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अर्थ :- मकरन्द के बिन्दुओं के समूह रूप वृद्धि को प्राप्त स्त्रियों के आँसुओं से भरी हुई, शीतलता और मृदुता रूपसार वाली मन्दार पुष्पों की माला ने दूर से आई हुई सखी के समान सुमङ्गला और सुनन्दा के कण का अलिङ्गन किया।
न्यस्तानि वध्वोर्वदनेऽमरीभिराभाभरं भेजुरभरङ्गम्।
उद्वेगयोगेऽपि भुजङ्गवल्ले-दलानि सुस्थानगुणः स कोऽपि ॥७१॥ अर्थ :- नागवल्ली के देवाङ्गनाओं के द्वारा कन्याद्वय के मुख पर फेके गए पत्तों ने सन्ताप का योग (सुपारी का योग) होने पर भी जिसमें चूर्ण या रंग का भङ्ग नहीं हुआ है ऐसे आभासमूह का सेवन किया। वह कोई अच्छे स्थान का गुण जानना चाहिए। विशेष :- एक नागवल्ली के पत्ते, दूसरे उद्वेग का योग, ऐसी स्थिति होने पर भी जो रंग हुआ वह कन्याद्वय के मुखस्थान का गुण जानना चाहिए। - मास्म स्मरान्धं त्वरया पुरान्तः-संचारिचेतः पतदत्र यूनाम्।
इतीव काप्युत्पलकर्णपूरै-स्तत्कर्णकूपौ त्वरितं प्यधत्त॥ ७२॥ अर्थ :- किसी देवाङ्गना ने नील कमल रूप कर्णाभूषणों से उन दोनों के कर्णकूप शीघ्र आच्छादित कर दिए, मानो ऐसा मानकर इन दोनों के कर्णकूप के यौवन को प्राप्त शीघ्र ही अन्तःपुर के अन्दर विचरण करने वाला चित्त काम से अन्धा होता हुआ पतित नहीं हुआ था।
भोगीदमीयः किलकेशहस्त-स्ततान यूनां हृदि यं विमोहम्।
सोऽवर्धि चूडामणिनापि तेषा-मथो गतिः केत्यवदन्मघोनी॥७३ ।। अर्थ :- इन दोनों के कुसुम कस्तूरिकादि के सद्भाव से युक्त (पक्ष में-सर्प से युक्त) केशकलाप ने युवकों के हृदय में जिस विमोह का विस्तार किया। वह विमोह चूडामणि से भी वृद्धि को प्राप्त हुआ। युवकों की अब क्या गति होगी? इस प्रकार इन्द्राणी बोली। विशेष :- सर्ममणि का विष उतरता है, ऐसी रुढि है। उस कन्याद्वय के शिर पर केशसमूह और सर्प के ऊपर चूडामणि देखकर युवक विशेष रूप से व्यामोहित हो गए।
हस्ते शिलाकावदने च तिष्ठदनिष्ठरं तन्नयनप्रविष्टम्।
धिक्कज्जलं भस्मयति स्म यूनः, को विश्वसेत्तापकरप्रसूतेः॥७४॥ अर्थ :- हाथ में और सलाई के मुख (अग्रभाग में) ठहरता हुआ शान्त जो नेत्रों में प्रविष्ट होता हुआ युवक को भस्म करता है, उस कज्जल को धिक्कार हो, अग्नि अथवा दुर्जनादि से जिसकी उत्पत्ति है, उसका कौन विश्वास करता है? विशेष :- कज्जल पहले हाथ में धारण किया जाता है, अनन्तर सलाई के अग्रभाग पर (४८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
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