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अर्थ :- परिणीत प्रभु के मुखचन्द्र के निरीक्षण से पुष्ट हर्ष रूप समुद्र की कल्लोलों ने देवों के हृदय रूप तट में लगकर आकाश को भरने में समर्थ कोलाहल किया था।
यन्ननर्त मघवानघवाक्त्वं, नात्र शम्भुभरतौ बिभृतः स्मः।
तद्विवाहविधिसिद्धनिजेच्छा-भूरभूत् प्रमद एव गुरुस्तु ॥ ३३॥ अर्थ :- इन्द्र ने जो नृत्य किया इस नृत्य में शम्भु और भरत सम्बन्धी निर्दूषणा वाणी के भाव धारण नहीं किए, अपितु स्वामी के विवाह की विधि से निष्पन्न जो निज की इच्छा है, उससे उत्पन्न हर्ष ही प्रौढ़ हुआ।
नृत्यतोऽस्य करयुग्ममलासी-न्मुक्तिमेवमुपरोद्भुमिवोर्ध्वम्।
नात्र नेतरि विरक्तिवयस्यां, संप्रति प्रहिणुया वरणाय॥ ३४॥ अर्थ :- इन्द्र के नृत्य करते हुए हस्तयुगल मुक्ति को ही रोकने के लिए ऊपर उछल रहे थे कि इन स्वामी के रहने पर इस समय विरक्ति रूप सखी को मत भेजो।
अङ्गहारभरभङ्गरहार-स्त्रस्तमौक्तिकमिषामृतबिन्दून्।।
अप्सरः सरसगानसमाने, नर्तनेऽतत शचीप्रमदाब्धिः ॥ ३५ ।। अर्थ :- इन्द्राणी के द्वारा हर्ष समुद्र अप्सराओं के रस से युक्त गान के सदृश नृत्य के होने पर अङ्ग विक्षेप के समूह से त्रुटित हार से गिरे हुए मोतियों के बहाने अमृत की बिन्दुओं का विस्तार कर रहा था।
गेयसारधवलः प्रमदौघैः, क्लीबदुर्वहकरग्रहचिह्नः।
सोऽभ्यगादृ गृहमथो परदेशाद् भूमिपाल इव लब्धमहेलः॥३६॥ अर्थ :- अनन्तर स्त्रियों के समूहों से गाने योग्य सारधवल जिसका है तथा जिसका कातरों से बड़ी कठिनाई से वहन करने योग्य करग्रह का चिह्न है तथा जिसने बहुत बड़ी पृथिवी (अथवा स्तुति) प्राप्त कर ली है ऐसे राजा के समान वे भगवान् परदेश से अपने घर की ओर गए।
प्वामिनः पथि यतः पुरतो य-स्तूरपूरनिनदः प्रससार।
स स्वमन्दिरगतासु बभारा-कृष्टिमन्त्रतुलनां ललनासु॥ ३७॥ अर्थ :- श्री ऋषभदेव के मार्ग में जाते हुए तत, वितत घन सुषिरादि के पूर की ध्वनि फैली। उस ध्वनि ने अपने आवास में गई हुई स्त्रियों में आकर्षण मन्त्र की तुलना को धारण कर लिया।
पंक्तिमौक्तिकनिवेशनिमित्तं, स्वक्रमाङ्गलिकया धृतसूत्राम्।
हारयष्टिमवधूय दधावे, वीरुधं करिवधूरिव काचित्॥ ३८॥ (७४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
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