SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'अर्थ :- वेग बाली, वर को देखने के लिए दौड़ने वाली, युवतियों के समूह से जिसका त्वरितगमन मन्द कर दिया गया है ऐसी किसी अन्य स्त्री ने पति के अभीष्ट भी, जिनने गमन को मन्द कर दिया है ऐसे जघन और स्तन समूह की निन्दा की । निर्निमेषनयनां नखचर्या - ऽस्पृष्टभूमिमपरामिह दृष्ट्वा । को न देव्यजनि पश्यत देव-ध्यानतो दुतमसाविति नोचे ॥ ४५ ॥ अर्थ :समुदाय में अन्य निर्निमेष नयनों वाली, नखों की चर्चा से जिसने भूमि का स्पर्श नहीं किया है ऐसी स्त्री को देखकर किसने यह नहीं कहा- हे मनुष्यों ! देखो, यह प्रभु के ध्यान से शीघ्र देवी हुई । (देवियाँ भी निर्निमेषनयन और अस्पृष्ट भूमि वाली होती हैं ।) प्रागपि प्रभुरभूद्रमणीयः, काधिकास्य विदधे विबुधैः श्रीः । यत्त एव परियंत्यमुमन्या, तद्दिदृक्षुरितिसेर्घ्यमुवाच ॥ ४६ ॥ अर्थ अन्य स्त्री ने स्वामी को देखने की इच्छुक होकर, प्रभु पहले से ही रमणीय थे, देवों ने इनकी कौन से अधिक शोभा कर दी, जिस कारण वे देव ही भगवान् को घेरे रहते हैं, इस प्रकार ईर्ष्यायुक्त होकर कहा । -: मुञ्च वर्त्मसखि पृष्ठगतापि, त्वं निभालयसि नाथमकृच्छ्रम्। इत्युपात्तचटुवाक् पुरतोऽभूत्, कापिखर्ववपुरुच्चतरांग्याः ॥ ४७ ॥ अर्थ :- कोई बौने शरीर वाली स्त्री ऊँचे शरीर वाली स्त्री से - हे सखि ! तुम मार्ग छोड़ो, तुम पीछे स्थित भी स्वामी को सुख से देख रही हो, इस प्रकार चाटुकारी पूर्ण वचनों को ग्रहण कर आगे हो गई । एवमद्भुतरसोम्भितनारी-नेत्रनीलनलिनाञ्चितकायः । तासु काञ्चनमुदं प्रददानः, स्वालयाग्रमगमज्जगदीशः ॥ ४८ ॥ अर्थ :- इस प्रकार अद्भुत रस से पूरित नारियों के नेत्र रूप नीलकमल से पूजित शरीर वाले, स्त्रियों में अपूर्व हर्ष को प्रदान करते हुए जगन्नाथ अपने आवासद्वार को चले गए। हस्तिनो हसितमेरुमहिम्नो, गाङ्गपूरवदथावतरन्तम् । वासवः शमितपातकतापं तं दधौ द्युगतमेव बलोग्रः ॥ ४९ ॥ " अर्थ :- अनन्तर बल में उत्कट इन्द्र ने मेरु की महिमा की हँसी उड़ाने वाले ऐरावत हाथी से उतरते हुए पाप रूप ताप की शान्ति करने वाले उन भगवान् को आकाश में स्थित ही धारण किया। (७६) Jain Education International [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ५ ] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy