________________
प्रभुप्रतापप्रतिभनचौरे , पौरे जने ज्योतिषिकैर्न यत्र।
चौराधिकारः पठितोऽपि सम्यक्, प्रतीयते स्मानुभवेन वन्ध्यः॥१०॥ अर्थ :- जिस अयोध्या नगरी में ज्योतिषियों के द्वारा चौराधिकार भले प्रकार पठित होने पर भी ज्ञात नहीं होता था; क्योंकि नगर निवासियों ने प्रभु ऋषभदेव के प्रताप से चौरकर्म का परित्याग कर दिया था, अत: चौराधिकार अनुभव के बिना निष्फल था।
पणायितुं यत्र निरीक्ष्य रत्न-राशिं प्रकाशीकृतमापणेषु।
रत्नाकराणां मकराकरत्व-मेवावशिष्टं बुबुधे बुधेन॥ ११॥ अर्थ :- जिस अयोध्या नगरी में बाजार में रत्नराशि को प्रकाशीकृत देखकर विद्वान् लोगों ने समुद्र को मत्स्य आदि का आकार ही शेष रह गया है, इस रूप में जाना।
यच्छ्रीपथे संचरतो जनस्य, मिथो भुजेष्वङ्गदघट्टनोत्थैः।
व्यतायत व्योमगतैः स्फुलिङ्ग-नक्षत्रचित्रं न दिवापि कस्य॥ १२॥ अर्थ :- जिस अयोध्यापुरी में राजमार्ग में संचरण करते हुए लोगों की पारस्परिक भुजाओं के बाजूबन्दों की रगड़ से उत्पन्न आकाश में गई हुई चिंगारियों ने दिन में भी किस पुरुष के मन में नक्षत्र सम्बन्धी आश्चर्य का विस्तार नहीं किया? अर्थात् सब लोगों के मन में उन चिंगारियों के रूप में नक्षत्रोदय होने का आश्चर्य हुआ।
हल्लीसके श्रीजिनवृत्तगानै - र्यद्वालिकालिः किल चारणीन्।
शुश्रूषमाणानिह निश्चलय्या - लुम्पद्दिवः सप्तऋषिव्यवस्थाम्॥१३॥ अर्थ :- जिस अयोध्यापुरी की बालिकाओं की पंक्ति ने रासक नामक नृत्य के मध्य में श्री ऋषभदेव के चरित्र का गान करने से चारण ऋद्धिधारी ऋषियों को निश्चल कर निश्चित रूप से सप्त ऋषियों की मर्यादा का लोप कर दिया अर्थात् आकाश में सात से भी अधिक ऋषि हो गए।
दत्तोदकभ्रान्तिभिरिन्द्रनील-भित्तिप्रभाभिः परिपूर्यमाणाः।
आनाभिनीरा अपि केलिवापी-र्यस्यां जनो मन्दपदं जगाहे ॥१४॥ अर्थ :- जिस अयोध्यापुरी में लोग इन्द्रनीलमणि की भित्तियों की प्रभा से परिपूर्ण नाभि तक जल से भरी हुई भी क्रीडावापिकाओं में जल से लबालब भरी हुई होने की भ्रान्ति से मन्द-मन्द रूप से जैसे चरणनिक्षेप हो; उस प्रकार अवगाहन करते थे।
ययाचिषौ यत्र जने यथेच्छं, कल्पद्रुमाः कल्पितदानवीराः। निवारयन्तिस्म मरुद्विलोल-प्रवालहस्तैः प्रणयस्य दैन्यम्॥ १५॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१] For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International