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अनुकूला सदा तुष्टा दक्षा साध्वी विचक्षणा।
एभिः पञ्चगुणैर्युक्ता श्रीरिव स्त्री न संशयः॥ अर्थात् जो अनुकूल, तुष्टा, दक्षा, साध्वी और विचक्षण हो, इन पाँच गुणों से युक्त स्त्री लक्ष्मी के समान होती है, इसमें कोई संशय नहीं है।
नेत्रपद्ममिह मीलति यस्या, वीक्षिते परपुमाननचन्द्रे ।
श्रीगृहं सृजति पङ्कजिनीव, तामिनः स्वकरसङ्गमबुद्धाम्॥७६॥ अर्थ :- जिस स्त्री का नेत्रकमल परपुरुष का मुख रूप चन्द्र देखने पर संकुचित हो जाता है। भर्ता (अथवा सूर्य) अपने हाथ (अथवा किरण) के स्पर्श से विकसित उस स्त्री को कमलिनी के समान लक्ष्मीस्थान का सृजन करता है अर्थात् उसे अपने घर की समस्त लक्ष्मी का स्थान बना देता है।
मास्म तप्यत तपः परितक्षीन्, मा तनूमतनुभिर्वतकष्टैः।
इष्टसिद्धिमिह विन्दति योषि-च्चेन लुम्पति पतिव्रतमेकम्॥७७॥ अर्थ :- तप मत तपो। शरीर को बहुत से व्रत के कष्टों से क्षीण मत करो। स्त्री इस संसार में यदि एक पतिव्रत को नहीं छोड़ती है तो इष्टसिद्धि प्राप्त करती है।
उग्रदुर्ग्रहमभङ्गमयत्न-प्राप्यमाभरणमस्ति न शीलम्।
चेत्तदा वहति काञ्चनरत्न-र्वीवधं मृदुपलैर्महिला किम्॥ ७८॥ अर्थ :- स्त्रियों के यदि उत्कट दुःख से ग्राह्य अभङ्ग अयत्नप्राप्य शील रूप आभरण नहीं है तो स्त्री मिट्टी और पत्थरों से निर्मित सुवर्ण और रत्नों से भार को क्यों वहन करती है?
मजितोऽपि घनकजलपङ्के, शुभ्र एव परिशीलितशीलः।
स्वधुनीसलिलधौतशरीरो-ऽप्युच्यते शुचिरुचिर्न कुशीलः॥ ७९॥ अर्थ :- जिसने शील को परिशीलित किया है, ऐसा पुरुष घने काजल के कीचड़ में डूबे रहने पर भी उज्ज्वल है। कुशील पुरुष गङ्गा जल से शरीर धोने पर भी उज्ज्वल कान्ति वाला नहीं कहा जाता है।
कष्टकर्म न हि निष्फलमेत-च्चेतनावदुदितं न वचो यत्।
शीलशैलशिखरादवपातः, पातकापयशसोर्वनितानाम्॥ ८०॥ अर्थ :- (पर्वतादि से गिरना आदि) कष्ट कर्म किए जाने पर निष्फल नहीं होते हैं, यह वचन सचेतन से कथित नहीं है, क्योंकि स्त्रियों का शील रूपी पर्वत के शिखर से गिरना पाप और अपयश के लिए ही होता है। (८२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
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