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अर्थ :- भगवान् के समस्त कार्य में अग्रगामी, सौधर्म इन्द्र को नीचे होने पर भी उत्कृष्ट मानते हुए तीनों भुवनों के गुरु के दर्शन से ही धन्य मानने वाले अन्य भी इन्द्र अत्यधिक आनन्द से पूर्ण होते हुए देवों के साथ अपने-अपने स्वर्ग को गए।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि-, र्धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लेलिनीसानुमान्। वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये ऽभवत् पञ्चमः॥५॥ कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लकुमारचरितादि महाकवित्व के प्रवाह रूप नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में पञ्चम सर्ग समाप्त हुआ। इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित
जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का पञ्चम सर्ग समाप्त हुआ।
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