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वे तुम दोनों अन्य के द्वारा शिक्षणीय नहीं हो। मेरा चित्त ही धृष्ट व्यक्तियों में अग्रणी है। जो कि तुम दोनों को भी अत्यधिक शिक्षा देने का इच्छुक है।
श्रोत्रयोर्गुरुगिरां श्रुतिरास्ये, सूनृतं हृदि पुनः पतिभक्तिः ।
दानमर्थिषु करे रमणीना-मेष भूषणविधिर्विधिदत्तः॥ ७१॥ अर्थ :- स्त्रियों की यह भूषणाविधि भाग्य ने दी है। कानों में गुरु की वाणी सुनना, मुख में मधुर वाणी, पुनः हृदय में प्रतिभक्ति और याचकों को दान देना।
सुभ्रुवां सहजसिद्धमपास्यं, चापलं प्रसवसद्म विपत्तेः। ___ येन कूलकठिनाश्मनिपाता-द्वीचयोंऽबुधिभुवोऽपि विशीर्णाः॥७२॥ अर्थ :- सुन्दर भौंह जिनके है ऐसी स्त्रियों को स्वभावसिद्ध, विपत्ति का जन्मगृह चंचलता छोड़नी चाहिए, जिस चपलता से तट पर जो कठिन पाषाण हैं, उन पर पतन से समुद्र से उत्पन्न तरङ्गे भी भग्न हो गईं।
चापलेऽपि कुलमूर्ध्नि पताका, तिष्ठतीति हृदि मास्म निधत्तम्।
प्राप सापि वसतिं जनबाह्यां, दण्डसंघटनया दृढबद्धा॥७३॥ अर्थ :- हे कुलीने! तुम दोनों को हृदय में पताका चंचल होने पर भी घर (अथवा गोत्र) के मस्तक पर ठहरती है, यह बात नहीं सोचनी चाहिए। उस पताका ने भी दण्ड की संघटना से दृढ़बद्ध होती हुई लोगों से बाहर वसती में निवास को प्राप्त किया।
अस्ति संवननमात्मवशं चे-दौचितीपरिचिता पतिभक्तिः।
मूलमन्त्रमणिभिर्मूगनेत्रा-स्तद् भ्रमन्ति किमु विभ्रमभाजः॥७४॥ अर्थ :- हे कुलीने ! स्त्रियों के यदि औचित्य गुण से युक्त पतिभक्ति रूप अपने अान वशीकरण है तो मृगनेत्रा स्त्रियाँ मूलमन्त्र और मणियों से किसलिए विभ्रम की पात्र होकर भ्रमण करती हैं?
भोजिते प्रियतमेऽहनि भुंक्ते, या च तत्र शयिते निशि शेते। . प्रातरुज्झति ततः शयनं प्राक्, सैव तस्य सुतनुः सतनुः श्रीः॥ ७५॥ अर्थ :- जो स्त्री प्रियतम से दिन में भोजन कर लेने पर भोजन करती है और जो प्रियतम के रात्रि में सोने पर सोती है। प्रातः प्रियतम से पूर्व शयन छोड़ती है। प्रियतम की वही सुन्दर शरीर वाली स्त्री शरीर धारिणी लक्ष्मी होती है। विशेष :- कहा भी है
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५] Jain Education International
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