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मौग्ध्यहेतुरनयोरनयोऽपि, स्वामिना समुचितो ननु सोढुम्।
कारिकासु सिकताधिकतायाः, किं प्रकुप्यति नदीषु नदीशः॥६५॥ अर्थ :- हे नाथ! दोनों वधुओं का मुग्धता के कारण अन्याय भी स्वामी को सहन करने योग्य है । समुद्र क्या रेत की अधिकता करने वाली नदियों पर अत्यधिक कुपित होता है? अपितु नहीं होता है।
मन्तुमन्तमपि भावविशुद्धं, शुद्धमेव गणयन्ति गुणज्ञाः।
मान्य एव शुचिरन्तरिहेम्य-स्त्रैणकंठरसिकोऽपि हि हारः॥६६॥ अर्थ :- हे नाथ! गुणों को जानने वाले अपराधी भी पुरुष यदि भाव से विशुद्ध है तो उसे शुद्ध ही मानते हैं । निश्चित रूप से धनी व्यक्तियों की स्त्रियों के समूह के कण्ठ का रसिक भी हार मध्य में पवित्र होता हुआ मान्य ही है।
त्वं परां नृषु यथाञ्चसि कोटिं, स्त्रीष्विमे अपि तथा प्रथिते तत्।
प्रेम्णि वीक्ष्य घनतां जनता वः, स्थैर्यमावहतु दम्पतिधर्मे ॥ ६७॥ अर्थ :- हे नाथ! तुम मनुष्यों में जैसे उत्कृष्ठ कोटि को प्राप्त होते हो उसी प्रकार ये सुमङ्गला और सुनन्दा स्त्रियों में विख्यात हैं, अत: जनसमूह आपके स्नेह में दृढ़ता को देखकर दम्पति के धर्म में स्थिरता धारण करे।
प्राप्तकालमिति वाक्यमदित्वा, मोदभाजि विरते सुरराजे।
आलपत् कुलवधूसमयज्ञा, शच्यपि प्रथमनाथनवोढे ॥ ६८॥ अर्थ :- जिसे अवसर प्राप्त हुआ है, ऐसे मुदित इन्द्र के इस प्रकार कहकर विरत होने पर कुलवधू के आचार को जानने वाली इन्द्राणी ने भी आदिदेव की नूतन स्त्रीद्रय से कहा।
यस्य दास्यमपि दुर्लभमन्यै-स्तत्प्रिये बत युवां यदभूतम्।
भाग्यमेतदलमत्र भवत्योः, कः प्रवक्तुमलमत्रभवत्योः॥ ६९॥ अर्थ :- हे कुलीने ! जिसकी दासता भी अन्यों को दुर्लभ है, तुम दोनों उनकी प्रिया हुई हो यह आप दोनों का अत्यधिक सौभाग्य है। इस संसार में कौन पुरुष उसे हर्ष से कहने में समर्थ हो सकता है, अपितु कोई नहीं।
देवदेवहृदि ये निविशेथे, ते युवां न भवथोऽन्यविनेये।
स्वान्तमेव मम धृष्टधुरीणं, यच्छिशिक्षयिषु वामपि कामम्॥७०॥ अर्थ :- हे सुमङ्गला और सुनन्दा! तुम दोनों जो देवों के भी देव के हृदय में रह रही हो
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
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