हैं। स्वामी, अमात्य, सुहृत्, कोश, राष्ट्र, दुर्ग और बल ये राज्य के सात अङ्ग हैं।
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क्रमोन्नतस्तम्भचतुष्टयांचितः, शुभंयुकुम्भद्वितयं वहन् पुरः । गवाक्षकल्पश्रुतिरग्र्यदन्तको, जगाम यो जंगमसौधतां श्रिया ॥ ३५ ॥
अर्थ :- चरण रूप उन्नत चार स्तम्भों से युक्त, आगे शुभ संयुक्त दो गण्डस्थलों (कुम्भों) को धारण करता हुआ, खिड़कियों के समान कान वाले तथा आगे दाँत वाले (खूँटी वाले) जिस ऐरावत ने सौन्दर्य में चल प्रसादपने को प्राप्त कर लिया।
वृषध्वजेशानविभोः पवित्र्यते, सदासनं किं मम नो मनागपि । चटूक्तिमाद्यस्य हरेः प्रमाणय- निवेति तं वारणमारुरोह सः ॥ ३६ ॥ अर्थ :हे वृषचिह्न ! ऑप ईशान इन्द्र के आसन को सदा पवित्र करते हैं। मेरे आसन को थोड़ा भी पवित्र नहीं करते हैं । सौधर्मेन्द्र की इस प्रकार की चाटुकारी पूर्ण उक्ति को ही मानों प्रमाणित करते हुए वह भगवान् गज पर सवार हुए।
विशेष :यहाँ पर उत्प्रेक्षा अलङ्कार है । ईशानेन्द्र का वाहन वृषभ है, भगवान् भी वृषभध्वज हैं, यह भाव है ।
शरद्घनः काञ्चनदण्डपाण्डुरातपत्रदम्भात्तडिता कृताश्रयः । जनैरदातेति जुगुप्सितो जिनं, न्यषेवताध्येतुमुदारतामिव ॥ ३७ ॥
अर्थ
सुवर्णदण्ड के समान पीले छत्र के मिष से विद्युत् ने जिसका आश्रय लिया है, लोगों के द्वारा कृपण है, इस प्रकार जिसकी निन्दा की गई है, ऐसे शरत्कालीन मेघ ने मानों उदारता की शिक्षा लेने के लिए ही 'जिन' का सेवन किया।
विशेष :
यहाँ उत्प्रेक्षा अलङ्कार है ।
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विहाय नूनं शशिनं कलंकिनं, प्रकीर्णकच्छद्मधरः करोत्करः । शुचिं भाजोभयतस्तदाननं, विधुं विधाय प्रणतिं मुहुर्मुहुः ॥ ३८ ॥ अर्थ :- निश्चित रूप से कलङ्की चन्द्रमा को छोड़कर दो चामरों के मिष को धारण करने वाला किरणों का समूह बार-बार दोनों पार्श्वों में प्रणाम कर भगवान् के मुखचन्द्र का सेवन करता था ।
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[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य,
सर्ग - ४ ]
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