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हेमकान्ति हरिणा हरिणाक्षी-यामलं पुनरदीयत शच्यै।
पाणिभूषणतया क्षणमस्या-स्तत् सुवृत्तमभजद्वलयाभाम्॥५०॥ अर्थ :- इन्द्र ने सुवर्ण के समान कान्ति युक्त सुन्दर चरित्र, हरिण के समान नेत्र वाले वधू युगल को इन्द्राणी के लिए दिया। उस क्षण ने इन्द्राणी का हस्ताभरण होने से दो कंगन की आभा को प्राप्त किया।
. असंदेशमनयन्नयशाली, तं हरिः स्वमथ शच्यपि वध्वौ। ___ शक्तिमत्त्वमखिलापघनेभ्यो, विश्रुतं किमुपरीक्षितुमस्य॥५१॥ . अर्थ :- अनन्तर समस्त अवयवों से विख्यात शक्तिमत्ता की परीक्षा करने के लिए क्या नीति से शोभायमान इन्द्र उन भगवान् को अपने स्कन्धप्रदेश तक ले गया? शची भी दोनों वधुओं को अपने स्कन्धप्रदेश तक ले गयी।
विश्वविश्वविभुना परिण?-कांसभूरपि विभुः स ऋभूणाम्।
सङ्गतांसयुगलामबलाभ्यां, न स्वतः प्रणयिनी बहु मेने॥५२॥ अर्थ :- देवों के स्वामी इन्द्र ने समस्त विश्व का अधिप होने से व्याप्त एक कन्धे का स्थान होते हुए सुमङ्गला और सुनन्दा अबलाओं से मिलित स्कन्ध युगल होने पर भी इन्द्राणी को अपने से अधिक नहीं माना। विशेष :- इन्द्र ने भगवान् को एक कन्धे पर आरोपित किया। इन्द्राणा न दोनों कन्धों पर वधू युगल को आरोपित किया। इससे इन्द्र ने अपने आपको न्यून नहीं माना; क्योंकि भगवान् अकेले भी भारी थे और दोनों वधुयें अबला थीं।
तत्र तौ प्रमदनिर्मितनृत्यौ, तं च ते च परितोषयतः स्म।
क्ष्मां तदंह्रिकमलस्पृहयालु, प्रक्षरत्सुमचयैः सुखयन्तौ ॥ ५३॥ अर्थ :- उस अवसर पर भगवान् के चरण कमल के स्पृहालु पृथिवी से गिरते हुए फूलों के समूह से सुख उत्पन्न करते हुए वे दोनों (शची और इन्द्र) हर्ष से नृत्य करते हुए उन भगवान् को और उन वधुओं को सन्तुष्ट कर रहे थे।
अप्सरोभिरिति कौतुकगानेऽप्यस्य न स्मरवशत्वमभाणि।
मास्म लजिततरस्तरुणीना-मिष्टमेषकषदेकभटस्तम्॥ ५४॥ ___ अर्थ :- अप्सराओं ने इस कारण कौतुक गान में भी भगवान् के कामदेव के वश में
होने को नहीं कहा; क्योंकि अद्वितीय योद्धा ये भगवान् लज्जित होकर स्त्रियों के इष्ट उस कामदेव की हिंसा न कर डालें।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
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