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________________ नायकस्त्रिभुवनस्य न चार्थी, दायकश्च कथमस्य दिवीशः । किंतु वाहितमुवाच विवाह - प्रान्तरं तनुभृतामयमेव ॥ २७ ॥ अर्थ : तीनों भुवनों का स्वामी याचक नहीं होता है और इन्द्र इनका दाता कैसे हो सकता है। किन्तु भगवान् ने शरीरधारियों के विवाह का मार्ग इस प्रकार कहा । वल्भनावसरपाणिगृहीती वक्त्रसङ्गमितपाणिरराजत् । जातयत्न इव जातिविरोधं, सोमतामरसयोः स निहन्तुम् ॥ २८ ॥ अर्थ :- वे भगवान् भोजन के अवसर पर दोनों पत्नियों के मुख पर हाथ रखकर इस प्रकार सुशोभित हुए मानों इन्द्र और कमल के जातिविरोध का विनाश करने के लिए उपक्रम कर रहे हों । विशेष भगवान् की दोनों पत्नियों का मुख चन्द्रमा था और प्रभु का हाथ कमल था, यह भाव है । -: भक्ष्यमादतुरिमे पतिपाणि-स्पर्शपोषितरसं मुदिते यत् । तज्जनेन युवतीजनवृत्तेः पुंस्यवस्थितिरिति प्रतिपेदे ॥ २९ ॥ अर्थ :- सुमङ्गला और सुनन्दा के मुदित होने पर पति के हाथ के स्पर्श से जिसका स्वाद पोषित है वह भक्ष्य ग्रहण किया था । इस कारण लोगों ने यह स्वीकार किया कि स्त्रीजन के निर्वाह की पुरुष में अवस्थिति जानना चाहिए । पाणिना प्रभुरथ प्रणयिन्यो- र्यत्तदा किमपि भक्ष्यमभुंक्त । प्राभवेऽपि नृषु योषिदधीनं, भोजनं तदिति को न जगाद ॥ ३० ॥ अर्थ :- अनन्तर प्रभु ने दोनों पत्नियों के हाथ से उस अवसर पर जो कुछ भी भक्ष्य खाया वह पुरुषों में प्रभुत्व होने पर भी भोजन स्त्रियों के अधीन है, इस बात को किसने नहीं कहा ? अपितु सबने कहा । वासवोऽथ वसनाञ्चलमोक्षं निर्ममे विधिवदीशवधूनाम् । , विश्वरक्षणपरस्य पुरोऽस्या - ऽचेतनेष्वपि चिरं नहि बन्धः ॥ ३१ ॥ अर्थ :- अनन्तर इन्द्र ने भगवान् की वधुओं का विधिवत् वस्त्रांचल का मोक्षण किया। विश्व की रक्षा करने में तत्पर भगवान् के आगे अचेतन वस्तुओं में भी बन्ध बहुत देर तक नहीं होता है । ऊढवद्विधुमुखेन्दुनिरीक्षा- मेदुरप्रमदवारिधिवीच्यः । नाकिनां हृदयरोधसि लग्ना-स्तेनिरे तुमुलमम्बरपूरम् ॥ ३२॥ सर्ग - ५ ] [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only (७३) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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