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________________ अर्थ :- इन्द्राणी मृगी के समान नेत्रद्वय को धारण करने वाली दोनों वधुओं को और इन्द्र अद्भुत रूप वाले वर को उठाकर नीले और ऊँची बाँसों से युक्त सुवर्णमय कुम्भों वाली वेदिका पर लाए। कोऽपि भृधरविरोधिपुरोधा-स्तत्र नूतनमजिज्वलदग्निम्। । यः समः सकलजन्तुषु योग्यः, स प्रदक्षिणयितुं न हि नेतुः॥ १२॥ अर्थ :- किसी इन्द्र रूप पुरोहित ने उस वेदी पर नई अग्नि जलाई । जो समस्त प्राणियों में समान है वह अग्नि स्वामी को प्रदक्षिणा कराने के योग्य नहीं है। मंत्रपूतहविषः परिषेका-दुत्तरोत्तरशिखः स बभासे। सूचयन् परमहःपदमस्मै, यावदायुरधिकाधिकदीप्तिम्॥१३॥ अर्थ :- उत्कृष्ट तेज का स्थान वह (अग्नि) मन्त्र से पवित्र हवन सामग्री के सिंचन से अधिकाधिक शिखाओं वाला होकर भगवान् की जीवनपर्यन्त अधिकाधिक दीप्ति की सूचना देते हुए सुशोभित हुआ। हेनि धाम मदुमाधि कथं ते, मां विना वपुरदीप्यत हैमम्। प्रष्टमेवमनलः किमु धूमं , स्वाङ्गजं प्रभुमभिप्रजिघाय॥१४॥ अर्थ :- अग्नि ने अपने पुत्र धूम को प्रभु के सम्मुख-हे स्वामिन् ! सुवर्ण में तेज मेरे निमित्त से है, मेरे बिना तुम्हारा सुवर्णमय शरीर कैसे दीप्यमान होता है, मानों यह पूछने के लिए भेजा था। सोऽभितः प्रसृतधूमसमूहा-श्लिष्टकाञ्चनसमद्युतिदेहः। स्वां सखीमकृत सौरभलुभ्य-ढुंगसङ्गमितचम्पकमालाम्॥१५॥ अर्थ :- भगवान् ने चारों ओर फैले हुए धुयें के समूह से आलिङ्गित सुवर्णसम द्युति से युक्त होकर सुगंधि से लुब्ध हुए भौंरों से संगमित चम्पे के पुष्पों की माला को अपनी सखी बनाया। विशेष :- गौरवर्ण होने से भगवान् का शरीर चम्पे की माला से सदृश था। उस शरीर में लगा हुआ धूम भ्रमर समूह के सदृश था। इस प्रकार भगवान् के देह का चम्पे के पुषण की माला के सदृश्य (सखीत्व) जानना चाहिए। धूमराशिरसितोऽपि चिरंट्यो-र्लोहितत्वमतनोनयनानाम्। चूर्णकश्च धवलोऽपि रदानां, रागमेधयति रागिषु सर्वम्॥ १६॥ अर्थ :- काली भी धूमराशि ने दोनों वधुओं के नेत्रों में लालिमा विस्तारित कर दी (७०) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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