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अर्थ :- कोई स्त्री पंक्ति से मोतियों की स्थापना के निमित्त अपने पैरों की अंगुली से धारण किए हुए सूत्र वाली हारयष्टि को निरस्कृत कर लता को तिरस्कृत कर भागी हुई हथिनी के समान भागी।
कापि नार्धयमितश्लथनीवी, प्रक्षरन्निवसनापि ललज्जे।
नायकानननिवेशितनेत्रे, जन्यलोकनिकरेऽपि समेता॥ ३९॥ अर्थ :- बराती लोक समूह में भी आगत स्वामी के मुख में जिसने नेत्र निवेशित किए हैं ऐसी कोई स्त्री अर्द्धनिबद्ध ढीली मेख... का गिरता हुआ वस्त्र होने पर भी लज्जित नहीं हुई।
तत्समिन्निशमनोच्छसितान्या, कञ्चकत्रुटिपटूकृतवक्षाः।
यौवनोत्कटकटाक्षितकुन्तैः, पाटितापि सुभटीव पुरोऽभूत्॥४०॥ अर्थ :- भगवान् की सभा (संग्राम) के निरीक्षण से तरोताजा कंचुक के टूटने से उन्मुक्त वक्षःस्थल वाली अन्य स्त्री यौवन से उत्कट तरुण पुरुषों के कटाक्ष रूप भालों से विदारित होने पर भी सुभटी के समान आगे हो गई।
तूर्णिमूढदृगपास्य रुदन्तं, पोतमोतुमधिरोप्य कटीरे।
कापि धावितवती न हि जज्ञे, हस्यमानमपि जन्यजनैः स्वम्॥४१॥ अर्थ :- बालक को रोता हुआ छोड़कर विडाल को कटीतट पर रखकर दौड़ने वाली औत्सुक्य से मूढ दृष्टि वाली किसी स्त्री ने लोगों के द्वारा अपने को हँसी का पात्र होने पर भी नहीं जाना।
कज्जलं नखशिखासु निवेश्या-लक्तमक्षणि च वीक्षणलोला। कण्ठिकां पदि पदाङ्गदमुच्चैः, कण्ठपीठलुठितं रचयन्ती॥४२॥ मजनात्परमसंयतके शी, वैपरीत्यविधृतांशुक युग्मा। काचिदागतवती ग्रहिलेव, त्रासहेतुरजनिष्ट जनानाम्॥ ४३॥
युग्मम्॥ अर्थ :- देखने में चंचल, कज्जल को नख शिखाओं में रखकर, महावर को लोचन में रखकर, कंठी को पैर में रखकर, नूपुर को ऊँचे कंठपीठ में लुठित रचती हुई, स्नान के बाद न बाँधे गए केश वाली, रेशमी वस्त्र युगल को विपरीतता से धारण की गई किसी स्त्री ने भूत लगी हुई स्त्री के समान आकर लोगों में भय का हेतु उत्पन्न कर दिया।
यौवतेन जविना वरवीक्षा-धाविना विधुरितप्रसरान्या। पत्युरिष्टमपि मन्दितचारं, स्वं निनिन्द जघनस्तनभारम्॥ ४४॥
जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
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