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________________ ५. पञ्चमः सर्गः वज्रिणा दुतमयोजि कराभ्यां, कन्ययोरथ करः करुणाब्धेः। तस्य हृत्कलयितुं सकलाङ्गालिङ्गनेऽपि किल कौतुकिनेव॥१॥ अर्थ :- अनन्तर समस्त अङ्ग के आलिङ्गन में भी भगवान् के हृदय को जानने के लिए मानो कौतुकी इन्द्र ने करुणा के सागर भगवान् के हाथ को दोनों कन्याओं के हाथों से शीघ्र मिलाया धावतामभिमुखं समवेत्तुं, तत्करस्य च वधूकरयोश्च। अङ्गुलीयकमणिघृणिजालैः, प्रष्ठपत्तितुलया मिमिले प्राक् ॥२॥ अर्थ :- स्वामी के हाँथ के और दोनों बन्धुओं के हाथों को सम्मुख मिलाने के लिए दौड़ने से पूर्व मुद्रिका की रत्नों के किरण समूह अग्रेसर पदाति के सदृश मिले। वामनामनि करे स्फुरणं यत्, कन्ययोः शुभनिमित्तमुदीये।। तत्फलं प्रभुकरग्रहमाप-दक्षिणः क्षणफलः क्व नु वामः॥ ३॥ अर्थ :- दोनों कन्याओं के बायें हाथ में स्फुरण ने जिस शुभनिमित्त का उदय किया, दायें हाथ ने उसका फल प्रभु के हस्त का ग्रहण प्राप्त किया। बायें को (अथवा प्रतिकल को) उत्सव का फल कहाँ मिल सकता है, कहीं नहीं। उत्तराधरतयादधदास्थां, तत्करे वरकरः स्फुटमूचे। . अव्यवस्थमधरोत्तरभावं, योग्यभाजि पुरुषे प्रकृतौ च॥४॥ अर्थ :- वर के हाथ ने सुमङ्गला और सुनन्दा के हाथ में अधरोत्तरभाव होने से अवस्थिति को धारण करते हुए अधरोत्तर भाव को पुरुष और प्रकृति में योग करने की व्यवस्था से रहित स्पष्ट रूप से कहा। तत्करे करशयेऽजनि जन्योः, संचरे सपदि सात्विकभावैः। सात्विको हि भगवान्निजभावं, स्वेषु संक्रमयतेऽत्र न चित्रम्॥५॥ अर्थ :- दोनों वधूओं के शरीर में शीघ्र सात्विक भावों ने जन्म लिया। स्वामी के हाथ (६८) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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