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अर्थ :
इन्द्र ने भगवान् के आगे जो मोती छोड़े थे, मैं पृथिवी पर उन मोतियों को उज्ज्वल कहता हूँ। दूसरे मोतियों का लवण और कीचड़ का वस्त्र होने से निश्चित रूप से धवलता गुण क्षीण ही है ।
याः पुरो मघवतास्य विमुक्ता-स्ता वदामि विशदा भुवि मुक्ताः । क्षारपङ्कवसनादितरासां क्षीण एव खलु शुक्तिमगर्वः ॥ २२ ॥
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विशेष :- चमक, भारीपन, स्निग्धता, कोमलता, निर्मलता और गोलपना ये छह मोतियों गुण कहे जाते हैं। इन गुणों से युक्त दोषमुक्त मोती विशद (उज्ज्वल) कहे जाते हैं । दीपिकाः सदसि यन्मणिजालैः, क्रोधिताः स्वमहसा परिभूय । क्रुत्फलं शलभकेषु वितेनु-स्ता अढौकयदमुष्य स भूषाः ॥ २३ ॥
अर्थ :इन्द्र ने भगवान् को (हार, अर्द्धहार, कटक, केयूर, नक्षत्रमाला आदि) आभूषण भेंट किए। सभा में दीपिका में मणि समूहों द्वारा अपने तेज से पराभव का स्थान करके जो क्रोध को (ईर्ष्या को) प्राप्त कराई गईं। उन्होंने अपने क्रोध के फल को पतिंगों पर किया । अर्थात् रत्नों का तेज अधिक होने से दीपिकायें पराभूत हुईं। इसका फल पतिंगों को भुगतना पड़ा ( दीपिकाओं की क्रोधाग्नि में पतंगे जल गए)।
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अर्थ :- इन्द्र ने उन वस्त्राभूषणों को भगवान् को भेंट किया । चिकने, सफेद, मुलायम ले के स्तम्भ के टूटने से उत्पन्न तन्तु समूह ने जिनके गुणों की उपमा के लेश मात्र को ग्रहण किया ।
अर्थ
श्लक्ष्णशुभ्रमृदुरादित रम्भा, स्तम्भभङ्ग भवतन्तुसमूहः 1 यद्गुणोपमितिलेशमृभुक्षा-स्तानि तस्य सिचयान्युपनिन्ये ॥ २४ ॥
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अर्थ :- इन्द्र ने भगवान् को रत्नमय सिंहासन दिया। भगवान् युवा होते हुए भी रत्नसिंहासन पर बैठे हुए चारों ओर फैलने वाली समुद्र की तरङ्गों के समान किरणों के समूह पर जहाज के समान आचरण कर रहे थे ।
यन्मरीचिनिकरे ननु विष्वक्-द्रीचिवीचिसदृशे जलराशेः ।
पोततिस्म सुयुवापि निविष्टो, रत्नविष्टरमदात् स तमस्मै ॥ २५ ॥
अच्छिन्न रमणीयता से युक्त छत्र, पवित्र चामर, उन्नत और विशाल शयन एवं अन्य जो वस्तु मन को इष्ट होती थी, प्रशंसा की स्थान उस वस्तु को उन भगवान् ने इन्द्र से प्राप्त किया ।
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छत्रमत्रुटितचारिम चोक्षे, चामरे शयनमुच्चविशालम् । यन्मनोऽभिमतमन्यदपीन्द्रा द्वस्तु स स्तुतिपदं तदवाप ॥ २६ ॥
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[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ५ ]
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