________________
कटीतटीमप्यतिलंघ्य धावँ - लावण्यपूरः प्रससार तस्य ।
तथा यथा नाऽनिमिषेन्द्रदृष्टि-द्रोण्योऽप्यलं पारमवाप्तुमस्य ॥ ४३ ॥
अर्थ :- भगवान् का सौन्दर्य प्रवाह कटी रूप तट का उल्लंघन कर दौड़ते हुए उस प्रकार फैला कि देवेन्द्रों की दृष्टि रूपी नावें भी इसको पार करने में समर्थ नहीं हुईं। सनाभितामञ्चति नाभिरेकः, कूपस्य तस्योदरदेशमध्ये | प्रभाम्बु नेत्राञ्जलिभिः पिपासुः, कथं वितृष्णा जनतास्तु तत्र ॥ ४४ ॥ अर्थ :- उन भगवान् के उदर स्थान के मध्य में एक नाभि के कुयें के सादृश्य को प्राप्त करने पर, नेत्र रूपी अज्जलियों से उसका प्रभा रूप जल को पीने का इच्छुक जनसमूह किस प्रकार तृष्णा से रहित हो (अपितु नहीं हो) ।
उपर्युरः प्रौढमधः कटी च, व्यूढान्तराभूत्तलिनं विलग्नम् । किं चिन्मयेऽस्मिन्ननु योजकानां, त्रिलोकसंस्थाननिदर्शनाय ॥ ४५ ॥ अर्थ :- भगवान् के ऊपर प्रौढ़ वक्षःस्थल था, नीचे कटिभाग विस्तीर्ण था, मध्य में लगा हुआ उदर कृश था। क्या ज्ञानमय इनमें यह पूछने वालों के लिए तीनों लोकों की आकृति को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने के लिए था ।
व्यूढेऽस्य वक्षस्यवसत्सदा श्री - वत्सः किमु छद्मधिया प्रवेष्टम् ।
रुद्धः परं बोधिभटेन मध्य अध्यूषुषासीद्बहिरङ्ग एव ॥ ४६ ॥ अर्थ :- कामदेव इन भगवान् के विशाल वक्षस्थल पर क्या कपटबुद्धि से प्रवेश करने के लिए सदा रहता था । केवल मध्य में निवास करने वाले सम्यक् परिज्ञान रूप सुभट से रोका जाता हुआ वह बहिरङ्ग ही था ।
यत्र त्रिलोकी निहितात्मभारा, शेते सुखं पत्रिणि पत्रिणीव । सोऽस्मन्मते तद्भुज एव शेषः, कोऽन्यो जराजिह्मगतेर्विशेषः ॥ ४७ ॥
अर्थ :- जहाँ पर तीनों लोक अपने भार को रखकर वृक्ष पर पक्षी के समान सुखपूर्वक शयन करते हैं वह भगवान् का भुजा ही हमारे मत में शेषनाग हैं। वृद्धावस्था के कारण जिसकी कुटिल गति हो गई है ऐसे शेषनाग से अन्य क्या भेद हो सकता है ?
पाणेस्तलं कल्पपुलाकि पत्रं, तस्याङ्गलीः कामदुघास्तनांश्च । चिन्तामणींस्तस्य नखानमंस्त, दानाद दानावसरेऽर्थिसार्थः ॥ ४८ ॥
अर्थ :- याचकों का समुदाय भगवान् के दान के अवसर पर उनके हस्ततल को कल्पवृक्ष का पत्ता मानता था । उनकी अङ्गुलियों को कामधेनु का स्तन मानता था और उनके नाखूनों को चिन्तामणि मानता था ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१ ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
(११)
www.jainelibrary.org