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में हस्तस्थित होने पर निश्चित रूप से सात्विक भगवान् का निजभाव अपने में संक्रमित होता है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
बाल्ययौवनवयो वियदन्त-वर्तिनं जगदिनं परितस्ते।
रेजतर्गतधनेऽहनि पूर्वा-पश्चिमे इव करोपगृहीते ॥ ६॥ अर्थ :- वे दोनों कन्यायें हाथ से हाथ के ग्रहण करने पर बाल्य और यौवनावस्था ०५ आकाश के मध्य जगन्नाथ के चारों ओर, किरणों के ग्रहण होने पर विरक्त दिवस में पूर्व और पश्चिम दिशा के समान सुशोभित हुईं।
पाणिपीडनरतोऽपि न पाणी-बालयोः समृदुलावपिपीडत्।
कोऽथवा जगदलक्ष्यगुणस्या-मुष्य वृत्तमवबोद्धमीष्टे ॥ ७॥ अर्थ :- उन भगवान् ने पाणिग्रहण में रत होने पर भी बाल सुमङ्गला और सुनन्दा के कोमल हाथों को पीड़ित नहीं किया अथवा कौन जगत् ने जिसके गुणों को लक्षित नहीं किया है, ऐसे इनके चरित्र को जानने में समर्थ होता है, कोई नहीं?
तत्यजुर्न समयागततारा-मेलपर्वणि वरस्य तयोश्च।
धीरतां च चलतां न दृशः स्वां, देहिनां हि सहजं दुरपोहम्॥८॥ अर्थ :- वर के और दोनों वधुओं के नेत्रों ने अपनी धीरता तथा गति को अवसर पर आगत कनीनिकामेलन के उत्सव में नहीं त्यागा। निश्चित रूप से प्राणियों के सहज बड़ी कठिनाई से त्यागने योग्य होता है। ..
स्वर्वधूविहितकौतुकगानो-पज्ञमस्य वपुषि स्तिमितत्वम्।
योगसिद्धिभवमेव मघोना-शङ्कि वेद चरितं महतां कः॥९॥ अर्थ :- इन्द्र ने भगवान् के शरीर में स्वर्गीय वधुओं के द्वारा किए गए कौतुकगान से प्रणीत निश्चलता को योगसिद्धि से समुत्पन्न ही आशंकित किया। बड़े व्यक्तियों के चरित्र को कौन जानता है? अपितु कोई नहीं जानता है।
बद्धवान् वरवधूसिचयाना-मञ्चलान् स्वयमथाशु शचीशः।
एवमस्तु भवतामपि हार्द-ग्रन्थिरशूथ इति प्रथितोक्तिः॥ १०॥ अर्थ :- अनन्तर आपके भी हृदय की गाँठ दृढ़ हो, इस प्रकार जिसने उक्ति का विस्तार किया है ऐसे इन्द्र ने वर और वधू के वस्त्रों के अञ्चल को शीघ्र बाँधा।
एणदृगद्वयमुदस्य मघोनी, वासवश्च वरमद्भुतरूपम्। वेदिकामनयतां हरिदुच्चै-वंशसंकलितकाञ्चनकुम्भाम्॥ ११॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५]
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