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________________ साराङ्गरागैः सुरभिं सुवर्ण-मेवैतयोः कायमहो विधाय। जढे सुवर्णस्य सुराङ्गनाभिः, सौगन्थ्यवंध्यत्वकलङ्क पङ्कः॥६५॥ अर्थ :- सुमङ्गला और सुनन्दा के सुवर्णमयी शरीर को श्रेष्ठ विलेपनों से आश्चर्य है, सुगन्धित कर देवाङ्गनाओं ने सुगन्धरहितता के कलङ्क रूपी कीचड़ को हर लिया। तयोः कपोले मकरी: स्फुटाङ्गी-र्यगन्धधूल्या लिलिखुस्त्रिदश्यः। स्मरं स्वधार्यं मकरः पुरन्ध्री-स्नेहेन धावंस्तदिहानिनाय॥६६॥ अर्थ :- देवाङ्गनाओं ने सुनन्दा और सुमङ्गला के कपोल पर जो कस्तूरी से प्रकटरूप वाली मकरी लिखी थी, वह मकर स्त्री के प्रति प्रीति से दौड़ता हुआ अपने द्वारा धारण करने के योग्य कामदेव को यहाँ ले आया। विशेष :- कामदेव मकरध्वज कहा जाता है। मकरमकरी के स्नेह से वहाँ कामदेव भी आ गया, यह भाव है। बभार मारः कुचकुम्भयुग्मं, क्रीडन् धुवं कान्तिनदे तदङ्गे। यत्पत्रवल्ल्यो मृगनाभिनीला, निरीक्षितास्तत्परितोऽनुषक्ताः॥६७॥ अर्थ :- कामदेव कान्तिनद रूप उस कन्याओं के अङ्ग में क्रीडा करता हुआ निश्चित रूप से स्तनकलशयुगल को धारण करता था; क्योंकि वह कुम्भयुगल चारों ओर से लगी हुई कस्तूरियों से नीली पत्रवल्लियों में दिखाई पड़ता था। तनूस्तदीय ददृशेऽमरीभिः, संवीतशुभ्रामलमञ्जवासा। परिस्फुटस्फाटिककोशवासा, हैमीकृपाणीव मनोभवस्य ॥ ६८॥ अर्थ :- देवाङ्गनाओं ने निर्मल स्फटिक के कोश में जिसका वास है, ऐसी कामदेव की सुवर्णमयी छुरी के समान धारण किए हैं शुभ्र, निर्मल और सुन्दर वस्त्रों को जिसने ऐसी कन्याद्वय के शरीर को देखा। द्वारेण वां चेतसि भर्तुरेष, संश्रेषमाप्स्यामि मुमुक्षितोऽपि। इतीव लाक्षारसरूपधारी, रागस्तयोरंहितलं सिषेवे॥ ६९॥ अर्थ :- मोक्ष का इच्छुक होने पर भी मैं तुम दोनों के द्वारा ऋषभदेव के चित्त में सम्बन्ध मानों ऐसा मानकर महावर के रूप को धारण करने वाले राग ने कन्याद्वय के चरणतल की सेवा की। मन्दारमालामकरन्दबिन्दु-सन्दोहरोहत्प्रमदाश्रुपूरा। दूरागता शैत्यमृदुत्वसारा, सखीव शिशेष तदीयकण्ठम् ॥७०॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३] (४७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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