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________________ या प्रभूष्णुरपि भर्तरि दासी - भावमावहति सा खलु कान्ता । कोपपङ्ककलुषा नृषु शेषा, योषितः क्षतजशोषजलूकाः ॥ ८१ ॥ वह अर्थ :जो समर्थ होने पर भी प्रियतम के प्रति दासीभाव को धारण करती है, कान्ता जाननी चाहिए। शेष स्त्रियाँ कोप रूपी कीचड़ से कलुष होती हुई मनुष्यों में खून को सोखने के लिए जोंक हैं । रोषिताऽवगणिता निहताऽपि, प्रेमनेतरि न मुञ्चति कुल्या । मेघ एव परितुष्यति धारा - दण्डधोरणिहतापि सुजातिः ॥ ८२ ॥ अर्थ :- कुलीना स्त्री (प्रियतम के) रोष को प्राप्त होने पर, तिरस्कृत होने पर अथवा मारे जाने पर भी स्वामी के प्रति प्रेम को नहीं छोड़ती है । जैसे मालती (अथवा कुलीना) मेघ सम्बन्धी धारादण्ड की श्रेणी से हत होने पर भी मेघ में ही सन्तुष्ट होती है । तद्युवामपि तथा प्रयतेथां, स्त्रैणभूषणगुणार्जनहेतोः । येन वां प्रतिदधाति समस्तः, स्त्रीगणो गुणविधौ गुरुबुद्धिम् ॥ ८३ ॥ अर्थ :हे कुलीने ! तो तुम दोनों भी स्त्रियों के समूह के आभूषण रूप जो गुणों के अर्जन के निमित्त हैं, उनके विषय में उस प्रकार का प्रयत्न करो, जिससे समस्त स्त्रीसमूह तुम दोनों के गुणों के प्रकार में गुरुबुद्धि को धारण करे । बुद्धिं शुद्धामिति मतिमतामुत्तमेभ्यः शचीन्द्रौ भक्त्या वेशाद्विशदहृदयौ प्राभृतीकृत्य तेभ्यः ॥ स्वागस्त्यागं चरणलुठनैः क्लृप्तवन्तौ दिवं तौ, द्राग् भेजाते चिरविरहतोऽत्याकुलस्थानपालाम् ॥ ८४ ॥ अर्थ :निर्मल मन वाले अपने अपराध के त्याग को चरण नमस्कार से युक्त करते हुए वे दोनों शची और इन्द्र बुद्धिमानों में उत्तम वरवधू को इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से भक्ति के आवेश से भेंट देकर शीघ्र ही चिरकाल के विरह से अत्यन्त आकुल स्थानरक्षक वाले स्वर्ग लोक को गए । अन्येऽपीन्द्राः सकलभगवत्कार्यभारे धुरीणं, सौधर्मस्याधिपमधरमप्युत्तरं भावयन्तः । धन्यं मन्यास्त्रिभुवनगुरोर्दर्शनादेव देवैः, साकं नाकं निजनिजमयुर्निर्भरानन्दपूर्णाः ॥ ८५ ॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ५ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only (८३) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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