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येन त्रिलोकीगतगायनौघं, जिगाय धीरध्वनिरस्य कण्ठः।
क्रमेण तेनैव किमेष रेखा-त्रयं कृतं साक्षिजनैर्बभार ॥ ४९॥ अर्थ :- इन भगवान् ऋषभदेव के गम्भीरध्वनि वाले कण्ठ ने जिस क्रम से तीनों भुवनों में स्थित गायनों के समूह को जीत लिया, उसी क्रम से क्या साक्षिजनों के द्वारा की हुई तीन रेखाओं को धारण किया था? विशेषार्थ :- तीनों भुवनों में इन स्वामी सदृश किसी अन्य की धीर ध्वनि नहीं है, मानो इस कारण से ही साक्षिजनों ने इनके गले में तीन रेखायें बना दी थीं।
यजातिवैरं स्मरता तदास्यां-भोजन्मनाऽभञ्जि जगत्समक्षम्।
निशारुचिस्तत्किमपत्रपिष्णुः, सोऽयं दिवाभूद्विधुरप्रकाशः ।। ५०॥ अर्थ :- चूँकि उन भगवान् के मुख रूपी कमल से यह चन्द्रमा संसार के समक्ष जातिवैर का स्मरण करते हुए जीत लिया गया अत: वह लज्जाशील रात्रि में कान्ति युक्त चन्द्रमा दिन में निस्तेज अथवा अप्रकट हो गया।
ओष्ठद्वयं वाक्समयेऽवदात - दन्तद्युतिप्लावितमेतदीयम्।
बभूव दुग्धोदधिवीचिधौत - प्रवालवल्लिप्रतिमल्लितश्रि॥ ५१॥ अर्थ :- इनका यह वचन के अवसर पर स्वच्छ दाँतों की युति से व्याप्त ओष्ठद्वय क्षीरसागर की तरङ्गों से धोई हुई प्रवाल रूप लता की प्रतिद्वन्द्वी शोभा से युक्त हुआ।
व्यक्तं द्विपंक्तिभवनादजस्त्रं, श्रीरक्षणे यामिकतां प्रपन्नाः।
द्विजा द्विजेशस्य तदाननस्य, लक्ष्मीसमूहं प्रभुदत्तमूहुः॥ ५२॥ अर्थ :- भगवान् के मुख रूप चन्द्रमा के प्रकट रूप से दो पंक्ति होने से निरन्तर शोभा के रक्षण में आरक्षकता को प्राप्त हुए दाँत प्रभु के मुख से दी हुई शोभा के समूह को धारण कर रहे थे।
अदान्मृदुमार्दवमुक्तियुक्त्या, युक्तं तदीया जनतासु जिह्वा।
लोला स्वयं स्थैर्यगुणं तु सभ्या-नभ्यासयन्ती कुतुकाय किं न॥५३॥ अर्थ :- उन भगवान् की मृदु जिह्वा जनसमूह में वचनों के चातुर्य से सौकुमार्य प्रदान करती थी किन्तु स्वयं चंचल होती हुई सभाजनों को स्थैर्य गुण का अभ्यास कराती हुई क्या आश्चर्य के लिए नहीं हुई? अपितु अवश्य हुई।
प्राणं जगजीवनहेतुभूतं, नासा यदौनत्यपदं दधाति। कर्मारिमाराय तदग्रवीक्षा-दीक्षादिनात्तेन ततो विधाता॥ ५४॥
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
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