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६. षष्ठः सर्गः
अथाश्रयं स्वं सपरिच्छदेषु, सर्वेषु यातेषु नरामरेषु।
नाथं नवोढं रजनिर्विविक्त, इवेक्षितुं राजवधूरुपागात्॥१॥ अर्थ :- अनन्तर सपरिवार समस्त मनुष्य और देवों के अपने घर को जाने पर रात्रि रूपी राजवधू (चन्द्रवधू) नवपरिणीत नाथ को मानों एकान्त में देखने के लिए आयी।
निशा निशाभङ्गविशेषकान्ति-कान्तायुतस्यास्य वपुर्विलोक्य।
स्थाने तमः श्यामिकया निरुद्धं, दधौ मुखं लब्धनवोदयापि॥२॥ अर्थ :- रात्रि ने नया उदय प्राप्त होने पर भी स्त्री से युक्त इन भगवान् के हल्दी के टुकड़े के समान विशेष कान्ति वाले (पक्ष में - रात्रि की समाप्ति पर विशेष कान्ति वाले) शरीर को देखकर अंधकार की कालिमा से व्याप्त मुख को धारण किया।
अभुक्त भूतेशतनोर्विभूति, भौती तमोभिः स्फुटतारकौघाः।
विभिन्नकालच्छविदन्तिदैत्य-चर्मावृतेर्भूरिनरास्थिभाजः॥ ३॥ अर्थ :- अन्धकारों से उपलक्षित, जिसमें ताराओं के समूह प्रकट हो रहे हैं, ऐसी रात्रि ने विशेष रूप से जिसकी कृष्णकान्ति भिन्न हो रही है इस प्रकार के गजासुर का चमड़ा जिसका आवरण है तथा जो अत्यधिक रूप से मनुष्य की अस्थियों का सेवन करती है ऐसे शिव के शरीर की विभूति का सेवन किया। विशेष :- रात्रि का अन्धकार ही दैत्य सम्बन्धी काले चर्म का आवरण है । तारा समूह मनुष्य की अस्थियाँ हैं । इस कारण ईश्वर (शिव) के शरीर का उपमान रात्रि का है।
न्यास्थन्निशा तस्करपुंश्चलीनां, नेत्रेषु लोकाक्षिमहांसि हृत्वा।
सूरे गते दुःसहमण्डलाये, तमस्विनां हि फलिता कदाशा॥ ४॥ अर्थ :- रात्रि लोगों के नेत्रों का तेज हरण कर तस्कर और स्वैरिणी स्त्रियों के नेत्रों में उहरी। जिसका खड्ग दु:सह है, ऐसे सूर्य के (और सुभट के) चले जाने पर अन्धका में विचरण करने वाले पापियों की बुरी आशा फलित हो गई।
जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
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