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नेत्रमण्डलगलज्जलधारा - धिष्ण्यबन्धुरिमधूर्वहदेहः।
तं शतक्रतुरथो कृतकृत्यः, स्वर्यियासुरभिवन्द्य जगाद॥ ५५॥ अर्थ :- अनन्तर जिसके नेत्रों के समूह स रते हु नल के धारागृह (फव्वारे) की मनोज्ञता के भार को वहन करने वाली जिसकी देह है, ऐसे इन्द्र ने कृतकृत्य होकर स्वर्ग जाने की इच्छा से उन भगवान् की वन्दना कर कहा।
रूपसिद्धिमपि वर्णयितुं ते, लक्षणाकर न वाक्पतिरीशः।
यच्चतुष्ककलनापि दुरापा, तद्धितप्रकरणं मनुते कः॥५६॥ अर्थ :- हे (भृङ्गार, चामर, युगध्वज, शंखयुग्म, मंजीर, समुद्र, सरिता, पुष्करिणी इत्यादि एक हजार आठ) लक्षणों की खानि! तुम्हारे शरीर की भी सिद्धि (पक्ष में शब्दसिद्धि) का भी वर्णन करने में बृहस्पति समर्थ नहीं है। भगवान् की सभा के अवसर को भी प्राप्त करना कठिन है, उनके हित के प्रकरण को कौन जानता है? अर्थात् उनके हित की चिन्ता कैसे की जा सकती है? (दूसरे अर्थ में उन लक्षणाकर के तद्धितप्रकरण को कौन जानता है, जिस चतुष्क (चार का समूह) की आद्यवृत्ति की पकड़ भी दुष्प्राप्य है।)
यन्महः समुपजीव्य जडोऽपि, स्यात् कलाभूदिति विश्रुतिपात्रम्।
यन्नये विनयनं तव तस्य, द्योतनं द्युतिपतेस्तदधीश॥ ५७॥ अर्थ :- हे नाथ! आपका जो तेज है उसके आधार पर मूर्ख भी कलाधारी के रूप में ख्याति का स्थान हो जाता है। (पक्ष में जिस सूर्य के तेज के आधार पर जड़ चन्द्र भी कलाधारी हो जाता है, अमावस्या में सूर्य और चन्द्र मिल जाते हैं । चन्द्रमा सूर्य से तेज प्राप्त का प्रतिपदा के दिन गायों के द्वारा दृष्टव्य होता है, द्वितीया के दिन मनुष्यों से दृष्टव्य हो जाता है, इस प्रकार उसकी कलाधर के रूप में प्रसिद्धि हो जाती है)। उसका जो आपके न्याय विषय में शिक्षण है, वह हे अधीश! सूर्य का प्रकाशन है।
वच्मि किञ्चन पुनः प्रभुभक्त्या, ये इमे ऋजुमती कुलकन्ये।
आदृते भगवता सुविनीते, प्रेम जातु न तयोः शूथनीयम्॥५८॥ अर्थ :- हे नाथ! मैं कुछ प्रभुभक्ति से कहता हूँ जो ये दोनों सरलबुद्धि वाली कुलकन्यायें (सुमङ्गला और सुनन्दा) भगवान् के द्वारा आदर को प्राप्त हैं, उन दोनों के प्रति प्रेम कभी भी शिथिल न करें।
यः परोऽपि विभुमाश्रयतेऽसौ, तस्य पुण्यमनसः खलु पाल्यः। किं पुनः कुलवधूरवधूय, प्रेम पैतृकमुपान्तमुपेता॥ ५९॥
(७८)
_ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
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