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अर्थ :- जो अन्य भी स्वामी का आश्रय लेता है, वह पुण्य मन वाले उन स्वामी के द्वारा रक्षणीय होता है। कुलवधू के विषय में तो बात ही क्या कहना, जो कि पिता सम्बन्धी प्रेम को छोड़कर स्वामी के समीप आयी है।
ये द्विषत्सु सहना इह गेहे-नर्दिनः प्रणयिनीं प्रति चण्डाः ।
ते भवन्तु पुरुषाश्चरितार्थाः, श्मश्रुणैव न तु पौरुषभंग्या॥६०॥ अर्थ :- जो पुरुष वैरियों के क्षमापरायण हैं, जो घर में शूर हैं, स्त्री के प्रति रौद्र हैं, वे पुरुष दाढ़ी मूंछ से ही चरितार्थ होवें, पौरुष के प्रकार से नहीं। विशेष :- पुरुष के पाँच लक्षण होते हैं-१. पात्र को दान देने वाला २. गुणों के प्रति अनुरागी ३. परिजनों के साथ भोगी ४. युद्ध में योद्धा तथा ५. शास्त्र का ज्ञाता। पद्य में कथित पुरुष पुरुष के लक्षणों से हीन है।
अन्तरेण पुरुषं न हि नारी, तां विना न पुरुषोऽपि विभाति।
पादपेन रुचिमञ्चति शाखा, शाखयैव सकलः किल सोऽपि॥६१॥ अर्थ :- नारी पुरुष के बिना सुशोभित नहीं होती है, नारी के बिना पुरुष भी सुशोभित नहीं होता है । वृक्ष से शाखा कान्ति को प्राप्त करती है। वृक्ष भी शाखा से ही सम्पूर्ण है।
मुक्तिरिच्छति यदुज्झितदारं, स्त्री स्त्रियं नहि सहेत स हेतुः।
कामयन्त इतरे तु महेला-युक्तमेव पुरुषं पुरुषार्थाः॥ ६२॥ अर्थ :- मुक्ति जिसने स्त्री का परित्याग कर दिया है, ऐसे पुरुष को चाहती है। इसमें हेतु यह है कि स्त्री स्त्री को सहन नहीं करती है (मुक्ति स्त्री है)। अन्य धर्म, अर्थ और काम रूप पुरुषार्थ स्त्री सहित ही पुरुष की कामना करते हैं।
योषितां रतिरलं न दुकूले, नापि हेम्नि न च सन्मणिजाले।
अन्तरङ्ग इह यः पतिरङ्गः, सोऽदसीयहृदि निश्चलकोशः॥६३॥ अर्थ :- स्त्रियों की अत्यधिक रूप से रेशमी वस्त्र के प्रति रति नहीं होती है, न सुवर्ण में और न प्रशस्य मणिसमूह में रति होती है। संसार में अन्तरङ्ग जो पति के प्रति अनुराग है, वह उनके हृदय में निश्चल कोश है।
स्पष्टनैकगुणमुज्झति नैका-दीनवाजनमदीनमनस्कः।
चञ्चलापि किमनल्पगुणाढ्या, धीयते न कुलमूर्ध्नि पताका॥६४॥ अर्थ :- हे नाथ उदार हृदय एक दुर्भाग्य रूप दोष होने से प्रकट अनेक गुणों को नहीं छोड़ता है। बहुत से गुणों से समृद्ध चंचल भी पताका क्या कुल (या गोत्र) के मस्तक पर नहीं रखी जाती है, अपितु रखी जाती है। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
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