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तथा सफेद भी चूर्ण ने दाँतों को लाल कर दिया। रागियों में समस्त वस्तु राग को ही बढ़ाती है।
पद्मिनीसमवलम्बितहस्तो, बभ्रमभ्रमददभ्रतरार्चिः।
स प्रदक्षिणतया परितोऽग्निं, तं शुचिं विबुधवल्लभगोत्रम्॥१७॥ अर्थ :- बहुतर जिनका तेज है ऐसे उन भगवान् ने सुमङ्गला और सुनन्दा से समवलम्बित हस्त होकर पवित्र तथा देवों के लिए जिसका नाम पवित्र है एवं जो पीतवर्ण है ऐसी उस अग्नि के चारों ओर भ्रमण किया। (जिस प्रकार कमलिनियों से समवलम्बित किरणों वाला सूर्य (शुचि) देवों के प्रिय पर्वत सुमेरु की प्रदक्षिणा करता हुआ भ्रमण करता है।)
यत्तदा भ्रमिरतः परितोऽग्निं, मङ्गलाष्टकरुचिर्विभुरासीत्।
कुर्वतेऽस्य पुरतः किमजस्त्रं, मङ्गलाष्टकमतो मतिमन्तः॥१८॥ अर्थ :- स्वामी उस अवसर पर अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा देकर जो अष्टमङ्गल से सुशोभित हुए थे इसलिए विद्वान् इनके सामने क्या निरन्तर मङ्गलाष्टक करते हैं?
श्यालकप्रतिकृतिः प्रभुपादाङ्गुष्ठमिष्ट विभवेच्छुरगृह्णात्।
पूर्णमेष तमितोऽस्य निरूचे, श्रीगृहांघ्रिकमलाग्रदलत्वम् ॥१९॥ अर्थ :- साले के समान जिसकी आकार है ऐसे पुरुष ने अभीष्ट वैभव का इच्छुक होकर प्रभु के पैरों के अंगूठे को पकड़ लिया। इसने पूर्ण उस वैभव को प्राप्त कर प्रभु के पैर के अंगूठे की लक्ष्मी का गृह जो चरणकमल है उसके अग्रदलत्व के विषय में निश्चित कहा । अर्थात् स्वामी के सच्चरण कमल में लक्ष्मी निश्चित रूप से रहती है जो एकचित्त होकर उसका सेवन करता है वह लक्ष्मी को अवश्य प्राप्त करता है।
पाणिमोचनविधावथ सार्ध-द्वादशास्य पुरतोऽर्जुनकोटीः।
वासवः समकिरत् कियदेतत्, तस्य यः करवसच्छतकोटिः॥२०॥ अर्थ :- अनन्तर इन्द्र ने पाणिमोचन (हाथ छुड़ाने की) विधि में इन भगवान् के आगे बारह करोड़ सुवर्ण बिखेर दिए। इन्द्र के लिए यह बारह संख्या कितनी सी है, जिसके हाथ में शतकोटि (वज्र) है।
रोहणाद्रिबिलवासितयान्योपक्रियाव्रतमहारि पुरा यैः।
तैस्तदा गिरिभिदास्य वितीर्णैः, स्वीयसृष्टिफलमाप्यत रत्नैः॥२१॥ अर्थ :- जिन रत्नों ने पहले रोहणाद्रि की गुहा में वास करने से दूसरे का परोपकार करने का व्रत लिया था, उस अवसर पर उन रत्नों ने इन्द्र से भगवान् के दिए हुए अपने सृष्टिफल को प्राप्त किया था।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
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