________________
अर्थ :- चूँकि नासिका उच्चता के स्थान, संसार के जीवन के लिए हेतुभूत प्राण को धारण करती है अत: वे भगवान् कर्म रूपी शत्रु के विनाश के लिए दीक्षा के दिन से लेकर उस नासिका का अग्रनिरीक्षण करेंगे। विशेषार्थ :- स्वामी दीक्षा के अनन्तर नासाग्रदृष्टि रखकर कर्मशत्रुओं का हनन करेंगे। लोक में भी जो बलवान् होता है, उसी का अग्रनिरीक्षण शत्रु हनन के अवसर पर किया जाता है।
श्रेयस्करावुल्लसदंशुराशी, पार्श्वद्वयासीनजनेषु तस्य।
कलौ कपोलावकरप्रयत्न - हैमात्मदर्शत्वमशिश्रियाताम्॥ ५५॥ अर्थ :- उन भगवान् के सुन्दर कल्याणकारक तथा जिनसे किरणों के समूह निकल रहे हैं, ऐसे दोनों कपोलों ने दोनों पार्श्व में बैठे हुए लोगों के हस्तोपक्रम से रहित स्वर्णमय दर्पणत्व का आश्रय लिया।
वितेनुषी श्मश्रुवने विहारं, दोलारसाय श्रितकर्णपालिः।
म्फुरत्प्रभावारि चिरं चिखेल, तदाननाम्भोजनिवासिनी श्रीः॥५६॥ अर्थ :- उनके मुख कमल पर निवास करने वाली दाढ़ी-मूंछ रूपी वन में विहार करने वाली, झूला झूलने का आनन्द लेने के लिए कर्ण के अग्रभाग का आश्रय लेने वाली लक्ष्मी ने चमकती हुई कान्ति रूपी जल में चिरकाल तक क्रीड़ा की। विशेष :- तीर्थंकर के दाढ़ी-मूंछ नहीं होती है। उपर्युक्त कल्पना कवि की निजी कल्पना है।
पद्मानि जित्वा विहितास्य दृग्भ्यां, सदा स्वदासी ननु पद्मवासा।
किमन्यथा सावसथानि याति, तत्प्रेरिता प्रेमजुषामखेदम्॥ ५७॥ अर्थ :- इन भगवान् के दोनों नेत्रों ने कमल पर निवास करने वाली लक्ष्मी को सदा अपनी दासी बनाया अन्यथा क्या वह लक्ष्मी उनसे प्रेरित होकर स्नेह करने वालों के घर पर खेदरहित होकर जाती।
कृष्णाभ्ररेखाभ्रगतो निभाल्य, तद्भूयुगं यौवनवह्नितप्तैः । __ अकारि नृत्यं प्रमदोन्मदिष्णु-मनोमयूरैर्विलसत्कलापैः॥ ५८॥ अर्थ :- स्त्रियों के उन्मादशील (पक्ष में-हर्ष से उन्मादशील), यौवन रूपी अग्नि से सन्तप्त, जिनमें कलाओं की प्राप्ति सुशोभित हो रही है अथवा जिनमें पिच्छों का समूह सुशोभित हो रहा है ऐसे मन रूपी मयूर उन भगवान् के भौंह रूप युगल को काले मेघ की पंक्ति के भ्रम से काला देखकर नृत्य करते थे। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
(१३)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org